________________ ( 185), संकता है। साथ ही शास्त्रकार प्रतिपादन करते हैं कि-अति निद्रा और अति जागरणा ये दोनों ही रोगोत्पत्ति के कारण हैं, इसलिये प्रमाण से अधिक शयन करना भी हानिकारक है / यदि सर्वथा हीशयन न किया जाय तब भी रोगोत्पत्ति की संभावना होती.है / शयनकाल के समय का अतिक्रम करना प्रायः हानिकारक बतलाया गया है। , इसके अतिरिक्त परिमाण से अधिक स्नान भी न करना चाहिए। क्योंकि-गृहस्थ के लिए सर्वथा स्नान का त्याग तो हो ही नहीं सकता। उस के लिये शास्त्रकार ने यह प्रतिपादन कर दिया है कि गृहस्थ लोगों के मान-विधि का परिमाण अवश्य होना चाहिए / परिमाण से अधिक कोई भी पदार्थ प्रासेवन किया हुश्रा सुखप्रद नहीं होता। क्योंकि-स्नान का फल श्रात्मशुद्धि.वा निर्वाण-प्राप्ति नहीं माना गया है। / "श्रमस्वेदालस्यविगम स्नानस्य फलम्" परिश्रम, स्वेद. और आलस्य का दूर करना ही स्नान का फल है / अतएव विना परिमाण किये जल नहीं वर्त्तना चाहिए। यद्यपि भोजन विषय भी अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है परन्तु "बुभुक्षाकालो मोजनकाल " जब भूख लगे वही वास्तव में भोजन काल माना गया है / कारण कि-असमय किया हुआ भोजन बलप्रद नहीं होगा किन्तु रोग जनक हो जायगा। इसलिये सूत्रकारका मन्तव्य है कि वह समय उल्लंघन न करना चाहिए। यदि जठराग्नि ठीक काम कर रही होगी तव वज्र समान कठिन भोजन भी अमृत के समान परिणत हो जायगा / कहा गया है कि-"विध्यायते वह्नौ किं नामेन्धन कुर्यात्। जब अग्निशान्त (बुज्झगई) होगई तब उसमें डाला हुत्रा इन्धन क्या काम देगा? अर्थात् कुछ नही / इसी प्रकार जव जठराग्नि मंद पड़ जाय तो फिर खाया हुआ भोजन क्या कर सकता है ? अर्थात् पूरे तौर हज़म नहीं होता। ' जिस प्रकार उक्त क्रियाएँ काल की आवश्यकता रखती है उसी . प्रकार स्वछन्दवृत्ति की भी आवश्यकता है क्योंकि कहा गया है कि"स्वच्छन्दवृत्ति पुरुषाणा परम रसायनम् / स्वच्छन्दवृत्ति पुरुषों के लिये परम रसायन है / परन्तु इस कथन का यह मन्तव्य नहीं है कि-तुम स्वच्छन्दाचारी वनजानो। वास्तव में इस कथन का यह मन्तव्य है कि अपने देवगुरु और धर्म का विधिपूर्वक प्रासेवन करना चाहिए / जैसेकि-जो समय सामयिकादि क्रियाएँ करने का हो उसे कदापि उल्लंघन न करना चाहिए और स्वाध्याय काल प्रसन्नता पूर्वक स्वाध्याय करने में व्यतीत करना चाहिए / जर्व गृहस्थं,पने सामान्य धर्म में स्थित होगा तभी वह स्वकीय