________________ ( 186 ) अथ पंचमी कलिका। चतुर्थ कलिका में गृहस्थ के सामान्यधर्मों का संक्षेप से विवरण दिया गया है। अब विशेषधर्मों का संक्षेप से वर्णन किया जाता है। पूर्व प्रकरण में सामान्यधर्मों का वर्णन करते हुए गृहस्थ की विद्या अध्ययन का वर्णन नहीं किया / क्योंकि-लौकिक विषय होने से ही विद्याध्ययन का क्रम समयानुसार वा देशानुसार सामान्य धर्म में ही गर्भित होजाता है।सो जब गृहस्थ सदाचारी और पूर्ण विद्वान् होकर विशेषधर्मों का अवलम्बन करेगा तब उसका आत्मा धर्म-पथ से कदापि स्खलित नहीं होगा। श्रतएव विद्या-अध्ययन की अत्यन्त आवश्यकता है। जिससे कि शीघ्र ही वोध प्राप्त होसकता है। __ शास्त्रकारों के मत में दो कारणों से धर्म-प्राप्ति होसकती है। जैसे कि ''दोहि ठाणेहिं आया केवलिपएणत्तं धम्म लम्भेज्जा सवणयाए सोच्चाचेव अभिसमेच्चाचेव" दो कारणों से आत्मा केवली भगवान् द्वारा भाषण किये हुए धर्म को प्राप्त कर सकता है / जैसेकि-सुनकर 1 और उस पर अनुभव द्वारा विचार कर 2 / सुनकर यदि उस पर विचार नहीं किया तव भी कार्य पूर्णतया सिद्ध नहीं होसकता, और यदि श्रवण करने का संयोग नहीं मिलता तब भी कार्य सिद्ध नहीं होसकता / अतएव जब दोनों कारण ठीक मिलेंगे तव ही धर्म-प्राप्ति होसकेगी। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि-धर्म किस से श्रवण करना चाहिए? इसके उत्तर में कहा है कि-मुनि और सद्-गृहस्थ (श्रावक ) ये दोनों ही उपदेश देने के अधिकारी हैं। "मुनि" शब्द मे अर्यायें और सद्गृहस्थ शब्द में श्राविका (सद्गृहस्थणी) गृहीत हैं अर्थात् जिस प्रकार मुनि उपदेश कर सकता है, उसी प्रकार उपासक वा उपासिका भी धर्मोपदेश करने के अधिकारी हैं / परन्तु इस बात का अवश्य ध्यान करलेना चाहिए कि जिस प्रकार मुनि अपने गुणों में स्थित होकर ही उपदेश करने का अधिकार रखता है ठीक उसी प्रकार उपासक वा उपासिकाएँ भी अपने यथार्थ गुणों में स्थित होकर ही उपदेश करने के अधिकारी हैं / कारण कि-उसी व्यक्ति का उपदेश प्रायः शीघ्र सर्वमान्य होता है, जो स्वयमेव निज उपदेश के अनुसार आचरण करता है। अतएव उपदेश-दाताओं को योग्य है किजिस बात का उपदेश करना हो उस विषय में पहिले आप तन्मय होजावे, विद्या और सदाचार से आत्मा को विभूषित करते रहें, लोक-अपवाद और संसारचक्र के परिभ्रमण से भयभीत बने रहें आत्मा को सदैव काल कल्याण