________________ ( 183 ) परन्तु वह शस्त्र (दण्डादि) और वाहन द्वारा सफल 'की जासकती है / परन्तु / "आदेहस्वेद ब्यायामकालमुशन्त्याचार्या." यावत् काल पर्यन्त शरीर पर प्रस्वेद न पाजावे, तावत् काल पर्यन्त व्यायामाचार्य उसे व्यायाम नहीं कहते / सारांश यह निकला कि-जव शरीर प्रस्वेद युक्त होजाए तव ही उस क्रिया को व्यायाम क्रिया कहा जासकता है। तथा इस क्रिया के करने का मुख्य उद्देश्य क्या है ? अब इस विषय मे आचार्य कहते हैं। "श्रव्यायामशीलेषु कुतोऽमिंदीपनमुत्साही देहदाढ्यं च विना व्यायाम किये अग्नि-दीपन, उत्साह और शरीर की दृढ़ता कहां से उपलब्ध होसकती है ? अर्थात् नही होसकती। उक्त तीनों कार्य व्यायामशील पुरुषों को सहज में प्राप्त होजाते हैं / जैसेकि-जव व्यायाम द्वारा शरीर प्रस्वेद युक्त होगया तव जठराग्नि प्रचंड होजाती है, जिस से भोजन के भस्म होने में कोई विघ्न उपस्थित नहीं होता। दूसरे उस श्रात्मा का उत्साह भी औरों की अपेक्षा अत्यन्त चढ़ा हुत्रा होता है। वह अकस्मात् संकटों के श्राजाने से उत्साह-हीन नहीं होता। इस लिये व्यायामशील उत्साह युक्त माना गया है। तीसरे व्यायाम ठीक होने से शरीर का संगठन भी ठीक रहता है अर्थात् अंगोपांग की स्फुरणता और शरीर की पूर्णतया दृढ़ता ये सब चातें व्यायामशील पुरुपों को सहज में ही प्राप्त होसकती हैं। पूर्व काल में इस क्रिया का प्रचार राजों महाराजों तक था। औपपातिक सूत्र में लिखा है कि-जव श्रीश्रमण भगवान महावीर स्वामी चंपा नगरी के चाहिर पूर्णभद्र उद्यान में पधारे तब कृणिक महाराज श्रीभगवान के दर्शनार्थ जव जाने लगे तव पहिले उन्होंने "अहणसाला" व्यायामशाला में प्रवेश किया फिर नाना प्रकार की व्यायाम क्रियाओ से शरीर को श्रान्त किया। इस प्रकार व्यायामशाला का उस स्थान पर विशेषतया वर्णन किया गया है। द्वादश तपों में से वाहिर का कायक्लेश तप भी वास्तव में व्यायाम क्रिया का ही पोषक है, क्योंकि चीरासनादि की जो क्रिया की जाती है वह शरीर को आयास (परिश्रम) कराने वाली हुआ करती है / अतएव निष्कर्ष यह निकला कि-बलवीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम करने का मुख्य साधन व्यायाम क्रिया ही है। इन्द्रिय, मन और मरुत् (वायु) का सूक्ष्मावस्था में होजाना ही स्वाप है / इस का तात्पर्य यह है कि-यावत् काल पर्यन्त परिश्रम करने के पश्चात् विधिपूर्वक शयन न किया जाये तव तक इंद्रिय और मन स्वस्थ नहीं रह सकता, नाही फिर शरीर नीरोग रह