________________ अव सूत्रकार उपसंहार करते हुए श्री भगवान् की स्तुति इस प्रकार से करते हैं। सर्वे नया अपि विरोधभतो मिथस्ते / संभूय साधु समयं भगवन् भजन्ते // भूपा इव प्रतिमटा भुवि सार्वभौम ___पादाम्बुजं प्रधनयुक्तिपराजिता द्राक् // 22 // वृत्ति-हे भगवन् ! हे श्री वर्द्धमान स्वामिन् ! मिथः परस्परविरोधभृतोऽपि विरोधो विरुद्धाऽभिप्रायस्तं विभ्रति धारयन्ति येते तथा विधा सर्व समस्ता अपि नयाः सम्भूय एकीभूय साधु समीचीनं सुन्दरं ते तव समयं सिद्धान्तं भजन्ते सेवन्ते, कं के इव भुवि प्रधनयुक्तिपराजिता भुवि पृथ्व्यां प्रधनाय युद्धाय युक्ति प्रवलपुण्यवलेनापूर्वसैन्यरचना तया पराजिताः पराजयं प्राप्ताः प्रतिभटा विपक्षजेतारो भूपा द्राक्शीघ्रं सर्वा परिपूर्णषट्खण्डभूमी भोग्या यस्य स सार्वभौमश्चक्रवर्ती तस्य पादाम्बुजं चरणकमलमिवेत्यर्थः // 22 // अर्थ-हे श्रीभगवान् वर्द्धमानस्वामिन् ! जिस प्रकार परस्पर विरोधरखने वाले राजा लोग सम्राट् चक्रवर्ती के चरण कमलों को सेवन करते हैं उसी प्रकार यह सातों नय परस्पर विरोध धारण करते हुए भी जव श्राप के पवित्र शासन को एकीभूत होकर सेवन करते हैं तव यह सातों नय शान्त भाव धारण करलेते हैं क्योंकि-आपकी वाणी 'स्यात् शब्द" परस्पर के विरोध को मिटाने वाली है अतएव जिस प्रकार विरोध छोड़ कर राजागण चक्रवर्ती के चरणकमलों की सेवा करते हैं उसी प्रकार सातों नय श्राप के शासन की सेवा करते हैं अर्थात् सातों नयों का समूहरूप आपका मुख्य सिद्धान्त है। इस्थ नयार्थकवच कुसुमर्जिनन्दुवीरोऽर्चितः सविनयं विनयाभिधेन / श्रीद्वीपवन्दरवरे विजयादिदेवसूरी शितुर्विजयसिंहगुरोश्चतुष्टथै // 22 // नयकर्णिका समाता // वृत्तिः-इत्थ पूर्वोक्तप्रकारण नयानामर्थो नयार्थाः सोऽस्ति येषां तानि नयार्थकानि, नयार्थकानि च तानि वचांसि चेति तान्येव कुसुमानि पुप्पवृन्दं तैर्नयार्थकवच कुसुमैः, जिनश्चासौ इन्दुश्च जिनेन्दुर्जिनचन्द्रो वीरो वर्द्धमानस्वामी विनयेन सहितो यथास्यात् तथा सविनय भूत्वा विनयाभिधेन विनयविजयेतिनामकेन मयाऽर्चित. पूजित कुत्र कस्मै / श्रियायुक्त दीपाख्यबन्दरवरे जलधितटवर्ति नगर श्रेष्ठ यस्य नानि विजयपदमादौ वर्तते स तथा विजयदेव सूरिस्तस्य सूरीशितु शिप्यो विजयसिंहो यो मद्गुरुस्तस्य तुष्टयै सन्तु