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जैनशिलालेख-संग्रह
[१६५सेरे विडिदोडे भुजबलदि बन्दिविडिदु बिडिसिदनेन्दी त्रिजगं
बण्णिसुगुं सद्विजकुलनं शौर्य४२ शालियं दूडमन ॥ २९ इन्तेनिसिद दूडन वरकान्ते मनोभवन
कान्तेगं रूपिनोलत्यन्तं मिगिलेने पोगललकेन्तुं नेरेयरियर्
एचिकब्बेय रूप ॥ ३० अन्तचर पुट्टिदल सुरका५३ न्तोपमे विचलद लिकुलालके विलसन्मान्तनसमेते बुधजनचिन्ता
मणि हम्मिकब्बे ललनारत्न ॥ ३१ आ नेगल्द हम्मिकब्बेगनून
प्रियवलमं मनोमवरूपं दानदेडे४४ गन्दिना कानीनन नोल नेगल्दनरसिमय्यं जगदोल ॥ ३२
अनुपमदानशीलगुणभूषणभूषितेयाद हम्मिकावनितेगमत्युदार
हरसय्यमहाविभुगं विनी४५ तनोलपिन कणि वैद्यशास्त्रकुशलं सुजनाग्रणि वैद्यकमपं तनय
नेनल्के नोन्तनेन कन्नन वोल कृतपुण्यनावनो ॥ ३३ जिनपद
पंकजभ्रमरनिन्दपनुदगुणाब्धियीश्वरं वि. ४६ नयविलासि राजि सुजनं कलिदेवनगण्यपुण्यवर्धनकरनादिनाथ
नधिकं शुचि शान्ति नेगतेवेत पार्श्वनुमिवरात्मजातरेने कश्मन
वोल् कृतपुण्यनावनो ॥ ३४ [यह लेख चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य (षष्ठ) त्रिभुवनमल्लके छठवें वर्षमें अर्थात् सन् १०८१ में लिखा गया था। उस समय बेलवोल, पुलिगेरे, बनवासि, सान्तलिगे, तथा कण्डूर प्रदेशोंपर सम्राट्के पुत्र जयसिंह शासन कर रहे थे। इन्हे त्रैलोक्यमल्ल, वीरनोलम्ब, पल्लवपेर्मानडि ये उपाधियाँ दी हैं। इनके अधीन महासामन्त एरेमय्य पुलिगेरे प्रदेशका अधिकारी था। इसे एरेग या एरेकप भी कहा है। इसका बन्धु दोण था जिसकी लेखमें बहुत प्रशंसा की है। इसने मूलसंघ-सेनगणके नरेन्द्रसेनके प्रशिष्य