________________ की अपेक्षा से 31 गुण उन में विशषतया होते है / श्रात्मा ज्ञानस्वरूप और अनन्त गुणों का समुदाय रूप है. परन्तु कर्म उपाधि भेद से वेगुण उसके आवरण युक्त हो रहे हैं। जैसे कि-सूर्य प्रकाशरूप होने पर भी बादलों के प्रयोग से आवरणीय हो जाता है, ठीक तद्वत् श्रात्म-प्रकाश की भी यही दशा है, जब वे आवरण दूर हो जाते है तव गुण रूप समुदाय प्रकट हो जाता है, जिस कारण से फिर उसे सिद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अनंत शक्ति-संपन्न इत्यादि शुभ नामों से कीर्तन किया जाता है / सो चे गुण निम्न प्रकार से वर्णन किये गए है। जैसे कि-बानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियां हैं वे सव सिद्ध परमात्मा के क्षय रूप हैं यथा आभिनिवोधिक ज्ञान के 28 भेद हैं सोउन पर जो कर्मपरमाणुओं का आवरण आया हुआ होता है, वह सिद्ध परमात्मा के क्षय रूप है। 1 श्रुतनान के 14 भेद हैं उनका आवरण भी क्षय है 2 / अवधि ज्ञान के 6 भेद हैं, उनका प्रावरण भी क्षय रूप है 3 / मन पर्यवज्ञान के 2 भेद है; उन के भी आवरण क्षय रूप ही हैं 4 / केवलज्ञान का केवल एक ही भेद है, उस का भी प्रावरण क्षय हो गया है 5 / जव शानावरणीय कर्म की पांचों प्रकृतियों के आवरण दूर हो गए तव उस जीव को सर्वज्ञ कहा जाता है। फिर दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियां हैं। उन के आवरणों के क्षय हो जाने से जीव सर्वदर्शी बन जाता है। जैसे कि-चक्षुदर्शन का जो आवरण है वह / भी सिद्ध परमात्मा के क्षय है 6 / चनुवर्जित श्रोनेन्द्रियादि इन्द्रियों के जो आवरण है वे भी क्षय हैं / इसलिये अचक्षुदर्शन भी उन का निर्मल है ७।अवधिदर्शन का जो आवरण है, वह भी निर्मूल हो गया है / फिर केवलदर्शन का आवरण भी सर्वथा जाता रहा है। सुख पूर्वक शयन करना इस प्रकार की निद्रा भी जाती रही है 10 / सुख पूर्वक शयन करने के पश्चात् फिर दुःख पूर्वक जाग्रत अवस्था मे आना वह दशा भी जातीरही है 11 / बैठे बैठे ही निद्रागत हो जाना इस प्रकार की भी दशा उन की नहीं है 12 / तथा जिस प्रकार प्रायः बहुत सा पशुवर्ग चलता हुआ निद्रागत हो जाता है, वह दशा भी सिद्ध परमात्मा की नहीं है 13 / वा अत्यन्त घोर निद्रा जिस के प्रवल उदय से वासुदेव का अर्द्धबल उस दशा में प्राप्त हो जावे तथा अत्यन्त भयानक दशा जीव की निद्रा की दशा में ही हो जावः वह दशा भी सिद्ध परमात्मा की नहीं है 14 / सो इस कार्य के न होने से उहें सर्वदर्शी कहा जाता है, कारण कि वह सर्वथा जाग्रतावस्था मे ही होते है जिस प्रकार सूर्य किसी भी दशा में अंधकार देने वाला नहीं माना जा सकता; ठीक तद्वत् सिद्ध परमात्मा भी सर्व काल में सर्वज्ञ और सर्वदर्शी रहता है। जब वेदनीय कर्म की दोनों प्रकृतियां क्षय हो गई तव सिद्ध परमात्मा अक्षय सुख के अनुभव करने वाले कहे जाते है / क्योंकि वेदनीय कर्म