Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 65
________________ 818+ अंक २] शांकसमाचार होगया, जिससे उनके अधिकारयुक्त अभिप्रायसे लिखा, जो आज भारत के प्रत्येक धर्मजिज्ञासु थापका यह ग्रन्थ वञ्चित रहा । परंतु, दूसर विद्वा- जनके चरम विराजमान हो रहा है तथा प्रत्येक नाने यापकी इस कृतिका भी खूब सत्कार किया। विद्वान् और विद्या के लिये एक अत्यावश्यक बोस्टन विश्वविद्यालयके अध्यक्ष डॉ. वारिनने इस पाठ्य ग्रंथ बन रहा है । इस प्रन्यमै आपने अपने पुस्तकके विषयमें कहा था कि " इन्डो इरानी वि. जीवनके समग्र विचार स्रोतोंको एकत्र कर शास्त्र द्वानोंने जितनी पुस्तके इस विषयपर आजतक रूप महासरोवरके रूपमें बद्ध कर दिया है। पूर्वीय लिखी हैं उन सबमें यह पुस्तक अधिक निश्चया- और पाश्चात्य तत्त्वज्ञानकी सभी मुख्य मुख्य विचारत्मक है। जो कोई स्वर्गीय मि. नील की 'देव रात्रि श्रेणियाँका गंभीर मन्थन कर आपने इस अमूल्य ( The night of Gods ) का और इस पुस्तक- ग्रन्थरत्नको प्रकट किया है। आपके नामको अजराका पारायण कर लेगा वह संभवतः फिर कसी मर बनानेवाला केवल यही एक ग्रन्थरत्न पयह न पूंछेगा कि आयोंका आदिम निवासस्थान र्याप्त है। कहां है।" __ आपको जब सत् १९०८ में तीसरी बार जेलया. आपके देह विलयसे संसारका एक श्रेष्ट और त्राका हुक्म हुआ तब मंडालेके एकान्तवासमें बैठ प्रखर ज्योतिःपूर्ण ज्ञानस्वरूप महानक्षत्र अस्त कर आपने वह गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र हो गया।

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