________________ ( 38 ) जाता है। जिस प्रकार विषयी आत्माविषय-पूर्ति करने की चेष्टा में लगा रहता है; ठीक उसी प्रकार वीतराग प्रभु को "ध्येय" में रखने वाला श्रात्मा भी वीतराग पद की प्राप्ति के लिये तप और संयम तथा धारणा ध्यान और समाधि में चित्तवृत्ति लगाने कीचेष्टा करता रहता है। उसके आत्मप्रदेशों से फिरकर्म वर्गणाएं स्वयमेव ही पृथक् होने लग जाती हैं। जिस प्रकार पुरातन भित्ति पर से रक्षा न करने पर मृत्तिका के दल अपने आप गिरने लगते हैं, उसी प्रकार आत्म प्रदेशों से समता भाव धारण करने से कर्म वर्गणाएं भी दूर होने लगती हैं। तथा जिस प्रकार पुष्प वा जल का ध्येय करने से आत्मा में एक प्रकार की ठंडक सी उत्पन्न हो जाती है ठीक उसी प्रकार श्रीजिनेन्द्रदेव का ध्यान करने से यात्म-प्रदेशों पर से क्रोधमान माया और लोभ के परमाणु हट कर केवल समता के भाव ही प्रादुर्भूत हो जाते हैं, फिर जो उस ध्येय के माहात्म्य से आत्म विकाश होता है. व्यवहार पक्ष में उस ध्येय का ही उपकार माना जाता है / जिस प्रकार विद्यार्थी, पुस्तक और अध्यापक पहिले तीन होते हैं परंतु जव विद्यार्थी उस अध्यापक से उस पुस्तक को पढ़ लेता है। तो स्वयं ही अध्यापक बन जाता है, किन्तु अध्यापक बन जाने पर भी चह अपनी पूर्व वालदशा के अवलोकन करने पर उस अध्यापक का हार्दिक भावों से उपकार मानता है, ठीक उसी प्रकार आत्मविकाश होजाने पर भी श्रात्मा आत्मविकाश करने में समर्थ हुआ।अतएव श्रात्मविकाश करने के लिये श्री बीतराग परमात्मा का ध्येय अवश्यमेव करना चाहिए। यदि पेसे कहाजाय किश्रात्मा ज्ञान स्वरूप होने से स्वतः ही प्रकाशमान है. इसको किसी व्यक्ति के या किसी पदार्थ के ध्येय करने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार से किया जाता है कि यह बात ठीक है,आत्मा स्वयं प्रकाशमान है परन्तु आत्म-प्रदेशों पर जो कर्मवर्गणाएं स्थित हो रही है, और उन्हीं के कारण से ज्ञानाच्छादन हो रहा है / जव उन कर्म वर्गणाओं के दूर करने की चेष्टाएं की जाती हैं तव व्यवहार पक्ष में उन कर्म वर्गणाओं के दूर करने में जो मुख्य ध्येय होता है। उसी का उपकार माना जाता है। अतएव श्रीजिनेन्द्र भगवान् संसार में परोपकार करने वाले स्वतःही सिद्ध होगए / इसी कारण से गुण निष्पन्न होने के कारण उनके अनेक नाम सुप्रसिद्ध हो रहे हैं। जैसे कि- अर्हन् जिन पारगतस्त्रिकालवित् क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः शंभु स्वयंभूर्मगवान् जगत्प्रभुः तीर्थकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः // 1 // स्याद्वाद्यभयदसाः सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनी देवाधिदेववाधिदपुरुषोत्तमवीतरागाप्ताः // 2 //