________________ ( 155 ) कुलथेरा 5 गणथेरा 6 संघथेरा 7 जातिथेरा 8 सुयथेरा 8 परितायथरो 10 / ठाणागसूत्र स्थान 10 ( सू०७६१) वृत्ति-दसेत्यादि, स्थापयन्ति-दुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्गे स्थिरीकुर्वन्तीति स्थविराः तत्र ये ग्रामा नगरास्तेषु व्यवस्थाकारिणो वुद्धिमन्त श्रादेयाः प्रभविष्णवस्ते तत्र स्थविरा इति // 1-2-3 // प्रशासति शिक्षयन्ति ये ते प्रशास्तारः धर्मोपदेशकास्ते च ते स्थिरीकरणात् स्थविराश्चेति प्रशास्तृस्थविराः // 4 // ये कुलस्य गणस्य सङ्घस्य च लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकारिणः निग्राहकास्ते तथोच्यते / / 5-6-7 / / जातिस्थविराः षष्टिवर्षप्रमाणायुष्मन्तः॥८॥ श्रुतस्थविराः समवायाद्यङ्गधारिणः // 6. पर्याय-स्थविरामर्वशातिवर्षप्रमाणप्रवज्यापर्यायवन्त इति // 10 // भावार्थ-इन दोनों सूत्रों का परस्पर इस प्रकार सम्बन्ध है, जिस प्रकार रूप और रस का परस्पर सम्बन्ध होता है क्योंकि जिस स्थान पर रूप है उसी स्थान पर रस भी साथ ही प्रतीत होने लगता है, इसी प्रकार जहां पर रस होता है रूप भी वहां पर अवश्य देखा जाता है। परन्तु इस तरह कभी भी देखने में नहीं आता कि-पदार्थों में रूप तो भले प्रकार से निवास करे और रस न करे, और रस हो तो रूप न हो / जिस प्रकार इन दोनों का अविनाभाव सम्बन्ध है, ठीक उसी प्रकार बहुतसे धर्म और स्थविरों का भी परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। क्योंकि-धर्म से स्थविरों की उत्पत्ति है और स्थविर ही धर्म के नियमों को निश्चित करते हैं, अतः दोनों का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध माना / वहुतसे धर्म इसलिये कथन किए गए हैं किअस्थिकाय ("अस्तिकाय धर्म") यह स्वाभाविक धर्म पदार्थों का स्वभाव) अनादि अनंत माना गया है। किन्तु किसीभी स्थविर ने पदार्थों का धर्म नियत नहीं किया है। इसी प्रकार पाखंडधर्म" के स्थविर भी वास्तव में नहीं माने जाते है।स्थविर शब्द की व्युत्पत्ति यह नहीं दर्शाती है कि-स्थाविर ही पाखंड धर्म के प्रवर्तक होते हैं, वे तो पाखंडधर्म के विध्वंसक माने जाते हैं। लिखा भी है न तेन थेरो सो होति, येनस्स फलितं सिरो। परिपक्को वयो तस्स, मोघजिएणोति वुच्चति // 5 // यम्हि सच्चं च धम्मो च, अहिंसा संजमो दमो। स वे वन्तमलो धीरो, सो थेरो ति पवुच्चति // 6 // __ धम्मपद धम्मळवगा 16 वॉ गा-५-६ // अर्थ-जिस के मस्तक के केश श्वेत होगए हैं, वह स्थविर नहीं होता।