________________ उच्चारण का समय आजावे तव उदात्त 1 अनुदात्त 2 और स्वरित 3 इन तीन घोपों से युक्त और परम विशुद्ध श्रुत को उच्चारण करे अपितु यावन्मात्र श्रुत उच्चारण के दोष हैं उनको सर्वथा छोड़कर केवल विशुद्ध घोष से ही श्रुत उच्चारण करे / श्रुत संपत् के पश्चात् अव सूत्रकारतृतीय शरीर संपत् विषय कहते हैं। सेकित सरीर संपया ? सरीर संपया चउचिहा पणणचा तजहा। आरोह परिएणाय संपण्णेयावि भवइ 1 अणोत्तए सरीरो 2 थिर संघयणे 3 बहु पडिपुन्निदिएयावि भवइ 4 सेतं सरीर संपया / __अर्थ-शिप्यने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! शरीर संपत् किसे कहते हैं ? गुरुने उत्तर में कहा कि-हे शिप्य ! शरीर संपत् चार प्रकार से प्रतिपादन की गई है जैसेकि शरीर दीर्घ और विस्तार युक्त हो 1 निर्मल और सुंदराकार शरीर हो 2 शरीर का संगठन वलयुक्त हो 3 सर्व प्रकार से पंचेंद्रिय वलयुक्त वा प्रतिपूर्ण हों 4 यही शरीर संपत् है। सारांश-द्वितीय संपत् के पश्चात् शिष्य ने तृतीय संपत् के विषयमें प्रश्न किया कि-हे भगवन् !शरीर संपत् किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में गुरु ने प्रतिपादन किया कि हे शिष्य ! शरीर का सुंदराकार होना यही शरीर की संपत् है किन्तु वह संपत् चार प्रकार से वर्णन की गई है जैसे कि-शरीर दीर्घ और विस्तीर्ण होना चाहिए जो वर्तमान समय में सौंदर्य धारण करसके। साथ ही सभा में बैठा हुआ शरीर कांति को धारण करने वाला हो अपितु लज्जा युक्त भी न हो अर्थात् शरीर सुदराकार हो / इतना ही नहीं किन्तु शरीर का संहनन स्थिर होना चाहिए क्योंकि जिसके शरीर की अस्थिएं दृढ़ होंगी उस के शरीर का संहनन भी वलयुक्तही होता है / साथही पंचेंद्रिय प्रतिपूर्ण होवें। किसी इंद्रियमें भी किसी प्रकार की क्षति न हो जैसे कि चतुओं में निर्वलता, श्रुतेंद्रिय में निर्बलता वा शरीर रोगों के कारण विकृत होगया हो इत्यादि कारण शरीर संपत् के विघातक हो जाते हैं अतएव पांचों इंद्रिय प्रतिपूर्ण और वलयुक्त होनी चाहिए क्योंकि शरीरसंपत् का प्रतिवादी पर परम प्रभाव पड़ जाता है तथा धर्म कथादि के समय शरीरसंपत् के द्वारा धर्म का महत्व चढ़ जाता है // 4 // - शरीर संपत् के पश्चात् अव सूत्रकार चतुर्थ वचनसंपत् के विषय में कहते हैं: