Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 16
________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग १ र) और हैम शब्दानुशासनके लघुन्यास अनाने ठके ढंग का है, वर्तमानटिसे यह कुछ अपूर्णसा . वाले कनकप्रभ भी जैनेन्द्र व्याकरणके कतीका जान पड़ता है और इसी लिए महावृत्तिमे वहुतसे नाम देवनन्दि ही बतलाने हैं । अतः हम समझते हैं वार्तिक तथा उपसंख्यान आदि बना कर उसकी कि अब इस विषय में किसी प्रकारका कोई सन्देह पूर्णता की गई दिखलाई देती है, जबकि दूसरा याकी नहीं रह जाता है कि यह व्याकरण देवनन्दि पाठ प्रायः पूर्णला जान पड़ता है और इसी कारण या पूज्यपादका बनाया हुआ है। उसकी टीकाओंमें वार्तिक आदि नहीं दिखलाई प्रथम जैन व्याकरण । देते। दोनों पाठों में बहुतसी संज्ञायें भी भिन्न प्रकार की हैं। जहाँ तक हम जानते हैं, जैनोंका सबसे पहला संस्थत व्याकरण यही है। अभी तक इसके पहलेका ___ इन भिन्नताआके होते हुए भी दोनों पाठोंमें कोई भी व्याकरण प्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है। समा | समानता भी कम नहीं है । दोनोंके अधिकांश सूत्र शाकटायन, सिद्धहेमशब्दानुशासन आदि सब स - समान हैं, दोनोंके प्रारंभका मंगलाचरण विलकुल व्याकरण इससे पीछेके बने हुए हैं । इस ग्रन्धकी एक ही है और दोनोंके कर्ताओंका नाम भी देवनसबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके सूत्र बहुत न्दि या पूज्यपाद लिखा हुआ मिलता है। ही संक्षिप्त हैं । 'अर्धमात्रालाघवं पुत्रोत्सवं मन्यन्ते असली सूत्रपाठ। वैच्याकरण इस प्रवादकी सचाई इसके सूत्रोपर अब प्रश्न यह है कि इन दोनों से स्वयं देवनबडालनेसे वहत अच्छी तरह स्पष्ट होती है। न्दि था पूज्यपादका बनाया हुआ असली सूत्रपाठ. संज्ञाकत लाघवको भी इसम स्वीकार किया है। कौनसा है। सप्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो० के० बी० जवकिपाणिनीयमें संज्ञाकृत लाघव ग्रहण नहीं कि- पाठकका कथन है कि दूसरा पाठ जिसपर सोम. या है। इसकी प्रशंसामे जैनेन्द्रप्रक्रियामें लिखा है:-- देवकी शार्णवचन्द्रिका लिखी गई है-वास्तविक नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रम् । पाठ है । हमारे दिगम्बर सम्प्रदायके विद्वानोंमें यदेवात्र तदन्यत्र यन्नानास्ति न तत् क्वचित् ।। श्रीयुक्त पं० पन्नालालजी वाकलीवाल और उनके संस्करण भेद। अनुयायी पं० श्रीलालजी व्याकरणशास्त्री भी इसी . जैनेंद्र व्याकरणका मूल सूत्रपाठ दो प्रकारका मतको माननेवाले हैं। इसके विरुद्ध न्यायतीर्थ उपलब्ध है-एक तो वह जिसपर आचार्य अभय. और न्याशास्त्री पं० वंशीधरजी दूसरे पाठको वानन्दिकी 'महावृत्ति' तथा श्रुतकीर्तिकृत 'पंचवस्त' स्तविकं मानते हैं, जिसपर कि अभयनन्दिकी हात्त नाम की प्रक्रिया है और दूसरा वह जिसपर सोम- लिखी गई है । यद्यपि इन दोनोंही पक्षके विद्वानोंदेव सूरिकृत 'शब्दार्णवचन्द्रिका' और गणनन्द- की ओरसे अभीतक कोई ऐसे पुष्ट प्रमाण उपस्थित कृत 'जैनेन्द्रप्राक्रिया' है। पहले प्रकारके पाठमै न या है। पहले ur l नहीं किये गये हैं जिनसे इस प्रश्नका असर लगभग ३००० और दूसरेमें लगभग ३७०० सत्र निर्णय हो जाय; परन्तु हमको पं. बंशीधरजीका है, अर्थात एकसे दूसरे में कोई ७०० सत्र अधिक मत ठीक मालूम होता है और पाठक यह जानकर हैं ! और जो ३०५० सूत्र हैं वे भी दोनों में एकसे प्रसन्न होंगे कि हमें इस मतको करीब करीब निनहीं हैं। अर्थात् दसरे सूत्रपाठमें पहले सत्रपाटन नीन्त मान लेनेके अनेक पुष्ट प्रमाण मिल गये हैं। सेकडो सूत्र परिवर्तित और परिवर्धित भी किये इन प्रमाणीक आधारसे हम इस सिद्धान्तपर गये हैं। पहले प्रकारका सूत्रपाट पाणिनीय सूत्रपा- पहुच है। " पहुंचे हैं कि आचार्य देवनन्दि या पूज्यपादका ब. " नाया हुआ सूत्रपाठ वही है जिसपर अभयनान्दिने १ यह जैनेन्द्रप्रक्रिया गुणनन्दिरुत है या नहीं, इसमें अपनी महावृत्ति लिखी है। यह सूत्रपाठ उस समहमें बहुत कुछ सन्देह है। आगे चलकर इस विषयका यंतक तो ठीक समझा जाता रहा जब तक पाल्यखुलासा किया गया है। कीर्तिका शाकटायन व्याकरण नहीं बना था। शाय

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