________________ को व्युत्सृज करना चाहिए जिससे जीवहिंसा और घृणा उत्पन्न न हो। पांचों समितियों के पश्चात् तीनों गुप्तियों का भी सम्यक्तया पालन करना चाहिए जैसेकि 1 मनोगुप्ति-मनमें सद् और असद विचार उत्पन्न ही न होने देना अर्थात् कुशल और अकुशल संकल्प इन दोनों का निरोध कर केवल उपयोग दशा में ही रहना / 2 वाग्गुप्ति-जिस प्रकार मनोगुप्ति का अर्थ किया गया है ठीक उसी प्रकार वचनगुप्ति के विषय में भी जानना चाहिए / 3 कायगुप्तिइसी प्रकार असत् काय-ब्यापारादि से निवृत्ति करनी चाहिए। सो यह सब पाठो प्रवचनमाता के अंक करणसत्य गुण के अन्तर्गत हो जाते हैं / शरीर, वस्त्र, पात्र, प्रतिलेखनादि सव क्रियाएं भी उक्त ही अंक के अन्तर्गत होती हैं / यही मुनि का सोलहवाँ करणसत्य नामक गुण है। 17 योग सत्य-संग्रहनय के वशीभूत होकर कथन किया गया है किमन वचन और काय यह तीनोंयोग सत्यरूप में परिणत होने चाहिए क्योंकिइन के सत्य वर्तने से आत्मा सत्य स्वरूप में जा लीन होता है। 18 क्षमा-क्रोध के उत्पन्न होजाने पर भी आत्मस्वरूप में ही स्थित रहना उस का नाम क्षमा गुण है क्योंकि-क्रोध के आजाने पर प्रायः आत्मा अपने स्वरूप से विचलित होजाता है इस लिए सदा क्षमा भाव रखे। 16 विरागता-संसार के दुःखों को देखकर संसार चक्र के परिभ्रमण से निवृत्त होने की चेष्टा करे। 20 मन समाहरणता-अकुशल मनको रोक कर कुशलता में स्थापन करे / यद्यपि यह गुण योग सत्य के अन्तर्गत है तदपि व्यवहार नय के मत से यह गुण पृथक् दिखलाया गया है। 21 वाग्समाहरणता-स्वाध्यायादि के विना अन्यत्र वाग्योग का निरोध करे क्योंकि यावन्मात्र धर्म से सम्बन्ध रखने वाले वाग् योग हैं वे सर्व वाग्समाहरणता के ही प्रतियोधक है परन्तु इन के विना जो व्यर्थ वचन प्रयोग करना है वह आत्मसमाधि से पृथक् करने वाला है। २२काय समाहरणता-अशुभ व्यापार से शरीर को पृथक् रखे। व्यवहारनय के वशीभूत होकर यह सव गुण पृथकरूप से दिखलाए गए है। 23 जान संपन्नता-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान इन पांचों ज्ञानों से संपन्न होना उसे ज्ञानसंपन्नता कहते हैं / चार शान तो क्षयोपशम भाव के कारण विशदी भाव से प्रकट होते है किन्तु केवलज्ञान केवल क्षय भाव के प्रयोग से ही उत्पन्न होता है / सो जिस प्रकार क्षायिक