Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. संरक्षक श्रीयुत हरगोविंददास रामजी शाहः-मुंबई SRRI ... ... ....... || अईस ॥ .... ॥ णमो स्थु णं समणरेन भगवओ महावीर । . . ameraDARA साहित्य संशोधक जैन इतिहास, साहित्य, तत्वज्ञान आदि विषयक विविध नियन्ध-संग्रह । rommendor : - संपादक 2 मुनिराज श्रीजिनविजयजी । - ROM: - __ प्रकाशक:- जैन साहित्य संशोधक समाज ।। ठि. भारत जैन विद्यालय, फर्गुसन कालेज रोड; पूना सिटी । :. :. : .: : . वार्षिक मूल्य ५ रु० प्रतिक मूल्य | - - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ' ' .. . . जैन साहित्य संशोधक समाजकी तरफस शीत्र ((हिन्दी लेख विभाग): ही एक जैन प्रागत संस्कृत नन्धमाला निकलेनजैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी बाली है जिसमें जन साहित्य के उत्तमोत्तम, प्राची लेखक-श्रीयंत पं. नाथूरामजी प्रेमी, संगा-न न और अन्य बुदा अन्य प्रकट किया जायेगे ... -जनहितेपो ............ .. इन अन्याम जग आगम नत्र, नियुनि, जणि भार । वृत्ति न्याय व्याकरण, काव्या कोप, साहित्य : २ गत्वरित महामायको खोज-ले श्रीयन लंकार, चरित्र, पुराण, प्रबन्ध इत्यादि सबै प्रकार.-. बाद जुगल किशोरजी मुख्तार ....८८-६५ के ग्रंथ रहने ये सब वान पनि जान और तीर्थयात्रा के लिये निकलनेवाले संघाका वर्णन', अजैन विद्वानों के द्वारा संपादित होकर करें। सम्पादकीय.................२६-१०७. जैन साहित्यके देखने को मिचोका दिन सलमेर के पटवाक संघका वर्णन पर दिन बढ़ती जा रही है तुमक ना अभी तक (सम्पादकीय:': ...........०७-१२ उत्तम प्रकारसे जैन ग्रन्थ पे ही नही है और जो : शोकसमाचार. ...... ... ... .: जेल से छरे हैं उनकी प्राप्ति भी संय साधारण (डॉ० सतीशचन्द्र विद्यामपण : लिये दुःसाध्य हो नहीं परत असाध्य हो रही है। २. इस लिय अनेक विद्वानोक भाग्नहसे इस संस्थान ..(६) लो बाल गंगाधर तिलक...... ११५. ६विन परिचय..... ............. ११८ जो लजन इस ग्रन्थमालेके स्थायी ग्राहक यन ना चाहेंगे उन्हें सब अन्य पानी नितंस याने म.. । गुजराती लेख विभाग) ल्यमें दिये जायगे । स्थायी ग्राहक बनने के लिये .. सोमनाचा विरचित मारपाल प्रतिबोधः पया प्रथम प्रवेश झांके लिये भेजना चाहिए । ग्रंथ ज्यो क्यों छपते जायगे त्या लो बी. पी. करके डॉ हर्मन जैशाचीनी जैनोनी प्रस्तावना भेज जायेंगे । ' अनुवादक-शाह अन्यालाल चतुरभाई... कागज, साईत. छपाई. सफरर इत्यादि । 'ची. ए. (जैन सा.से. कार्यालय तरको काम उत्तम प्रकारका होगा। विशेष हाल जानने के साइय-लमालोजन ............ लिये जागी बारा पूटिंग - .:: धनपालात भविष्यदत्तकथा . ... ... पत्रव्यवहार करने का पता १२) रीश्वर धने सन्नाह ...९८ . (३) तत्वार्थ विशिष्ट भापान्तर व्यवस्थाप १० मुंबई युनिवलिटीमा एम् ए लालनों जैन साहित्य संयोधक कार्यालय अंधमागधी कोन............ .... पंजाब युनिवर्सिटीना जनसाहित्य : . भारत जैन विद्यालय यूना-लीटी. .. ... वृह टिप्पनिका नाम प्राचीन जैनप्रन्धुसूची। Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसार-प्रदर्शन, - आ निबन्धसंग्रहान्मक पहना प्रथम अंच गया ज्येष्ठ मासमां प्रकट थयो हनी ४ महिना पछी आज आ चीजो अंक वाचकोना हाथमा समर्पवामां आवे छ. आप्रयान फन या संस्थाना स्थापक अन पनना संपादक मुनिश्रीना एक मात्र साहित्यप्रेय सनत अध्यवसायता फळ वन्य ज्ञछ. जैन समाजमां आवा प्रकारना उश्य कोटिना साहित्य लमजनार के नेमां रस लेनार गगया गांच्या पुनयोज हावाधी, आ कार्यमा समाज नरफयी सहजे णु माटुं उत्तेजन मळी जशे पी आशा थी तो, आ (कार्यना) प्रारंभ करवामां बान्यां जन हती. परंतु, जे ये चार नही सज्जनोए, आ कार्यमाटे प्रारंभिक मदन पापवानुं विश्वस्त वचन पृज्य मुनिराज श्रीजिनविजयीन भायूं तुं नमनाज विश्वास उपरभाधार राव ने पानी शरूयान करवामां आवी हती. परंतु प्रथम अंकना मुद्रणकाल दरम्यान ज ते स्नेही सज्जनो तरफपी सविशेष उदासीन वृत्तिना अनुभव भयो अन तेथी मुनिश्रीप आदिम नेत अनिम पवा रूपमांगत अंकन प्रकट करावानी व्यवस्था करी. पण, जैन साहित्यना सद्भाग्ये, नेज अरनामां, मुंबई निवासी उदारचिन साहित्यप्रिय श्रीयुत भाई श्रीहरगोविंददास रामजीए, अमुक वर्या पर्यंत, निरपेक्षमाद आ कार्यमा लोल्लासपूर्ण आर्थिक सहायता आपत्रानी असाधारण इच्छा प्रकट करी, आ कार्यन व्यवथिन म चालू राग्नबाट माटे उन मुनिश्रीन सादर आग्रह को, प, माईश्रीनी आवी अचिन्य सहायता-निरपेक्ष उदारताना योग्ये जाजे भा यांजी अंक अमे वाचकाने अर्पण करीए डीग अन भविष्यमा पण हवं यथासमय करता रहा. श्रीयुत भाई श्रीहरगोविंददासजी पोतानी आत्री मोटी प्रशंसनीय उदारताना कारणे या समाज अने पत्रना एक मांटा "संरक्षक" बन्या छ, पटलुज नहीं, परंतु तेमनी आ उदारताप जैन साहित्यना अभ्यासी अने रसिक जना उपर अनुपम उपकार क्रया छ. अमे अमारी आ संस्था तरफी तेमज जैन साहित्य संशोधकना मकल सुन बायको नरफी भाई श्री हरगोविंददास रामलीन प यायनमाटे अंनाकारण पूर्वक अनेकानेक धन्यवाद आपीए डीप अने तेमना हाथे यावां अनेकानेक मुकन्यो याओ पन सदा इच्छीए छीप. नथास्तु. बळी, जे जे सद्गृहस्थाए या संस्थाना पेटत्त, वाईस पेटन. सहायक के लाईफ मेंबर विगर थई प्रस्तुत कार्यमा उदार आर्थिक सहायता पापी छ अथवा आप्या कर के, तेमने पण हार्दिक धन्यवाद भापवामां आवे छ भने आ नीचे नेमनां शुभ नामो आदरपूर्वक प्रकट करवामां थावे . पंदन. श्रीयुन हीरालाल अमृतलाल नाह. बी. ए. मुंबई. वाईस पेटन. श्रीयुत केशवलाल प्रेमचंद मंदी. वी. ए. एल्. एल. बी. वकील-अमदाबाद. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3DD-E सहायक. श्रीयुत मनसुखलाल रवजीभाई मेहता. मुंबई. शेठ कांतिलाल गगलमाई हाथीभाई, पूना. शेत शवलाल मणीलाल शाह, पूना. शेठ बाबूलाल नालचंद शगवानदास झवेरी, पूना. लाईफवर. श्रीयुत बाबू राजकुमार सिंहजी बद्रीदासजी. कलकत्ता. श्रीयुत बाबू पूरण चंदजी नाहार. एम्. ए. एल एल बी. कलकत्ता, शेट लालभाई कल्याणभाई झवेरी, वडोदरा (मुंबई). शेठ नरोत्तमदास भाणजी, मुंबई.. शेठ दामोदरदास, त्रिभुवनदास भाणजी, मथई. . शेठ त्रिभुवनदास माणजी जैन कन्याशाला, भावनगर. शेट केशवजीभाई माणेकचंद, मुंबई. शेट देवकरणभाई मूलजीभाई, मुंबई. शेठ गुलायचंद देवचंद, मुंबई. श्रीयुत मोतीचंद गिरधरलाल कापडिया बी. ए. एल एल. बी. सोलीसीटर, मुंबई.. श्रीयुत केशरी चंदजी भंडारी, इंदौर.. शाह अमृतलाल एण्ड भगवानदास कुं. मुंबई. शाह चंदुलाल वीरचंद कृष्णाजी, पूना. शाह धनजीभाई बखतचंद साणेदवाळा, हाल पूना. शाह बालुभाई शामचंद, तळेगाम (ढमढेरे ). शाह चुनिलाल झवरचंद, मुंबई.. शाह भोगीलाल चुनिलाल, सोलापूरबजार, पूना कैप. ॥ - तथा दानवीर उदारात्मा शेट परमानंददास रतनजी (निवासस्थान घाटकोपर, मुंबई.) तरफथी मुनिराज श्रीजिनविजयजी म. नी साहित्यसेवास्वरूप सत्प्रवृत्तिमा प्रारंभ. थीज जे उदार सहायता मळ्या करे छे, ते माटे, तेओ शेठनीनु पण आ स्थळे अन्तःकरणपू. र्वक अभिनन्दन करवामां आवे छे. . आशा छे के आवाज रीते बीजा पण सद्गृहस्थो यथाशक्ति पोतानी उदारता अतावी जैन धर्मना आ गौरव प्रकाशक पुण्य कार्यमा सहायक थशे. एज विनंती. . निवेदकजैन सा. सं. समाजना कार्यवाहको. व्यवस्थापक निवेदन:--प्रेस विगेरेनी हाडमारीओने लीधे वाचकोने जो नियमित समय उपर जैन साहित्य संशोधक न गळे तो ते विषयमा धैर्य रखवानी जरूर छे. आजकाल छपामणीनुं काम केटलुं बधुं त्रासदायक थई पडद्यु छ, ते, जेने एवाचतनो थोडो घणो अनुभव थयो होय तेज समजी शके तेम छे. नियत समय उपर प्रकट करवानी वनती कोशीस अमारा तरफथी करवामां आवे छेज. किंबहुना? Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक"पा, पार्श्वनाथ जैन मंदिर, फरहेना, मेवास। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ।। नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय । जैन सा हि त्य संशोधक 'पुरिसा! सचमेव समाभिजाणाहि । सञ्चस्साणाए उवहिए मेहावी मारं तरह ।' __ 'जे पगं जाणइ से सब्बं जाणइ जे सव्वं जाणह से एग जाणई।' 'दिलु, सुयं, मयं, विण्णायं जं पत्थ परिकहिजइ ।' -निर्ग्रन्धप्रवचन-आचारांगसूत्र । भाग १] हिन्दी लेख विभाग [अंक २ जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी। .. morrotohd [ लेखक-श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी, सम्पादक जैनहितैषी।] जैनेन्द्र । थी और इसके सुबूतमें उन्होंने कल्पसूत्रकी समय सुन्दरकृत टीका, और लक्ष्मीवल्लभकृत उपदेशमा. इन्द्रश्चन्द्रः काशरुत्स्नापिशलीशाकटायनाः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ।। लाकरणिकाका यह उल्लेख पेश किया था कि जिनदेव महावीर जिस समय ८ वर्ष के थे उस . -धातुपाठ। ... समय इन्द्रने उनसे शब्दलक्षणसंबंधी कुछ प्रश्न मुग्धबोधकर्ता पं० बोपदेवने उक्त श्लोकम किये और उनके उत्तररूप यह व्याकरण बतलाया जिन आठ वैयाकरणों के नामों का उल्लेख किया है. गया, इसलिये इसका नाम जैनेन्द्र पड़ा।उनमें एक 'जैनेन्द्र' भी हैं। ये जैनेन्द्र अथवा जनंद्र । यदिन्द्राय जिनेन्द्रेण कौमारोप निरूपितम् । व्याकरणके कर्त्ता कौन थे इस विषयमें इतिहासज्ञोंमें ऐन्द्र जैनेन्द्रमिति तत्माहुः सब्दानुशासनम् ।। कुछ समय तक बड़ा विवाद चला था । डॉ० किल श्वेताम्बरसम्प्रदायके और भी कई ग्रन्थों में इस हार्नने इसे जिनदेव अथवा भगवान् महावीरद्वारा इन्द्र के लिए कहा गया सिद्ध करनेका प्रयत्न किया इंडियन एण्टिक्वेरी जिल्द १०, पृ. २५ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ......... anaan nwrv an. antar.rrrrrrrrrrr. जैन साहित्य संशोधक [ भाग १ प्रकारके उल्लेख मिलते हैं। कल्पसूत्रकी विनयविजय 'ऐन्द्र' नामसे प्रकट किया । अर्थात् इन्द्रके लिये कृत सुवाधिकाटीकाम लिखा है।- जो व्याकरण कहा गया, उसका नाम 'ऐन्द्र हुआ। ___"[शकः ] यत्र भगवान् तिष्ठति तत्र पण्डितगेह समा- प्राचीन कालमें इन्द्रनामक आचार्यका बनाया जगाम । अगत्य च पण्डितयोग्ये आसने भगवन्तं उपवेश्य हुआ एक संस्कृत व्याकरण था। इसका उल्लेख पण्डितमनोगतान् सन्देहान् पप्रच्छ, श्रीवारोऽपि वालोऽये अनेक ग्रन्थोमें मिलता है। ऊपर दियेहुए बोपदेव किं वक्ष्यतीत्युत्कर्णेषु सकललोकेषु सर्वाणि उत्तरााण ददौ, के श्लोकमें भी उसका नाम दर्ज है। हरिवंशपुराणके ततो जैनेन्द्रव्याकरण' अज्ञे ! यतः- कतीने देवनन्दिको ‘इन्द्रचंद्रार्कजैनद्रव्यापिण्यासकको य तस्समक्खं भगवंतं आसणे निवेसित्ता। करणेक्षिणः' विशेषण दिया है। शब्दार्णवचंद्रिकाकी सहस्त लक्षणं पुन्छ वागरणं अवयवा इंदं ॥". ताडपत्रवाली प्रतिमें, जो १३ वीं शताब्दिके लगभअर्थात् भगवानको मातापिताने पाठशालामें गकी लिखी हुई मालूम होती है, “इन्द्रश्चन्द्रः गुरुके पास पढने के लिए भेजा है, यह जानकर शकटतनयः " आदि श्लोकमै इन्द्र के व्याकरणका इन्द्र स्वर्गसे आया और पण्डितके घर, जहां भग- उल्लेख है। बहुत समय हुआ यह नष्ट होगया है। वान थे वहीं, गया । उसने भगवानको पण्डितके जव यह उपलब्ध ही नहीं है तब आसनपर बिठा दिया और पण्डितकं मनमें जो इसके विषयमें कुछ कहनेकी आवश्यकता जो सन्देह थे, उन सबको पूछा जब सब लोक यह 'प्रतीत नहीं होती। यद्यपि आजकलके समयमें इल सुनने के लिए उत्कर्ण हो रहे थे कि देखें यह बालक बातपर कोई भी विद्वान् विश्वास नहीं कर सकता क्या उत्तर देता है; भगवान वीरने सब प्रश्नोंके है कि भगवान महावीरने भी कोई व्याकरण बनाया उत्तर दे दिये, तब 'जैनेंद्र व्याकरण' बना। होगा और वह भी सागधी या प्राकृतका नहीं, किन्तु परंतु इस प्रसंगके वे सब उल्लेख अपेक्षाकृत ब्राह्मणों की खास भापासंस्कृतका-तो भी यह निस्ल अर्वाचीन ही हैं जिनमें भगवानके उत्तररूप इस न्देह है कि वह व्याकरण 'जैनेन्द्र ' तो नहीं था। व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र' बतलाया है। प्राचीन यदि बनाया भी होगा तो वह 'ऐन्द्र ही होगा। लेखोमे इसका नाम जैनन्द्रकी जगह 'ऐन्द्र' क्यों कि हरिभद्रसार और हेमचंद्रसूरि उसीका प्रकट किया गया है। जैसा कि आवश्यकसूत्रकी उल्लेख करते हैं जैनन्द्रका नहीं। जान पड़ता है, हारिभद्रीयवृत्तिके पृष्ट १८२ में- विनयविजय और लक्ष्मीवल्लभने पीछेले 'ऐन्द्र' शमथ तत्समझ लेखाचार्यसमक्षं भगवन्तं तीर्थकरं को ही 'जैनेन्द्र बना डाला है । उनके समयमें भी आसने निवेश्य शब्दम्य लक्षणं पृच्छति । भगवतः च 'ऐन्द्र ' अप्राप्य था, इसलिए उन्होंने प्राप्य 'जैनेंद्र' व्याकरणं अभ्यधायि । व्याक्रियन्ते लोकिसामयिकाः को ही भगवान महावीरकी कृति बतलाना विशेष । शब्दाः अनन इात व्याकरण शब्दशास्त्रम् । तदवयवाः कंचन सुखकर और लाभप्रद सोचा होगा। उपाध्यायेन गृहीताः, ततध ऐन्दं व्याकरण संजातम् " यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि हरिभद्रसार इसी प्रकार सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र अपने विक्रमकी आठवीं शताब्दिके और हेमचन्द्रसूरि योगशास्त्रके प्रथम प्रकाशमै लिखते हैं: तेरवी शताब्दिके विद्वान् है जिन्होंने पेन्द्र की " मानापितृभ्यामन्येशुः प्रारब्धेऽध्यापनोत्सवे। भगवानका व्याकरण बतलाया है; परंतु 'जैनेन्द्र' सा: सर्वतस्य शिष्यत्वमितीन्द्रस्तमुपास्थित 1451 उपायामासने तस्मिन्वासनोपवेशितः। डॉ. ए. सी. वनलने इन्द्रव्याकरणके विषयमें चीनी प्रणम्य प्रार्थितः स्वामी शशारामण जगी॥५४॥ तिरतीय और भारतीय साहित्यमें जो जो आलेख मिलते वं भगवतन्द्राय प्रोगन्दानुशासनम् । हैं उनको संग्रह का के 'ओन दि ऐन्द्रस्कूल ऑफ संस्कृत कपा यागेन हया लेनिन्द्रीमतीरितम् ।। ५८ ॥ ग्रामेरियन्स' नागी एक यदी पुस्तक लिखी है। इसके अनुसार भगवानने इन्द्रके लियं जो . "तेन प्रणमन्द्रं तदस्मव्याकरणं शुधि" शम्दानशासग कहा,उपाध्यायने असे सुनवर लोकमें --क्या रिसागर, तरंग। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी को भगवत्मणीत बतलानेवाले विनयविजय और हमारा अनुमान है कि डॉ० कीलहानके हायमें लक्ष्मीवल्लभ विक्रमकी अठारहवीं शताब्दिमें यह 'भगवद्वाग्वादिनी' की प्राति अवश्य पड़ी होगी और इसीकी कृपाले प्रेरित होकर उन्होंने अपना विनयविजयजीके इस उल्लसने बडा काम किया पूर्वोक्त लेख लिखा होगा। उनके लेखमें जो श्लोकादि कि भगवत्प्रणीत व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र है। प्रमाणस्वरूप दिये गये हैं वे सब इसीपरसे लिये यह निश्चय है कि भगवत्प्रणीत व्याकरणको गये जान पड़ते हैं। अस्तु । ‘जनेन्द्र' लिखते समय उनका लक्ष्य इस डॉ० कीलहानके इस भ्रमको सबसे पहले प्रो० देवनन्दि या पूज्यपादकृत 'जैनेन्द्र ' पर ही रहा पाठकने दृरकिया था और अब तो जैनेंद्र व्याकरहोगा; परन्तु जान पड़ता है कि वे इस विषयमें उक्त णकी यहुत प्रसिद्धि हो चुकी है। उसकी या उसके उल्लंखके सिवाय और कुछ प्रयत्न नहीं कर सके। परिशोधित-परिवर्तित संस्करणकी कई टीकायें भी यह काम बाकी ही पड़ा रहा कि वह जैनेन्द्र व्याक- छप चुकी हैं। इसलिए अब सभी विद्वान् इस विषरंण लोगोंके समक्ष उपस्थित कर दिया जाय और यमें सहमत हो गये हैं कि जैनेन्द्र व्याकरण किसी भक्तजन अपने भगवानकी व्याकरणक्षता देखकर तीर्थकर या भगवानका नहीं किन्तु अन्य वैयाकगलद हो जायँ । ग्यशीकी बात है कि उनके कुछ रणोंके समान ही एक विद्वानका बनाया हुआ है ही समय बाद वि० सं० १७९७ में एक श्वेताम्बर और उनका नाम देवनन्दि या पूज्यपाद था। विद्वान ने इस कार्यको पूरा कर डाला-साक्षात् देवनन्दि अथवा पूज्यपाद । महावीर देवका बनाया हुआ व्याकरण तैयार कर श्रीगृद्धपिच्छमुनिपस्य बलाकांपच्छः दिया और उसका दूसरा नाम 'भगवद्वाग्वा शिष्योऽजनिष्ट भुवनत्रयवर्तिकीर्तिः । दिनी' रख्खा! चारित्रचञ्चुरखिलावनिपालमौलिइस भगवद्वाग्वादिनी की सबसे पहली प्रतिके मालाशिलीमुखाविराजितपादपद्मः ।। १॥ दर्शन करनेका सौभाग्य हमें पूनेके भाण्डार- एवं महाचार्यपरम्परायां कर रिसर्च इन्स्टिट्यूटमें प्राप्त हुआ। यह तक्षक स्यात्कारमुदानिकततत्त्वदीपः। नगरमें रत्नर्पि नामक लेखकद्वारा वि० सं० १७९७ भद्रः समन्ताद्गुणतो गणोशः में लिखी गई थी। इसकी पत्रसंख्या ३०, और समन्तभद्रोऽजनि वादिसिंहः ॥२॥ लोकसंख्या ८०० है। प्रत्येक पत्रमें ११ पंक्तियां, नत:और प्रत्येक पंक्तिमें ४० अक्षर हैं । प्रति बहुत शुद्ध यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो है । जैनेन्द्रका सूत्रपाठ मात्र है-और वह सूत्रपाठ बुद्धया महत्या स जिनेंद्रबुद्धिः। है जिसपर शब्दार्णवचन्द्रिका टीका लिखी गई है। श्रीपुज्यपादोऽजनि देवताभिइस वाग्वादिनीके आविष्कारक अच्छे वैय्याकरण यत्पूजितं पादयुग यदीयम् ।।३।। दिखते हैं उन्होंने शक्तिभर इस बातको सिद्ध कर- जैनेन्द्र निजशब्दमागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परस नेका प्रयत्न किया है कि इसके कर्ता साक्षात् महा। सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जनाभिषेकाचकः । वीर भगवान हैं। दिगम्बरी देवनन्दीका बनाया छन्दः सूक्ष्माधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदाय विदाहुआ यह कभी नहीं हो सकता । उनकी सब युक्ति माख्यातीइ स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणेः॥४॥* याँ हमने इस ग्रन्थके परिचयमें-जो परिशिष्टमें दिया इस अवतरणके तीसरे श्लोकका अभिप्राय यह गया है-उद्धृत करदी हैं । उन सव पर विचार है कि उनका पहला नाम देवनन्दि था, वुद्धिकी करनेकी यहाँ आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इस * ये श्लोक श्रायुक्त पं. कलापा भरमापा निटवेने सर्वार्धलेखको पूरा पढलेने पर पाठकोंको घे सब युक्ति- सिद्धिकी भूमिकामें सध्दृत किये हैं; पर यह नहीं सूचित याँ स्वयं ही सारहीन प्रतीत होने लगेगी। किया है कि ये कहाँके हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक महत्ताके कारण वे जिनेन्द्रवद्धि कहलाये. और अनेक लेखकोंने उन्हें केवल देवनान्द नामसे देवोंने उनके चरणोंकी पूजा की इस कराण उनका और केवल पूज्यपाद नामसे स्मरण किया है और नाम पूज्यपाद हुआ। दोनों नामोसे उन्हें वैयाकरण माना हैं। आचार्य श्रवणवेल्गोल के नं० १०८ के मंगराज कविकृत शुभचन्द्र पाण्डवपुराणमें लिखते हैंशिलालेखमें जो शकसंवत् १३६५ [वि० सं० पूज्यपादः सदापूज्यपादः पूज्यैः पुनातु माम् । १५०० ] का लिखा हुआ है, नीचे लिखे श्लोक उप- व्याकरणार्णवो येन तीर्णो विस्तीणसद्गुणः ।। लब्ध होते हैं: महाकवि धनंजय अपनी नाममालामें पूज्य· श्रीपूज्यपादोद्धृतधर्मराज्य पादको लक्षणग्रन्थ (व्याकरण) का कर्ता स्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः। मानते हैं:यदीयवैदुष्यगुणानिदानी प्रमाणमकलंकस्य पूज्पादस्य लक्षणम् । वदन्ति शास्त्राणि तदुध्दृतानि ॥५॥ धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥२०॥ धृतविश्ववुद्धिरयमत्रयोगिभिः श्रवणबेलगोल • के ४७ नंवरके शिलालेखमें रुतकृत्यभावमनुविभ्रदुच्चकैः । श्रीमेधचन्द्र विद्यदेवकी स्तुतिमें नीचे लिखा टुजिनवद्वभूव यदनाचापहृत्स आ श्लोक दिया है:जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुणितः ॥ १६ ॥ सिद्धान्ते जिनवीरसेनसदृशः शास्त्राजिनीभास्करः, श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौपधार्द्ध पटतर्कप्वकलंकदेवविवुधः साक्षादयं भूतले। जर्जीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। सर्वव्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं, यत्पादधौतजलसंस्पर्शनप्रभावात् विद्योत्तममेघचन्द्रमुनिपो वादीभपञ्चानमः॥ कालायसं किल तदा कन कीचकार ॥७॥ . इसमें मेघचन्द्रको पूज्यपादके समान व्याकरणइन श्लोकोसे भी उनके पूज्यप नक पूज्यपाद आर जनद्र का ज्ञाता बतलाया है । इलले पूज्यपादका वैया. वृद्धि नाम प्रकट होते हैं। करण होना सिद्ध है। ये मेघचन्द्र आचारसारके नन्दिसंघकी पट्टावलीके नीचे लिखे हुए श्लोक- कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तिके गुरु थे और से भी देवनन्दिका दूसरा नाम पूज्यपाद था, यह इनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ (वि० सं० स्पष्ट होता है। ११७२ ) में हुआ था। यशःकीर्तियशोनन्दी देवनन्दी महामतिः। ___ अनगारधर्मामृतटीकाकी प्रशन्तिम--जो वि. श्रीपूज्यपादापराख्यो गुणनन्दी गुणाकरः ।। सं०१३०० में लिखी गई है-पण्डित आशाधरइनका संक्षिप्त नाम 'देव' भी था। आचार्य जीने लिखा है कि मैंने जैन न्याय और जैनेन्द्र व्याजिनसेन, वादिराजसूरि, और पुन्नाटसंघीय जिन- करण शास्त्र पण्डित महावीरसे धारा नगरीमें सेनने इन्हें इसी सांक्षिप्त नामसे स्मरण किया है-- पढे-“धारायामपठन्जिनप्रामिति-वाक्शास्त्रे महा कवीनां तीर्थरुहवः किंतरां तत्र वर्ण्यते । . वीरतः।" और 'जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे' की टीका विदुषां वाड्मलध्यसि तार्थ यस्य वचोमयम् ॥ ५२॥ में लिखा है-" जैनेन्द्रं प्रमाणशास्त्रं जैनेन्द्रव्याक -आदिपुराण प्रथम पर्व। रणं च ।" इससे यह निश्चय होता है कि आशाअचिन्यमहिमा देवः सोऽभिवंद्यो हितैषिणा । धरके समयमें जैनेन्द्र व्याकरणका पठन-पाठन शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुवं प्रतिलंभिताः ॥ १८ होता था । सागार और अनगार धर्मामृतटीकामें --पार्श्वनाथचरित प्रथम सर्ग। कई जगह प्रमाणरूपमें व्याकरणके सूत्र दिये हैं इन्द्र चन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापि(डि)व्याकरणक्षिणः। और ये इसी देवनन्दिकृत जैनेन्द्रव्याकरणदेवस्य देववन्द्यस्य न वंदते गिरः कथम् ॥३॥ -हरिवंशपुराण। कर्नाटक देशमे वृत्तविलास नामके एक जैन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] कवि हो गये हैं । उन्होंने अमितगतिकृत धर्मपरीक्षांके आधारसे वि० सं० १२१७ के लगभग 'धर्मपरीक्षा' नामका ग्रन्थ कनडी भाषामें लिखा है । इस ग्रन्थकी प्रशस्ति में पूज्यपाद आचार्यकी वडी प्रशंसा लिखी है और वे जैनेन्द्रव्याकरण के रचयिता थे, इस बातका स्पष्ट उल्लेख किया है। साथ ही उनकी अन्यान्य रचनाओंका भी परिचय दिया है:-- जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी मरादे जैनन्द्रं भासुरं=एनल ओरेदं पाणिनीयक्के टीकं व रेदं तस्यार्थमं टिप्पणदिन् अरिपिदं यंत्र-मंत्रादिशास्त्रोक्तकरमं । भूरक्षणार्थे विरचिसि जसमं तादिदं विश्वविद्याभरणं भव्यालियाराधित पदकमलं पूज्यपादं व्रतीन्द्रम् | इसका अभिप्राय यह है कि व्रतीन्द्र पूज्यपादने - जिनके चरणकमलोंकी अनेक भव्य आराधना करते थे और जो विश्वभरकी विद्याओंके शृंगार थे-- प्रकाशमान जैनेन्द्र व्याकरणकी रचना की, पाणिनि व्याकरणकी टीका लिखी, टिप्पणद्वारा ( सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्रटीका) तत्त्वार्थका अर्थबोधन किया और पृथ्वीकी रक्षाके लिए. यंत्रमंत्रादि शास्त्रकी रचना की । आचार्य शुभचन्द्र ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानावके प्रारंभ में देवनन्दिकी प्रशंसा करते हुए लिखा है: अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाक्चित्तसंभवम् । कलमगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ अर्थात् जिनकी वाणी देह धारियोंके शरीर, वचन और मन सम्बन्धी मैलको मिटा देती है, उन देवनन्दीको मैं नमस्कार करता है । इस श्लोक देवनन्दिकी वाणीकी जो विशेषता बतलाई है, वह विचार योग्य है । हमारी समझमें देवनन्दिके तीन ग्रन्थोंको लक्ष्य करके यह प्रशंसा की गई है । शरीरके मैलंको नाश करनेके लिए उनका वैद्यकशास्त्र, वचनका मैल (दोष) मिटाने के लिए जैनेन्द्र व्याकरण और मनका मैल दूर करनेके लिए समाधितंत्र है | अतएव इससे भी मालूम होता है कि वचनदोषको दूर करनेवाली उनकी कोई रचना अवश्य है और वह जैनेन्द्र व्याकरण ही हो सकती है । ६७ इनके सिवाय विक्रमकी आठवीं शताब्दि के बाद कनडी भाषामें जितने काव्य ग्रन्थ लिखे गये हैं, प्रायः उन सभीके प्रारंभिक श्लोकोंमें पूज्यपादकी प्रशंसा की गई है । इन सब उल्लेखोसे यह वात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि पूज्यपाद एक बहुत ही प्रसिद्ध ग्रंथकार हो गये हैं और देवनन्दि उनका ही दूसरा नाम था । साथ ही चे सुप्रसिद्ध जैनेन्द्र व्याकरणके कर्ता थे। इस बातको इतना विस्तारसे लिखनेकी आवश्यकता इसी कारण हुई कि बहुत लोग पूज्यगाद और देवनन्दि को जुदा जुदा मानते थे और कोई कोई पूज्यपादको देवनन्दिका विशेषण ही समझ बैठे थे । जिनेन्द्रकी प्रत्येक हस्तलिखित प्रतिके प्रारंभ में नीचे लिखा लोक मिलता है: लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निश्वद्याऽवभासते । देवनन्दितपूजेशं नमस्तस्मै स्वयंभुवे || इसमें ग्रन्थकतने 'देवनन्दितपूजेशं' पदमें जो कि भगवानका विशेषण है, अपना नाम भी प्रगट कर दिया है । संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंके मंगलाचरणोंमें यह पद्धति अनेक विद्वानोंने स्वीकार की है। इससे स्वयं ग्रन्थकर्ताके वचनोंसे भी जैनेन्द्रके कर्ता' देवनन्दि ' ठहरते हैं । ॐ गणरत्न महोदधिके कर्ता वर्धमान (श्वेताम्ब १ देखो हिस्ट्री आफ दि कनडी लिटरेचर । * १ देखिए नतिवाक्यामृत के मंगलाचरणमें सोमदेव कहते हैं: " सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवम् । सोमदेवं मुनिं नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे || " २ आचार्य अनन्तर्य लघीयस्त्रयकी वृत्तिके प्रारंभ में महते हैं “ जिनाथशिं मुनिं चन्द्रमकलंकं पुनः पुनः । अनन्तवीर्यमानामि स्याद्वादन्यायनायकम् || " ३ भावसंग्रह में देवसेनरि मंगलाचरण करते हैं:पणमिय सुरणयं मुणिगणहरवंदियं महावीरं । वोच्छामि भावसंगहमिणमो भव्यपवोह || . 'शालातुरीयशकटाङ्गजचन्द्रगामिदिग्वभर्तृहरिवामनभोजमुल्याः । . *" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग १ र) और हैम शब्दानुशासनके लघुन्यास अनाने ठके ढंग का है, वर्तमानटिसे यह कुछ अपूर्णसा . वाले कनकप्रभ भी जैनेन्द्र व्याकरणके कतीका जान पड़ता है और इसी लिए महावृत्तिमे वहुतसे नाम देवनन्दि ही बतलाने हैं । अतः हम समझते हैं वार्तिक तथा उपसंख्यान आदि बना कर उसकी कि अब इस विषय में किसी प्रकारका कोई सन्देह पूर्णता की गई दिखलाई देती है, जबकि दूसरा याकी नहीं रह जाता है कि यह व्याकरण देवनन्दि पाठ प्रायः पूर्णला जान पड़ता है और इसी कारण या पूज्यपादका बनाया हुआ है। उसकी टीकाओंमें वार्तिक आदि नहीं दिखलाई प्रथम जैन व्याकरण । देते। दोनों पाठों में बहुतसी संज्ञायें भी भिन्न प्रकार की हैं। जहाँ तक हम जानते हैं, जैनोंका सबसे पहला संस्थत व्याकरण यही है। अभी तक इसके पहलेका ___ इन भिन्नताआके होते हुए भी दोनों पाठोंमें कोई भी व्याकरण प्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है। समा | समानता भी कम नहीं है । दोनोंके अधिकांश सूत्र शाकटायन, सिद्धहेमशब्दानुशासन आदि सब स - समान हैं, दोनोंके प्रारंभका मंगलाचरण विलकुल व्याकरण इससे पीछेके बने हुए हैं । इस ग्रन्धकी एक ही है और दोनोंके कर्ताओंका नाम भी देवनसबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके सूत्र बहुत न्दि या पूज्यपाद लिखा हुआ मिलता है। ही संक्षिप्त हैं । 'अर्धमात्रालाघवं पुत्रोत्सवं मन्यन्ते असली सूत्रपाठ। वैच्याकरण इस प्रवादकी सचाई इसके सूत्रोपर अब प्रश्न यह है कि इन दोनों से स्वयं देवनबडालनेसे वहत अच्छी तरह स्पष्ट होती है। न्दि था पूज्यपादका बनाया हुआ असली सूत्रपाठ. संज्ञाकत लाघवको भी इसम स्वीकार किया है। कौनसा है। सप्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो० के० बी० जवकिपाणिनीयमें संज्ञाकृत लाघव ग्रहण नहीं कि- पाठकका कथन है कि दूसरा पाठ जिसपर सोम. या है। इसकी प्रशंसामे जैनेन्द्रप्रक्रियामें लिखा है:-- देवकी शार्णवचन्द्रिका लिखी गई है-वास्तविक नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रम् । पाठ है । हमारे दिगम्बर सम्प्रदायके विद्वानोंमें यदेवात्र तदन्यत्र यन्नानास्ति न तत् क्वचित् ।। श्रीयुक्त पं० पन्नालालजी वाकलीवाल और उनके संस्करण भेद। अनुयायी पं० श्रीलालजी व्याकरणशास्त्री भी इसी . जैनेंद्र व्याकरणका मूल सूत्रपाठ दो प्रकारका मतको माननेवाले हैं। इसके विरुद्ध न्यायतीर्थ उपलब्ध है-एक तो वह जिसपर आचार्य अभय. और न्याशास्त्री पं० वंशीधरजी दूसरे पाठको वानन्दिकी 'महावृत्ति' तथा श्रुतकीर्तिकृत 'पंचवस्त' स्तविकं मानते हैं, जिसपर कि अभयनन्दिकी हात्त नाम की प्रक्रिया है और दूसरा वह जिसपर सोम- लिखी गई है । यद्यपि इन दोनोंही पक्षके विद्वानोंदेव सूरिकृत 'शब्दार्णवचन्द्रिका' और गणनन्द- की ओरसे अभीतक कोई ऐसे पुष्ट प्रमाण उपस्थित कृत 'जैनेन्द्रप्राक्रिया' है। पहले प्रकारके पाठमै न या है। पहले ur l नहीं किये गये हैं जिनसे इस प्रश्नका असर लगभग ३००० और दूसरेमें लगभग ३७०० सत्र निर्णय हो जाय; परन्तु हमको पं. बंशीधरजीका है, अर्थात एकसे दूसरे में कोई ७०० सत्र अधिक मत ठीक मालूम होता है और पाठक यह जानकर हैं ! और जो ३०५० सूत्र हैं वे भी दोनों में एकसे प्रसन्न होंगे कि हमें इस मतको करीब करीब निनहीं हैं। अर्थात् दसरे सूत्रपाठमें पहले सत्रपाटन नीन्त मान लेनेके अनेक पुष्ट प्रमाण मिल गये हैं। सेकडो सूत्र परिवर्तित और परिवर्धित भी किये इन प्रमाणीक आधारसे हम इस सिद्धान्तपर गये हैं। पहले प्रकारका सूत्रपाट पाणिनीय सूत्रपा- पहुच है। " पहुंचे हैं कि आचार्य देवनन्दि या पूज्यपादका ब. " नाया हुआ सूत्रपाठ वही है जिसपर अभयनान्दिने १ यह जैनेन्द्रप्रक्रिया गुणनन्दिरुत है या नहीं, इसमें अपनी महावृत्ति लिखी है। यह सूत्रपाठ उस समहमें बहुत कुछ सन्देह है। आगे चलकर इस विषयका यंतक तो ठीक समझा जाता रहा जब तक पाल्यखुलासा किया गया है। कीर्तिका शाकटायन व्याकरण नहीं बना था। शाय Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी --wwwww ww.rl-rA0rn. द शाकटायनको भी जैनेन्द्र के होते हुए एक जदा इसका आशय यह है कि गुणनन्दिने जिसके एण बनानेकी आवश्यकता इसी लिए मालूम शरीरको विस्तृत किया है, उस शब्दार्णवको जापड़ी होगी कि जैनन्द्र अपूर्ण था, और बिना वार्ति- ननेकी इच्छा रखनेवालोंके लिए तथा आश्रय लेनेका और उपसंख्यानों आदिके काम नहीं चल सक- वालोंके लिए यह प्रकिया साक्षात् नावके समान ता था । परन्तु जब शाकटायन जैसा सर्वांगपूर्ण काम देगी। इसमें 'शब्दार्णव' को 'गुणनन्दि व्याकरण बन चुका, तव जैनेन्द्रव्याकरणके भक्तोंको तानितवपुः 'विशेपण दिया है, वह विशेष ध्यान उसकी त्रुटियां विशेष खटकने लगी और उनमेंसे देने योग्य है। इससे साफ समझमें आता है कि आचार्य गुणनन्दिने उसे सर्वांगपूर्ण बनानेका प्रय. गुणनन्दिके जिस व्याकरणपर ये दोनों टीकायेंल किया । इस प्रयत्नका फल ही यह दूसरा सूत्र- शब्दार्णव चन्द्रिका और जैनेन्द्रप्रकिया-लिखी गई पाट है जिसपर सोमदेवकी शब्दार्णवचन्द्रिका हैं उलका नाम 'शब्दार्णव ' है और वह मूल रची गयी है । इस सूत्रपाठको बारीकीके साथ (अलली) जैनन्द्र व्याकरणके संक्षिप्त शरीरको देखनेसे मालम पडता है कि गणनन्दिके समय तक तानित या विस्तत करके बनाया गया है। व्याकरणसिद्ध जितने प्रयोग होने लगे थे उन शब्दार्णवचन्द्रिकाके प्रारंभका मंगलाचरण भी सबके सूत्र उसमें मौजूद हैं और इसलिए उसके इस विषयमें ध्यान देने योग्य है:-- टीकाकारांको वार्तिक आदि बनानेके झंझटॉमें नहीं श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं पड़ना पड़ा है। अभयनन्दिकी महावृत्तिके ऐसे सोमामरबतिपपूजितपादयुग्मम् । बीसों वार्तिक हैं जिनके इस पाटमें सूत्रही बना सिद्ध समुन्नतपदं वृपमं जिनेन्द्र दिये गये हैं। नीचे लिखे प्रमाणोंसे हमारे इन सत्र तच्छन्दलक्षणमई विनमामि वारम् ॥ विचारोंकी पुष्टि होती है: इसमें ग्रन्थकर्ताने भगवान् महावीरके विशेषण१-शब्दार्णवचन्द्रिकाके अन्त में नीचे लिखा रूपमै कमसे पूज्यपादका, गुणनन्दिका और आपना हुआ लोक देखिए-... (सोमामर या सोमदेवका) उल्लेख किया है श्रीसोमदेवयतिनिमितिमादयानि और इसमें वे निस्सन्देह यही ध्वनित करते हैं यानाः प्रतीतगुणनन्दितशब्दवाची । कि मुख्य व्याफरणके कर्ता पूज्यपाद हैं. उसको सोऽयं सताममलतसि विस्फुरन्ती विस्तृत करनेवाले गुणनन्दि हैं और फिर उसकी वृत्तिः सदानतपदा परिवर्तिपीट, टीका करनेवाले सोमदेव (स्वयं) हैं। यदि यह इसमें सुप्रसिद्ध गुणनन्दि आचार्यके शब्दवाधि चन्द्रिका टीका पूज्यपादकृत ग्रन्यकी ही होती, तो या शब्दार्णवम प्रवेश करनेके लिए सोमदेवकृत मंगलाचरणमें गुणनन्दिका नाम लानेकी कोई वृत्तिको नौका के समान बतलाया है । इससे यह आवश्यकता नहीं थी। गुणनन्दि उनकी गुरुपरजान पडता है कि आचार्य गुणनन्दिके बनाये हुए रम्परामें भी नहीं है, जो उनका उल्लेख करना व्याकरणं ग्रन्थकी यह टीका है और उसका नाम आवश्यक ही होता । अतः यह सिद्ध है कि चन्द्-ि शब्दार्णवं है । एस टीकाका 'शब्दार्णवचन्द्रिका' का और प्रक्रिया दोनों ही कर्ता यह समझते थे कि नाम भी तभी अन्वर्थक होता है, जब मूल सूत्र हमारी टीकाय असली जैनेन्द्रपर नहीं किन्तु उसके ग्रन्थका नाम शब्दार्णव हो। हमारे इस अनुमानकी गणनन्दितानितवपु' शब्दार्णवपर अनी हैं। पुष्टि जैनेन्द्रप्रक्रियाके नीचे लिखे अन्तिम श्लोकसे २-शब्दार्णव चन्द्रिका और जैनेन्द्रप्रक्रिया इन और भी अच्छी तरहसे होती है:-- दोनों ही टीकाओंमें 'एकशेष ' प्रकरण है; परन्तु सत्माधि दधते समासमभितः स्यातार्थनामोन्नतं, अभयनन्दिकृत ' महावृत्ति' वाल सूत्रपाठमें एक निर्मातं बहुतद्धितं कम कृतमिहाख्यातं यशम्शालिना(न)म् । ---- हमारा अनुमान है कि इस प्रक्रियाका भी नाम शब्दा. सैपा श्रीगुणनन्दितानितवप: शब्दार्णवं निर्णयं, नावत्याअयता विविक्षुमनसा माणस्वनं प्रक्रिया ।। व प्रक्रिया' होगा, जैनेन्द्र-प्रक्रिया नहीं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन साहित्य संशोधक [भाग १ शेपको अनावश्यक बतलाया है-" स्वाभाविक- होगा; कुछ भी हो, पर यह पूरा सूत्र 'दृश्यतेऽन्यः त्वादभिधानस्यैकशेपानारम्भः । " ( १-१.९९) तोपि' ही है और यह अभयनन्दिवाले सूत्रपाठके और इसी लिए देवनन्दि या पूज्यपादका व्याकरण अ०४ पा०७ का ७५ वाँ सूत्र है । परन्तु शब्दार्ण'अनेकशेष' कहलाता है । चन्द्रिका टीकाके ववाले पाठमें न तो यह सूत्र ही है और न इसके कर्ता स्वयं ही " आदावुपज्ञापक्रमम्" (१-४.११४) प्रतिपाद्यका विधानकर्ता कोई और ही सूत्र है। सूत्रकी टीका उदाहरण देते हैं कि " देवो. अतः यह सिद्ध है कि पूज्यपादका असली सूत्रपापज्ञमनेकशेपव्याकरणम्" यह उदाहरण अभयन- वही है जिसमें उक्त सत्र मौजूद है। न्दिकृत महावृत्तिमें भी दिया गया है। इससे सिद्ध ४-भटाकलंकदेवने तत्वार्थराजवार्तिकमे आये है कि शव्दार्णवचन्द्रिकाके कर्ता भी उस व्याक- परोक्ष (अ०१ सू० ११ ) की व्याख्याने " सर्वादि रणको देवोपज्ञ या देवनान्दकृत मानते है,जो अ- नाम112....५) सनका उलेवचि अ- सर्वनाम । " ( १-१--३५ ) सूत्रका उल्लेख किया नेकशप है, अर्थात् जिसमें 'एकशेप' प्रकरण है, इसी तरह पण्डित आशाधरने अनगारधर्मामृनहीं है । और ऐसा व्याकरण वही है जिसकी टीका तटीका ( अ ७श्लो० २४ ) में "स्तोके प्रतिना" अभयनन्दिने की है। (१-३-३७) और "भार्थ" (१-४-१४) इन आचार्य विद्यानन्दि अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक दो सूत्रोको उद्धृत किया है और ये तीनों ही सूत्र (पृष्ठ २६५) से ' नैगमसंग्रह-' आदि सूत्रकी जैनेन्द्र के अभयनन्दिवृत्तिवाले सूत्रपाठमें ही मिलव्याख्या करते हुए लिखते हैं-"नयश्च नयौ च न- ते हैं । शब्दार्णववाले पाठमें इनका अस्तियाश्च नया इत्येकशेपस्यस्वाभाविकस्याभिधाने दर्श- त्यही नहीं है । अतः अकलंकदेव और पं० आशा चित्तथा वचनोपलम्माचनविरुद्धयते। धर इसी असयनन्दिवाले पाटको ही माननेवाले थे। इलमें स्वाभाविकताके कारण एकशेष की अना- अकलंकदेव वि० की नौवों शताब्दिके और आशावश्यकता प्रतिपादित है और यह अनावश्यकता धर १३ वीं शताब्दिके विद्वान हैं। जैनेन्द्रके वास्तविक सूत्रपाठमें ही उपलब्ध होती ५-० श्रीलालजी शास्त्रीने शब्दार्णवचन्द्रिकाकी है। " स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेपानारम्भः ' भमिकामे लिखा है कि आचार्य पूज्यपादने स्वनि(१-१-९९) यह सूत्र शब्दार्णववाले पाटमे नहीं है, मित 'सर्वार्थसिद्धि' में 'प्रमाणनयैरधिगमः' अतः विद्यानन्द भी इसी सूत्रबाले जैनेन्द्रपाठको (१०१ सू०६) की टीका यह वाक्य दिया हैमाननेवाले थे । पाठकोको यह स्मरण रखना नयशव्दस्याल्पान्तरत्वात्पूर्वनिपातःप्राप्नोति नैषचाहिए कि उपलब्ध व्याकरणों में अनेकशेप व्याक- दोषः । अभ्यर्हितत्वात्प्रमागस्य तत्पूर्वनिपातः।" रण केवल देवनन्दिकृत ही है, दूसरा नहीं। और अभयनन्दिवाले पाठमें इस विषयका प्रतिपा ३- सर्वार्थसिद्धि ' तत्त्वार्थ सूत्रकी सुप्रसिद्ध दन करनेवाला कोई सूत्र नहीं है । केवल अभयटीका है। इसके कर्ता स्वयं पूज्यपाद या देवनन्दि नन्दिका 'अभ्यहितं पूर्व निपतति' वार्तिक है। हैं जिनका कि वनाया हुआ प्रस्तुत जैनेन्द्र व्याकर- यदि. अभयनन्दिवाला सूत्रपाठ ठीक होता तो ण है । इस टीकामें अध्याय५ सूत्र २४ की व्याख्या उसमें इस विषयका प्रतिपादक सूत्र अवश्य होता करते हुए वे लिखते हैं- 'अन्यतोऽपि' इति तलि जो कि नहीं है। पर शब्दार्णवत्राले पाठमें "अर्य" कृते सर्वतः । " इसी सूचकी व्याख्या करते हुए (१-३-११५) ऐसा सूत्र है जो इसी विषयको राजवार्तिककार लिखते हैं-" 'दृश्यतेऽन्यतो- प्रतिपादित करता है। इसलिए यही सूत्रपाट देवपीति' तसि कृते सर्वे| भवेपु सर्वत इति भवति ।" नान्दछत है । बस, पं० श्रीलालजीकी सबसे जान पडता है या तो सर्वार्थसिद्धिकारने इस बडी दलील यही है जिससे च शब्दार्णववाले सूत्रको संक्षेप करके लिखा होगा, या लेखका तथा पाठको असली सिद्ध करना चाहते हैं। इसके छपानेवालाने प्रारंभका 'दृश्यते' शब्द छोड दिया सिवाय वे और कोई उल्लेख योग्य प्रमाण अपने Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी अंक २] पक्षमें नहीं दे सके हैं। अब इसपर हमारा निवेदन सुम लीजिए 6 'अल्पाच्तरम् " [ २-२९-३४] यह सूत्र पाणिनिका है और इसके ऊपर कात्यायनका " अभ्यहितं च " वार्तिक तथा पतंजलिका "अभ्यर्हितं पर्व निपतति " भाष्य है। इससे मालूम होता है कि पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धिटीकाके इस स्थलमें पाणिनि और पतंजलिके हो सूत्र तथा भाष्यको लक्ष्यकर उक्त विधान किया है । अयं इस पर यह प्रश्न होगा कि जय सर्वार्थसिद्धिकार स्वयं एक व्याकरण के कती हैं, तय उन्होंने पाणिनिक और उसके भाष्यका आश्रय क्यों लिया ? हमारी समझमें इसका उत्तर यह है कि पूज्यपाद स्वामी यद्यपि सर्वार्थ सिद्धिकी रचना के समय अपना व्याकरण तो बना चुके होंगे परन्तु उस समय उनके व्याकरणने विशेष प्रसिद्धि लाभ नहीं की होगी और इस कारण स्वयं उनके ही हृदयमें उसकी इतनी प्रमाणता नहीं होगी कि वे अन्य प्रसिद्ध व्याकरणों तथा उनके वार्तिकों और भाष्योंको सर्वथा भुला देव-या उनका आश्रय नहीं लेवें । कुछ भी हो परंतु यह तो निश्चय है कि उन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धिम अन्य वैयाकरणोंक भी मत दिये हैं । इस विषय में हम एक और प्रमाण उपस्थित करते हैं जो बहुत ही पुए और स्पष्ट है सर्वार्थसिद्धि अ० ४ सूत्र २२ की व्याख्यायें लिखा है- " यथाहः द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानामिति । " इसकी अन्य पुरुथकी 'आहु:' क्रिया ही कह रही है कि ग्रन्थकर्ता यहां किसी अन्य पुरुषका वचन दे रहे हैं। अब पतंजलिका महाभाष्य देखिए । उसमें १-२-१ के ५ वें वार्तिकके भाष्यम बिलकुल यही वाक्य दिया हुआ है-एक अक्षरका भी हेरफेर नहीं है । इससे स्पष्ट है कि सर्वार्थसिद्धिके कती अन्य व्याकरण " प्रमाणनयैरधिगमः ' १ तत्वार्थराजवार्तिक में इसी सूत्रको व्याख्याम पतंजलिका यह भाष्य ज्यों का त्यों अक्षरशः दिया है | अभयनन्दिका भी यही वार्तिक है । २ राजवार्तिक और श्रोकार्तिकमें भी यह वाक्य उद्धृत कि गया है। २ ७ ग्रन्थोके भी प्रमाण देते हैं । और भी एक प्रमाण लीजिए सर्वार्थसिद्धि अ० ७ सूत्र १६ की व्याख्यामें लिखा है- " शास्त्रेऽपि 'अववृपयोमैथुनेच्छायीमित्येवमादिषु तदेव गृह्यते । " यह पाणिनिके ७-१-५१ सूत्रपर कात्यायनका पहला वार्तिक है। वहां " अश्ववृपयो मैथुनेच्छायाम् " इतने शब्द हैं और इन्हींको सर्वार्थसिद्धिकारने लिया है। यहां कात्यायनके वार्तिकको उन्होंने 'शास्त्र' शब्दसे व्यक्त किया है । " सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सूत्र ४ की व्याख्या में 'नित्यं' शब्दको सिद्ध करनेके लिए पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं:- " नेः ध्रुवे त्यः इति निष्पां दितत्वात् । " परन्तु जैनेन्द्रमें 'नित्य ' शब्दको सिद्ध करनेवाला कोई मूल सूत्र नहीं है, इस लिए अभयनन्दिने अपनी वृत्तिमं " ड्येस्तुद ( ३-२-८१ ) सूत्रकी व्याख्या में " नेर्भुवः इति वक्त व्यम् | यह वार्तिक बनाया है और 'नियतं सर्वकालं भवं नित्यं ' इस तरह स्पष्ट किया है। जैनेहमें ' त्य' प्रत्यय ही नहीं है, इसके बदले 'य । प्रत्यय है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धिकारने स्वनिर्मित व्याकरणको लक्ष्यमें रखकर पूर्वो बात नहीं कहीं है। अन्य व्याकरणोंके प्रमाण भी वे देते थे और यह प्रमाण भी उसी तरह का 1 परन्तु इससे पाठकोंको यह न समझ लेना चाहिए कि सर्वार्थसिद्धि प्रन्धकर्ताने अपने जेनेन्द्रसूत्रका कहीं उपयोग ही नहीं किया है । नहीं, कुछ स्थानोंमें उन्होंने अपने निजके सूत्र भी दिये हैं । जैसे पांचवे अध्यायके पहले सूत्रके व्याख्यानमें लिखा है "विशेषणं विशेष्येण ' इति वृत्तिः । " यह जैनेन्द्रका १-३-५२ वां सूत्र है । यह सूत्र शब्दाचित्रन्द्रिका (१-३-४८ ) वाले पाटमें भी है। इन सब प्रमाणोंसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि जैनेन्द्रका असली सूत्रपाठ वही है जिसपर अभयनन्दिकृत वृत्ति है; शब्दार्णवचन्द्र १ तत्त्वार्थराजवातिकम भी है- " शास्त्रेऽपि अश्नवृषयो - मैथुनेच्छायामित्येवमादौ तदेव कर्माख्यायते । " Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक કર कावाला पाठ असली सूत्रपात्रको संशोधित और परिवर्धित करके बनाया गया है और उसका यह संस्करण संभवतः गुणनन्दि आचार्यकृत है । अब एक प्रश्न यह रह जाता है कि जब गुणनादि ने मूल ग्रंथ में इतना परिवर्तन और संशोधन किया था, तब उस परिवर्तित ग्रन्थका नाम जैनेन्द्र ही क्यों रखा ? इसके उत्तर में निवेदन है कि एक तो शब्दार्णवचन्द्रिका और जैनेन्द्रप्रक्रिया के पूर्वोलिखित श्लोकोंसे गुणनन्दिके व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र' नहीं किन्तु ' शब्दार्णव मालूम होता है। संभव है कि लेखकोंके भ्रमसे इन टीकाग्रंथों में ' जनेन्द्र ' नाम शामिल हो गया हो। दूसरा यदि 'जैनेन्द्र' नाम भी हो, तो ऐसा कुछ अनुचित -भी नहीं है । क्यों कि गुणनन्दिने जो प्रयत्न किया है, वह अपना एक स्वतंत्र ग्रंथ बनानेकी इच्छासे नहीं किन्तु पूर्वनिर्मित 'जैनेन्द्र' को सर्वांगपूर्ण बनानेकी सदिच्छासे किया है और इसी लिए उन्होंने जैनेन्द्रके आधेसे अधिक सूत्र ज्यों के त्यों रहने दिये हैं तथा मंगलाचरण आदि भी उसका "ज्यों का त्यों रखा है । हमारा विश्वास है कि गुणनन्द इस संशोधित और परिवर्तित सूत्रurant ही तैयार करके न रहे गये होंगे, उन्होंने इसपर कोई वृत्ति या टीका ग्रंथ भी अवश्य लिखा होगा, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है । सनातन जैन ग्रंथमालामें जो जैनेन्द्र-प्रक्रिया छपी है, वह जैसा कि हम आगे सिद्ध करेंगे गुणनन्दिको -बनाई हुई नहीं है । नैतेन्द्रकी टीकाचें । पूज्यपादस्वामीकृत असली जैनेन्द्रकी इस समय तक केवल तीन ही टीकायें उपलब्ध हैं-१ अभयनन्दिकृत ' महावृत्ति, २ भार्यश्रुतकीर्तिकी 'पंचवस्तु-प्रक्रिया, ́ और ३ युधमाचन्द्रकृत 'लघु जैनेन्द्र' । परन्तु इनके सिवाय इसकी और भी कई टीकायें होनी चाहिए | पंवस्तुके अन्तमें नीचे लिखा हुआ एक श्लोक है: सूत्रस्तम्भसमुष्कृतं प्रत्रिसन्न्यासोरलक्षिति, श्रीमद्वृत्तिकपाट पुच्युतं भाष्यैौघशय्यातलम् । डीकामाला तं जैनेन्द्र शब्दागर्म, प्रका|| [ भाग: १ इसमें जैनेन्द्र शब्दाराम या जैनेन्द्र व्याकरणको महलकी उपमा दी गई है । वह मूलसूत्ररूप स्तम्भों पर खड़ा किया गया है, न्यासरूप उसकी रत्नमय भूमि है, वृतिरूप उसके किवाड़ हैं, भाष्यरूप शय्यातल है, और टीकारूप उसके माल या मं जिल हैं । यह पंत्रयस्तु टीका उसकी सोपान श्रेणी है। इसके द्वारा उक्त महल पर आरोहण किया जासकता है। इससे मालूम होता है कि पंचवस्तुके कर्ताके समय में इस व्याकरणपर १ न्याल, २ वृत्ति, ३ भाप्य और ४ टीका, इतने व्याख्या ग्रन्थ मौजूद थे। इनमें से श्रीमद्वृत्ति या वृत्ति तो यह अभयनन्दिकी महा वृत्ति ही होगी, ऐसा जान पड़ता है। शेष तीन टीकायै अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। हमारा अनुमान है कि इनमेंसे एक टीकाग्रन्थ चाहे वह न्यास हो या भाष्य हो, स्वयं पूज्यपादस्वामीका बनाया हुआ होगा। क्यों कि वे केवल सूत्रग्रन्थ हो बनाकर रह गये होंगे, यह बात समझ नहीं आती। अपनी मानी हुई अतिशय सूक्ष्म संज्ञाओं और परिभाषाओंका स्पष्टीकरण करनेके लिए उन्हें कोई टीका, वृत्ति या न्यास अवश्य बनाना पड़ा होगा, जिस तरह शाकटायनने अपने व्याकरणपर अमोघवृचि नामकी स्वोपा टीका बनाई है । आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री (पृष्ठ १३२ ) में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात् का' यह वचन उध्द्धृत किया है। यह किसी व्याकरण प्रन्धका वार्तिक है; परन्तु पाणिनिके किसी भी वार्तिकमें यह नहीं मिलता। अभयनादिफी महावृत्ति अवश्य ही न्यरखे कर्मणि का वक्तव्या" [४-१-३८ ] इस प्रकारका वार्तिक है; परन्तु हमारा जयाल है कि अमयनन्दिकी वृत्ति विद्यानन्दले पीछेकी बनी हुई है, इस लिए विद्यानन्दने यह वार्तिक अभयनन्दिकी वृत्तिले नहीं किन्तु अन्य ही किसी से लिया होगा और आश्चर्य नहीं जो वह स्वयं पूज्यपादकृत टीकाग्रन्थ हो । सुनते हैं, जैनेन्द्रका न्यास कर्नाटक ग्रान्के जैन पुस्तक भण्डारोंम है । उसके प्राप्त करनेकी बहुत आवश्यकता है। उससे इस व्याकरणसम्बन्धी अनेक संशयोका निराकरण हो 15 पिंगा । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] आगे हम उपलब्ध टीका ग्रन्थोंका परिचय दे ते हैं- 'जनेrg व्याकरण और आचार्य देवनन्दी E हैं । हमारा अनुमान है कि चन्द्रप्रभकाव्य के कर्ता महाकवि धीरनन्दिने जिन अभयनन्दिको अपना गुरु बतलाया है, ये वे ही अभयनन्दि होंगे | आचार्य नेमिचन्द्रन भी गोम्मटसार - कर्मकाण्डकी ४३६ वीं गाथामै इनका उल्लेख किया है । अतएव इनका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिक पूर्वार्ध के लगभग निश्चित होता है। जैनेन्द्रकी उपलब्ध टीकाओंमें यही टीका सबसे प्राचीन मालूम होती है प्रो० एस० के० बेलवलकरने अभयनन्दिका समय ई० सन् १३०० - १३५० के लगभग मालूम नहीं किन प्रमाणोंसे निश्चित किया है। 1 १- महावृत्ति | इसको एक प्रति पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूटमें मौजूद है । इसकी श्लोकसंख्या १३००० के लगभग है । इसके प्रारं भके ३६४ पत्र एक लेखक के लिखे हुए और शेप ७ पत्र, चैत्र सुदी २ सं० १९३३ को किसी दूसरे लेखकके लिखे हुए हैं । प्रतिके दोनों ही भाग जयपुर के लिखे हुए मालूम होते हैं । कई स्थानों में कुछ पंक्तियाँ छूटी हुई हैं। इसका प्रारंभ इसतरह हुआ है:सो नमः | श्रीमत्सर्वज्ञवीतरागतद्वचनतदनुसारिगुरुभ्यो नमः । देवदेवं जिनं नत्वा सर्वसत्वाभयप्रदम् । शब्दशास्त्रस्य सूत्राणां महावृत्तिविन्ध्यते ॥ १ ॥ यच्छद्दलक्षणमसुत्रजपारमन्यैरम्यन्तमुत्तमभिधानविधौ दः । . तत्सर्वलोकयप्रिय चास्वाक्यै - यं करोत्यभयनन्दमुनिः समस्तम् ॥ २ ॥ शिष्टाचार परिपालनार्थमादाविष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मंग. कमिदमाहाचार्य: । और अन्त में कोई प्रशस्ति आदि न देकर सिर्फ इतना ही लिखा है " इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ पंचमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तथायं पंचमोऽध्यायः । " इससे मालूम होता है कि इस महावृत्तिके कर्ता अभयनन्दि मुनि हैं। उन्होंने न तो अपनी गुरुपरम्पराका ही परिचय दिया है और न प्रन्थरचनाका समय हो दिया है, इससे निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि वे कब हुए हैं। परन्तु उन्होंने सुत्र ३-२-५५ की टीकामै एक जगह उदाहरण दिया है - " तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते । " इससे मालूम होता है कि भट्टाकलंकदेवसे याद अर्थात् वि० की नौवीं शताब्दि के बाद और पंचवस्तुके पूर्वो लिखित लोक इसी वृत्तिका उल्लेख जान पड़ता है, इस लिए आर्य श्रुतकीर्तिके अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दि के पहले – किसी समयमै वे हुए १ नं. ५९० A और B सन १८७५-७६ को रिपोर्ट । २- पंचवस्तु | भांडारकर रिसर्च इन्स्टिटयूटमें इसकी दो प्रतियाँ मौजूद हैं, जिनमें एके ३००-४०० वर्ष पहले लिखी हुई है और बहुत शुद्ध है । पनसंख्या ९१ है । इस पर लेखकका नाम और प्रति लिखनेका समय आदि नहीं है। इसके अन्तमें केवल इतना लिखा हुआ है "रुतिरियं देवनंयाचार्यस्य परवादिमथनस्य ॥ छ ॥ शुभं भवतु लेखकपाठकयेाः ॥ श्रीसंघस्य ॥” दूसरी प्रति रत्नकरण्ड श्रावकाचारवचनिका आदि अनेक भाषाग्रन्थोंके रचयिता सुप्रसिद्ध प ण्डित सदासुखजीके हाथकी लिखी हुई है और संवत् १९९० की लिखी हुई है । इसके अन्तमें प्रतिलेखकने आपना परिचय इसतरह दिया है:अब्दे नभञ्चन्द्रनिधिस्थिरांके शुद्धे सहयम (?) युक्चतुर्थ्यांम् | सत्प्रक्रियाबन्धनिबन्धनेयं सद्वस्तुवृ तीरदनात्समाप्ता (१) ॥ श्रीमन्नराणामधिपेशराशि श्रीरामसिहे विलसत्यलेखि । श्रीमद्युघेनेह सदासुखेन श्रीयुक्तेलाल निजात्मबुद्धयै ॥ शाब्दीयशास्त्रं पठितं न यैस्तैः स्वदेहसंपालनभारवद्भिः । किं दर्शनीयं कथनीयमेतद् वृथांग संघावपलापवद्भिः ॥ यह प्रति भी प्रायः शुद्ध है । यह टीका प्रक्रियाबद्ध टीका है और बड़े अच्छे * वीरनन्दि और अभयनन्दिका समय जानने के लिए देखो त्रिलोकसार प्रन्थकी मेरी लिखी भूमिका । ३ नं० १०५९ सन १८४७-९१ की रिपोर्ट । २ नं० ५९० सन १८७५-७६ की रिपोर्ट । ३ इस ग्रन्थको एक प्रति परतादगढ (माळवा) के पुराने दि० जैनमन्दिर के मंडारमें भी है । देखो जैनमित्र ता० २६ अगस्त १९१५ | Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [ भाग दंगसे लिखी गई है। इसकी श्लोकसंख्या ३३०० अधूरी प्रति परतायगढ़ (मालवा) के पुराने दि० के लगभग है। प्रारंभक विद्यार्थियोंके लिए घडी जैनमन्दिरमे है । उसमें इस तरह प्रारंभ किया उपयोगी है। इसका प्रारंभ इसप्रकार किया है- गया है । ओं नमः श्रीशान्तिनाथाय । । महावृत्ति शुभत्सकलबुधपूज्यो सुखकरी, जगतांत्रतयनाथाय नमो जन्मप्रमायिने । विलोक्योयद्ज्ञानप्रभुविभयनन्दीप्रवहिताम्। नयप्रमाणवामश्मिध्वस्तध्वान्ताय शान्तये ॥१॥ अनेक: सच्छन्दैर्धमीवगतकः संभूतां (?) प्रत्याहारस्यादाविष्टदेव-स्तुतिवचनं मंगलार्थमुपात्तम् । प्रकुर्वेऽहं तनुमतिमहा चन्द्रविबुधः (१) ॥ आगे चलकर पांचवें पन्नमें इस प्रकार लिखा है- इससे मालूम होता है कि यह अभयनन्दी वृत्तिके गाम-रै-वर्ण-कर-चरणादीनां संधीनां बहूनां संभवत्वात आधारसे लिखी गई है। पण्डित महाचन्द्रजी विसंशयानः शिप्यः संपच्छति स्म-कस्सन्धिरिति । क्रमकी इसी बीसवीं शताब्दिके अन्धकर्ता हूँ। संज्ञास्वरप्रकृतिहरूजविसर्गजन्मा इन्होंने संस्कृत, प्राकृत और सापामें कई ग्रन्थ संधिस्तु पंचक इनात्यमिहाहुरन्ये । लिखे हैं। तत्र स्वरप्रतिहल्जविकल्पतोऽस्मि ४-जैनेन्द्रप्रक्रिया । इसे न्यायार्थ न्यायशास्त्री न्संधि विधा कथयति श्रुतकीर्तिरायः॥ पं० अंशीधरजीने अभी हाल ही लिखी है । इसका इस ग्रन्थके आदि-अन्तम कहीं भी इसके कतीफा अभी फेवल पूर्वार्ध ही छपकर प्रकाशित हुआ है। नाम नहीं है। केवल इसी जगह यह नाम आया ६ शब्दार्णवकी टीकायें। और इससे मालूम होता है कि पंचवस्तुके रचयिता आर्य श्रुतकीर्ति हैं। जैनेन्द्र सूत्रपाठके संशोधितं परिवर्धित संस्कर__ फनडी भाषाके चन्द्रप्रभचरित नामक ग्रन्थके णका माम-जैसा कि पहले लिखा जा चुका हैकर्मा अग्गल कविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बत- शब्दार्णव है । इसके कर्ता आचार्य गुणनन्दि हैं। लाया है-" इति परमपुरुनाथकुलभूभृत्समुदतप्रव- यह बहुत संभव है कि सूत्रपाठके सिवाय उन्होंने चनसरित्सरिनाथ-श्रुतकीर्तिविद्यचक्रवर्तिपदप- उसकी कोई टीका या वृत्ति भी बनाई होगी जो कि भनिधानदीपतिश्रीमदग्गलदेवविरचिते चन्द्रप्रभ-- अभीतक उपलब्ध नहीं हुई है। चरिते--" इत्यादि । और यह चरित शक संवत् गुणनन्दि नामके कई आचार्य हो गये हैं । उन१०११ (वि० सं० १९४६) में बनकर समाप्त हुआ मैसे एक शक संवत् ३८८ (वि० सं० ५२३) मैं है । अतएव पंचवस्तुको भी अभयनन्दि महावृत्ति- पूज्यपादसे भी पहलेके हैं। दूसरे गुणनन्दि का के कुछ ही पीछे की-विक्रमकी बारहवीं शताब्दि उल्लेख श्रवणबेलगोलके ४२, ४३ और ४७ वे नम्बके प्रारंभ की-रचना समझना चाहिये । नन्दिसंघ- रके शिलालेखोम मिलता है। ये बलाकपिचके की गुर्वावली में श्रुतकीर्तिको वैयाकरण भास्कर शिष्य और गृधपिच्छके प्रशिष्य थे। तर्क, व्याकर ण और साहित्य शास्त्रके बहुत बड़े विद्वान थे. __" त्रैविद्यः श्रुतकीयाख्यो वैयाकरणभास्करः।" इनके ३०० शास्त्रपारंगत शिष्य थे और उनमें . ये नन्दिसंघ, देशीयगण और पुस्तकगच्छके आ. ७२ शिष्य सिद्धान्तशाली थे। आविपके गुह चार्य थे । श्रुतकीर्ति नामके और भी कई आचार्य देवेन्द्र भी इन्हीं के शिष्य थे। अनेक प्रस्थकारने हो गये हैं। इन्हें कई काव्योंका कर्ता बतलाया है परन्तु अभी. ३-लघुजैनेन्द्र । इसकी एक प्रति अंकलेश्वर १ देखो जैनमिन ता० २६ अगस्त १९१५ । (भरोच ) के दिगम्बर जैनमन्दिरमे है और दूसरी २ मर्कराका ताम्रपत्र, इंघियन एण्टिक्वेरी, जिल्द १, पृष्ठ देखो . पिठरीनकी दूसरी रिपोर्ट सन १८८४, ३६३-६५ । तथा एपिग्राफिका कर्नाटिका-जिल्द १, का पृष्ठ १६४। पदला लेना Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क ) जिनेन्द्र याकरण और आचार्य देवनन्दी ................. तक इनका कोई काव्य नहीं मिला है। कर्नाटक विद्यके गुरु थे । संभव है कि शब्दार्णपके कर्ता कविचरितके कर्ताने इनका समय वि० संवत् ये ही हो। ९५७ निश्चय किया है । क्यों कि हनके शिष्य देवे- शब्दार्णवकी इस समय दो टीकार्य उपलब्ध है द्रफे शिष्य आदि पंपका जन्म वि० सं० ९५९ में और दोनों ही सनातन जैग अन्धमालामें आप हुआ था और उसने ३९ वर्षकी अवस्था में अपने चुकी हैं-१ शब्दार्णवचन्द्रिका, और २ शब्दासुप्रसिद्ध कनडी काव्य भारतचम्पू और आदिपु- र्णवप्रक्रिया। राण निर्माण किये हैं। हमारा अनुमान है कि येही १-शब्दार्णवचन्द्रिका । इसकी एक बहुत ही गुणनन्दि शध्दार्णवके कर्ता होंगे। श्रवण येलगोलके प्राचीन और अतिशय जीर्ण प्रति भाण्डारकर रि४७ शिलालेखमें इनके सम्बन्धमे नीचे लिखे सर्च इन्स्टिट्यूटमें मौजूद है। यह ताडपत्रपर नागरी श्लोक मिलते हैं: लिपिमें है। इसके आदि-अन्तके पत्र प्रायः नष्ट श्रीगृद्धपिच्छमुनिपस्य बलाकापच्छः हो गये हैं। इसमें छपी हुई प्रतिमें जो गद्य प्रशस्ति शिष्योऽजनिष्ट रश्नत्रयवर्तिकीर्तिः । है,यह नहीं है । और अन्तमें एक श्लोक है जो मारित्रचन्चुराखलावनिपालमौलि भाधा पढ़ा जाता है-"मंगलमस्तु।.......इन्द्रश्चद्रमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः ॥ ६ ॥ शकटतनयः पाणिनिः पूज्यपादो यन्मोवाचापिशतच्छियो गुणनन्दिपण्डितयति: चारित्रचक्रेश्वरः। लिरमरः काशस्लि.......शब्दपारायणस्योति।" तळव्यारणादिशास्त्रनिपुणः साहित्यविद्यापतिः ॥ ७ इसके कर्ता श्रीसोमदेव मुनि हैं। ये शिलाहार मिथ्यात्वादिमदान्धसिन्धुरघटासंघातकण्ठौरवो। घंशके राजा भोजदेव [द्वितीय ] के समयमें हुए भव्याम्भोजीदवाकगे विजयतां कन्दर्पदपापहः ।। है और अर्जुरिका नामक ग्रामके त्रिभुवनतिलक तच्छिष्यात्रिशतं विवेकनिधयः शास्त्राब्धिपारंगताः मामक जैनमन्दिरमें-जो कि महामण्डलेश्वर गंडतेपू-कृष्टसमा द्विसप्ततिमिताः सिद्धान्तशास्त्रार्थकाः॥९ रादित्यदेवका बनवाया हुआ था-उन्होंने इसे व्याख्याने पटवो विचित्रचरिताः तेषु प्रसिद्धो मुनि।। शक संवत् ११२७ [वि० सं० १२६२] में पनाया मानानूननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्रसैद्धान्तिकः ॥१. है। यह प्राम इस समय आजरें नामसे प्रसिद्ध है चन्द्रप्रभचरित महाकाव्यके की वीरनन्दिका और कोल्हापुर राज्यमें है । वादीभवनांकश समय शक संवत ९०० के लगभग निश्चित होता श्रीविशालकीर्ति पण्डितदेयके वैयावृस्यले इस है। क्योंकि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथकाव्यमें प्रन्थको रचना हुई है: "श्रीसोमदेवयतिनिर्मितिमादधाति उनका स्मरण किया है। और धीरनन्दीकी गुरु. या नौः प्रतीतगुणनंदितशंन्दवा । परम्परा इस प्रकार है-१ श्रीगुपनन्दि, २ विबुधगुणनन्दि, ३ अभयनन्दि और धीरनन्दि। यदि पहले नं. २५ सन १८८०-८८ की रिपोट । गुणनन्दि और पोरनन्दिके यीचर्म हम ७८ वर्षका २ ये विशालकीर्ति वे ही मालूम होते हैं जिनका उल्लेख अन्तर मान लें, तो पहले गुणनन्दिका समय वही पं० आशाघरने अपने अनगारधर्मामृतको प्रशस्तिकी टीका शक संवत् ८२२ या वि० सं०९५७ के लगभग आ 'वादीविशालकीति' के नामसे किया है और जि. जायगा। इससे यह निश्चय होता है कि वारनन्दिः को उन्होंने न्यायशास्त्र में पारंगत किया था। पं० आशा- . की गुरुपरम्पराके प्रथम गुणनन्दि और आदिपंपके घर वि० सं० १२४९ के लगभग धारामें आये थे और वि० गुरु देवेन्द्र के गुरु गुणनन्दि एक ही होंगे और जैसा सं० १३०० तक उनके अस्तित्वका पता लगता है। किहम पहले लिख चुके हैं येही शब्दार्णवके फर्ता (देखो मनिर्मित विद्वदरममालामें 'पण्डित प्रवर माशाधर शार्षफलस ) अतः सोमदेवका वैयावृत्य करनेवाले विशालगुणनन्दि नामके एक और आचार्य शक संवत् कार्ति इसरे नहीं हो सकते १० आशाधरके पाससे पढारती १०३७ [वि० सं० १९७२ ] में हुए हैं जो मेघचन्द्र वे दक्षिणक और चले आये होंगे। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भाग । जैन साहित्य संशोधक सेय सताममलचेतसि विस्फुरती को शम्दार्णव व्याकरणका कर्ता ही प्रकट कियां वृत्तिः सदा नुतपदा परिवर्तिषीष्ट । गया है। • स्पस्ति श्रीकोल्हापूरदेशांतर्वार्जुरिकामहास्थानयुधिष्ठि- श्रय देखना चाहिए कि ये मेघचन्द्र और नांगरावतारमहामण्डलेश्वरगंडरादित्यवेवनिर्मापितत्रिभवनतिलक.. चन्द्र आदि कौन थे और कवर है:शिनालये श्रीमत्परमपरमोहिनीनमिनाथश्रीपादपद्माराधनयलेन ये मेघचन्द्र आचारसारके कर्ता वीरनन्दि सि. वादीसवांकुशश्रीविशालकोतिपहितदेववेयावृत्यतःश्रीमच्छि -. द्धान्त चक्रवर्तीके गुरु ही मालूम होते है। ये बड़े लाहारकुल कमलमातडजःपुंजराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टा -- भारी विद्वान थे । इन्हें सिद्धान्तज्ञतामें जिनसेनं रकाधिमचक्रवर्तिश्रीवीरभोजदेवविजयराज्ये शकवकसह-. और वीरसेनके सश, न्यायमें अकलंकके जैक्शतसमविंशति ११२७ तमक्रोधन संवत्सरे स्वस्ति समान और व्याकरणमें साक्षात् पूज्यपाद सदृश समस्तानयद्यविद्याचकचक्रवत्तिश्रीपूज्यपादानरक चेतसा धी-- यतलाया है। श्रवणबेलगोलके नं० ४७,५० और मत्वोनदेवमुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णवचन्द्रिका नाम ५२ नम्बरके शिलालेखोंसे मालूम होता है कि इनवृनिरिति । इति श्रीपूज्यपादरुतजैनेन्द्रमहाव्याकरण का स्वर्गवास शक संवत् १०३७ (वि० सं० ११७२) सम्पूर्णम् ।" में और उनके शुभचन्द्रदेव नामक शिष्यका स्वर्गयशस्तिलकचम्पूके कर्ता सुप्रसिद्ध सामदेव- बाल शक संवत् १०६८ (वि० सं० १२०३ ) में हुआ सूरि इनसे पहले हुए हैं क्यों कि उनका उक्त चम्पू था। तथा उनके दूसरे शिष्य प्रभाचन्द्रदेवने शक शक लंधर ८८१ [वि. १०१६] में समाप्त हुआ सं० १०४१ (वि० सं० १९७६) में एक महापूजाप्रथा । अतएव उनसे और इनसे कोई सम्बन्ध नहीं तिष्टा कराई थी। जब सोमदेवने शब्दार्णवचन्द्रि है, यह स्पष्ट है। का मेघचन्द्रक प्रशिष्य हरिचन्द्र के लिए शक सं० इस प्रत्यके मंगलाचरणमें नीचे लिखे दो श्लोक ११२७ (वि० सं० २२६२ ) में बनाई थी, तब मेधदिये हैं: चन्द्रका समय वि० सं० ११७२ के लगभग माना श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं जा सकता है। सोमामरव्रतिपपूजितपादयुग्मम् । नागचन्द्र नामके दो विद्वान् हो गये हैं, एक सिद्धं समुन्नत रदं वृषमं जिनेन्द्र पपरामायणके कर्ता नागचन्द्र जिनका दूसरा नाम सन्छन्दलक्षणमहं विनमामि वीरम् ॥१॥ आभिनव पंप था, और दूसरे लब्धिसारटीकाके कर्ता श्रीमूलसंघजलजप्रतिबोधमानो नागचन्द्र । पहले गृहस्थ थे और दूसरे मुनि । • मधेन्दुदी क्षतभुजंगसुधाकरस्य । अभिनव पंपके गुरुका नाम बालचन्द्र था जो मेघचराधान्ततोयनिविवृद्धिकरस्य वृत्ति न्द्र के सहाध्यायी थे, और दूसरे स्वयं बालचन्द्रके रेभे हरीदुयतये वरदीक्षिताय ॥ २॥ शिष्य थे । इन दूसरे नागचन्द्र के शिष्य हरिचन्द्रहनमसे पहले श्लोकमें पूज्यपाद, गुणनन्दि और . 1 के लिए यह वृत्ति बनाई गई है। इन्हें जो 'राद्धान्त सोमदेव ये विशेषण धीर भगवानको दिये हैं। तोयनिधिवृद्धिकर 'विशेषण दिया है उससे मा. दूसरे श्लोकमें कहा है कि यह टीका मूलसंघीय लूम होता है, कि ये सिद्धान्तचक्रवर्ती या सिदामेवभन्द्र के शिष्य नागचन्द्र (मुजंगसुधाकर और न्त शास्त्रोक शाता या टीकाकार होंगे। उनके शिव्य हरिचन्द्र यतिके लिए बनाई जाती हो । २-शब्दार्णवप्रक्रिया । यह जैनेन्द्र प्रक्रियाके गुणमान्दिकी प्रशंसा चरादि धातुपाठके अन्तम नामले छपी है। परन्तु हमारा अनुमान है कि इसभी एक पद्यमें की गई है जिसका अन्तिम चरण १ मेपचन्द्र के विषयमें विशेष जानने के लिए देखो मामि.. यह है: कचन्द्र प्रन्यमालाके 'आचारसार' की भूमिका शब्दब्रह्मा स जीयाद् गुणनिधिगुण दिव्रतीशस्सुसौरख्यः। २ देखो, 'इन्क्रिप्शनस एट श्रदणवेगोक'का अर्थात् इसमें शव्यब्रह्मा विशेषण देकर गुणनन्दि- शिलाठेच । बाँ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी । का नाम शब्दार्णव-प्रक्रिया ही होगा। हमें इसकी तीसरे पद्यमै भट्टारकशिरोमणि श्रुतकीर्ति देकोई हस्तलिखित प्रति नहीं मिल सकी । जिस वकी प्रशंसा करता हुआ कवि कहता है कि वे तरह अभयनन्दिकी वृत्ति के बाद उसीके आधारसे मेरे मनरूप मानससरोवरमै राजहंसके समान चिरप्रक्रियारूप पंचवस्तु टीका बनी है, उसी प्रकार काल तक विराजमान रहे । इसमें भी ग्रन्थकर्ता सोमदेवकी शब्दार्णव-चन्द्रिकाके बाद उसीके आपना नाम प्रकट नहीं करते हैं। परन्तु अनुमानसे आधारसे यह प्रक्रिया बनी है। प्रकाशकोंने इसके ऐसा जान पडता है कि ये श्रुतकीर्तिदेवके कोई कर्ताका नाम गुणनन्दि प्रकट किया है। परन्तु आन शिष्य होंगे और संभवतः उन श्रुतकीर्तिके नहीं पडता है इसके अन्तिम श्लोकोंमें गुणनन्दिका नाम जो पंचवस्तुके कर्ता हैं। ये श्रुतकीर्ति पंचवस्तुके देखकर ही भ्रमवश इसके कतीका नाम गुणनन्दि कर्ताले पृथक् जान पड़ते हैं । क्योंकि इन्हें प्रक्रिसमझ लिया गया है । घे श्लोक नीचे दिये याके कर्तीने 'कविपति ' बतलाया है, व्याकरण जाते हैं: नहीं । ये वे ही श्रुतकीर्ति मालूम होते हैं जिनका : सत्संधिं दधते.समासमभितः ख्याताधनामोनतं समय प्रो० पाठकने शक संवत १०४५ या वि० सं० . नितिं बहुतद्धितं कृतमिहाख्यातं यशःशालिनम् । १९८० बतलाया है । श्रवणयेल्गोलके जैनगुरुओंने सैपा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णव निर्णयं . 'चारुकीर्ति पंडिताचार्य ' का पद शक संवत् नावत्याश्रयतां विविक्षुमनसां साक्षात्स्वयं प्रक्रिया ॥१॥ १०३९ के बाद धारण किया है और पहले 'चारदुरितमदेभनिशुंभकुम्भस्थलभेदनक्षमोमनखैः। कीर्ति इन्हीं श्रुतकीतिके पुत्र थे। अवणबेलगोलके राजन्मृगाधिराजो गुणनन्दी भुवि चिरं जीयात्।। २ १०८ वे शिलालेखमें इनका जिकर है और इनकी सन्मार्गे सकलसुखप्रियकरे संज्ञापित सहने बहुत ही प्रशंसा की गई है। लिखा हैप्रा(दि)ग्वासस्सुचरित्रवानमलकः कांतो विवेकी प्रियः । तत्र सर्वशरीरिरक्षाकृतमतिर्विजितेन्द्रियः। सोयं यः श्रुतकीर्तिदेवयतिपो भट्टारकोत्तसको सिद्धशासनवर्द्धन्प्रतिलव्धकीर्तिकलापकः ॥२२॥ रम्यान्मम मानसे कविपतिः सद्राजहंसश्विरम् ॥३ विश्रुतश्रुतकीर्तिभट्टारकयतिस्समजायत । इनमेसे पहले पद्यका आशय पहले लिखा जा प्रस्फुरद्वचनामृतांशुविनाशिताखिलहत्तमाः ॥२३॥ , चुका है। उससे यह स्पष्ट होता है कि गुणनन्दिके प्रक्रियाके कर्ताने इन्हें भट्टारकोत्तंस और शुलशब्दार्णवके लिए यह प्रक्रिया नावके समान है। कीर्तिदेवयतिप लिखा है और इस लेखमें भी भहा. और दूसरे पयमें कहा है कि सिंहके समान गुणन- रफयति लिखा है। अतः ये दोनों एक मालूम होते दि पृथ्वीपर सदा जयवन्त रहे । मालूम नहीं, हैं । आश्चर्य नहीं जो इनके पुत्र और शिप्य चारइन पयोंसे इस प्रक्रियाका फर्तृत्व गुणनन्दिको कीर्ति पण्डिताचार्य ही इस प्रक्रियाके कती हो। कैसे प्राप्त होता है । यदि इसके कर्ता स्वयं गुणन- समय-निर्णय। . न्वी होते तो घे स्वयं ही अपने लिए यह कैसे कहते :१) शाकटायन व्याकरण और उसकी अमोघवृ. कि वे गुणनन्दि सदा जयवन्त रहे । इनसे तो तिनामकी टीका दोनों ही के कर्ता शाकटायन नामसाफ प्रकट होता है कि गुणनन्दि ग्रन्थकर्तासे के आचार्य है, इस वातको प्रो. के. वी. पाठकने कोई पृथक ही व्यक्ति है जिसे वह श्रद्धास्पद सम- अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया है और उन्होंने झता है । अर्थात् यह निस्संदेह है कि इसके कत: यह भी बतलाया है कि अमोववृत्ति राष्ट्रकूट राजा गुणनन्दिके अतिरिक्त कोई दूसरे ही हैं। १ देखो 'सिस्टम्च आफ संस्कृत प्रामर' पृष्ठ ६७ ॥ १ छपी हुई प्रतिके अन्तमें " इति प्रक्रियावतारे २ देखो, मेरा लिखा 'कर्नाटक जैन कवि' पृष्ठ २० । ३ देखो, कृद्विधिः पाठः समाप्तः। समाप्तय प्रक्रिया ।" इस तरह जैनसिद्धान्तभास्कर, किरण २-३, पृष्ठ 100 छपा है । इससे भी इसका नाम जैनेन्द्र प्रक्रिया नहीं ४ देखो, इंडियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ४३, पृष्ठ २.५-१२ जान पमन्त्रा। में प्रो० पाठकका लेख। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ [भाग 1 amunmun m. wwwsa n am जैन साहित्य संशोधक अमोघ वर्षके समयमें उसीके नामसे बनाई गई । लिङ्गस्य लक्ष्म ही समस्य विशेपयुक. है। इससे यह सिद्ध होता है कि शाकटायन व्या- मुकं मया परिमित त्रिदशा इहार्याः ॥३१॥ करण-(खून) अमोघवर्षके लमयमै अथवा उससे इससे भी सिद्ध होता है कि पि० स० ८५० कुछ पहले पनाया गया होगा। अमोघवर्षने शक लगभग जैनेन्द्र प्रख्यात व्याकरणों में गिना जाता संवत् ७३७ से ८०० तक (वि० सं०८७२ से १३५ था। अतएव यह इस समयसे भी पहलेका वनां तक) राज्य किया है। अतः यदि हम शाकटायन हुआ होना चाहिए। सूत्रोंके धननेका समय वि० सं० ८५० के लगभग ३) हरिवंशपुराण शक संवत् ७०५ (वि० सं० मान लें. तो वह वास्तविकता के निकट ही रहेगा। ८४०)-का बना हुआ है। इस समय यह सम शाकटायन व्याकरणको बारीकीके साथ देखना हुआ है । उस समय दक्षिणमें राष्ट्रकूट राजा कृष्णं से मालूम होता है कि वह जैनेन्द्रसे पीछे बना (शुभतुंग या साहसतुंग) का पुत्र श्रीवल्लभ (गोवि. हुआ है। क्यों कि उसके अनेक सूत्र जैनेन्द्रका म्दराज द्वितीय) राज्य करता था। इस राजाने शक अनुकरण करके रचे गये हैं । उदाहरणके लिए ६९७ ते ७०५ नका वि०८३२ से ८४०] तक राज्य जनेन्द्र के " वस्तेढ " (४-२-१५४), " शिलाया- किया है। इस हरिवंशपुराणमें पूज्यपाद या देवनतुः, (४-१-१५५ ) "ढच" .८.४१-२०९) आदि न्दिकी प्रशंसा इस प्रकार की गई है । सूत्रोंको शाकटायनने थोडा बहुत फेरफार करके गाईवचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापि (डिव्याकरणक्षिणः । अथवा ज्यों का त्यो ले लिया है। अनेन्द्रका एक सूत्र देवस्य देववन्यस्य न वदते गिरः कथम् ॥ ३॥ है- हिंदौदिः " (१-१.५१) शाकटायनने इसे यह यात निस्सन्देह होकर कही जा सकती है कि ज्यो का त्यों रख कर अपना पहले अध्याय, पहले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता देवनन्दि वि० सं ८०० से पादका ५२ वां सूत्र बना लिया है। इस सूत्रको भी पहलेके हैं। लक्ष्य करके भट्टाकलंकदेय अपने राजवार्तिकं (१- ४) उपर बतलाया चुका है कि तत्वार्थराज. ५-१, पृष्ठ ३७ ) में लिखते हैं- "क्वचिदवयवे टि- वार्तिको जैनेन्द्र व्याकरणके एक सूत्रका हवाला शादिरिति ।" और भट्टाकलंकदेव शाकटायन तथा दिया गया है । इसी तरह "सर्वादिः सर्वनाम" अमोघवर्षसे पहले राष्ट्रकूट राजा साहसतुंगके [१.१-३५] सूत्र भी जैनेन्द्रका है, और उसका समयमें हुए हैं, अत एव यह निश्चय है कि अक- उल्लेख राजवार्तिक अध्याय सूत्र ११ की व्याख्याने लंकदेवने जो 'टिदादि ' सूत्रका प्रमाण दिया है, किया गया है। इससे सिद्ध है कि जैनेन्द्र ब्याकरण वह जैनेन्द्र के सूत्रकोही लक्ष्य करफे दिया है, शाक- राजवार्तिकसे पहलेका बना हुआ है। राजार्तिकटायनके सूत्रको लक्ष्य करके नहीं । इससे यह के कर्मा अकलंकदेव राष्टकट राजा साहसतुंगसिद्ध हुआ कि शाकटायन जैनेन्द्रले पछिका बना जिसका दूसरा नाम शुभतुंग और कृष्ण भी हैहुआ है । अर्थात् जैनेन्द्र वि० सं० ८५० से भी पहले की सभा गये थे, इसका उल्लेख श्रवणबेलगोलकी बन चुका था। मलिषणप्रशस्तिमें किया गया है। और साहसतुंग. २) वामनप्पणीत लिङ्गानुशासन नामका एक ने शक संवत् ६७५ से ६९७ [वि० सं० ८१० से अन्य अभी हाल ही गायकवाड ओरियंटल सौरी- ८३२] तक राज्य किया है। यदि राजवार्तिकको जमें प्रकाशित हुआ है। इसका कर्ता पं० वामन हम इस राजाके ही समयका बना हुआ मान, रापट राजा जगतुंग या गोविन्द तृतीयके समय- तो भी जैनेन्द्र वि. स.८०० से पहलेका बना हुआ में हुआ है और इस राजाने शक ७१६ ते ७३६ सिद्ध होता है। (वि०८५१-८७१) तक राज्य किया है ! यह ग्रन्थ कार्ता नीचे लिखे पद्यमें जनेन्द्रका उल्लेख करता है. १ देव देवन्दिका ही संक्षिप्त नाम है । शब्दार्णवन्दि ध्याडिप्रणतिमय वारस्व सचान्द्र कामें 1-४-११४ सूत्रकी व्याख्यायें लिया है-"देवोपबैनेन्द्ररक्षणगतं विवि तमान्यत् । इत्यनेकशेपन्याकरणम् ।" Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] जैनेन्द्र पाकरण और आचार्य देवनन्दी उक्त प्रमाणास यह तो निश्चय हो गया कि तबतक हमें देवनन्दिको कुन्दकुन्नाम्नाय और जैनेन्द्रक कर्ता विक्रम सं० ८०० से पहलं हुए देशीयगणक आचार्य वदननन्दिका शिष्य या प्र. हैं । परंतु यह निश्चय नहीं हुआ कि कितने शिष्य माननेमें कोई दोष नहीं दिखता । उनका पहले हुए हैं। इसके लिए आगेके प्रमाण देखिए। समय विक्रमकी छठी शताब्दिका प्रारंभ भी प्रायः ५-मर्करा (कुर्ग ) में एक बहुत ही प्राचीन तान- निश्चित समझना चाहिए। पत्र' मिला है । यह शक संवत् १८८ (वि०सं०५२३) ६-इस समयकी पुष्टिम एक और भी अच्छा का लिखा हुआ है। उस समय गंगवंशीय राजा प्रमाण मिलता है। वि० सं० ९९० में बने हुए 'द. भाविनीत राज्य करता था। अविनीत राजाका ना- निसार 'नामक प्राकृत अन्यमें लिखा है कि पूज्यम भी इस लेखमें है। इसमें कुन्दकुन्दान्यय और पादक शिष्य बज्रनन्दिन वि० सं०५२६ में दक्षिण देशीयगणके मुनियोंकी परम्परा इस प्रकार दी हुई मथुरा या मदुराम द्राविडसंघकी स्थापना की:-- है:-गुणचन्द्र--अभयनन्दि-शीलभद्र-शाननन्दि मिरिपुज्जपादमीसो दाविडमंत्रस्स कारगों दो। गुणनन्दि और वदननन्दि । पूर्वोक्त विनीत राजा णामण वजणंदी पाहुडवेदी महासन्यो । के बाद उसका पुत्रदुविनीत गजा हुआ है। हिस्ट्री पंचसए छब्बीसे विक्कमरायम्स मरणपत्तस्स । माफ कनडी लिटरेचर नामक अंगरेजी ग्रन्थ और 'कर्नाटककविचरित्र' नामक कनडी ग्रन्थके अनु विखणमहुराजादो दाविडयो महामाहो ॥ सार इस राजाका राज्यकाल ई० संन ४८२ से ५१२ , इससे भी पूज्यपादका समय वही छठी शता. (वि०५३९-६९) तक है। यह कनडी भापाका ब्दिका प्रारंभ निश्चित होता है। कवि था। भारबिके किरातार्जुनीय काव्यकं १५, प्रो० पाठकके प्रमाण। सनकी फनडी टीका इसने लिखी है । कर्नाटकफविचरित्रके कर्ता लिखते हैं कि यह राजा पूज्यः । सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं काशीनाथ बापूजी पाठकपाद यतीन्द्रका शिम्य था । अतः पूज्यपादको हमें ने अपने शाकटायन व्याकरणसम्बन्धी लग्नेम कुछ प्रमाण ऐसे दिये हैं जिनसे ऐसा भाल होता है कि विक्रमकी छठी शताब्दिके प्रारंभका प्रत्यकर्ता मा जैनेन्द्र के समयका मानो अन्तिम निर्णय हो गया। नना चाहिए । मर्कराके उक्त ताम्रपरले भी ग्रह इन प्रमाणोंको भी हम अपने पाठकोंके सम्मुख पात पुष्ट होती है। वि. संवत् ५५३ में अविनीत उपस्थित करदेना चाहते हैं। परन्तु साथ ही यह राजा था । इसक १६ वर्ष वात वि० सं० ५६९, में . भी कह देना चाहते हैं कि ये प्रमाण जिस नीवर उसका पुन दुविनीत राजा हुआ होगा, अतएव उ., खड़े किये गये हैं, उसमें कुछ भी दम नहीं है ।जैसा सका जो राज्यकाल बतलायागया है, वह अवश्य कि हम पहले सिद्ध कर चुके हैं जैनेन्द्रका असली ठीक होगा। और जिन बदननन्दिके समय उक्त सूत्रपाठ वही है जिसपर अभयनन्दिकी महावृत्ति ताम्रपत्र लिखा गया है, संभवतः उन्हींकी शिम्य . रची गई है; परन्तु पाठक महोदयन जितने प्रमाण परम्परामें बल्कि उन्हीके शिष्य या प्रशिष्य जैनन्द्रके, दिये हैं, ये सब शब्दार्णवचन्द्रिकाके सूत्रपाठको कर्ता देवनन्दि या पूज्यपाद होंगे। क्योंकितानपत्र. असली जैनेन्द्रसूत्र मानकर दिये हैं। इस कारण की मुनिपरम्परामें नन्यन्त नाम ही अधिक हैं, और वेतवतक ग्राह्य नहीं हो सकते जबतक कि पुष्ट इनका भी नाम नन्यन्त है। इतना ही नहीं बलिक प्रमाणासे यह सिद्ध नहीं कर दिया जायकि शब्दाइनके शिष्य वज्रनन्दिका नाम भी नन्यन्त है। अतः : णवत्रन्द्रिकाका पाठ ही टीक है और इसके विरुद्धमें जबतक कोई प्रमाण इसका विरोधी न मिले, ! दिये हुए हमारे प्रमाणोका पूरा पूग खण्डन न कर इंडियन एण्टिोरी, जिल्द १, पृष्ट ३६३-६५ और दिया जाय ! एपिग्राफिका कर्नाटिका, जिल्द १ का पहला लेन। २ आर. -.. नरसिंहाचार्य, रम० ए०कन । दला इंदियन एण्टिक्री जिल्ल ४३, पृष्ट २०५-१२ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग : ___-जनन्द्रका एक सूत्र है-"हस्तायेतुद्यस्ते- "शरद्वन्छुनकरणाग्निशनकृष्णदीद भृगुवत्सवमिष्ठवगणयचे. [:-३-३६ ] । एल सूनके अनुसार 'चि' ब्राह्मणामायणे " २-४-३६ ।। का 'चाय ' हो जाता है, उस अवस्थामें जब कि इस सूत्रकी अमोघवृत्तीमें हाथले ग्रहण करने योग्य हो, उत् उपसर्गके बाद न "आग्निशर्मायणो वार्यगण्यः । अग्निशमिरन्यः।' हो और चोरी करके न लिया गया हो । जैसे 'पुष्प इस तरह व्याख्या की है। प्रचायः हस्तादेय न होनस पुष्पप्रचय, उत् उपसर्ग हुन सूत्रोंसे यह बात मालूम होती है कि पाणिहोनेसे 'पप्पांचय' और चोरी होनेसे 'पुप्पप्रचय' निमें 'वार्षगण्य' शब्द सिद्ध नहीं किया गया है होता है। इस सत्र में उत् उपसर्गके बात जो 'चाय' जब कि जैनेन्द्र में किया गया है। वार्षगण्य सांख्य होने का निषेध किया गया है, वह पाणिनिमें,+ कारिकाके कत्ता ईश्वरकृष्णका दूसरा नाम है और उसके वानिकम और भाष्य में भी नहीं है। परन्तु सुप्रसिद्ध चीनी विद्वान् डा० टक्कुसुके मतानुसार पाणिनिकी काशिकावृत्तिमें ३-३-४० सूत्रके व्या- ईश्वरकृष्ण वि० सं० ५०७ के लगभग विद्यमान थे। ख्यानमें हैं-"उच्चयस्य प्रतिषधी वक्तव्यः' इस- इससे निश्चय हुआ कि जैनेन्द्रव्याकरण ईश्वरकृष्णसलिद्ध होता है कि काशिकाके का चामन और के वाद-वि० सं०५८७ के बाद और काशिकासे जयानित्यने इसे जैनन्द्रपरसे ही लिया है और पहले-वि०सं० ७७ से पहले-किसी समय जयादित्यकी मृत्यु वि. सं० ७९७ में हो चुकी थी वना है। ऐसा चिनी यात्री इसिगने अपने यानाविवरणम ३-जैनेन्द्रका और एक सूत्र है--"गुरुदयाद् लिखा है। अतः जैनेन्द्रव्याकरण वि० सं० ७१७ भायुक्तेऽद्वे" (३-२-२५)। शाकटायनने भी इसे से भी पहलेका बना हुआ होना चाहिए। अपना २-४-२२४ वां सूत्र बना लिया है । हेमच. २-पाणिनि व्याकरणमें नीचे लिखा हुआ एक न्द्रने थोडासा परिवर्तन करके " उदितगुरो - द्युक्तेऽब्दे' (६-२-२५) बनाया है । इस सूत्रम द्वादश__ "शद्व-छुनकदीद् भृगुवत्माप्रायणे । वर्षात्मक बार्हस्पत्य संवत्सरपद्धतिका उल्लेख किया ४-१-१०२ । - सनानेटका सबसपकार १ इस संवत्सरकी उत्पत्ति वृहस्पतिकी गति परसे हुई है, इस कारण इसे वाईस्पत्य संवत्सर कहते हैं । जिस समय "शरच्छनकद ग्निशमकृष्णरणात् नृगुवत्सामायणवृष यह मालूम हुआ कि नक्षत्रमण्डलमसे बृहस्पतिकी एक गगन लगवासिष्ठं ।" ३-१-१३४ । प्रदक्षिणा लगभग १२ वर्षमें होती है, उसी समय इस संवइसीका अनुकरणकारी सूत्र शाकटायनमें इस त्सरकी उत्पत्ति हुई हांगी, ऐसा जान पड़ता है। जिस तरहसूर्यकी एक प्रदक्षिणाके कालको एक सौर वर्ष और उसके १२ वें भागको मास कहते हैं, उसी तरह इस पद्धतिमें गुरुके जन प्रमाणामे जहाँ जहाँ जनन्द्रका उल्लख हो, यहाँ वहाँ प्रदक्षिणा कालको एक गुरुवर्ष और उसके लगभग १२ व शब्दार्णव-चन्द्रिकाका मृत्रपाठ समझना चाहिए। सूत्रोंके भागको गुरुमास कहते थे । सूर्यसान्निध्यके कारण गुरु वर्षम नम्मर भी उनके अनुसार दिये गये हैं। कुछ दिन अस्त रहकर जिस नक्षत्रमें उदय होता है, उसी . इस्लादेय हस्तनादानेऽनुदि वाचि चिनो वन भवत्य. नक्षत्रके नाम गठवपके मासाँके नाम रख्खे जाते थे । य नेये। सुपप्रचायः । हस्तादेय इनि कि: पुप्पंप्रचयं गरुक मास वस्तुतः सैर वाके नाम हैं, इस कारण इन्हें सोत तहभिमरे । अनुदीति किं ! फलाञ्चयः । अस्तय चत्र संवत्सर. वैशाख संवत्सर आदि कहते थे। इस पद्धति निकि? फलप्रनयं करोति चौर्यण (शब्दार्णव-चन्द्रिका को अच्छी तरह समझने के लिए स्वर्गीय पं० शंकर यालकृष्ण दीक्षितका " भारतीय ज्योतिःशास्त्राचा इतिहास" और पाणिदिमा मूत्र इस प्रकार है-"हस्तादान रस्तये" डॉ० फलाटके 'गुप्त इन्क्रिप्शन्म' में इन्हीं दीक्षित महाग (२-३-४०) यना अंगरेजी निबन्ध पहना चाहिए। सूत्र है: तरह का है: Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अंक २] 1 गया है । यह पद्धति प्राचीन गुप्त और कदस्यवंशी राजाओंके समय तक प्रचलित थी, इसके कई प्रमाण पाये गये हैं । प्राचीन गुप्तांके शक संवन ३५७ से ४५० [वि० सं० ४५४ से ५८५ ] तक तक के पाँच ताम्रपत्र पाये गये हैं । उनमें चत्रादि संवत्सरीका उपयोग किया गया है और इन्हीं गुप्तांके समकालीन कदम्यवंशी राजा मृगेशवर्मा के ताम्रपत्रम भी पॉप संवत्सरका उल्लेख है। इससे मालूम होता है कि इस वृहस्पति संवत्सरका सबसे पहले उल्ले ख करनेवाले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्त्ता हैं और इस लिए जैनेन्द्रकी रचना का समय ईस्वी सन्की पाँचवी शताब्दि के उत्तरार्ध (विक्रमकी छठी शताइदीका पूर्वार्ध) के लगभग होना चाहिए। यह तो पहले ही बताया जा चुका है कि जैनेन्द्रकी रचना ईश्वरकृष्ण के पहले अर्थात् वि० सं० ५०७ के पहले नहीं हो सकती, क्यों कि उसमें वागण्या उल्लेख हैं । जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी पाठक महाशयने इन प्रमाणोंमें 'हस्तादेयेनुद्यस्य चेः', 'शरइच्छुक दर्भानिश कृष्णरणात् भृगुवत्साग्रायणवृपगणब्राह्मणवसिष्ठे' और 'गुरु दयाद् भायुक्तेन्डे' सूत्र दिये हैं, परन्तु ये तीनों ही जैनेन्द्रके असली सूत्रपाठ इन रूपोंमें नहीं हैं, अतएव इनसे जैनेन्द्रका समय किसी तरह भी निश्चित नहीं हो सकता है । , हाँ, यदि जैनेन्द्रकी कोई स्वयं देवनन्दिकृत वृत्ति उपलब्ध हो जाय, जिसके कि होनेका हमने अनुमान किया है. और उसमें इन सूत्रोंके विषयको प्रतिपादन करनेवाले चार्तिक आदि मिल जाये - मि ल जानेकी संभावना भी बहुत है - तो अवश्य atures मायके ये प्रमाण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होंगे। पाठक महाशय के इन प्रमाणोंके ठीक न होने पर भी दर्शनसारके और मर्कराके ताम्रपत्रके प्रमा रे यह बात लगभग निश्चित ही है कि जैनेन्द्र विक्रमकी ही शताब्दीक प्रारंभ की रचना है । ८६. जैनेन्द्रोक्त अन्य आचार्य | पाणिनि आदि वैयाकरणोंने जिस तरह अपनेसे पहले के वैयाकरणों के नामोंका उल्लेख किया है उसी उल्लेख मिलता है :तरह जैनेन्द्रसूत्रोंमें भी नीचे लिखे आचार्यका १- गहू भूतबलेः । ३-४-८३ | २ - गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम । १-४-३४ । - रुपसृजां यशोभद्रस्य । २-१-९९ । ४- रात्रेः रुतिप्रभाचन्द्रस्य । १-३-१८० | ५-वत्तेः सिद्धसेनस्य | ५-१-७ | ६ - चतुष्टयं समन्तभद्रस्य । ५-४-१५० । ग्रन्थकर्त्ता तो हो गये हैं, परन्तु उन्होंने कोई व्याजहां तक हम जानते हैं, उक्त उहाँ आचार्य करण ग्रन्थ भी बनाये होंगे, ऐसा विश्वास नहीं होता । जान पडता है, पूर्वोक्त आचायक ग्रन्थोंमें जो 'जुदा जुदा प्रकारके शब्दप्रयोग पाये जाते होंगे उन्हीं को व्याकरणसिद्ध करनेके लिए ये सव सूत्र रचे गये हैं । इन आचायोंमसे जिन जिनके ग्रन्थ उपलब्ध है, उनके शब्दप्रयोगों की बारीकीके साथ जांच करनेसे इस वानका निर्णय हो सकता है । आशा है कि जैन समाजके पण्डित गण इस विपयमें परिश्रम करनेकी कृपा करेंगे । १ भूतबलि । इनका परिचय इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार कथामें दिया गया है । भगवान् महावीरके निर्वाणके १८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही। इसके बाद विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, और अर्हदत्त नामके चार आरातीय मुनि हुए जिन्हें अंग और पूर्वके अंशोंका ज्ञान था । इनके बाद अर्हछलि और माघनन्दि आचार्य हुए । इन्हें उन अंशोंके भी कुछ अंश ज्ञान रहा। इनके बाद धरसेन आचार्य हुए । इन्होंने भूतवलि और पुष्पदन्त नामक दो मुनियोंको विधिपूर्वक अध्ययन कराया और इन दोनोंने महाकर्मप्रकृतिप्राभृत या पट्खण्ड नामक शास्त्रकी रचना की । यह प्रन्थे ३६ हजार लोक प्रमाण है। इसके प्रारंभका कुछ भाग पुष्प १ संभवतः यह ग्रन्थ सुडबिद्री ( मंगलोर) के जैनभमौजूद है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोध.. . . [भाग १ दन्त आचार्यका और शेष भूतबालिका बनाया हुआ विदुषणांपु संसन्स यस्य नामापि कीर्तितस् । है।वीरनिर्वाणसंवत् ६८३ के बाद पूर्वोक्त सब आचार्य निखर्वयति तद्ग यशोभद्रः स पातु नः ॥ ४६ .. क्रमसे हुए, या अक्रमसे; और उनके बीच में कितना इनके विपयमें और कोई उल्लेख नहीं मिला और कितना समय लगा, यह जाननेका कोई भी साधन न यही मालूम हुआ कि इनके बनाये हुए कौन नहीं है । यदि हम इनके वीचका समय २५० वर्ष कौन ग्रन्थ हैं। आदिपुराणके उक्त लोकसे तो वे मान लें तो भूतलिका समय वीरनिर्वाण संवत् ९३३ तार्किक ही जात परते हैं। (शक संवत् ३२८ वि० सं० ४६३) के लगभग प्रभाचन्द्र । आदिपुराणमें न्याय कुमुदचन्द्रो. निश्चित होता है । और इस हिसावले वे पूज्यपाद दयके कर्ता जिन प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, स्वामसेि कुछ ही पहले हुए हैं, ऐला अनुमान उनसे ये पृथा और पहलेके मालूम होते हैं। होता है। क्यों कि चन्द्रोदयके कर्ता अकलङ्गभटके समयमै २ श्रीदत्त । विक्रमकी ९ वीं शताब्दिके सुप्रसिद्ध हुए हैं, इस लिए उनका जिक जैनेन्द्र में नहीं हो लेखक विद्यानन्दने अपने तत्त्वार्थ-लोकवार्तिकमै सफता । मालूम नहीं, ये प्रभाचन्द्र किस ग्रन्थके श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक अन्धका उल्लेख कता है और कय हुए हैं। किया है: ५ सिद्धसेन । ये सिद्धसेन दिवाकरके नामले द्विप्रकार जगौ जल्पं तत्त्व-प्रातिभगोचरम् । प्रसिद्ध है । ये बड़े भारी तार्किक हुए हैं। स्वर्गीय त्रिषष्टवादिना जता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥ डा० सतीशचन्द्र विद्याभषणका खयाल था कि विइससे मालूम होता है कि ये ६३ वादियाँके क्रमकी सभाके 'क्षपणफ ' नामक रत्न यही थे। जीतनेवाले बड़े भारी तार्किक थे । आदिपुराणक आदिपुराणमें इनका कवि, और प्रवादिगजकेसरी कर्ता जिनसेनसरिने भी इनका स्मरण किया है कहकर और हरिवंशपुराणमें सूक्तियोंका कर्ता क और इन्हें वादिगजोंका प्रभेदन करनेके लिए सिंह हकर स्मरण किया है। न्यायावतार, सम्मतितर्क, बतलाया है: कल्याणमन्दिरस्तोत्र और २० द्वात्रिंशिकायें (स्तु. श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपः श्रादीप्तमूर्तये । तियां) इनकी उपलब्ध हैं । यदि विक्रमका समय कण्ठीरवायितं येन प्रवादीमप्रभेदने ॥ ४५ ईसाकी छठी शताब्दी माना जाय-जैसा किप्रोमो क्षमूलर आदिका मत है-तो सिद्धसेन इसी समय. वीरनिर्वाण संवत् ६८३ के बाद जो ४ आरातीय में हुए हैं और लगभग यही समय जैनेन्द्रके बनमुनि हुए हैं, उनमें भी एक का नाम श्रीदत्त है। नेका है।* उनका समय वीरनिर्वाण सं० ७०० ( शक सं० ९५-वि० सं० २३० ) के लगभग होता है। यह भी ६ समन्तभद्र । दिगम्बर सम्प्रदायके ये बहुतसंभव है कि आरातीय श्रीदत्त दूसरे हो और जल्प ही प्रसिद्ध आचार्य हए हैं । बीसौ दिगम्बर प्रन्थनिर्णयके कर्ता दूसरे । तथा इन्हीं दूसरेका उल्लेख कारोन इनका उल्लेख किया है। ये बड़े भारी ताजैनेन्द्र में किया गया हो। फिक और कवि थे। इनका गृहस्थावस्थाका नाम वर्म था । ये फणिमण्डल (?) के उरगपुर-नरेशके ३ यशोभद्र । आदिपुराणसे संभवतः इन्हीं यशोभद्रका स्मरण करते हुए कहा है * सिद्धसेन ईश्वांकी ६ ठी शताब्दीसे बहुत पहले हो गगे --- है। क्यों कि विक्रमकी ५वीं शताब्दीमें हो जाने वाले त्रैलोक्यसारके कर्ता नमिचन्द्र'ने और हरिवंश आचार्य मल्लवादीने सिद्धसेनके सम्मतितर्क ऊपर टीका पुराणके कतीने वार निर्वाणस ६०५ वर्ष बाद शककाल लिखी थी। हमारे विचारसे सिद्धसेन विक्रमकी प्रथम शनामाना है। उन्हीकी गणनाके अनुसार हमने यहाँ शक संवत् ब्दिमें हुए हैं। दिया है। संपादक-जै. सा. सं. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wor .......... अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी पुत्र थे। इनके बनाये हुए देवागम (आप्तमीमांसा), सा प्रन्थ है और सुन्दर उपदेशपूर्ण है। पं० आशायुक्त्यनुशासन, वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, जिन-शतक धरने इसपर एक संस्कृत निबन्ध लिखा है। और रत्नकरण्ड श्रावकाचार. ये ग्रन्थ छप चुके हैं। इनके सिवाय कहा जाता है कि इनके बनाये हरिवंशपुराणमें इनके एक 'जीवसिद्धि' नामक हुए और भी कई ग्रन्थ हैं। सर्वार्थसिद्धिकी भूमिकामें ग्रन्धका उल्लेख मिलता है। पटखण्डसूत्रोंके पहले श्रीयुत पं० कलापानिटधेने लिखा है कि चिकित्लापांच खण्डोंपर भी इनकी बनाई हुई ४८ हजार शास्त्रपर भी पूज्यपादस्वामीके दो ग्रन्थ उपलब्ध होते श्लोक प्रमाण संस्कृत टीकाका उल्लेख मिला है। ह,जिनमेसे एक चिकित्साका और दूसरे में औषधों आवश्यकसूत्रकी मलयगिरिकत टीकाम आय- तथा धान्योका गुणनिरूपण है । परन्तु पण्डितश्री स्तुितिकारोऽप्याह' कहकर इनके स्वयंभू स्तोत्रका महाशयने न तो उक्त ग्रन्थोका नाम ही लिखा है एक पद्य उद्धृत किया है। इससे मालम होता है कि और न यही लिखनेकी कृपा की है कि वे कहाँ उप. ये सिद्धसेनसे भी पहले के ग्रन्थकर्ता क्यों कि लब्ध हैं । शुभचन्द्राचार्यकृत ज्ञानार्णवके नीचे सिद्धसेन भी स्तुतिकारके नामसे प्रसिद्ध है। लिखे श्लोकके 'काय' शब्दसे भी यह यात अभी तक इन दोनों ही आयायोका समय निर्णीत ध्वनित होती है कि पूज्यपादस्वामीका कोई चि. नहीं हुआ है। कित्सा ग्रन्थ है: अपाकुर्वन्ति यद्वाचः क.यवाञ्चित्तसंभवम् । पूज्यपादके अन्य ग्रन्थ । कलकमङ्गिनां सोय देवनन्दी नमस्यते । जैनेन्द्र के सिवाय पूज्यपादस्वामीके बनाये हुए पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्टिट्यूटमें 'पूज्यअबतक केवल तीन ही ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं और पादकृत वैयक' नामका एक ग्रन्थ है'। यह आधानि'ये तीनों ही छप चुके हैं: क कनडीमें लिखा हुआ कनडी भाषाका ग्रन्थ है। १-सर्वार्थसिद्धि । दिगम्बर सम्प्रदायम आचार्य और न यही मालूम होता है कि यह उनका बना. पर इसमें न तो कहीं पूज्यपादका उल्लेख है उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्रकी यह सयसे पहली या हुआ होगा। टीका है। अन्य सब टीकायें इसके बादकी हैं विजयनगरके हरिहरराजाके समयमें एक मंगऔर वे सब इसको आगे रख कर लिखी राज नामका कनडी कवि हुआ है । वि० सं० गई है। १४१६ के लगभग उसका आस्तित्व काल है। २-समाधितंत्र । इसमें लगभग १०० श्लोक हैं, स्थावर विर्षोंकी प्रक्रिया और चिकित्सापर उसइस लिए इसे समाधिशतक भी कहते हैं । अध्या- ने खगेन्द्रमणिदर्पण नामका एक ग्रन्थ लिखा है। त्मका बहुत ही गंभीर और तात्त्विक ग्रन्थ है । इस इसमें वह आपको पूज्यपादका शिष्य बतलाता है पर कई संस्कृत टीकाय लिखी गई हैं। और यह भी लिखता है कि यह ग्रन्थ पूज्यपादके . .३-इष्टोपदेश। यह केवल ५ श्लोकप्रमाण छोटा. वैद्यक ग्रन्थसे संगृहीत है । इससे मालूम होता है कि पूज्यपाद नामके एक विद्वान् विक्रमकी तेरहवीं १ लेखक महाशयके इस कथन में कि.समन्तभद्र सिद्धसेनसे शताब्दिमे भी हो गये है और लोग भ्रमवश उन्हींभी पहले हुए है, कोई प्रमाण नहीं है। हमारे विचारसे के वैद्यक ग्रन्थको जैनेन्द्र के कर्ताका ही बनाया हुआ सिद्धसेन समन्तभद्र के पुरोगामी है। इस विपयके विशेष समझकर उल्लेख कर दिया करते हैं। विचार जानने के लिये, इस पत्रके प्रथम अंक्रमें प्रकाशित वृत्तविलास कविकी कनडी धर्मपरीक्षाका जो 'सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' शीर्षक हमा- पय पहले उद्धृत किया जा चुका हैं उसमें दो प्र. रा लेख देखना चाहिए। न्योंका और भी उल्लेख है, एक पाणिनिव्याक. संपादक-जै. सा.सं. : १ नं. १०६६, सन् १८८७.९१ की रिपोर्ट । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 啦 जैन साहित्य संशोधक रणकी टीकाका और दूसरा यंत्रमंत्रविषयक शास्त्रका | पूज्यपादद्वारा पाणिनिकी टीकाका लिखा जाना असंभव नहीं हैं; परन्तु साथ ही वृत्तविलास को पूज्यपाद के जिनेन्द्रबुद्धि नामसे भी यह भ्रम हो गया हो तो आश्चर्य नहीं। क्यों कि पाणिनिकी काशिकावृत्तिपर जो न्यास है उसके कर्त्तीका भी नाम' जिनेन्द्रबुद्धि । इस नामसाम्यसे यह समझ लिया जा सकता है कि पूज्यपादन भी पाणिनिकी टीका लिखी है। न्यासकार ' जिनेन्द्रबुद्धि ' वास्तमेँ बौद्धभिक्षु थे और वे अपने नामके साथ 'श्री बोधिसत्त्वदेशीयाचार्य ' इस बौद्ध पदवीको लगाते हैं । पूज्यपाद के कनडी चरित लेखकने लिखा हैं कि पाणिनि पूज्यपाद के मामा थे और पाणिनिक अधूरे ग्रन्थको उन्होंने ही पूर्ण किया था: परन्तु इस समय ऐसी बातोंपर विश्वास नहीं किया जा सकता । 'जैनाभिषक ' नामक एक और ग्रन्थका जिकर " जैनेन्द्रं निजशन्दभागमतुलं " आदि लोकर्मे किया गया है । यह श्लोक उपर पृष्ट ६५ में दिया जा चुका है। जहां तक हमारा खयाल है जैनाभिपेक और यंत्रमंत्रविषयक ग्रन्थ भी अन्य किसी पूज्यपाद के बनाये हुए होंगे और भ्रमसे इनके समझ लिये गये होंगे। कनडी पूज्यपादचरितमें पूज्यपादके बनाये हुए अर्हत्पतिष्टालक्षण और शान्त्यष्टक नाम स्तोत्रका भी जिकर है। [ भाग १ सत्यताकी जरा भी परवा न करनेवाले और साम्प्रदायिकता के मोहमें बहनेवाले लेखक किसतरह तिलका ताड बनाते हैं। इस चरितको चन्द्रव्य नामक कविने दुःषम कालके परिधावी संवत्सरकी आश्विन शुक्ल ५, शुक्रवार तुलालन में समाप्त किया है। यह कवि कर्नाटक देशके मंलयनगरकी 'ब्राह्मणगली' का रहनेवाला था । वत्सगोत्री और सूर्यवंशी ब्राह्मण वम्मणाके दो पुत्र हुए सातप्पा हुन्छ ब्रह्मरस और विजयप्पा । विजयप्पा के ब्रह्मरस और ब्रह्मरस के देवप्पा हुआ । इसी देवप्पाकी कुसुमम्मा नामक पुत्रीले कवि चन्द्रय्य का जन्म हुआ था ।. चरितका सारांश यह है : पूज्यपाद - चरित | अन्य बडे बडे आचायोंके समान पूज्यपादके, जीवनसम्वन्धी घटनाओंस भी हम अपरिचित हैं। उनके जानने का कोई साधन भी नहीं है । सि वाय इसके कि वे एक समर्थ आचार्य थे और हमारे उपकार के लिए अनेक ग्रन्थ वनाकर रख गये है, उनका कोई इतिहास नहीं है । आगे हम एक कनड़ी भाषा के पूज्यपाद चरितका सारांश देते हैं, जिससे उन लोगोका मनोरंजन अवश्य होगा, जो अपने प्रत्येक महापुरुपका जीवनचरितचाहे वह कैसा ही हो - पढ़ने के लिए उत्कंठित रहते हूँ । विज्ञान पाठक इससे यह समझ सकेंगे कि "कर्नाटक देशके 'कोले' नामक ग्रामके माधवभट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मण से पूज्यकपुज्य वतलाया, इस कारण उसका नाम पूज्यपाद पादका जन्म हुआ । ज्योतिषियोंने बालकको त्रिलोरखा गया । माधव भट्टने अपनी स्त्रीके कहने से जैनधर्म स्वीकार करलिया । भट्टजीके सालेका नाम पाणिनि था, उसे भी उन्होंने जैनी बनने को कहा, परन्तु प्रतिष्ठाके खयालसे वह जैनी न होकर मुडीगुंडग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया । पूज्यपादकी कमलिनी नामक छोटी बहिन हुई, वह गुणभट्टको व्याही गई । गुण भट्टको उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुआ । पूज्यपादने एक बगीचे में एक सांपके मुंह में फंसे हुए मेडकको देखा। इससे उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये । पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे थे । वह पूरा न होने पाया था कि उन्होंने अपना मरणकाल निकट आया जान लिया। इससे उन्होंने पूज्यपाद से जाकर कहा कि इसे आप पूरा कर दीजिए । उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया । पाणिनि दुर्ध्यानदश मरकर सर्प हुए। एक बार उसने पूज्यपादको देखकर फुत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा, विश्वास रक्खो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा। इसके बाद उन्होंने पाणिनि व्याकरणको पूरा कर दिया। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २ ] इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, अहेत्प्रतिष्ठाल क्षण, और वैद्यक ज्योतिष आदिके कई ग्रन्थ रच चुके थे । गुणभट्ट मर जाने नागार्जुन अतिशय दरिद्री हो गया । पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मंत्र दिया और सिद्ध करनेकी विधि बतला दी । पद्मा'वतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतला दी । जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी परिशिष्ट | . [ भगवदवाग्वादिनीका विशेष परिचय ] इसके प्रारंभ में पहले 'लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य ' आदि प्रसिद्ध मंगलाचरणका श्लोक लिखा गया और उसकी जगह यह लोक और उत्थानिका था । परन्तु पीछेसे उसपर हरताल फेर दी गई है। लिख दी गई है इस सिद्धरससे नागार्जुन सोना बनाने लगा । उसके गर्वका परिहार करने के लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पति से कई घडे सिद्धरस बना दिया । नागार्जुन जब पर्वतों कों सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरणेन्द्र - पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनाने को कहा । तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्वनाथकी प्रतिमा स्थापित की। पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्रको जाया करते थे। उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियाँसे झगडा करके द्राविड संघकी स्थापना की। नागार्जुन अनेक मंत्र तंत्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत ही प्रसिद्ध हो गया । एकबार दो सुन्दरी. स्त्रियां आई जो गाने नाचने में कुशल थीं । नागार्जुन उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगीं और एक दिन अवसर पाकर उसे मारकर और उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनी । पूज्यपाद मुनि बहुत समयतक योगाभ्यास करते रहे । फिर एक देवके विमानमें बैठकर उन्होंने अनेक तीथोकी यात्रा की। मार्गम एक जगह उनकी दृष्टि नम्र हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्ठक बनाकर ज्यों की कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने श्रममें आकर समाधिपूर्वक मरण किया। " ८५ यह लेख शायद ही इस रूपमें पाठकोंके सम्मुख उपस्थित हो सकता । पूना - भाद्रकृष्ण ६ सं० १९७७ विक्रमीय इस लेखक लिखने में हमें श्रद्धेय मुनि जिनविजयजी और पं० बेहचरदास जीवराजजीसे बहुत अधिक सहायता मिली हैं । इस लिए हम उक्त दोनों सजनों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं मुनिमहोदयकी कृपा से हमको जो इस लेख सम्ब #धी सामग्री प्राप्त हुई है, वह याद न मिलती तो । य नमः पार्थाय । त्वरितमहिम दूतामंत्रितनाद्भुतात्मा, त्रिपममपि मघोना पृच्छता शब्दशास्त्रम् । श्रुतमदरिपुरासीद् वादिवृन्दाग्रणीनां परमपदपटुर्यः स धिये वीरदेवः || afrist तथाविवभक्ताभ्यर्थनाप्रणुन्नः स भगवानिदं प्राह - सिद्धिरनेकान्तात् । १-१-१ । इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है । पहले पत्रके ऊपर मार्जिनमें एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि आदि व्याकरणोंको अप्रामाणिक ठहराया है। LE प्रमाणपदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणतिसूत्राणि स्यात्कारवादित्रदूरत्वात्परित्राजकादिभाषिनवत् । अप्रमाणानिच कपोलकल्पना मलिनानि हीनमानृकत्वात्तद्वदेव । " इसके बाद प्रत्येक पादके अन्तमें और आदिम इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र पाठके भग; वत्पणीत होने में कोई सन्देह वाकी न रह जाय." इति भगवद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः । ऑनमः पावय । स भगवानिदं प्राह । 33 सर्वत्र 'नमः पावय' लिखना भी हेतुपूर्वक है। जब ग्रन्थकर्ता स्वयं महावीर भगवान हैं तब उनके प्रन्यम उनसे पहलेके तीर्थकर पार्श्वनाथको ही नमः स्कार किया जा सकता है । देनिंए, कितनी दूरतकका विचार किया गया है। 7 आगे अध्याय २ पाद २ के ' सहूबहूचल्यापतेरिः (६४) सूत्रपर निम्न प्रकार टिप्पणी दी है और इससे Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशाधकः [भाग १ सिद्ध किया है कि यदि यह ज्याकरण भगवत्कृत इसी तरह ४-३७ (वेत्तेः सिद्धसेनस्य ) सूत्र न हो तो फिर सिद्धहमके अमुक सूत्रकी उत्पत्ति पर लिखा हैनहीं बैंउसकती! "वेतेः सिद्धसनस्य, चतुष्टयं ममंतभद्रस्य प्रक्षेप'ऽर्वाच्यता " इद शब्दानुशासनं भगकर्तृकमेव भवति । 'सबह- स्फुटत्वात, रात्रं: प्रभाचन्द्रस्य बदिति बौटिकनिमिरोप. वल्यापतरिर्धाअरूजनमे: किलिंद चवत्-डौमासहिवाबहिचा- लक्षणे।" चालपापति, मुस्विक्रिदधिजझिनमोति सिद्धहेमसूत्रस्याऽ अन्तम ५.४-६५ (शछोमे) सूत्रपर एक टिन्यथानुपपत्तेः । सर्वधर्मपाणिन्योस्तु 'आइवणापथालीपिना प्पणी दी है जिसमें पाणिनि आदिवैयाकरणोंकी अविच १, आगमहनजन: किकिनी लिट् चेति २।" सर्वज्ञता सिद्ध की गई हैइसके बाद ३२.२२ सूत्रपर इस प्रकार टिप्प. " प्रयोगाशातना मामृदनादिसिद्धा हि प्रयोगाः । ज्ञानिना णी दी है नु केवलं ते प्रकादयंतेन तु नियंत इ.ते | अतएव शरछोटीति "कथं न धर:प्राग्भग्तेदादि क्षेत्रादिनियापि शिक्षाविशेषा:। पाणिनीयस्त्रं वर्गप्रथमेभ्यः शकारः म्युरयवरपरः शका इछ. कुमारदः प्राच्यानामादिवनं मासमूचित्रान् । कारं नवेति सर्ववर्मकर्नुककालापकसत्रानुसारि। अतएव पाणिमैथुनं तु मिारतंत्रे वाचकं मधुसपिपः॥ न्यादयोऽसर्वा इति सिद्ध । अतएव तेषां तत्वत आप्तत्यामाइत्याद्यन्यथानुपपत्तेरिति टिकातिनिरोपरक्षणम् । व इति सिद्धिः। नरभ्यःप्रभृतिनिस निरसमिया यदि य. इसके बाद ३-४-४२ सूत्र (स्तेयाहस्य) परफिर फिरते मस्करिणव मवरुतमाम्तेन तु सारस्वतवाग्देव्या। एक टिप्पणी हैं। देखिए__ "इदं शब्दानुशासनं भगवकर्तृकमेव भवति । अहंत शरछारिप्रमन्त्रः सूत्रस्तच्छश्रुप्रभृति दादर्शी कालापाचपजीवी स्तोन्त च .. महायता २, माणिगदतायः ३, स्तेनान पाणिनिरजिनत्वं प्रति व्यक्तः।" तुक वे ४, ति सिद्ध मसूत्रान्यथानुपपरे । पाणिन्यादौ जहां सूत्रपाठ समाप्त होता है, वहां लिखा है:रवाईत्यशब्दं प्रति सूत्राभावात् । कयं सरस्वतीकंठाभरणे इत्याल्यद्रगवानहन्त्वे न्द्रस्त मदं वहन् । तदाप्तिः । ऐन्द्रानुसागदहशइतयोति पक्ष्या" . वादिययन्त्राजवन्द्र स्वमंदिरागिमखोऽभवत् ।। फिर३-१-४. सूत्र (राना प्रभाचन्द्रस्य) पर . आगे ग्रन्ध प्रशस्ति देखिएएक टिप्पणी है । इसमें यौरिका या दिगभ्यरियाँ । "ओं नमः सकलकलाकौशलपेशलशीलमारिने पा. का सत्कार किया गया है. श्याय पार्श्वपादाय । स्वस्ति त-प्रवचन मुधासमुद्रलहरीस्नायि"इदं शब्दानुशासनं भगवाकर्तृकमेव भवति रात्र प्रभाच. श्री महामुनिभ्यः । परिस्मानं वडनेनं नाम महान्याकरणं । दस्य सूत्रस्व प्रक्षेपता स्फुरत्वात् । अतो वोटिकसिमिरेप लक्षणे तदिदं यत्स्वयं श्रीवारप्रभुर्मघोने पृच्छते प्रकाशयांचकार । सपादेवनन्दिमतां मोहः प्रशंपरजसोरिचत् । दलक्षव्याख्यानकपरमसमदधिकारापहारपरममिति । नमः चिराय भवता राप्रभारन्द्रस्य जीव्यता । श्रीमचरपरमेश्वम्पादप्रमादविशदस्याद्वादनयसमुपासनगुणकोपंचोत्तरः कः श्वानासीः प्रमो नग्न यस्य यः(?)! टिमकोटिकाणाविर्भूतचिद्विभूति.विमलमदचांडकुलविगुलबृहत्तविस्मयो रमयः शिष्टया स तं चेवनन्दिनामीत।। योनिगमनिर्गतनागपुरीयस्वच्छगच्छसमुत्थमुत्पविपार्श्वचंद्रशाविक्रमातुखयुगाब्द ४०६ देवनन्दी, ततो गुणाद-कमा- खासुखारुतसुरुतिवररामदूपाध्यायचारुचरणारविंदरजोराजी. नंदि-लोकचंद्रानंतर भनिरयुगाब्द प्रथमः प्रमाचंद्र इति मधुकरानुकरवाचक मधुकरानुकरवाचकपदवीपवित्रिताक्षयचंद्रावरणेभ्यः ससधी बौटिके।" रक्तचंद्रम् । श्रीवारात २२६७ विक्रमनृपातु सं. १७९७ यह 'बोटिकमततिमिरोपलक्षण' नामका कोई अन्य फाल्गुनमित्त्रयोदशीभीम तनकास्यपरस्थन रत्नर्षिगा दर्शहै और संभवतः इसी वाग्वादिनांके कताका बनाया हुआ नपाविन्याय लिखितं चिरं नंद्यान् ।" होगा। इसका पता लगानेकी वही जरूरत है। इससे दि. ग्रन्धक पहले पत्रकी खाली पीठसर भी कछ गम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायसम्बधी भनेक बातों पर टिप्पणियां हैं और उनमें अधिकांश पे ही हैं जो प्रकाश पड़ेगा। उपर दी जा चुकी है। शेष इस प्रकार हैं: Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी ओं नमः पाइर्वाय । का गतिरिति चेत् । जैनेन्द्रमन्द्रतः सिद्धहमतो जयहमवत् । लक्ष्मीरात्यंतिकीपद्यमुपक्षेशस्य किंतरी । प्रत्यंत दूरत्वान्नान्यतामेतुमर्हति । ऐंद्रत्वयकि तत्वार्थ मोक्षमार्गस्य पद्यवत् ॥ कथं मियादयश्चत्प्रथमं यदि हैमेत्वपेक्ष्यते । इंद्रधंद्रः काशिरुस्नापिशली शाकटायनः । कालापकादिन तथा पटवेन्द्र महते कृतिः॥ पाणिन्यमरजिनंद्रा जयंत्यष्टा हिं शाब्दिकाः॥ पूर्वत्र । मि वस् मम १ सिप् थस् थ २ तिप तस् शि इति ? चनुर्थी तद्धितानु लक्षणात् । ३ इडू वहि महि १ थस् आथां ध्वं २ त आताम् सङ् यदिंद्राय जिनद्रण कोमारेपि निरूपितं। ३ इति । एंद्र जैनेंद्रमिति तत्याहुः शब्दानुशासनं । आख्यातरीति प्रति देवराजे यदावश्यकनियुक्ति: मिव्वस्मसो यः पितः रादितादाः । अह तं अम्मापिअरो जाणित्ता अहियअहवास तु । जीवं प्रपन्नाहममात्थ विश्व कयकोअलंकारं लेहायरिअस्स उवणिति ।। तत्त्वादिमं स्वां मतिमात्मनाथ ॥' सफो अ तस्समक्खं भयवंतं आसणे निवेसित्ता। तर्हि सिद्धसेनादिविशपापि दुर्निवार इति चेन्न । सद्दासलक्ख पुरछे वागरणं अवयवा इंदं ।। इति॥ जातामात्रोपि चिट्ठीय प्रत्यात्मशरणों सि यः । तदवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः । ततश्चन्द्र जनता का वराकीयं परात्मन् वीर तत्पुर ।। व्याकरण संजातामात हरिभद्रः । इति चौटिकमततिमिरोपलक्षणस्य तुर्य वकाशे। इंद्रजिनेयनु देवनंदिवोटिकं पूज्यपाद इतांच्छंतस्तद्गुरुकाः दो प्रत्युत्तरिणौ यदतो ई. टातद्धिततस्त्वमासमिविड्ढोरेयम- पूज्यपादस्य लक्षण । वैद्रं जैनेंद्र व्याकरणानां । सिद्धिमनेकांतादिच्छों ःxकरपाई द्विसंधानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् । त्यतथारीते हमाणीकृतवर्मन्प्रक्षेपार्यविजेयचिरंजीया इति इति धनंजयके पात्तदयुक्त । नेति चेत्कथं निद्रामिति । द्वादश प्रसन्न चंद्रोत्पले (१)। स्वरमध्यामति चेन्न । इतरोपपदस्यामागत् । जनकुमारसभव. १इसके आगे ४-३-७ सूत्रकी टिप्पणी जैसा ही लिखा वद्गतिरिति चेन्ना कुमारवाई प्रतिपाभावात शारीतितत. द्वितभावाच्च । तहिं है और फिर -४-४० सुत्रकी टिप्पणीके 'देवनन्दिमा' लक्ष्मीरात्यतिको यस्य निरवद्यावभासने। आदि दो श्लोक दिये हैं। देवनंदितपून नमस्तस्मै स्वयंभुवे । २ इसके आगे ५-४-६५ सूत्रकी टिप्पणी दी है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैन साहित्य संशोधक. गंधहस्तिमहाभाग्य की खोज और आप्तमीमांसा (देवागम ) की स्वतंत्रता । [ लेखक – श्रीयुत बाबू जूगलकिशोरजी, मुख्तार । ] - कहा जाता है कि भगवान् श्रीसमन्तभट्टाचार्यने तत्वार्थ सूत्र पर 'गंधहस्ति महाभाष्य' नामके एक महान ग्रंथकी रचना की थी, जिसकी श्लोक संख्याका परिमाण ८४ हजार है। यह ग्रंथ भारतके किसी भी प्रसिद्ध भंडारनें नहीं पाया जाता । त्रि द्वानोंकी इच्छा इस ग्रंथराजको देखनेके लिये बड़ी ही प्रबल है । स्वईके सुप्रसिद्ध सेठ श्रीमान् मा णिकचंद हीराचंदजी जे० पी० ने इस ग्रंथरत्नका दर्शन मात्र करानेवालेके वास्ते ५०० रुपयेका नकद पारितोषिक भी निकाला था । परंतु खेद है कि कोई भी उनकी इस इच्छा को पूरा नहीं कर सका और वे अपनी इस महती इच्छाको हृदयमें रखे हुए ही इस संसार से कृत्र कर गये । निःसन्देह जैनाचार्यों में स्वामी समन्तभद्रका आसन बहुत ही ऊँचा है । वे एक बडे ही अपूर्व और अ. द्वितीय प्रतिभाशाली आचार्य हो गये। । उनका शासन महावीर भगवान के शासनके तुल्य समझा जाता है और उनकी आतमीमांसादिक कृतियों को देखकर बडे बडे वादी विद्वान् चकित होते हैं ऐसी हालत में आचार्य महाराजकी इस महती कृ तिके लिये जिसका मंगलाचरण ही आप्तमीमांसा (देवागम ) कहा जाता है, यदि विद्वान् लोग उत्कंठित और लालायित हों तो इसमें कुछ भी, आश्चर्य और अस्वाभाविकता नहीं है । और यही कारण है कि अभी तक इस ग्रंथरत्नकी खोजका प्रयत्न जारी है और अब विदेशों में भी उसकी तलाश की जा राह है। हाल में कछ समाचारपत्रों द्वारा यह प्रकट । [ भाग १ हुआ था कि पना लायब्रेरी की किसी सूची परसे आस्ट्रिया देशक एक नगरकी लायब्रेरीमै उक्त ग्रंथके अस्तित्वका पता चलता है। साथ ही, उसकी कापी करनेके लिये दो एक विद्वानोंको वहाँ भेजने और खर्च के लिये कुछ चंदा एकत्र करनेका प्रस्ताव भी उपस्थित किया गया था । हम नहीं कह सकते कि ग्रंथ के अस्तित्वका यह समाचार कहाँ तक सत्य है और इस बातका यथोचित निर्णय करनेके लिये अभी तक क्या क्या प्रयत्न किया गया है । परंतु इतना जरूर कहेंगे कि बहुतसे भंडारोंकी सूचियाँ अनेक स्थानों पर भ्रमपूर्ण पाई जाती हैं । पूना लायब्रेरीकी ही सून्रीमें सिद्धसेन दिवाकरके नामसे 'वादिगजगंधहस्तिन् ' नामके, एक महान् ग्रंथका उल्लेख मिलता है जो यथार्थ नहीं है । वहाँ इस नामका कोई ग्रंथ नहीं । यह नाम किसी दूसरे ही ग्रंथके स्थान पर गलतीसे दर्ज हो गया है। ऐसी हालत में केवल सूची के आधार पर आस्ट्रिया जैसे सुदूरदेश की यात्रा के लिये कुछ विद्वानोंका निकलना और भारी खर्च उठाना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । बेहतर तरीका, इसके लिये, यह हो सकता है कि वहाँके किसी प्रसिद्ध फोटोग्राफर के द्वारा उक्त ग्रंथके आद्यंतके १०-२० पत्रोंका फोटो पहले मँगाया जाय और उन परसे यदि यह निर्णय हो जाय कि वास्तव में यह ग्रंथ वही महाभाष्य ग्रंथ है तो फिर उसके शेष पत्रोंका भी फोटो आदि मँगा लिया जाय । अस्तु । ग्रंथके वहाँ अस्तित्व वि घयमे, अभी तक हमारा कोई विश्वास नहीं है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक 1 गम्हस्तिमहामायकी खोज आस्ट्रियाके एक प्रसिद्ध नगरकी प्रसिद्ध लायब्रेरी है और 'देवागम' स्तोत्र उसका अदिम मगठःमें उक्त ग्रंथ मौजुद ही और हर्मन जैकोबी जैसे चरण है: इन सब बातोंकी उपलब्धि कहाँसे होती ग्वाजी विद्वानोंको उसका पता नक न लगे, यह है-कौनग्ने प्राचीन आचार्य किम ग्रंथ इन सब बात कुछ समझ नहीं आती। हम इस ग्रंथक. बानाका पता चलता है ? यह दृम बात है कि विषयम यह बात भी बहुत ग्वटकती है कि 'आप्न आजकलके अच्छे अच्छे विद्वान-न सिर्फ जैन मीमांसा ' अर्थात् 'देवागम' शास्त्रको, जो कुल विद्वान बलिक सतीशचंद्र विद्याभय ग, भारती ने १४लाकपारमाण ह. इसका मंगलाचरण बनला अर्जन विद्वान भी-अपने अपने ग्रंथा तथा लेंग्वाम या जाता है । वागम भारतके प्रायः सभी प्रसिद्ध इन सब बातोंका उल्लंग्य करने हए दंग्ये जाते हैं। मंडारोंम पाया जाता है। उस पर अनेक टीका, परंतु ये सब उल्लंग्य एक दृसंरकी दम्यादग्यी है पटिप्पण और भाप्य भी उपलब्ध हैं। अकलंकदेव- राक्षान उनका कोई सम्बन्ध नहीं और न वे जाँच की 'अशती' और विद्यानंद स्वामीको 'अष्ट- तोल कर लिये गये हैं । इसी प्रकार कछ उल्लंग्य सहस्री' उसीके भाप्य और महाभाष्य हैं। जिस पिछले भाषापंडितोंके भी पाये जाते हैं। टन मात्र ग्रंथका मंगलाचरण ही इतने महत्त्वको लिये हुए हो आधुनिक उल्लग्नास इस विषयका काई टीक निर्णवह शेष सपूर्ण ग्रंथ कितना महत्त्वशाली होगा य नहीं हो सकता | और न हम उन्द्र पनी हालतऔर विद्वानानं उसका कितना अधिक संग्रह क्रिया में बिना किसी हतुक प्रमाणकोटिम राव सरन है। होगा. उसके बतलानेकी जमरत नहीं हैं । विन पा- हमारी रायम इन सब बाताके निर्णयार्य-विकल्पोंठक सहजहीम इसका अनुमान कर सकते हैं। प- के समाधानार्थ अंतरंग दाजकी बहुत बड़ी जमरंतु तो भी ऐसे महान ग्रंथका भारतके किसी मं- रत है। हम सबमे पहले-विदेशोम जानेसे भी पडारम अस्तित्व न होना, उसके शेष अंशॉपर टी- हल-अपने घरके साहित्यका गहरा टटोलना होगा; का-टिप्पणका मिलना तो दर रहा उनके नामांकी तब कहीं हम यथार्थ निर्णय पर पहुँच सकगे। कहीं चर्चानक न होना, यह सब कुछ कम आश्च- अस्नु। यम डालनेवाली बात नहीं हैं। और इनपरस तरह इस विषयमं हमने आजतक जो कुछ ग्याज की तरहके विकल्प उत्पन्न होते है। यह खयाल पैदा है और उसके द्वारा हमें जो कुछ मालूम हो सका होता है कि क्या समन्तभदने गंधहस्तिमहाभाष्य' है उसे हम अपने पाटकांके विचारार्थ और यथार्थ नामका कोई ग्रंथ बनाया ही नहीं और उनकी आ- निर्णयकी सहायतार्थ नीचे प्रकट करने हैं:नमीमांसा (देवागम) एक स्वतंत्र ग्रंथ है? यदि :-उमास्त्रानिक तत्त्वार्थमृत्रपर सवार्थसिद्धि, बनाया तो क्या वह पूरा न हो सका और आनमी- राजवार्तिक. श्लोकवार्निक और श्रुनसागर्ग नामकी मांसा नक ही बनकर रह गया? यदि पूरा हो गया जो टीकाप उपलब्ध हैं उनम. जहाँ नक हमारे देथा नो क्या फिर वन कर समान होते ही किसी, खनमें आया कहीं भी 'गंधहस्ति महाभाप्य' का कारण विशपसे वह नष्ट हो गया ? यदि नष्ट नहीं नामोल्लंग्न नहीं है और न इसी बानका कोई उल्लंग्स हुआ तो क्या फिर प्रचलित सिद्धांनांक विरुद्ध उ. पाया जाना है कि समन्तभद्रने उक्त तत्त्वार्थमूत्रपर समें कुछ ऐसी बात थी जिनके कारण बाद आ- भाप्य लिया है। समन्नमद्रका अस्तित्वकाल इन सय चाया ग्वासकर भट्टारकोंको उसे लुप्त करनकी ज- टीकायाकं बनने से पहले माना जाता है। यदि इन रूरत पड़ी अथवा यादको उसके नष्ट हो जानका टीकाक रचयिता पूज्यपाद, अकलंक देव, विद्याकोई दूसरा ही कारण है? इन सब विकल्पोंको नन्द और शुनसागरक समोम समन्तभद्रका उसी छोडकर अभी तक हमें यह भी मालूम नहीं हुमा मत्रपर ऐसा कोई महत्त्वशाली भाष्य विद्यमान कि.१ समन्तभदने गंधहस्तिमहामाप्य' नामका होता तो उक्त टीकाकार किमी न किसी रूपमें इस कोई ग्रंथ बनाया है, २ वह उमास्यानिक तत्वार्थ वातको मूचित जसर करने, ऐसा हृदय कहता है। सत्रका भाप्य है, ३ उसकी श्लोकसंख्या ८४ हजार परंतु उनके टीकाग्रन्थोंसे ऐसी कोई सूचना नहीं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० जैन साहित्य संशोधक [भाग १ पाई जाती । प्रत्युत, श्रुतसागरसूरिने अपने अध्य- "-ब्रह्मनेमिदत्तने धाराधना कथाकोशमें समयन विषयक अयवा टीकाके आधार-विपयक जिन न्तभद्रकी एक कथा दी है परंतु उसमें उनके किसी प्रधान ग्रन्थों का उल्लेख अपनी टीकाकी संधियोंमें भी गन्धहस्तिमहाभाप्यके नामकी कोई उपलब्धि किया है उनमें साफ तौरसे श्लोकवार्तिक और नहीं होती। सर्वार्थसिद्धिका ही नाम पाया जाता है. गन्धहस्ति- ६- संस्कृत प्राकृतके और भी बहुतसे उपलब्ध महाभाष्यका नहीं। यदि ऐसा महान् ग्रन्थ उन्हें ग्रन्थ जो देखनम आये और जिनम किसी न किसी उपलब्ध होता तो कोई वजह नहीं थी कि वे उस. रूपसे समन्तभद्रका स्मरण किया गया है उनमें का भी साथ नामोल्लेख न करते। भी हमें स्पष्टरुपले कहीं गन्धहस्ति महाभाष्यका २-आप्तमीमांसा ( देवागम) पर, जिसे गन्ध- नाम नहीं मिला । और दुसरे अनेक विद्वानाले जो हस्तिमहाभाष्यका मंगलाचरण कहा जाता है, इस इस विषयमै दयाफ्त किया गया तो यही उत्तर समय तीन संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हैं। एक 'वसु- मिला कि गन्धहस्ति महाभाष्यका नाम किसी प्रानन्दिवृत्ति,'दूसरी अष्टशती और तीसरी'अष्टसहनी' चीन ग्रन्थम हमारे देखने में नहीं आया, अथवा हम इनसे किसी भी टीकामें गन्धहस्ति महाभाष्यका कुछ याद नहीं है। कोई नाम नहीं है, और न यही कहीं सूचित किया ७-ग्रन्धक नाममें 'महाभाप्य' शब्दसे यह है कि यह आप्तमीमांसा ग्रन्थ गन्धइस्ति महाभा- सूचित होता है कि इस ग्रन्थसे पहले भी तत्त्वार्थभाष्यका मंगलाचरण अथवा उसका प्राथमिक सत्रपर कोई भाप्य विद्यमान था जिसकी अपेक्षा अंश है । किसी दूसरे ग्रन्धका एक अंश होनेको इसे 'महाभाष्य ' संज्ञा दी गई है। परंतु दिगम्बर हालतमें ऐसी सूचनाका किया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक था। 'हुत कुछ साहित्यसे इस यातका कहीं कोई पता नहीं चलता कि समन्तभद्रसे पहले भी तत्त्वार्थसूत्र पर कोई ३-श्रीइन्द्रनन्दि आचार्यके बनाये हुए 'श्रुता- माय विद्यमान था। रही श्वेताम्बर साहित्यको वतार ' ग्रन्थमें भी समन्तभद्र के साथ, जहाँ कर्म , प्राभृतपर उनकी ४८ हजार श्लोकपरिमाण एक बात, सो ध्वेताम्बर भई इस वातको मानते ही हैं उनका माँजदा तत्त्वार्थाधिगम भाग्य' स्वय सुन्दर संस्कृत टीकाका उल्लेख किया गया है वहाँ गन्धहस्ति महाभाष्यका कोई नाम नहीं है। बल्कि - उमास्वारिका बनाया हुआ है। परंतु उनकी इस इतना प्रकट किया गया है कि वे दूसरे सिद्धान्त मान्यताको स्वीकार करनेके लिये अभी हम तैय्यार प्रन्थ (कयाय प्राभूत ) पर टीका लिखना चाहते नहीं हैं। उनका यह ग्रन्थ अभी विवादग्रस्त है। थे परंतु उनके एक सधी साधुने न्यादिशुद्धि । उसके विपयमें हमें बहुत कुछ कहने लुननेकी जरूकर प्रयत्नोंके अभावसे उन्हें वैसा करनेसे रोक रत है। इस पर यदि यह कहा जाय कि बादको भाप्योकी अपेक्ष बहुत बडा होनेके कारण दिया। बहुत संभव है कि इसके बाद उनके द्वारा पा से महाभाप्य संज्ञा दी गई है तो यह मा. कोई बड़ा ग्रन्थ न लिखा गया हो। __-श्रवणबेल्गुलके जितने शिलालेखोंमें समन्त - नना पड़ेगा कि उसका असली नाम 'गन्धहस्ति भद्रका नाम आया है उनमेंस किसी में भी आचार्य भाप्य' अथवा 'गन्धहात्ति' ऐसा कुछ था! महादयक नामके साथ 'न्यहस्ति महाभाप्य'का ८-ऊपर जिन प्रन्यादिकोंका उल्लेख किया गया उल्लेख नहीं है । और न यही लिखा मिलता है कि है उनमें कहीं यह भी जिकर नहीं है कि समन्तउन्होंने नत्त्वार्थसूत्र पर कोई टीका लिखी है। हाँ, भद्रने ८४ हजार श्लोकपारमाणका कोई ग्रन्थ रचा उनके शिष्य शिवकोटि आचार्यके सम्बन्ध में इतना है और इस लिय गन्धहरित महाभाग्यका जो परि कयन जरूर पाया जाता है कि उन्होंने तत्त्वार्थ- माण ८४ हजार कहा जाता है उसकी इस संख्याकी सूत्रको अलंकृत किया,अर्धात उसपर का लिखी भी किसी प्राचीन साहित्यसे उपलब्धि नहीं होती। (देखो शिला लेल नं० १०५) ९-जव उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर ८४ हजार Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........................... .......... ता गन्धहस्तिमहाभाष्यकी ग्वोज श्लोकपरिमाण गक महत्त्वशाली भाष्य पहलेसे इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् । मौजूद था तब यह बात समझमें नहीं आती कि सम्यग्मियोपदेशार्थविरोपप्रतिपत्तये ।। सवार्थसिद्धि, राजवार्तिक और लोकवार्तिकके यह कारिका जिस ढंग और जिस शैलीसे लिबननेकी जरूरत ही क्यों पैदा हुई । यदि यह कहा खी गई है, और इसमें जो कुछ कथन किया जाय कि ये ग्रन्थ गन्धहस्ति महामाप्यका सार गया ह उससे आतमीमांसाके एक विलकुल स्व लंकर संक्षेपलचिवाले शिष्योंक वास्तं बनाये गये तन्त्र प्रन्य हानेकी बहुत ज्यादह सम्भावना पाई न यह यात मी कुछ बनती हुई मालूम नहीं जाती है। इस कारिकाको देते हुए वलुनन्दी आ. होती; क्यों किसी हालतमै श्रीपूज्यपाद, अकलं- चार्य अपनी टीकाम इस 'शास्त्रार्थीपसंहारकदेव और विद्यानन्द स्वामी अपने अपने प्रन्याम कारिका' लिखते हैं, साथ ही इस कारिकाकी इस प्रकारका कोई उल्लम्म जहर करते जैसा कि टीकाके अन्तम ग्रंथकर्ता भी समंतभद्रका नाम आम तौर पर दूसरे आचायोने किया है, जिन्होंने 'कृतकृत्यः नियूंढतत्त्वप्रतिशः' इत्यादि विशअपने प्रन्याको दृसरे अन्योंके आधारपर. अथवा पोंके साथ देते हैं, जिससे मालम होता है कि उनका सार लेकर बनाया है। परंतु चूंकि इनमें इस कारिकाके साथ ग्राथकी समाप्ति हो गई, ऐसा कोई उल्लग्न नहीं है, इस लिंय ये सर्वार्थसिद्धि ग्रंथके अन्तर्गत किसी ग्लास विपयकी नहीं। आदि ग्रन्थ गन्धहस्तिमहाभाप्यके आधारपर अथवा विद्यानंदस्वामी अष्टसहन्त्रीमें, इस कारिकाके उसका सार लेकर बनाये गये हैं ऐसा माननंको द्वाग 'प्रारब्धनिर्वहण '-(प्रारंभ किये हुए जी नहीं चाहता। इसके सिवाय अकलंकदेव और कार्यकी परिसमानि) आदिको सूचित करत विद्यानन्दकं भाप्य वार्तिकके ढंगले लिग्वे गये हैं। हप. टीकामे लिखते हैंवे 'वार्तिक' कहलाते भी हैं। और वार्तिकाम उक्त, " इति देवागमाठ्ये स्वोक्तपरिच्छेद शास्त्र...! अनुक्त, दुरुक्त, तीनों प्रकारके अर्थोकी विचारणा अत्र शत्रपरिसमाप्तौ"...... और आभिव्यक्ति हुआ करती है, जिससे उनका इन शब्दोस भी प्रायः यही ध्वनित होता है परिमाण पहले भाप्यास प्रायः कुछ बढ़ जाता है। किदेवा मशान्न जो कि थानमीमांसाके शुरुमें जैस कि सर्वार्थसिद्धिस राजबार्तिकका और. राज- 'देवागम' शब्द हानसे उसीका दूसरा नाम हैं, वार्तिकस श्लोकवार्तिकका परिमाण बढा हुआ है। एक स्वतंत्र ग्रंथ है और उसकी समाप्ति इस ऐसी हालनमें यदि समन्तभद्रका ८८ हजार श्लोक कारिकाके साथ ही हो जाती है। अतः वह किसी संग्ट्यावाला भाष्य पहले से मौजूद था तो अकलंक दसरे ग्रंथका आदिम अंश अथवा मंगलाचरण देव और विद्यानन्दके वार्तिकोंका पारमाण उससे मालम नहीं होता। जरूर कुछ बढ जाना चाहिये था। परन्तु बढना --अकलंकदेव अपनी अष्टशतीके आरं मम तोदर रहा, वह उलटा उससे कई गुणा घट रहा लिखत हैंहै। दोनों वार्तिकॉकी लोकसंख्याका परिमाण क. "येनाचार्यसमन्तभद्रगतिना तस्मै नमः संततम् । मशःऔर २० हजारसे अधिक नहीं। ऐसी हाल- रुत्वा विवियत स्तवो भगवता देवागमस्तत्रुतिः " ॥२२॥ तम क्रमसेक्रम अकलंक देव और विद्यानन्दके सम- वसुनन्दी आचार्य अपनी देवागमवृत्तिक यमें गन्धहस्ति महाभाष्यका अस्तित्त्व स्वीकार अन्तम सूचित करते हैं "श्रीसमंतभद्राचार्यस्य... करनेके लिय तो और भी हृदय नय्यार नहीं देवागमायायाः कृत संक्षेपभूतं विवरणं कृतम्..." , होता। कर्नाटकदेशस्थ हुमचा जि० शिमोगाके १०- जिस आप्तमीमांसा (देवागम स्तोत्र )को एक शिलालेखम निम्न आशयका उल्लेख * मि. गन्धदस्ति महाभाष्यका मंगलाचरण बतलाया लता हैःजाता है उसकी आन्तिम कारिका इस प्रकार है- देखो जनहितपी भाग ९, अंक ९, पृष्ठ ४४५ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहिल संशोधक " From र मजिसके बाद मुह संघका प्रथम पया कि "मला सावे यासाने इन सबसे भी पास यहो पाया जाता सामागोमरतम् । देहि समकागम' की एक शी !! १२-पीनामानिराश पडवपुरायका विमानाजास संपूर्ण कथनसे मालूम हो. सा है कि शामि समन्तभद्ने तमीमांसा रेषा ग) रो-शारा हमारेकी इस पापा मारा सामी सम परीक्षा सार ही 'धको न. म 'सार' विशेषण लाथ माह सोशस्तिमाकरते हुए करते हैं कि उन्होंने अपने गया एक अंग सौरसता सादिम भाग माना देवशास- (लिमाय स्वा जाय तो अपत्यासासनको मो सहामापका तत्त्वाचनको कारा महौ । सिराजशे : तार अंग जहना होगा। परंतु ऐसा नहीं कहा नगर को संसार उपस कर दिया। जास्वशासन समका. महावीर भग. है। इससे अगरको सान सौर मी स. दातोलिये दिसावेषणका रुपाय Tोजित होती है और यह ६.या ला निपाए वश माना जाता है।नीतेहै कि संसार, सम्मामलको बिशेष इसिरका करो और को स्थशिससे भी प्राय: कार भी जमका रेडागा अंथरी तुका है। सासाराम यनित होता है:-- पदहवास कोई यह अंश न होकर व AHERE ART ENT, पीमाएका सैकस जलका शेरलग मलेशEIRRial लारप-होताले कोई कसर नहीं थी कि इस सभाम:ASTER महासंघका की नलेखन करले इसके के को समयमा बस मेले मेशा ही बोल किया जाता। -काशा इस संबंध नारा लो और भी अधिकताके साथ जैनागरस्यका हुना होगकिर इसका नाम མསྶགེ་ ལ ་བྷུཉྫཔེས པཎོ ལ འིrསྨནོབུ་ཝཱ་ समिरमेस्सीस्य | मानताका ही नामोरेखा rat है! मदेवारकी सहजताका समर्थ जान १३.श्रीमानस्थानीने सुसासन 4 समारो " की का हिस्ते हर सबसे पहलेजसको हत्या -- हानिस्क। ऐसी हालत देपागम को भी युकपास" *an s wer शादः म सरसगंभहसितमहामाप्पका कोई संगनमान से देख RAPER हर एक पल ध कहना चाहिये। सम्म पनि पास १५ - बीभूषपतिहिनित न्यायत्री का में सर्वशकी सिा करते हुए भासमी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] यहस्तिमहाभाग्यकी खोज we wwwmarware .... . . मांसाका एक पद्य निम्न प्रकारसे उद्धृत किया गया है । वहाँ ऊपरके सदृश महाभाप्यादि शब्दों हुआ मिलता है: का प्रयोग भी नहीं है, बल्कि बहुत सीधे सादे शब्दोंमें " तदुक्तं स्वामिभिर्महाभाप्यस्यादावाप्तमीमांसापरतावे सूक्ष्मा- 'तदुक्तमाप्तमीमांसायां स्वामिसमंतभद्राचार्य: ऐसा न्तरितदूर र्था.........." कहा गया है। धर्मभूषणजीके समयसे अवतक ऐसा __ इससे मालूम होता है कि स्वामी समन्तभद्र- कोई महान् विप्लव भी उपस्थित नहीं हुआ कि प्रणीत 'महाभाष्य' की आदिमें आप्तमीमांसा ना- जिससे गंधहस्ति महाभाष्य जैसे ग्रंथका एकदम मका एक प्रस्ताव है। और सिर्फ यही एक उल्लेख लोप होना मान लिया जाय । और याद ऐसा मान है जो अभी तक हमें इस विषयमें प्राप्त हो सका भी लिया जाय तो उनसे पहले प्राचीन साहित्यमें है और जिससे प्रचलित प्रवादको कुछ आश्वासन उसके उल्लेख न होनेका कारण क्या है, इसका मिलता है । यद्यपि इस उल्लेखमें 'गंधहस्ति महा- संतोपजनक उत्तर कुछ भी मालूम नहीं होता। भाष्य ' ऐसा स्पष्ट नाम नहीं है, न इस ‘महा- और इस लिये हमारी रायमै धर्मभूपणजीका उपभाष्य ' को उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका भाष्य युक्त उल्लेख प्रचलित प्रवादपर ही अवलम्बित है । . प्रकट किया है, न यह ही सूचित किया है कि उस- प्रचलित प्रवादपर अक्सर उल्लेख हुआ करते हैं की ग्रं संख्या ८४ हजार श्लोक परिमाण है और और वे वहुतसे ग्रंथों में पाये जाते हैं । आजकल इसलिये संभव है कि यह महाभाग्य समन्तभद्रका भी, जव कि गंधहस्तिमहाभाष्यका कहीं पता नहीं उपर्युल्लिखित, ४८ हजार श्लोक संख्याको लिये हुए, और यह भी निश्चय नहीं कि किसी समय उसका 'कर्मप्राभृत' सिद्धान्तवाला भाष्य हो अथवा कोई अस्तित्व था भी या कि नहीं, बहुतसे अच्छे अच्छे दूसरा ही भाष्य हो । और उसमें आचार्य महो- विद्वान् अपने लेखों तथा ग्रंथोंमें गंधहस्ति महादयने आवश्यकतानुसार, अपने आप्तमीमांसा ग्रं. भाव्यका उल्लेख परिचित अथवा निश्चित ग्रंथके तौर थको भी बतौर एक प्रस्तावके शामिल कर दिया पर करते हैं, उसे तत्त्वार्थसूत्रकी टीका बतलाते हैं हो, तो भी धर्मभूषणके इस उल्लेखसे प्रकृत गंध. और उसके श्लोकोंकी संख्याका परिमाण तक देते हास्त महाभाष्यका आशय जरूर निकाला जा स. हैं । यह सब प्रचलित प्रवादका ही नतीजा है। कता है। परंतु जब हम इस उल्लेखको ऊपर दिये कभी कभी इस प्रचलित प्रचादकी धुनमै अर्थका हुए संपूर्ण अनुसंधानोंकी रोशनीमें पढते हैं और अनर्थ भी हो जाता है, जिसका एक उदाहरण हम साथ ही, इस बातको ध्यानमें रखते हैं कि अपने पाठकोंके सामने नीचे रखते हैंधर्मभूपणजी विक्रमकी १५ वीं शताब्दीके उक्त न्यायदीपिकामें एक स्थानपर ये वाक्य विद्वान् हैं, तो ऐसा मालूम होता है कि दिये हैं:यह · उल्लेख उस वक्तके प्रचलित प्रवाद, तद्विपरीतलक्षणो हि संशयः । यद्राजवार्तिकम् " अनेका-- लोकोक्ति अथवा दंतकथाओंके आधर पर ही निश्चितापर्यंदासात्मकः संशयः, तद्विपरितोऽवग्रहः" किया गया है । वास्तविक तथ्यसे इसका प्रायः इति । भाण्यं च " संशयो हि निर्णयविरोधी नत्वग्रहः' कोई सम्बन्ध नहीं। और न यह मानने अथवा इति । कहनेका कोई कारण है कि धर्मभूषणजीने पं. खूबचन्दजीने न्यायदीपिकापर लिखी हुई गंधहस्तिमहाभाग्यको स्वयं देखकर , ही ऐसा अपनी भापाटीकामे, इन वाक्योंका अनुवाद देते उल्लेख किया है। यदि ऐसा होता तो खास गंधह- हुए, 'भाष्य' शब्दले 'गन्धहस्तिमहाभाष्य' का स्तिमहाभाष्यका भी कोई महत्त्वपूर्ण उल्लेख राजवा- अर्थ मूचित किया है अर्थात्, सर्वसाधारण पर यह र्तिकादि ग्रंथोंके स्थानाम अथवा उनके साथ जरूर प्रकट किया है कि संशयो हि निर्णयविरोधी नत्व पाया जाता । परंतु ऐसा नहीं है, न्यायदीविकामें वग्रहः' यह वाक्य गन्धहस्तिमहाभाष्यका एक वा दूसरी जगह भी आप्तसीमांसाका ही उल्लेख किया क्य है । टीकाके 'संशोधनकर्ता' पं० वंशीधरजी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [ भाग शास्त्रीन भी उनकी इस बातको पास कर दिया है- है। और इसलिये प्रायः उन सबकी जाँच अनेक मागा अर्थात्, पुस्तकपर अपने द्वारा संशोधन किये जा- और अनेक पहलुओंसे होनी चाहिये । हरएक नेकी मुहर लगाकर इस बातकी रजिस्टरी कर दी वातकी असलियतको खोज निकालनेके लिये गहरे है कि उक्त वाक्य गंधहास्तमहाभाष्यका ही वाक्य अनुसंधानकी जरूरत है। तभी कुछ यथार्थ निर्णय है। परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है। यह वाक्य हो सकता है। राजवार्तिक भाष्यका वाक्य है। राजवार्तिक १५-ऊपर श्रुतावतारके आधारपर यह प्रकट 'अवग्रहावायधारणा' इस सूत्रपर जो १० वाँ किया गया है कि समन्तभद्रने 'कर्मप्रामृत' सिवार्तिक दिया है उसीके भाष्यका यह एक वाक्य द्धान्तपर ४८ हजार श्लोक परिमाण एक सुन्दर है । इस वाक्यसे पहले जो वाक्य, 'यद्राजवा- संस्कृत टीका लिखी थी। यह टीका 'चूडामणि' र्तिकं शब्दोंके साथ. न्यायदीपिकाकी ऊपरकी नामकी एक कनडी टीकाके वाद, प्रायः उसे देखपंक्तियों में उद्धृत पाया जाता है वह उक्त सूत्रका कर लिखी गई है। चूडामाणिकी श्लोकसंख्याका ९ वाँ वार्तिक है। दूसरे शब्दों में यों समझना चा- परिमाण ८३ हजार दिया है और वह उस कर्महिये कि ग्रन्थकर्ताने पहले राजवार्तिक भाष्यका प्राभृत तथा साथ ही,कपायाभूत नामक दोनों एक वार्तिक और फिर एक वार्तिकका भाष्यांश सिद्धान्तों पर लिखी गई थी। भट्टाकलंकदेवने, उद्धृत किया है, जिसको हमारे दोनों पंडित अपने कर्नाटक शब्दानुशासनमें इस चूडामाणमहाशयोने नहीं समझा और न समझनेकी कोशिश टीकाको 'तत्त्वार्थ महाशास्त्रकी व्याख्या' (तत्त्वा-' की । उनके सामने मूल ग्रन्थम 'गन्धहस्ति महा- चमहाशास्त्रव्याख्यानस्य*' चूडामण्यभिधानस्य भाष्य ' ऐसा कोई नाम नहीं था और यह हम महाशास्त्रस्य...उपलभ्यमानत्वात् ।) लिखा है, बखूबी जानते है कि उन्होंने गन्धहस्ति महाभाष्य. जिसका आशय यह होता है कि कर्मप्राभूतादि का कभी दर्शन तक नहीं किया, जो उस परसे ग्रन्थ भी तत्त्वार्थशास्त्र' कहलाते हैं और इसलिये जाँच करक ही ऐसे अथेका किया जाना किसी कमेप्राभृतपर लिखी हुईसमन्तभद्रकी उक्ते टीकाप्रकारसे संभव समझ लिया जाता, तो भी उन्होंने भी तत्वार्थमहाशास्त्रकी टीका कहलाती होगी। 'भाष्य ' का अर्थ 'गन्धहस्ति महाभाष्य ' करके चूँकि उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र भी 'तत्त्वार्थशास्त्र' एक विद्वानके वाक्यको दूसरे विद्वानका बतला अथवा तत्त्वार्थमहाशास्त्र' कहलाता है, इसलिये दिया । यह प्रचलित प्रवादकी धुन नहीं तो और सम्भव है कि इस नामसाम्यकी वजहसे 'कर्मक्या है ? इसी तरह एक दूसरी जगह भी तनाण्यं प्राभत' के टीकाकार श्रीसमन्तभद्रर पदका अर्थ-"ऐसा ही गन्धहास्त महाभाष्यमें समय उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार समझ भी कहा है-' किया गया है। इस उदाहरणसे लिये गये हो और इसी गलतीके कारण पीछेसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि प्रचलित प्रवादको अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ उत्पन्न होकर उनका केतना अर्थका अनथे हो जाया करना है वर्तमानरूप बनगया हो । यह भी सम्भव है, कि और उसके द्वारा उत्तरोत्तर संसारमें कितना भ्रम प्रबल और प्रखर तार्किक विद्वान होनेके कारण तथा मिथ्याभाव फैल जाना संभव है। शास्त्रों में 'गन्धहस्ति' यह समन्तभद्रका उपनाम अथवा प्रचलित प्रवादोसे अभिभूत ऐसे ही कुछ महाश- विरुद रहा हो और इसके कारण ही उनकी उक्त योंकी कृपाले अथवा अनेक दन्तकथाओंके किसी सिद्धांतटीकाका नाम गन्धहस्तिमहाभाष्य प्रसिद्ध न किसी रूपमें लिपिबद्ध हो जानेके कारण ही बहुतसे ऐतिहासिक तत्त्व आजकलचक्करमे पड़े हुए . * यहाँ ग्रन्थका परिमाण ९६ हजार लोक दिया है जि - सकी बावत राइस साहबने, अपनी 'इंस्क्रिपन्स एट थवण___* देखो राजवार्तिक, सनातनग्रन्थमाला कलकत्तका बेलगोल ' न मक पुस्तकमे, लिखा है कि इसमें ११ छपा हुआ। हजार लोक ग्रन्थके संक्षिप्तसार अथवा सूचीके शामिल हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] . माधहस्तिमहाभाष्यको खोज - हो गया हो अथवा उनके शिष्य शिवकोटिने जो किसी सूचीके आधार पर एक पंडित महाशरने, तत्त्वार्थसूत्रकी टीका लिखी है उसी परसे इस समाजके पत्रोंमें, जो इस प्रकारका समाचार विषयमें उनके नामकी प्रसिद्धि हो गई हो। कुछ प्रकाशित कराया था कि, गंधहस्तिमहाभाष्य भी हो, यथार्थ वस्तुस्थितिको खोज निकालनेकी आस्ट्रिया देशके अमुक नगरकी लायब्रेरीबहुत बड़ी जरूरत है. जिसके लिये विद्वानोंको प्र. में मौजूद है और इसलिये वहाँ जाकर उसकी यत्न करना चाहिये । अस्तु । कापी लानेके लिये कुछ विद्वानोंकी योजना होनी गन्धहस्तिमहाभाष्य और आप्तमीमांसाके सम्ब- चाहिये, वह बिलकुल उनका भ्रम और बेसमझीका न्धमे हम अपने इन अनुसंधानों और विचा. परिणाम था । उन्हें सूची देखना ही नहीं आया। रॉको विद्वानोंके सामन रखते हुए उनसे अत्यन्त सूचीम, जो किसी रिपोर्टके अन्तर्गत है, आस्ट्रिनम्रताके साथ निवेदन करते हैं कि वे इन पर याके विद्वान डाक्टर वुल्हरने कुछ ऐसे प्रसिद्ध यड़ी शांतिके साथ गहरा विचार करनेकी कृपा जैनग्रंथोंके नाम, उनके कर्ताओके नाम सहित प्रकट करें और उसके बाद हमें अपने विचारोंसे सूचित किये थे जो उपलब्ध है, तथा जो उपलब्ध नहीं करके कृतार्थ बनाएँ । यदि हमारा कोई अनुसंधान हैं किन्तु उनके नाम सुने जाते हैं । समंतभद्रका अथवा विचार उन्हें ठीक प्रतीत न हो तो हमें गंधहस्तिमहाभाप' भी अनुपलब्ध ग्रंथोंमें था युक्तिपूर्वक उससे सूचित किया जाय । साथ ही, जिसका नाम सुनकर ही उन्होंने उसे अपनी जिन विद्वानोंको किसी प्राचीन साहित्यसे गन्ध- सूची में दाखिल किया था। उसके सम्बन्धमें यह हस्तिमहाभाग्यके नामादिक चारों बातोमले किसी कहीं प्रकट नहीं किया गया कि वह अमुक लायभी वातकी कुछ उपलब्धि हुई हो, वे हम पर उसके प्रेरीम मौजूद है । पंडितजीने इस सूचीमें गंधहस्ति. प्रकट करनेकी उदारता दिखलाएँ, जिससे हम अ- महाभाष्यका नाम देख कर ही, बिना कुछ सोचे पने विचारोंमें यथोचित फेरफार करने के लिये समझे, आस्ट्रिया देशके एक नगरकी लायनेरीमें समर्थ हो सके, अथवा उसकी सहायतासे किसी उसके अस्तित्वका निश्चय कर दिया और उसे दूसरे नवीन अनुसंधानको प्रस्तुत कर सके। सर्व साधारण पर प्रकट कर दिया ! यह कितनी आशा है, विज्ञ पाठक हमारे इस समुचित भूलकी बात है ! हमें अपने पंडितजीकी इस कारमिवेदनपर ध्यान देनकी अवश्य कृपा करेंगे, वाई पर बहुत खेद होता है जिसके कारण समा. और इस तरह एक ऐतिहासिक तत्त्वके निर्णय जको व्यर्थ ही एक प्रकारके चक्करमें पड़ने और करने में सहोद्योगिताका परिचय देंगे।... चंदा एकत्र करने कराने आदिका कष्ट उठाना पड़ा। __ अन्तम हम अपने पाठकों पर इतना और प्रकट आशा है पंडितजी. जिनका नाम यहाँ देनेकी हम किये देते हैं कि इस लेखका कुछ भाग लिखे जा- कोई जरूरत नहीं समझते, आगामीसे ऐसी मोटी नेके बाद हमें अपने मित्र श्रीयुत मुनि जिनविज . भूल न करनेका ध्यान रखेंगे। यजी आदिके द्वारा यह मालूम करके यहुन अफ सोस हुआ कि डेक्कन कालिज पूना लायग्रेरीकी (जैन हितैषी, भाग १४, अंक 4 में उद्धृत ।) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग .. . जैन साहित्य संशोधक तीर्थयात्राके लिये निकलनेवाले संघोंका वर्णन । w.w .IMAN वपुः पवित्रीकुरु तीर्थयात्रया चित्तं पवित्रीकुरु धर्मवाञ्छया । वित्तं पवित्रीकुरु पात्रदानतः कलं पवित्रीकुरु सच्चरित्रैः ।। --उपदेशतरंगिणी। जैन धर्मके औपदेशिक ग्रन्थसमूहमें, जैनगृहस्थों और स्पर्शन करनेसे भावुक मनुष्यके भद्र हृदयम (श्रावकों ) के लिये जिन जिन धर्मकृत्योंका वि- भव्यता प्रकट होती है और मनकी मलिनता अन्त. धान किया गया है उनमें तीर्थयात्रा करने का भी रित होती है यह मानवस्वभाव सिद्ध बात है। केवल, एक विधान है। मुख्य कर जिन स्थानों में तीर्थकर प्रकृतिकी सुन्दरताको, स्थलकी विशुद्धताको और आदि पूज्य माने जाने वाले जैनधर्मके महापुरुषोंका वातावरणकी निःशब्दताको देख कर ही संस्कारी जन्म, दीक्षा, केवल या निर्वाण आदि पवित्र कार्य- हृदयवाले मनुष्य के मनमें सात्त्विकभाव प्रकट होने जिसे जैन संप्रदायमें कल्याणक' कहते हैं- हुआ हो लगते हैं, तो फिर यदि उस स्थानकेसाथ किसी स्वा. उन्हें तीर्थस्थान कहते हैं । परन्तु किसी अन्य वि. भिमत लोकोत्तर महापुरुषकी जीवनघटनाका कोई . शिष्ट घटनाके कारण या स्थलविशेपकी पवित्र- स्मृतिसंबन्ध जुडा हुआ होतब तो कहना ही क्या। ताके कारण और स्थान भी ऐसे तीर्थस्थान माने जो शांति ओर जो सात्त्विकता मनुष्योंको अन्य जाते हैं । समेतशिखर, राजगृह, पावापुरी, खण्डः उपाधिनस्त स्थानों में सेंकडों लेखोंके वाचनेसे गिरि आदि स्थल पूर्वमें; तक्षशिला, कांगडा, अहि. और सेकडे ही व्याख्यानोंके सुननेसे प्राप्त नहीं च्छत्र, हस्तिनापुर आदि उत्तरसे, शत्रुजय, गिर- हो सकती, वह ऐले शुद्ध, पवित्र और पूज्य स्थानार, आबू. तारंगा आदि पश्चिममें; और श्रीपर्वत, नमें एक दिन जाकर रहने से प्राप्त हो सकती है। श्रवणबेलगोला, मुडबद्री, कुलपाक आदि दक्षिणमें ऐसा अनेक महापुरुपोंका अनुभव है । श्रमण भगजैनियोंके प्रसिद्ध तीर्थस्थान हैं। तीर्थस्थानोंके वान् श्रीमहावीर और गौतम बुद्ध जो वर्षांतक मांनने पूजनेकी यह प्रथा केवल जैनधर्म ही में निर्जन वनोंमें घूमते रहे उसका कारण केवल यही प्रचलित है यह बात नहीं है । संसारके प्रायः सभी शांतिलाभ करना था, और इसी प्रवृत्तिद्वारा उन्होप्राचीन और प्रसिद्ध धर्मोंमें ऐसे तीर्थस्थान माने ने अपनी मुक्ति प्राप्त की थी। संसारके महापुरुषों और पूजे जाते हैं । ब्राह्मणों में हरिद्वार, सोमनाथ, के अनुभूत इस सिद्धान्तको लक्ष्यमें लेकर धर्मप्रव. रामेश्वर, जगन्नाथ इत्यादि बौद्धोंमें कपिलवस्तु, कोने तीर्थयात्राकी प्रथा प्रचलित की है और मृगदाव, बोधिगया, कुशीनार इत्यादिः क्रिश्चियनोंमें उसके अनुसार अति प्राचीन कालसे संसारके जेरुसलेम और मुसलमानोंमें मक्का मदीना आदि उपर्युक्त सभी धर्मोके आस्तिक अनुयायीं अपने स्थान सैकडों ही वर्षासे तीर्थस्थानके रूपमें जग- अपने तीर्थ स्थानों में अनेक प्रकारके कष्ट उठाकर द्विख्यात हैं। क्या मूर्तिपूजा माननेवाले और क्या नहीं माननेवाले-क्या ईश्वरवादी और क्या अनी भी, अधिक नहीं तो केवल एकवार, दर्शन मात्र श्वरवादी इस विषयमें सभी एकमत रखते हुए करनेके लिये ही जाते रहे हैं, अथवा जानेकी दिखाई देते हैं। अभिलापा रसते रहे हैं । जैनधर्मोपदेशकोंने महापुरगंके चरणस्पर्शसे पचिंधित भूमिका दर्शन भी अपने तीथा के दर्शन स्पर्शन करनेका उपदेश Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा के लिये निकलनेवाले संघौका वर्णन अंक २] किया है और तदनुसार जैन समाजमै प्रवृत्ति भी चली आ रही है। W पुराणे जमाने में, आज कल के समान, मुसाफरी करने के लिये रेल्वे वरह जैसे साधनों की सुवि धा न होनेसें, तथा मार्ग में अनेक प्रकारके कोंके आनेको बहुत कुछ संभावना रहनेसे, उस समय के बडे बडे श्रीमान लोक भी अकेले-दुकेले घरसे बहार निकल कर दूरके देशों में जानेकी हिम्मत कम रखते थे । फिर साधारण और गरीब वर्ग के लोगोंके लिये तो कहना ही क्या। इस लिये उस समय प्रायः लोग बहुतसी संख्या में एकत्र हो कर तीर्थयात्रा के लिये निकला करते थे। यात्रियोंके इस समूहको संघ कहा करते हैं। पिछले जमाने में, जैनसमाजमसे जुदा जुदा तीर्थों की यात्राके लिये जुदा जुदा देशांमसे प्रतिवर्ष प्रायः सैकडों ही ऐसे छोटे बडे संघ निकला करते थे, और अब तक भी सालमें दो चार निकलते रहते हैं। बहुत करके इन संघोके निकालने में कोई एक श्रीमान् भावुक अग्रणी होता है और वह अपनी औरसे हजारों लाखों रुपये खर्च कर सैकड़ों हजा यात्रियों के तीर्थदर्शनकी अभिलापाको पूर्ण करमैं सहायक बनता है । ऐसे संघ निकालनेवालेको समाजकी और से ' संघपति ' की पदवी मि लती है और वह फिर सदा समाजमें अग्रणी माना जाता है । संघके निकालनेकी क्या विधि है वह किस तरहसे निकाला जाता है और उसके निकालनेवालेको क्या क्या करना चाहिए- इसके विपयमें श्राद्धविधिनामक ग्रन्थ में निम्न प्रकारका वर्णन दिया है । संघ निकालनेवाले पुरुपको सबसे प्रथम, अभीप्र तीर्थ की यात्रा पूर्ण न हो तब तक, निम्न प्रका १ जैन जातियों में बहुत से कुटुम्बों को जो संघवी-संघइ- सिंघी- सिंगई आदि अटक है वह इसी ' संघपति ' पद्वी का अपभ्रष्ट रूप है । २ यह ग्रंथ तपागच्छके आचार्य रत्नशेखर सूरिका वनाया हुआ है। इसकी रचना विक्रम संवत् १५०६ में हुई है। भावनगरकी आत्मानंद जैन सभाने इसे छप कर प्रकट किया है ! ९७ रके नियम करने चाहिएं - दिनमें एक ही दफह भोजन करना चाहिए, रास्ते में पैदल चलना चा दिए, खाली जमीन पर सोना चाहिए, सचित्त वस्तु खानी न चाहिए, ब्राचर्यका पालन करना चाहिए, इत्यादि । इस प्रकार यात्रा के लिये नियंमादि स्वीकार कर फिर राजाके पास जावे और उसे यथायोग्य भेंट दे कर संघ निकालने की इजाजत लेवे। फिर यात्रामें साथ ले चलनेके लिये युक्तिपूर्वक मंदिर बनवावे' । अनन्तर अपने स्वज नाकों और साधर्मिभाईयों को संघ आनेके लिये १ जिस संघ में इस प्रकार के नियमोंका पालन करते हुए संघपति और अन्यान्य यात्री चलते हैं उस संघको 'पटू री पालक (गुजराती में - छ री पलतो) संघ कहते हैं । 'परी' से मतलब उन छ नियमों का है जिनमें अन्तमें 'री' अक्षर आता है । यथा , 'एकाहारी, दर्शनधारी, यात्रासु भूशयनकारी, सच्चित्तपरिहारी, पादचारी, ब्रह्मचारी, च । श्राद्धविधि. पृ. १६४. एकाहारी भूमिसंस्तारकारी पद्भ्यां चारी शुद्धसम्यक्त्वधारी । यात्राकाले सर्वसच्चित्तद्दारी पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥ - उपदेशतरंगिणी, पृ २४३. २ प्राचीन समय में राजाज्ञा के सिवा ऐसे संघ वगैरह निकल नहीं सकते थे तथा उनको एक राज्यमेंसे दूसरे राज्यमें जाने आने नहीं दिये जाते थे । इस लिये संघ निकालनेथालेको प्रथम राजा के पास जाकर उसके आगे रूपयोकी खूब भेंट कर उसे खुश करना पड़ता था और उसके पाससे संघ निकालने का परवाना ( मुसलमानी शब्द फरमान ) लेना पटता था । प्रमाणके लिये देखो मेरा लिखा हुआ शत्रुंजय तीर्थोद्वार प्रबन्ध, पृ० ५६-७ तथा सोमसौभाग्यकाव्य, पु, १४० - ४१ । ३ ये मन्दिर सोना, चांदि, आदि धातुओंकें तथा हस्तिदन्त, चन्दन अथवा अन्य प्रकारके उत्तम काठके बनाये जाते थे । ये एक प्रकारके सिंहासन समान अथवा रथके जैसे होते थे । इनको मनुष्य उठाते अथवा रथकी तरह घोडे या बैल खींचते थे । संघके प्रमाणमें ऐसे एक या अनेक मंदिर संघ के साथ रहते थे ! 1 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग : आदरपूर्वक आमंत्रण भेजे । भक्तिपूर्वक गुरुमहारा- आनेवालोंमेंसे यथायोग्य किसीको महाधर, किसीजको भी निमंत्रण करे । गांव में जीवहिंसा बन्ध को अग्रेसर, किसीको पृष्ठरक्षक और किसीको संघा. करानेके लिये अमारिपटह बजवावे । मंदिरोम ध्यक्षक आदि पद देकर तदनकल कार्यविभाग नि. महापूजादि महोत्सव मनावे । फिर, जो जो यत करे । संघके चलने-ठहरने आदिके सब संकेत मनुष्य संघमें साथ आनेकी इच्छा प्रदर्शित करें यात्रियोंको जाहिर करे-अर्थात् अमुक प्रकारकी उनमेंसे जिनके पास भत्ता न हो उन्हें भत्ता देव, सूचना मिलने पर यात्रियोंको ठहर जाना चाहिए, वाहन न हो उन्हें वाहन दवे, तथा जो बिल्कुल अमुक प्रकारकी सूचना मिलने पर चलना चाहिए, निराधार हो उन्हें मीठे वचनोंसे आश्वासन दे कर अमुक प्रकारकी सूचना मिलने पर एकत्र होना जिस वस्तुकी जरूरत हो उसको पर्ति करे । और चाहिए: इत्यादि सब बाते संघजनोंको स्पष्ट संमइस प्रकार गांवमें ढंढोरा पिटाकर सहायतादान झा देनी चाहिएं । रास्ते संघपतिको सबकी पूर्वक निरुत्साह मनवालोंको भी यात्राके लिये उत्ता संभाल रखनी चाहिए । कहीं किसीकी गाडी वगै पात्रियोंके ठहरनेके लिये, पडावोंमें रह तट जाय या और किसी प्रकारकी कठिनाई काम आने लायक छोटे बड़े ऐसे अनेक डेरे, तंबू, आ जाय तो उसे हर प्रकारसे सहायता देनी चाहिए। रावटी, चांदनी आदि तेयार करवाये । भोजनकी इस प्रकार प्रयाण करते हुए मार्गमें जितने गांव सामग्री के लिए कडाह, परांत, हंडे आदि भाजन और और शहर आवे उनके मंदिरों में स्नात्र-महोत्सव और पानीके संग्रहके लिये बडी बडी सोठियां, . ' करावे तथा उन पर महाध्वज चढावे । सब मंदिटांकियां आदि दर्तन बनवावे । मनुष्याक बठनक बाजे-गाजेके साथ जाकर दर्शन करे। जहां लिये तथा सामान भरनेके लिये गाडी, सहज- कीपर कोई मंदिरवगैरह जीर्ण-शीर्ण हालतमे दि. वाल, रथ, म्याना, पालखी, वैल (पोठ ) उंट, घोडा , खाई दे तो उसके उद्धार आदिका खयाल रक्खे। आदि सब प्रकारके वाहनोंका संग्रह करे । संघकी , रक्षाके लिये अच्छे अच्छे बहादुर और शूर सुभटो-: " जब दूरसे अभीष्ट तीर्थ-स्थलके ( पर्वतादिके ) को (सिपाहियोंको ) बुलावे और उन्हें अन्न र दर्शन हो तब सुवर्ण, रत्न या मोतियोंसे उसे बधा वे और यात्रियों को लडु आदि बांटकर तथा भोजन शस्त्रादि देकर उनका सन्मान करे । तथा गीत, - करा कर साधर्मिवात्सल्य करे यथोचित दान नृत्य और वाद्यविषयक सामग्रीको भी साथमें रक्खे-अर्थात् गान और नृत्य करनेवाले भोजको - देवे । फिर जब तीर्थस्थल पर पहुंचे तो बडे आडंगंधों को और बाजे बजानेवाले वजवश्योंको भी बरके साथ स्वयं प्रवेशोत्सव करे और दूसरोंसे संघके साथ रक्खे । इस प्रकार सवतरहकी तैयारी करावे । इस तरह तीर्थस्थानमें प्रवेश करके, प्रथकर अच्छे मुहूर्तमें शुभ शकुनोके साथ प्रस्थान विधिपूर्वक स्नान करे । इसके बाद, माला पहरना, म हर्षपूजा, फिर अप्टोपचार पूजा, और तदनंतर मंगल करे । प्रस्थान करनके अवसर पर, सकल समुदायको-संघके साथ चलनेवाले तथा गांवमें घृतधारा देना, पहरामनी रखना, नवांग जिनपूजा बसनेवाले सभी सार्मिभाइयोंको-एकत्र उत्तम करना, पुष्पगृह और कदलीगृह बनवा कर महाप्रकारके भोजन कराकर; ताम्बूल आदि मुखवास पूजा रचना, बहुमूल्य वस्त्रादिकी बनाई हुई महादेकर, तथा पंचांग वस्त्रादि पहरा कर सत्कृत करे। ध्वजा ढाना, रात्रिजागरण करना, नानाप्रकारके तदनन्तर. सुप्रतिष्ठ, धर्मिष्ठ, पूज्य और भाग्यवान् गीत और नृत्यादिसे उत्सव मनाना, तीर्थनिमित्त मनप्योंके हाथसे 'संघाधिपत्य' कातिलक करावे। मित चावल आदि-आदि शब्दसे सुपारी, लावग, उपवासादिक तपस्या करना, लक्ष या कोटि परिस्वयं संघकी महापूजा करे और इस प्रकार दूस- एलायची, नालियर इत्यादि समझने चाहिएरॉके पाससे भी ‘संघाधिपत्य ' का तिलक करावे। चढाना, २१, ५२, ७२ या १०८ संख्यामें फल आदि यह सब काम हो चुकने पर फिर संघके साथ भेंट धरना, भक्ष्य ऐसे सब प्रकारके भोज्य पदाथों Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] तीर्थयात्राके लिये निकलनेवाले संघोंका वर्णन से भरे हुए थालोका रखना, रेशम आदि मूल्यवान् जो कैदी थे उन्हें बन्धन मुक्त किये और सकल वस्त्रके बने हुए चंदुए, अंगढंछन, दीप, तैल, धौती, संघकी पूजाका महामहोत्सव किया । संघके प्रयाचन्दन, केसर, पचंगेरी, कलश, धूपदान, आर. णसमयमें सबसे आगे राजाका देवालय चलता ती, आभरण, प्रदीप, चामर, शृंगार, थाल, कच्चोल, था। यह देवालय सुवर्ण और रत्नोंसे जडा हुआ घंटा, झल्लरी, पटह आदि विविध वाद्य; इत्यादि था और राज्यके पट्टहस्तिकी पीठ पर स्थापित प्रकारकी मंदिरमें काम आनेवाली सब चीजोका किया हुआ था। इसमें सुवर्णकी बनी हुई जिनमूदान करना; इत्यादि प्रकारके जो तीर्थ कृत्य हैं उन्हें र्ति स्थापित थी। राजाके इस मुख्य देवालयके विधिपूर्वक पूर्ण करे । इसके बाद तीर्थस्थान पर पीछे पीछे क्रमसे ७२ सामंतोंके, २४ मंदिर कोई छोटी बडी देवकुलिका करावे । सूत्रधारादि. बनवानेवाले बाहड मंत्री और उसके साथ अन्य क कारीगराका सत्कार करे । तीर्थका कोई हिस्सा मत्रियोंके, तथा १८०० बडे बडे व्यापारियांक देवानष्ट-भ्रष्ट होनेकी अवस्था हो तो उसे ठीक करवा लय चलते थे । इन सब देवालयों पर श्वेतातपत्र देवे | तीर्थकी रक्षा करनेवालोंका बहुमान करे। रक्खे हुए थे और अंदर सुवर्ण और मोतियोंसे जडे तीर्थके निर्वाहले लिये कोई जमीन आदिका स्थायी हुए छत्र-चामरादि शोभ रहे थे।.......इस संघमें दान करे । साधर्मिवात्सल्य करे । गुरुओं और कुमारपाल राजा मुख्य संघपति था और उसके संघजनोंको पहरामणी दे कर भक्तिभाव प्रकट करे साथ ७२ सामंत, वाहड ( वाग्भट ) आदि मंत्री, और भोजक, संवक, गंधर्व, आदि जैन याचक जन राजमान्य नागसेठका पुत्र सेठ आभड, पड्भापाकहो उन्हें उचित दान वितरण करे। इत्यादि। विचक्रवर्ती श्रीपाल और उसका पुत्र दानवीर इस प्रकार संघ ले जानेवालेके लिये मुख्य कविश्रेष्ठ सिद्धपाल, कपर्दी भंडारी, प्रहलादनमुग्न्य कृन्य बतलाये गये हैं। पुर (पालनपुर ) का संस्थापक राणा प्रहलाद, ९९ प्राचीन समयमै, जैन इतिहासमें प्रसिद्ध ऐसे लाख सुवर्णाधिपति सेट छाडाक, राजदौहित्रिक प्रायः सभी जैन राजा-महाराजाओंने और सेठं प्रतापमल्ल, अठारह सौ व्यवहारी, हेमचंद्रसूरि साहुकारोंने इस प्रकारके बडे बडे संघ निकाले थे आदि अनेक आचार्य, अनेक गांवों और नगरोसे और उनमें लाखों करोडो रुपये खर्च किये थे। आए हुए करोंडो मनुष्य, छहों दर्शनोंके अनुयायी, उदाहरणके लिये ऐसे दो चार प्रसिद्ध संघोंका, ११ लाख घोडे, ११ सौ हाथी, १८ लाख पैदल सि । पाही और अनेक याचक जन थे। राजा हमेशा यहां पर उल्लेख करना उचित मालूम देता है। चलता था और सो भी नंगे पैरोंसे । हेमचन्द्र गुजरातके परमार्हत राजा कुमारपाल चौलुक्य- सरिने उसे वाहन पर बैठजानेका अथवा तो पैरोंमें ने सौराष्ट्रके गिरनार और शQजयादि तीर्थाकी नेवगैरह पहर लेने के लिये आग्रह भी किया तो यात्राके लिये बडा भारी संघ निकाला था। उसके भी उसने वैसा नहीं किया। राजाके इस व्रतको बारेमें जिनमण्डन गणीने (संवत् १४९२) अपने करऔर भी संकडों संघजन उसी तरह चलने 'कुमारपाल प्रवन्ध' नामक ग्रंथमे जो उल्लेख किया संघके साथ समुदाय बहुत बडाहानस कहा है, उसका सार यहां पर दिया जाता है लोकोको रास्ते में कष्ट न हो इस लिये वह हमेशा पांच ___ हेमचन्द्राचार्यके मुखसे तीर्थ यात्रासे होनेवा कोसकी मंजल करता था।जगह जगह लड्डू, नालियला पुण्यलाभ सुन कर कुमारपालने भी तीर्थयात्रा करनेका मनोरथ किया और तत्काल सब सामग्री रआदिकी प्रभावना किये जाता था। जितने जितने एकत्र कर शुद्ध मुहूर्तमें यात्राके लिये प्रस्थान जिनमंदिर आते थे उन सब पर सुवर्ण और मोतिकिया। प्रस्थान करते समय उसने प्रथम, शहरके योसे जडी हुइ ध्वजाये चढाता जाता था और मंदिसभी चैत्यों (मंदिरों) में अष्टान्हिक उत्सव मना रमेकी प्रत्येक मूर्तिके लिये सोनेका छत्र और चामया। गांवमें अमारिपटह बजवाया । कैदखानाम रादि दान किये जाता था । गवि और शहराक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन साहित्य संशोधक [भाग १ सभी मनुष्योंको भोजन करवाता था। सामने आने बधाया । इस प्रकार उस दिन प्रथम तीर्थदर्शनके वाले राजाओं तथा सेठ-साहुकारोंको यथायोग्य सब कृत्य करके दूसरे दिन संघने उपवासका पहरामणी देता था। प्रतिदिन संघम, सामंत, मंत्री, पारणा किया और तदर्थ उत्सव मनाया गया। सेठ आदि सभी संघजनोंको एकत्र कर स्नात्र महो. तीसरे दिन संघ प्रयाण करके शत्रुजयकी तलहत्सव मनाता था । प्रत्येक गांव और नगरमें साध- टीमें पहुंचा । वहां पर पादलिप्तपुर (पालीताना) इयाको अन्न, वस्त्र और प्रच्छन्न धन देकरसा- में राजाने पहले ही पार्श्वनाथका मन्दिर बनवा धर्मिकवात्सल्य करता था। प्रतिदिन भोजन करने- रक्खा था, जिस पर उस समय सुवर्णनिर्मित कलशा के समय असमर्थ श्रावकोंको तथा दूसरे भूखे दण्ड और ध्वज आदिका आरोपण कर विधिपू प्यासे गरीब गुरयोंको अपने हाथसे भोजन करा. र्वक स्नात्र महोत्सव कराया। उसके बाद अपनी कर फिर स्वयंभोजन करता था । हमेशा त्रिकाल दाहिनी वाजमें हेमन्द्रसूरिको साथ लेकर, सा. जिनपूजा, उभयकाल प्रतिक्रमण तथा पर्वके (अष्ट. मंत, मंत्री, सेठ, साहुकार इत्यादि सबके साथ मी और चतुर्दशी आदि के) दिन पीपध बनादि शत्रुजय पर चढने लगा। मार्गमें जितने वृक्ष आते करता था। जितने याचकजन आते थे उनको इ- थे उन सब पर वनखण्ड चढवाता हुआ और च्छित दान देकर संतुष्ट करता था । इस प्रकार प्रत्येक स्थान पर सुवर्ण, पुप्प. चंदन इत्यादिस प्रयाण करता हुआ वह धंधूका नगरमें पहुंचा जो पूजन करता हुआ, मरुदेवा नामक शिखर उपर हेमचन्द्राचार्यका जन्मस्थान था । इस नगरमें पहुंचा। वहांपर जगन्माता स्वरूप.मरुदेवाकी, तथा उसने पहले ही १७ हाथ ऊंचा झोलिकाविहार शान्तिनाथ और कपर्दि यक्षादिककी पूजा-अची नामक मंदिर बनवाया था जिस पर ध्वजा चढाई कर प्रथम प्रतोली ( पोल) पर पहुंचा। वहां पर तथा मात्र महोत्सव कराया । वहांसे वह क्रमशः अनेक वाचक जन खडे थे जिनको यथायोग्य दान प्रयाण करता हुआ, प्राचीन वलभी शहरके मैदा- देकर आगे बढा और युगादिदेव आदिनाथक नमें पहुंचा। इस जगह दो सुंदर पहाडियां हैं जि- मुख्य मन्दिरका द्वार दिखाई देते ही सवासर नकी चोटी पर दो मन्दिर बनवाये और उनसे प्रमाण मोतियांसे उसे बधाया। तदनन्तर मन्दिर एकमें ऋपभदेवकी और दूसरेमें पार्श्वनाथकी को तीन प्रदक्षिणा कर गर्भागारमें गया और वहां मूर्ति प्रतिष्टित की । वहांसे चल कर वह संघ उस पर अगादि देवकी प्रशमरसपरिपूर्ण भव्य मूर्तिके जगह पहुंचा जहांसे शत्रुजय पर्वतका स्पष्ट दर्शन दर्शन कर परम उल्लसित हुआ और नौ लाख सुवा हो सकता था। उस दिन संघने वहीं पडाव किया के मल्यवाले नौ हार चढा कर उस मूतिकी और राजाने सकल संघके साथ शत्रुजयको नवांग पूजा की। तदनन्तर संघपतिके लिये जो दण्डवत् नमस्कार करके पञ्चाङ्ग प्रणाम किया। जो तीर्थ कृत्य बतलाये गये हैं उन सबका उसने उस दिन तीर्थदर्शन निमित्त उपवास किया गया यथाविधि पालन किया। इत्यादि। और सोने चांदिके फुलोसे और मोतियोंसे शत्रुजयके वधाया गया । कुकुम और चंदनादिसे न पाठक कुमारपालकी यात्राके इस वर्णनका ऊपर अष्टमंगलका आलेखन किया गया और उनपर पहले दिये गये श्राद्धविधिके संघवर्णनके साथ अनेक प्रकारके नैवेद्योंसे भरे हुए थाल रक्खे गये। मिलान करेंगे तो मालूम हो जायगा कि संघके वहां पर फिर पूजा पढाई गई, आचार्यका व्याख्या- केवल वर्णनमात्र ही नहीं है परंतु उसके अनुसार ' निकालनेका जो वर्णन ग्रन्थकारोंने दिया है वह न सुना गया और रात्रिजागरणका उत्सव मनाया यथार्थ आचरण भी होता रहा है । और यह आचः गया। राजराणी भूपल देवी, राजपुत्री लीलू कुमारी रण उस पुराणे जमाने ही में होता था सो भी और अन्य सब सामंत वगैरहकी लिऑने भी सो. बात नहीं है । वर्तमानमें भी ऐसे संघ निकालनेतेके थालो मोती और अक्षत भरकर पर्वतको वाले यथाशक्ति और यथासाधन उक्त विधिका Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] तीर्थयात्राके लिये निकलनेवाले संघोंका वर्णन १०१ पालन करते रहते हैं। इस प्रकारके छोटे बड़े दो महामंत्री वस्तुपालने १२ वार संघ निकाल कर चार संघोंके देखनेका तथा उनके साथ जा कर शत्रुजयकी यात्रायें की थीं। जिनमें सं. १२८५ में यात्रा करनका इस लेखकको भी सौभाग्य प्राप्त जो यात्रा की उसके साथमै २४ तो हाथीदांतके हुआ है जिनमें इस वर्णनका बहुत कुछ प्रत्यक्ष बने हुए और १२० चंदन आदि लकडीके बने अनुभव भी मिला है । अस्तु । हुए मंदिर थे । ४५ सौ गाडियां, २८ लीवाहिनियां, कहते हैं, इसी तरह पहले गोपगिरि (गवालि- ७०० सुखासन, ५०. पालखियां, ७० आचार्य, २ यर) के आम नामक राजाने बप्पभाटिसूरिक' उप• हजार श्वेताम्बर यति, ११ सौ दिगम्बर भट्टारदेशसे शत्रुजयकी यात्राके लिये एक संघ निकाला कादि, १९०० श्रीकरी, ४ हजार घोडे,२ हजार ऊंट, था जिसमें १ लाख पौष्टिक, १ लाख घोडे, ७०० और सात लाख मनुष्य थे। हाथी, २ हजार ऊंट, ३ लाख प्यादे और २०हजार वस्तुपालकी इस अनुपम तीर्थयात्राका वर्णन, श्रावक-कुटुंब थे। (देखो रत्नमन्दिर गणिरचित उसके समकालीन और सुहृद ऐसे बडे बडे कविउपदेशतरंगिणी, पृ०२४८) योंने बहुत विस्तृत और भव्य रीतिसे किया हैं। विक्रमकी १४ वीं शताब्दीमे थारापद नगरम उदाहरण के लिये गुर्जरेश्वर पुरोहित सोमेश्वर आभू नामक एक श्रीमालशातीय बहत बंडा श्रावक महाकवि रचित कार्तिकौमुदी नामक काव्यक हो गया है। इसको 'पश्चिममण्डलिक' की पदवी कुछ पद्य यहां पर उद्धृत कर दिये जाते हैं:मिली थी। इसने शत्रुजयकी यात्राके लिये जो चिकीर्पिता श्रीसचिवेन तीर्थसंघ निकाला उसमें ७०० तो मंदिर और १०५० यात्राऽथ सोऽयं शरदाऽऽसमेनः । जिन मूर्तियां थी! अन्य समुदाय इस प्रकार था: महात्मनामीहितकार्यसिद्धौ ४ हजार गाडियां, ५ हजार घोडे, २२ सौ ऊंट, विधिविधते हि सदानुकूल्यम् ॥१ ९० सुखासन' ९९ श्रीकरी, ७ प्रपा, पानीसे भरी पाययवन्तः पधि योग्ययुग्याः हुई मशके उठा कर चलनेवाले ४२ बैल और३०भैसे, सोपानहः सोदकभाजनाथ । १०० भोजन बनानेके बडे बडे कडाह, १०० हल- श्रीवस्तुपालन समं जनीघाः वाई, १०० रसोय, २०० माली, १०० तंबोली, १३६ प्रयाणकाय प्रवगा बभूवुः।।४ हाट, १४ लुहार, और १६ सुतार थे । ३६ आचार्य आकारितस्तेन रुतादरेण थे । सब मिलकर १२ करोडका उसके संघम दृगदपि श्राद्धजनः समेतः। खर्च हुआ था। ययुस्तदीयानि पुनर्यशासि दिगन्नरेभ्योऽपि दिगन्नराणि ॥ ५ १ बप्पभट्टीभिका स्वर्गवास संवत् ८९५ में हुआ था। समं समप्रैरपि बन्धुवर्गआमराजके लिये देखो मेरा शत्रंजय तीर्थोद्धार प्रवन्ध, पृ. निसर्गबन्धुर्विवुधवजस्य । ४२ की टिप्पणी। शुभे मुहूर्तऽथ शुभैनिमित्त२ पुराने जमानेमें बनजारे लोग जिन बैलों पर माल लद मन्त्री स्वनाथानुमतः प्रतस्थे ॥६ कर आते जातेथे उनको पौष्ठिक कहते थे । गुजरातीमें स्यैस्तुरंगे: करभैर्महो उसे पाठ कहते हैं। मनुष्य भी इन बैलों पर स्वारी करते थे। १ उपदेशतरंगिणी, पृ. २४७. ३ यह प्राचीन प्रसिद्ध नगर पालनपुर एजन्साम आया २ देखो, सोमेश्वररत्रित कार्तिकौमुदी, सर्ग ९, ठक्कुर हुआ है। आजकल इसे थराद कहते हैं। अरिसिंह रचित सुकृतसंकीर्तनकाव्य, सर्ग ५; यारचंद्रसरि ४ देखो, उपदेशतरंगिणी, प. १४५, तथा सुवातसागर रचित वसंतविलारा महाकाव्य, सग १.-११-१२-१३ काभ्य, पृष्ठ ५६ | और उदयप्रभसरित धर्माभ्यदगमहाकाव्य, सर्ग १५, इत्यादि। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રે जग्मुस्तदा केऽपि कथंचनापि । मन्त्रीश्वरे धर्मधरा धुरीणे तस्मिन् विशश्राम भरस्तु तेषाम् ॥ १० न वाहनं यस्य स तस्य वाहनं नासीद्धनं यस्य स तस्य वित्तम् । न चीरं यस्य स तस्य वस्त्रं कल्पद्रुकल्पः प्रददौ पृथिव्याम् ॥ ११ भुङ्क्ते स्म सर्वेष्वपि भुक्तवत्सु शेते स्म सुप्तेषु स यात्रिकपु । प्रबुध्यते स्म प्रथमं तदित्थं संघप्रभुत्वतमाचचार ॥ १२ प्रभूतभोज्यानि यहूदकानि सुगोरखान्युन्मदमानवानि । तस्यातिदुर्गेऽपि पथ प्रयाणान्युद्यानलीला सदृशान्यभूवन् ॥ १३ याप्रसंगेषु जगाम येषु पुरेषु पै. रोच्छ्रिततोरणेषु । तेषामधीशैः सविशेषमेय संमान्यमानः सममानयत्तान् ॥ १४ अन्ययमानः पथिकरने के वस्तुन्यनेकान्यपि वस्तुपालः | तेभ्यः प्रभूतानि पथि प्रयच्छ नाहं करोति स्म न कुप्यति स्म ॥। १५ पुरश्व पृष्ठेऽपि च पार्श्वयोथ परिस्फुरन्तः खरदेतिहस्ताः । यात्राजनं वर्तमान तस्य शम्ब दश्वादिरूढाः सुभटा ररक्षुः ॥ १८ समुद्धृतैर्जीर्णजिनेन्द्रहर्म्यं नवैः सरोभिश्व सरोजरस्यैः । प्रस्थानमार्गः सचिवस्य सोऽभूदजानतामप्युपलक्षणीयः ॥ १९ यावन्ति विम्बानि जिनेश्वराणां श्वेताम्वराणां च कदम्बकानि । जैन साहित्य संशोधक मार्गेषु ते मुपिताश्रितार्तिः पूजां स निर्वर्त्य ततः प्रतस्थे ॥ २० स पंचवैनिर्विषयप्रपञ्च-प्रयाणकैः प्रीणित भव्यलोकः । धराधरं धर्मधुरंधरधी Pus शत्रुंजयं शत्रुजयी जगाम ॥ २१. [भाग १ - कीर्तिकौमुदी, सर्ग ९ । इन श्लोकोंका भावार्थ यह है कि शरत्काल के आने पर मंत्री वस्तुपालने तीर्थयात्रा के लिये तैयारी की । उसके साथ गांवके अन्यान्य लोक भी भत्ता, वाहन, जलादिके वर्तन इत्यादि मार्गमें आवश्यक ऐसी सब चीजे ले ले कर तैयार हुए। मंश्रीने दूर दूर देशों के आवकों को भी संघ आनेके लिये आदर पूर्वक आमंत्रण किया था इससे वे भी सब लोक आ पहुंचे। इस प्रकार सब लोगोंके तैयार हो जाने पर, अपने कुटुंबी, सगे सम्बन्धी, स्नेही इत्यादि सब जनोंके साथ, राजाकी आशापूर्वक, मंत्रीने शुभ मुहूर्त में प्रयाण किया। यात्रियोंमैं कोई रथोंपर कोई घोडोंपर, कोई ऊंटोंपर, कोई बैलॉपर, इस तरह जुदा जुदा वाहनों पर स वार होकर चलते थे, पर उन सबका भार मंत्री के शिरपर था। साथ चलनेवाले यात्रियोंमेंसे जिसके पास वाहन नहीं था उसको वाहन देकर, जिसके पास धन नहीं था उसको धन देकर और जिसके पास वस्त्र नहीं था उसे वस्त्र देकर मंत्रीने उस समय साक्षात् कल्पवृक्ष के समान आचरण किया था। संघ में सब मनुष्योंके भोजन कर लेनेपर मं. त्री भोजन करता था, सबके सोजाने बाद सोता था और सबके ऊठने के पहले ऊठता था - इस प्रकार संघकी संपूर्ण प्रतिपालना करता था । यात्रियोंको हमेशा उत्तम प्रकारका भोजन कराया जाता था, मीठा पानी पिलाया जाता था और दूध-दहीं आदि गोरस खिलाया जाता था। इस कारण वह वि. पम मार्गी मुसाफरी भी लोगोंको उद्यानलीलाके जैसी आनंददायक हो गई थी। जिन जिन गांवोनगरों में वह संघ पहुंचता था वे सब गांव-नगर वहां के निवासियोंकी ओरसे ध्वजा-तोरणादिले खूब सजाये जाते थे और वहांके अधिकारी वगैरह सब जन आदरपूर्वक उस संघकी पेशवाई में आते थे । स्थान स्थान में अनेक याचक जन आकर मंत्रीके पास अनेक प्रकारकी याचना करते थे और वह सबको यथायोग्य दान देकर संतुष्ट करता थापरंतु इस विषय में न कभी वह अहंकार ही प्र Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] तीर्थयात्राके लिये निकलनेवाले संघोंका वर्णन १०३ र्शित करता था और न तिरस्कार ही। रास्तेम चलता हुआ वह संघ आगे, पीले और अगल-ब. गलमें, अर्थात् चारों ओर, हाथों में शन लिये हुप घोडे सवारीले संरक्षित रहता था। मार्गम जितने भी जीर्ण-शीर्ण मन्दिर और तालाव आदिजलाशय मिलते थे उन सबको ठीक-ठाक या नवीन बनवाता हुआ यह संघ चला जाता था। इस कारण उस रास्तंसे निकलकर जानघाले अज्ञात जनोंको भी चिरकाल तक उस संघके प्रयाणका परिचय मिलता रहता था। इसी तरह रास्तम जितने मन्दिर आते और उनमें जितनी जिनमूर्तियां होती थीं उन सबक्री पूजा-अर्चा करवाई जाती थी। एवं रीत्या प्रयाण करता हुआ ांतर और बाह्य दोनों प्रकारके शत्रुओं ऊपर जय प्राप्त कर .नेवाला यह महामंत्री ५-६ ही दिनमें शव॑जय पर्वतपर पहुंच गया था । इत्यादि। विक्रमकी १५ वीं शताब्दीके अन्तिम भागम, सं० गुणराज नामका एक प्रसिद्ध धनिक श्रावक हो गया है जो कर्णावतीका निवासी था। उसने श→जय, गिरनार, भाव, राणकपूर, मांडव, ईडरगढ आदि मुजरात, काठियावाड, मेवाड, मारवाड, मालया, वागड इत्यादि देशांक प्रसिद्ध प्रसिद्ध ती. थोंकी या निमित्त बहुत बड़ा संघ निकाला था। इस संघमें मुख्य आचार्य तपागच्छक सामरंदर सरि थे।जन्हीके उपदेशसे यह संघ निकला था। इस संघका विस्तृत वर्णन सोमसोभाग्य नामक काव्यके व सर्गम किया हुआ है। काव्यका बनानेवाला कवि प्रतिष्टासोम स्वयं लोमसुंदर सूरिका हस्तदीक्षित शिष्य था। इस लिए उसका यह वर्णन प्रायःयांखों देखा कहा जा सकता है। जिज्ञासु पाटकोंको तो इस बारे में खुद उक्त का. व्य ही को पढना चाहिए। परंतु कुछ नमूना दिखानेके लिये उसके थोडेसे पद्य यहांपर भी दे दिये जाते हैं: दागरिकापर्व समाययों मुदा साम्राज्यदानप्रतिभूनिमं भुवि । श्रोतथियात्राकृतय कृती तदा महाद्यमं निमितवान् महेभ्यराट्।। सन्नीनियन्ते स्म मनोरथैः समं रथा महेभ्यः स्वगृहप्वयोमयाः । मुखासनप्रोद्धरसिंहविष्टरा दोर्ट गरिष्ठ भुवि तविधापितम् ॥ पर सहवाश्चतुरास्तुरंगमा आत्ता उदात्ता हृदयंगमाः पुनः। व्यघ्रियन्ते स्म मया महोमया अप्रेसरा वेगभृतां व सराः ।। महिम्मदश्रीयुतपातमाहिराट् सत्याभूतप्रीतमना मनीषिणम् । दिव्यांवरय किल पर्यधापयत् __कयाहिमुम्यः मह भूरिभिजनः ।। समार्पयद् द्वारगति निजां च तं __ वाद्यं नफेरीप्रमुखं नपोचितम् । पर महान् मुभटान् महोद्भटान् प्रोन्मादिनस्तानमितांश्च सादिनः।। श्रीतीर्थयात्रास्फुरमाणमीकितं ददी सदीनत्यकरं च यस्य तत् । स मार्गणप्राणिगणस्य कामितं संपूरयन् श्रीगुणराजमबराट् ।। भव्ये मुहंत पभावभाषितः संघान्त्रितः सवपुराच्चचाल सः। कुंभ: शुभाम्मोभरितोऽस्य संमुखी__ यभूव मार्गे सघवाशिरस्थितः ॥ इति प्रकृष्टेः शकुन: प्रमातिगैः संमृस्तित्वोज्ज्वलमंगलोदयः। श्रीवीरमग्राम इति प्रसिद्धिमृत् - पुरं यया श्रीगुणराजसाधुराट् ।। तस्मिन्मिलन्ति स्म पुरे नरेश्वरो धुरा नराः पुण्यपराश्चतुर्दिशाम् । प्रबद्धने स्मानयसंघ उच्चकै दिनंदिन वादिरिदेन्दुदर्शने ॥ देवालयाः श्रीनिलया दशाऽकशाः सविणदण्डश्वजकुम्भशामिताः । चमत्कताशपजगत्त्रया स्फुर. चित्रविचित्रविरशिल्पिकल्पितः ।। जैनन्द्रविम्वः सहिता महोच्छितास्तुईनयोः सुभगंभबिष्णवः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन साहित्य संशोधक [माग anwarwawaranananmivowwwmarrrrrowainmananninawwwe wwwwwwwwwwwrammam स्थाधिरूढा दृढवन्धवन्धुरा: पथि प्रचेलुः त्रिदशाचलाचला। तत्पृष्ठतः शिष्टगरिष्ठशेखरः खरांशुभास्वद् द्युतिसन्ततिस्ततः । पुराच्चचालाचलकन्दराबली. विः प्रकुर्वन् प्रतिशब्दमण्डिताः। श्रीश्रीकरीशोभितपृष्ठयो लसत् सुखासनक्षमापतिवाहनस्थिताः । साम्यं दधाना निवि विडोजयो महेभ्यराजस्तदनु प्रतस्थिरे ।। तरंगरंगत्तुरगानिसत्खरैः खरैश्चलत्स्यन्दनचक्रमण्डलैः। भृशं समुत्खातमिलारजोऽगित: प्राच्छादयत्तापनविम्बमम्बरे ।। तदाभुजप्रोत्कटसद्भटावली हक्कानिनादैहयराजिहषितैः। भेरी-नफेरी स्वरनायिकास्वरैः _शृगालवत्कालकलिननाश सः॥ श्रीसंघसत्को शकटैमरोकटै निपीडितो मुनि सशेपपन्नगः । कष्टेन पातालतले स्थितस्तदा कुलापलाचलुरलं च भारिताः ।। सुखासन-स्यन्दन-राजवाहन श्रीवाहिनीनां वरवाजिनां नृणाम् । कश्चिद्विपश्चिद् गुणराजसंघराट् संघेन संख्यामकरोन्नरोत्तमः॥ श्रीमन्महीराजगजो गजोधरः कालूश्च वालाहय ईश्वरः रुती। श्रीवाचसूनोस्तनया नयान्विताः पंचेपुलपाधिकरूपसम्पदः॥ पंचाप्यमी पंचमुखाभविक्रमाः क्रमाजनम्रक्षितिपा भटान्विताः। पश्चात्पुरस्ताच्च सृजन्ति यत्नतः श्रीसंघरक्षां पथि सत्पथस्थिताः ॥ पुरे पुरे श्रीमलिकाच राणकाः सोपायना: सम्मुखमागताः समे। चक्रुः प्रणामं गुणराजनामभृत्. संवेशिलुभूतला.ममौलयः ॥ कि संप्रति तिरेप शासन विभासयन् जैनमखण्डशासनः । कुमारपालः किमु निर्मितामित प्रभावनः पावनपुण्यभावनः॥ किं वस्तुपालोऽत्र मनोरथान् पृथून् • कृतार्थयन्नार्थजनस्य शस्यधीः । इत्थं सृजन्नुहसम्हमंगिनां - धंधुकके संघपतिः समागमत् ।। इन श्लोकोंको तात्पर्य यह है कि--जब हर्पके साम्राज्यका दान करनेवाला ऐसा दीपालिका पर्व आया तव-अर्थात् चातुर्मासकी समाप्तिके समय पर--गुणराज सेठने तीर्थयात्राके लिये खूब जबरदस्त तैयारी करनी शुरू की। उसके साथ और भी बडे बडे धनिक लोक मनोरथोंके साथ ही अपने अपने घरोंमें रथों वगैरहको सजाने लगे। तथा सुखासन, सिंहासन आदि जुदा जुदा तरहके वाहन बनाने लगे। हजारों ही ऊंची जातिके घोडे तैयार किये जाने लगे तथा खचर और ऊंट सामानसे लदे जाने लगे। यो तैयारी कर वह चतुर सेट अनेक प्रकारकी वहमल्य भेटे लेकर अपना राजकर्ता जो अहम्मद बादशाह था उसके पास गया और वे भेटें उसके सामने रख कर उसको खूब खुश किया। बादशाहने भी बदलेमें, अपने कवाहि (?) आदि सहचारियोंके साथ, गुणराज सेठको आदरपूर्वक किंमती सरपाव देकर उसका उचित सन्मान किया। इसके उपरांत वादशाहने सेठको संघमें ले जानेके लिये अपना निजका जो बादशाही खेमा था वह समर्पण किया और नफेरी आदिशाही याजे भी --कि जो खास राजाओंहीके आगे बजाये जा सकते है-बजानेके लिये देकर सेठका बहुमान किया। बंधक रक्षाके लिये हजारा ही प्यादे और घोडे. सवार सिपाही भी बादशाहने उसके साथ भेजे । इस प्रकार यात्राके लिये शाही फरमान लेकर, सकल समुदायके साथ, भव्य मुहूर्तमें, याचकगणको इच्छित दान देते हुए, शुभ शकुनपूर्वक गुणराज सेठने अपने नगरसे प्रस्थान किया। कर्णावतीले रवाना होकर संघ वीरमगांव प Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २ ] हुंचा जहां चारों दिशाओंमेंसे असंख्य मनुष्य आ आफर उस संघ में शामिल हुए। फिर शुक्लपक्षके चंद्र की तरह दिन प्रतिदिन वह समुदाय इस प्रकार अन्यान्य स्थानों से आनेवाले जनसमूहसे खूब तीर्थयात्रा के लिये निकलनेवाले संघौका वर्णन चढता गया । संघमैं सबसे आगे रथारूढ देवालय ( मन्दिर ) चलते थे, जो खूब ऊंचे होकर सोनेके कलश और ध्वजा दंडादिसे अलंकृत थे, कुशल कारीगरों की की हुई अनेक प्रकारको चित्र विचित्र रचनाओंके कारण देखनेवालेको चमत्कृत बनाते थे और जिनके अंदर भव्य आकृतिवाली जिन प्रतिमायें सुशोभित थीं । देवालयोंके पीछे पीछे, सूर्यके समान तेजस्वी ऐसा गुणराज सेठ चलता था जिसके आगे बजनेवाले बाजों के प्रतिध्वनिसे रास्ते में आनेवाले बडे बडे पाड शायमान हो जाते थे । संघपतिके पीछे पीछे, संघमैके अन्यान्य बडे बडे धनाढ्य लोक चलते थे जो राजाओं के उचित ऐसे सुखासनोंमें बैठे हुए थे और जिनकी अगल-बगल में नोकर लोक अबदागिरीयां लेकर चलते थे । अन्य बाफीके सैकड़ों ही लोक घोडे जुडे हुए रथोंमें बैठे हुए चलते थे कि, जिन रथोंके घोडाकी खुरियोंसे तथा पहियोंसे उडती हुई धूलके कारण सारा आकाश ढंकसा जाता था । सुभटके हुंकारोंसे, घोडोंकी हिनहिनाटोंसे और भेरी नफेरी आदि बाजोंके घोर शब्दसे, देखनेवालेको मानो यह प्रतीत होता था कि कलिकाल अब इस जगत् मेंसे नष्ट हो गया है और फिर सत्युगका संचार हो रहा है। उस संघके साथ इतनी गाडियां थीं कि जिनके भारसे दुबकर ही मानों शेषनाग पातालमें चला गया है और कुलाचल कम्पित हो रहे हैं । संघके साथ इतने रथ, सुखासन, पालखियां, घोडे और मनुष्य आदि थे कि जिनकी संख्या कोई बडा विद्वान् भी नहीं कर सकता था । संघपति गुणराज सेटके महीराज, गजराज, कालू, वाला और ईश्वर नामके पांच पुत्र थे, जो सिंहके समान पराक्रमी और कामके समान रूप वान् थे । ये पांचों पुत्र संघकी रक्षासंबंधी सारी 1 १०५ व्यवस्था रखते थे और सुभटकि साथ इनमें से कोई संघके आगे, कोई पीछे और कोई अगलबगल में चलता था। इनका पराक्रम और तेज इतनाथा कि राजा और राणा भी आकर इनके पैरोंमें पडते थे । जिस जिस गांव और नगर में सं० गुणराजका वह संघ पहुंचता था वहां के मलिक और राणक आदि सब अधिकारी लोक भेटें ले लेकर संघ सामने आते थे और जमीनपर सिर टेककर उसको प्रणाम करते थे । गुणराज सेटके इस महान् संघको देखकर लोकांके मनमें, पुराणे प्रत्थोंमें वर्णन किये हुए संप्रतिराजा, कुमारपालराजा और महामंत्री वस्तुपाल आदिके संघों का स्मरण हो आता था और क्षणभर उनको यही भास हो जाता था कि क्या यह राजा संप्रति, या कुमारपाल, अथवा मंत्री वस्तुपाल ही तो संघ लेकर नहीं आ रहा है ? इस प्रकार महान् ठाठके साथ चलता हुआ गुणराजका वह संघ क्रमसे धुंधुका शहरमें पहुंचा । इत्यादि । खरतर गच्छके महोपाध्याय जयसामके उपदेशसे सिंधके फरीदपुर नगरसे, वि. सं. १४८४ में, पंजाबके प्रसिद्ध प्राचीन स्थान कांगडेके जैन मंदि की यात्रा के लिये जो संघ निकला था उसका बहुत ही मनोरंजक वर्णन, हमारी संपादन की हुई विज्ञप्ति - त्रिवेणी नामक पुस्तकमै किया हुआ है, जिसमेका कुछ भाग प्रकृतोपयोगी होनेसे यहां पर दिया जाता है । "संघको चलते समय बहुत अच्छे और अनुकूल शकुन हुए । फरीदपुरले थोडी ही दूरी पर विपासा ( व्यासा ) नदी थी । उसके किनारों पर, जहां जाम्बु, कदम्ब, नीम्ब, खजूर आदि वृक्षोंकी गहरी घटा जमी हुई थी और नदाके कल्लोलोंसे ऊठी हुई ठंडी वायु मन्द मन्द गति से चली आती थी, ऐसे चांद जैसे चमकिले रेतीके मैदान में संघने अपने प्रयाणका पहला पडाव किया। दूसरे दिन नदीको पार करके जालंधरकी ओर संघने प्रस्थान किया । संघर्मे सबसे आगे सिपाही चलते थे जो मार्ग में रक्षणके निमित्त लिये गये थे । उनमें से किसीके Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [ भाग १ 14445 दिया । इसे सुनकर संघके हौंस ऊड गये । सब दिङ्मूढ हो गये । यात्रीलोक दिलमें बडे प्रवराये और अब क्या किया जाय इसकी फिक्रमें निश्चेष्टसे हो र है। किलो प्रकार हाँस संभालकर और परमात्माका ध्यान घर संघ पीछा लौटा और विपाशा के तटका आश्रय लिया । नावों में बैठ कर जल्दी से उस को पार किया और कुंगुद नाम के घाट में हो कर मध्य, जांगल, जालन्धर और काश्मीर इन चार देशोंकी सीमाके मध्य में रहे हुए हरियाणा नामके स्थान में पहुंचा । इस स्थलको निरूपद्रव जान कर वहां पर पडाव डाला। वहीं पर, कानुक यक्षके मंदिर के नजदीक, शुचि और धान्यप्रधान स्थान में चैत्र सुदि एकादशी के रोज सर्वोत्तम समय में, नाना प्रकार के वाद्योंके वजने पर और भाट चारणों के, बिरुदावली बोलने पर, सर्व संघने इकट्ठा हो कर, साधुश्रेष्ट लोमा को, उसके निषेध करनेपर भी, संघाधिपतिका पद दिया । मल्लिकवाहनके सं० मागटके पौत्र और सा० देवा के पुत्र उद्धर को महाधर पद दिया गया । सा० नीवा, सा० रूपा और सा० भोजा को भी महाधर पद से अलंकृत किया गया। सैलहस्त्य का विरुद वुच्यासगोत्रीय सा० जिनदत्त को समर्पण किया गया। इस प्रकार वहां पर पहीदान करनेके साथ उन उन मनुष्योंने संघ की, भोजन-वस्त्र आभूषणादि विविध वस्तुओं द्वारा भक्ति और पूजा कर याचक लोको को भी खूब दान दिया । संघके इस कार्यको देख कर मानों खुश हुआ हुआ और उल के गुणों का गान करनेके लिये ही मानों गर्जना करता हुआ दूसरे दिन खूब जोर से मेघ वर्षने लगा । बेर बेर जितने बड़े बड़े ओले बादल में से गिरने लगे और झाडो तथा झंपडीओ को उखाड कर फेंक देनेवाला प्रचण्ड पवन चलने लगा। इस जलवृष्टिके कारण संघ को वहां पर पाँच दिन तक पछाव रखना पडा । ६ वें दिन सवेरे ही वहां से कूच की। सपादलक्षपर्वत की तंग घाटियों को लांघता हुआ, सघन झाडियों को पार करता हुआ, नाना प्रकार के पविताय प्रदेशों को आश्चर्य की दृष्टि से देखता हुआ और पहाडी मनुष्योंके आचार-विचारोंका १०६ 1 हाथ में तलवार थी तो किसीके हाथमें खड्ग था । कोई धनुष्य लेकर चलता था तो कोई जब रदस्त लठ्ठ उठाये हुआ था। इस प्रकार सबसे आगे उछलते कूदते और गर्जते हुए सिपाही चले जाते थे । उनके पीछे बडी तेजी के साथ चलनेवाले ऐसे बडे बडे बैल चलते थे जिन पर सब प्रकारका मार्गोपयोगी सामान भरा हुथा था । उनके बाद संघके लोक चलते थे जो कितने एक गाडी घोडी आदि वाहनों पर बैठे हुए थे और कई एक देव गुरुभक्ति निमित्त पैदल ही चलते थे । कितने ही धर्मी जन तो साधुओंकी समान नंगे ही पैर मुसाफरी करते थे । इस प्रकार अविच्छिन्न प्रयाण करता हुआ और रास्तेमें आनेवाले गाँवों को लांघता हुआ संघ निश्चिन्दीपुर के पास के मैदान, सरोवर के किनारे आ कर ठहरा । सघके आनेकी खवर सारे गाँवमें फैली और मनुष्यों के झुंड झुंड उसे देखनेके लिये आने लगे । गाँव का मालिक जो सुराण (सुल्तान) करके था वह भी अपने दिवान के साथ एक ऊंचे घोडे पर चढ कर आया, और जन्मभर में कभी नहीं देखे हुए ऐसे साधुओं को देखकर उसे बडा विस्मय हुआ । उपाध्यायजीने उसे रोचक धर्मोपदेश सुनाया, जिसे सुन कर नगरके लोकोंके साथ वह वडा खुश हुआ और साधुओंकी स्तुति कर उसने सादर प्रणाम किया | वाद संघपति सोमाका सम्मान कर अपने स्थान पर गया । संघ वहां से प्रयाण कर क्रमसे तलपाक पहुंचा। वहां पर गुरुओंको वन्दन करने के लिये देवपालपुरका श्रावकसमुदाय आया और अपने गाँवमें आनेके लिये संघको अत्याग्रह करने लगा | उन लोकों को किसी तरह समझा-बुझाकर संघने वहां से आगे प्रयाण किया और विपाशा ( व्यासा ) नदीके किनारे किनारे होता हुआ क्रमसे मध्य देशमें पहुंचा। जगह जगह ठहरता हुआ संघ इस देश को पार कर रहा था, कि इतने में एक दिन, एक तरफसे पोषरेश यशो रथ सैन्यका और दूसरी ओरसे शकन्दर के सैन्यका, "भगो, दोडो, यह फौज आई, वह फौज आई, "इस प्रकारको चारों तरफस कोलाहल सुनाई V Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २) जेसलमेरकं पटवोंके संघका वर्णन १०७ अनुभव करता हुआ संघ फिर विपाशाके तट पर आचार्य श्रीजिनेश्वरसूरिकी प्रतिष्टित की हुई शाधहुंचा। उसे सुखपूर्वक ऊतर कर, अनेक बडे बडे न्तिजिनकी प्रतिमा का दर्शन किया। तीन चार गाँवोंके बीच होताहुमा, और तत्तद गाँवों के लोको प्रदक्षिणा दे कर, नाना प्रकारके स्तुति-स्तोत्रों और स्वामियों को मिलता हुआ, क्रम से पाताल- द्वारा अत्यंत आनन्दपूर्वक प्रभुकी पर्यपासना की। गंगा के तट ऊपर पहुंचा। उसे भी निरायास पार इस प्रकार संवत् १४८४ वर्षके ज्येष्ठ सुदि पंचमी. कर क्रम से आगे बढ़ते हुए और पहाडॉ की चो- के दिन, अपनी चिरकाल की दर्शनोत्कण्टाको टियों को पैरों नीचे कुचलते हुए संघ ने दूरसे पूर्ण कर फरीदपुरका संघ कृतकृत्य हुआ । शान्तिसोनके कलशवाले प्रासादीको पंक्तिवाला नग- जिन के दर्शन कर संघ फिर नरेन्द्र रूपचन्द्र के रकोट्ट, कि जिसका दूसरा नाम मुशर्मपुर है, देवा। बनाये हुए मंदिर में गया और उस में विराजित उसे देख कर संघ-जनोंने तीर्थक प्रथम-दर्शन- सुवर्णमय श्रीमहावीरजिन थिबको पूर्ववत् वन्द. से उत्पन्न होने वाले आनंदानुसार, दान धर्मादि न-नमन कर, देवल के दिखाये हुए मार्गसे युगासुकृत्यों द्वारा अपनी तीर्थभक्ति प्रकट की। नगर- दिजिनके तीसरे मंदिर में गया । इस मंदिरमें भीकोट्टकं नीचे याणगंगा नदी बहती हैं जिसे ऊतर उसी तरह परमात्माकी उपासना-स्तवना कर कर संघ गाँवम जानकी तैयारी कर रहा था कि निज जन्म को सफल किया। इतने में उसका आगमन सुन कर गाँवका जैनस- (विज्ञनित्रिवोण, प्रस्तावना, पृ०३७-३९) मुदाय, सुन्दर वस्त्राभूषण पहन कर, स्वागत इस प्रकार और भी अनेक प्रन्यों में अनेक संघोंकरनेके लिये सामने आया ! अनेक प्रकारके वादिः का वर्णन मिलता है । इस लेखमें हमारा उद्देश त्रा और जयजयारवाँके प्रचंड घोपपूर्वक महान् सारे संघाँका इतिहास लिग्यनेका नहीं है, परंतु उत्सव क साथ, नगरम प्रवेश किया। सहर के संघ किस तरह निकाले जाते हैं उसका स्वरूप प्रसिद्ध प्रसिद्ध मुहल्ली और बाजाराम घूमता हुआ बतलाने का है। इस लिये नमुनेक तौर इतने वर्णन संघ, साधु क्षीमसिंहके बनाये हुए शान्तिनाथ- दे कर इस विषयको समाप्त किया जाता है । संघों. देव के मंदिर के सिंहद्वार पर पहुंचा । 'निसीही का क्रमवार इतिहास हम मी भविष्यमें लिखना निसीही नमो जिणाणं' इस वाक्य को तीन चार चाहते हैं। चोलता हुआ जिनालयमें जो कर, खरतरगच्छक जेसलमेरके पटवोंके संघका वर्णन । ऊपर हमने तीर्थयात्राके लिये निकलनेवाले सं- ज्यो कि त्यो नकल दी जाती है । इस लेख की एक घाँका वर्णन' दिया है । इस प्रकारका पक वडा कापी प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराजके शास्त्र भारी संघ गत शताब्दीके अंतम, मारवाडके जे- संग्रहमसे मिली है। जो उन्होंने किसी मारवाडी सलमेर नगरमें रहनेवाले पटवा नामसे प्रसिद्ध लहियक पास लिखवाई है और दूसरी नकल,घडीकुटुंबचाले ओसवालाने निकाला था। इस संघका दाके राजकीय पुस्तकालयके संस्कृत विभागक वर्णन, उसी कुटुंबका बनाया हुआ, जसलमेरके . - सद्गत अध्यक्ष श्रीयुत चिमनलाल डाह्याभाई पास अमरसागर नामक स्थानमें जो जैन मंदिर है उसमें एक शिला पर, उसी समयका लिम्ला हुआ दलाल एम. ए. के पाससे मिली है जो उन्होंने मेरे हैं । यह शिलालग्न मारवाडी भाषाम और देवना- लिये जेसलमेरके किसी यतिके पाससे लिख मंगगरी लिपिम लिखा गया है । नीचे इस लेखकी वाई थी। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन साहित्य संशोधक ॥ ओं नमः ॥ | दूहा | रिषभादिक चडवीस जिन पुण्डरीक गणधार । मन वच काया एक कर प्रणमु वारंवार ॥ १ विघन हरण संपतिकरण श्रीजिनदत्तसुरिंद | कुशल करण कुशलेश गुरु बन्दु खरतर इंद ॥ २ जाके नाम प्रभावतै प्रगटे जय २ कार । [भाग १ सानिवकारी परम गुरु सदा रहो निरधार ॥ ३ संवत् १८९१ रामिति श्राषाढ सुदि ५ दिने श्रीजेसलमेरु नगरे महाराजाधिराज महारावलजी श्री १०८ श्रीगजसिंघजी राणावत श्रीरूपजी बापजी विजयराज्ये बृइत्खरतर भट्टारकगच्छे जंगमयुगप्रधान भट्टारक श्रीजिनहर्षसूरिभिः पट्टप्रभाकर जं । यु । म । श्री १०८ श्री जिनमहेन्द्रसूरि उपदेशात् श्रीबाफणागोत्रे देवराजजी तत्पुत्र गुमानचंदजी - भार्या जेतां । तपुत्र ५ - (१) वहादरमलजी - भार्या चतुरां । (२) सवाईरामजी -- भार्या जीवां । ( ३ ) मगनीरामजी - भार्या परतापां । ( ४ ) जोरावरमलजी - मार्या चोथां । ( ५ ) प्रतापचंदजी - भार्या मानां । एवं बादरमलजी तत्पुत्र १) दानमल्लजी ( २ ) सवाईरामजी तत्पुत्र सामसिंघ, माणकचंद | सामसिंहपुत्र रतनलाल | (३.) मगनीरामजी तत्पुत्र चभूतसिंघजी । तत्त्र २ पूनमचंद दीपचंद | ( ४ ) जोरावरमलजी तत्पुत्र २ सुरतांनमल चनणमल । सुरतानमल पुत्र २ गंमीरचंद्र इंद्रचंद्र | ( ५ ) प्रताप चंदनी पुत्र ३ हिमतराम जेठमल - नथमल । हिमतरामपुत्र जीवण । जेठमल पूत्र मूलो । गुमानचंदजी पुत्र्यां २ झचू-चीजू । सवाई रामजी पुत्र्यां ३ सिरदारी - सिणगारी - जांनुडी । मगनीरामजी तत्पुत्र्यां २ हरकवर हस्तू | सपरिवार सहितेन सिद्धाचलजीरो संघ काढयो । निणरी विगत नेशलमेर उदैपुर कोटे कुंकुमपत्र्यां सर्व देसावरांमे दीनी । च्यार २ जमण कोया नालेर दीया पर्छे संघ पाली मेलो हूवो । उठे नीमण ४ कीया । संघतिलक करायो । मिति महासुदि १३ दिने म । श्रीजिनमहेन्द्रसूरिजी श्रीचतुर्विधसंघसमक्षे दीयो । पछे संघ प्रयाण कीयो । मार्गमें देशना सुणतां पूजा पडिकमणादि करतां साते क्षेत्रांमें द्रव्य लगावतां जायगा २ सामेला होतां रथजात्रा प्रमुख महोच्छव करतां । श्रीपंचतीर्थीनी वांभणचाडजी आबूजी जीरावलजी तारंगेजी संखेश्वरजी पंचासरजी गिरनारजी तथा मारगमा हे सहरांरा गामांरा सर्व देहरा जुहारचा । इणमांत सर्व ठीकाणे मंदिर २ दीठ चढापो कीयो । मुगट . कुंडल हार कंठी भुजबंध कडा श्रीफल नगदी चंद्रवा पुठीया इत्यादिक मोटा तीर्थमाथे चढापो घणो हुवो । गहण सर्व जडाउ हो सर्व ठिकाण लांइण जामण कीया सहसावनरा पगथीया कराया । उठेसु सात कोष ठेरे - गामसुं श्रीसिद्धगिरीजी मोत्यां बधायने पालीताणें बड़ा हगामसुं गाजावाजतां तलेटीरो मंदिर जुहार डेरां दाखल हुवा । दुने दिन मिती Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २j जेसलमेरके पदयोंके संघका वर्णन १०९ वेशाख सुदी १४ दिने शांतिक पुष्टिक हुतां श्रीसिद्धगिरीजी पर्वतपर चढ्या, श्रीमुलनायक चोमुखोजी खरतरवशीरा स्था दुजी वश्यां सर्व जुहारी मास सवा रया। उठे चढापो घणो हुवो । अढाइ लाख जात्री भेला हुवा । पुरव, मारवाड़, मेवाड़, गुजरात, ढुंढाड़, हाडोती, कछभुज, मालवो, दक्षण, सिंध, पंजाब प्रमुख देशारा । उठे लाण रू. १ सेर १ मिश्री घर दीठ दीवी जीमण ५ संघव्यां मोटा कीया जीमण १ बाई बीजु कीयो ओर जीमण पण घणा हुवा । श्रीचोमुखाजोरे वारणे आलामे गोमुख यक्ष चक्रेश्वरीरी प्रतिष्ठा करायनें पधराइ चोमुखाजीरो सिखर सुधरायो एक नवी मंदिर करावण वास्ते नींव भराई । जुना मंदिरांरा जीर्णोद्धार कराया जन्म सफल कीयो । गुरुमाक्त इंण मुजब कीवी । इग्यारे श्री- . पूज्यजी था २१०० साधु साध्वी प्रमुख चौरासी गछांरा । तिहां, प्रथम स्वगछरा श्रीपूज्यजीरी भक्ति साचवी । हजार ५ रो नगद माल दीयो दूजो खरच भर दीयो पछे अनुक्रमें सारा दुजा श्रीपुजारी साधु साध्वीयारी भक्ति साचवी । आहार पाणी गाड़ीयारो भाडो तंबु चीवरो ठांणे दीठ रू ४१ दीया नगद । दुशाला वालांने दुशाला दीया । सेवग ५०० हा। जिणांने जणे दीठ रू० २१ दीया । रोटी खरच अलग । पहेरणारा मोजा मोषध खरची सारूं रुपीया चाहीज्या जिणाने दीया। पछे । म । श्रीजिनमहेंद्रसुरिजी पासे सिंघन्यां ३१ संघमाला पहरी जिणमें माला २ गुमास्ते सालगराम महेश्वरीने पहराइ । पछे बडा आडंबरसु तलेटीरो मंदिर जुहार डेरां दाखिल हुवा । जाचक्रांने दान दीनो । पछे जीमण १ कीयो । साधानें सिरपाव दीया । राजा डरे आयो । जिणनें हाथी सिरसावमें दीयो । दुजा मार्गमें राजवी नबाब प्रमुख आया डेरे, जिणाने, राजमुजब सिरपाव दीया। श्रीमुलनायकजीरे भंडाररे ताला ३ गुजरातीयारा था सु चोथो तालो संघव्यां आपरो दियो । सदावर्त सरू हेईज । ईसा २ मोटा काम करया पछे संघ कुशलक्षेमसुं अनुक्रमें राधणपुर आयो । जठे अंगरेज श्रीगोडीजीरा दर्शण करणने आयो । उठे पाणी नहीं थो सं गेबाउ नदी नीसरी । श्रीगोडीजीने हाथारे होदे विराजमान कर संघनें दरशण दिन ७ इकलग करायो चढापेरा साढा तीन लाख रूपीया माया सवा महीनो रया, जीमण घणा हुवा । श्रीगोडीजीरे विराजणने बडो चोतडो पक्को करायो ऊपर छतरी बणाई । घणो द्रव्य खर्यों बडो जश आयो अक्षत नाम कीयो । साथे गुमास्तो महेश्वरी शालगरांम हो जिणनें जैनरा शिवरा सर्व तीर्थ कराया। पछे अनंक्रमें संघ पाली आयो । जीमण १ करनें दानमलजी कोटे गया पछे भाइ ४ जेसलमेर माया । डेरा दरवाजे बाहर कीया पछे सामलो बडा ठाठमुं हुवो । श्रीरावलजी सामा पधाया। हाथीरे होदे, संघव्याने श्रीरावलजी आपरे पुठे बेषाणने सारा शहिरमें हुय देहरा जुहार ऊपाश्रये आय हवेल्यां दाखल हुवा । पछे सर्व महेश्वरी वगैरे छत्तीस पानने लुगायां समेत पांच पकवानसुं जीमाया । ब्राह्मणाने जणे दीठ रू० १ दक्षणारो दीयो पछे श्रीराउलजी जनाने सहित संघव्यारे हवेली पधाया। रूपयांसुं चोतरो कीयो । सिरपेच कंठी मोत्यांकी कडा जडाउ दुशाला नगदी हाथी घोडा पालखी निजर कीया । पाछा श्रीरावलजी इण मुजब हीज शिरपाव दीयो। एक लोद्रवोजी गाम तांबापत्रां पट्टे दीयो इतो इजारो कीयो। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anna wwwwwwwwwww panwwwwimarnamanwwimminantar .0.. जैन साहित्य संशोधक [ माग १ आगे पिण इणारी हवेली-उदेपुर राणाजी, कोटेरा महारावजी, बीकानेरा किषनगढरा बुंदीरा राजानी इन्दोररा हुलकरजी प्रमुख सर्व देशांरा राजवी जनांने समेत इणारे घरे पघाऱ्या देणो लेणी हजारांरो कीयो । दिल्लिो पातसाहरी अंगरेजारे पातसाहरी दीयोडी सेठ पदवी हे सो विक्षातही ज है । पछे संघरी लाहण न्यातमें दीवी पुतली १ सोनेकी बाली १ मीश्री सेर १ घर दीठ दीवी । जीमण कीया पछे सेरमें ठावाठावाने सीरपाव दीया । यढमहिला मंदिरां लोद्रवे कपाश्रये बडो चढापो कीयो इण मुजवही ज उदयपुर कोटे देणो लेणो कीयो । संघमें देहरासररो रथ हो जणरा इक्कावन सो लागा। . गडा सोनें रूपेरा २ जिणरा दश हजार लागा मंदिरा सोने रूपेरी वासणारा १५ हजार लागा । दुजा फुटकर सराजांमरा लाख १ रू० लागा। हवे संघमें जावतो हो निणरी वीगत-तोफां ४, पलटनरा लोग १०००, अशवार १५००, नगारे नींसाण समेत । उपुर राणाजीरा असवार ५०० नगारे निसाणे समेत । कोटेरा महारावजीरा अशवार १०० नगारे नीसाण समेत । जोधपुररे राजाजीरा अस. वार ५० नगारे नींसाण समेत । पायदल १०० जेसलमेररा रावलजीरा, असवार २०० टुकरे नबावरा, असवार ४०० फुटकर असवार २०० घरु ओर अंगरेजी जावतो, चपडासी तिलंगा सोनेरी रूपेरी घोटेवाला जायगा २ परवानां बोलावा एवं पालख्या ७ हाथी ४ म्याना ५१ रथ १००, गाब्यां ४००, उठ १५००,इतरातो संवन्यारा घरु । संघरी, गाड्यां उठ प्रमुख न्यारा, सर्व खरचरा, २३०००००, तेवीसलाख रू. लागा ॥ इति संघरी संक्षेप प्रशस्ती लिखी। ओर–पण ठीकाणे २ धर्मरा काम करया सो संक्षपे लिखीये छै-श्री धुलेवे जीरे वारणे नोचत खांनो करायो गहणो चढायो, लाख १ लागा ।.मक्षीजोर मंदिररो जीर्णोद्धार करायो । उद्देपुरमें मंदिर, दादासाहिबरी छतरी, धर्मशाला कराइ । कोटेमें मंदिर धर्मशाला दादासाहिवी छतरी कराइ । जेसलमेरमें अमरसागरमें वाग करायो जिणमें मंदिर करायो जयवंतोरो उपाश्रय करायो लोवेमें धर्मशाला कराइ, गढमाथे जमी मंदिरके लिये लीवी वीकानेरमें दादासाहिवरी छतरी कराई इत्यादिक ठीकाणे २ धर्मरा आहीठाण कराया श्रीपुज्यजीरा चोमासा जायगा २ कराया पुस्तकांरा भंडार कराया भगवतिजी प्रमुख सुण्या प्रश्न दीठ २ मोती धन्य । कोटामें दोय लाख रूप्यादेकर बंदीखानो छोड़ायो वीज पांचम आठम इग्यारस चउदशरा उजमणा कीना इत्यादिक काम घरमरा कीया ओर कर रयाहे । इत्यलम् ॥ सवइयो ३१ सोशोमनीक जे साणमें बाफणा गुमानचंद ताके सुत पांच पांडव समान है। संपदामें अचल बुद्धिमें प्रबल रावराणाही माने जाकी कान है। देवगुरु धर्मरागी पुन्यवंत वडभागी जगत सहु वात मानें प्रमान है। देशहु विदेशमाह कीरत प्रकाश कीयो सेठ सउ हेठ कवि कर्त बखानहै ॥१॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसलमेर के पट संघका वर्णन दुद्दा अठार से छत्रे जेठमास सुदि दोय । लेख लिख्यो अति चुंप भवियण वांचो जोय ॥ १ ॥ सकल सुरि शिर मुगटमणि श्रीजिन महेंद्रसुरिंद | चरणकमल तिनके सदा सेवे भिवियण वृंद ॥ २ ॥ कीनो आग्रहथ की नेसलमेरु चोमास । संघ सहु भक्ति करे चढते चित्त उल्लास || ३ || ताकी आज्ञा पाय करि घरि दिलमें आनंद ।। ज्यं श्री त्युं रचना रची मुनि केसरीचंद ॥ ५ ॥ भुलो जो परमादमें अक्षर घ टही बाघ । लिखत खोट आइ हुने, सो खमीयो अपराध ॥ ५ ॥ || इति प्रशस्ति सम्पूर्णम् ॥ के निकालनेवालेके वंशज आज भी माजूद ह और मालबाके रतलाम वगैरह शहरोंमें उनकी बडी बडी दुकानें चलती हैं । इस संघ "जैसा बडा संघ, इसके बाद जैन समाजमेंसे फिर कोई नहीं निकला और शायद अब कोई निकाले वैसी आशा भी नहीं है । अंक २] इस कुटुंब संवत् १९२८ में, जेसलमेर जो एक बडा भारी प्रतिष्ठा महोत्सव किया था उसका लेख भी उपर्युक्त लेखवाले मंदिर में लगा हुआ है । यह लेख कुछ संस्कृत और कुछ मारवाडी भाषामें है । संग्रहकी दृष्टिसे इस लेखको भी यहांपर प्रकट कर दिया जाता है । " स्वस्ति श्रीविक्रमादित्यराज्यात् सम्वत् १९२८ शालीवाहनकृत शाके १७९३ प्रवर्तमाने मासोत्तममासे माघमासे धवलंपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ गुरुवासरे महाराजाधिराज महारावलजी श्री श्री १००८ श्री वैरीशालजी विजयराज्ये श्रीमज्जेसलमेरुवास्तव्य ओसवंशे बाफना गोत्रीय संघवी सेठ गुमानचंदजी तत्पुत्र प्रतापचन्द्रजी तत्पुत्र हिमतरामजी जेठमलजी नथमलजी सागरमलजी उमेदमलजी तत्परिवार मूलचंद सगरमल केसरीमल रिपभदास मांगीदास भगवानदास भीखचंद चिंतामणदास लुणकिरण मनालाल कन्नैयालाल सपरिवारयुतेन आत्मपर कल्याणार्थं श्रीसम - क्त्वोद्दीपनार्थ च श्री जेसलमेरुनगरसल्क अमरसागरसमीपवर्तिनि समीचीनाssरामस्थाने श्रीरिषभदेव जिनमंदिरं नवीनं कारापितं तत्र श्री आदिनाथ विवं प्राचीन वृहत्खरतरगणनाथेन प्रतिष्ठितं तत् श्रीजिनमहेन्द्रसूरि पदपंकज सेविना वृहरखरतरगणःघीश्वरेण चतुर्विधसंघसहितेन श्रीजिनमुक्तसूरीणां विधिपूर्वमहता महोत्सवेन शो - भन श्री मूलनायक चैत्ये स्थापितं । पुनः अनेक विद्यानामंजनशिलाका कारिता । पुनर्द्वतीयभुमिप्रासादे स्वप्रतिष्ठित श्री पार्श्वनाथचित्र मुलनायक स्थापितं पुनर्वाश विहरमान प्रतिष्ठा कृतं मंदिरस्य दक्षिणपार्श्वे दादासाहित्र कुशलसूरि गुरुमूर्ति स्थापनकृता । तथाच जिनदत्तसूरि कुशलसूरि चरणपादुका पुनरपि श्रीजिनंहर्पसूरि महेन्द्रसूरि चरणपादुका स्थापिता । १११: भाई सवाईरामजी के घरका आया । रतलामसुं चि० सोभागमल चांदमल सौभाग्यमलकी माजी, वगेरे आया । उदेपुरतुं चि० सिरदारमल तथा इणांरी माजी वेगेरे आया । ओर Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक. [भाग १ wnwwwvoman पण घणे देशावरांसु संघ आयो । स्वामीवच्छल प्रमुखकरी ३ श्रीसंघकी भक्ति करी । त्था पांच शिप्याने श्रीपूज्यजी म्हाराजके हांथसें दीक्षा देराइ । दिन १५ तक बडो ठाठ उछत्र नित्य नवीन पूजा प्रभावना हुइ। श्रीदरबार साहिब पधाया । तोफांका फेर हुवा । सेठांके पगमें सोनो बगसीयो। फेर श्रीसंघसमेत जेसलमेर आया. उजमणा प्रमुख कीना । श्री. पूज्यजी महाराजकी पधरावणी २ कीनी जिणमें हजारा रुपीयांको माल असबाब भेट कीनो । उपाध्याय दंगरे ठावा ठावा ठाणाने रोकडा शालजोडी इन्यादि यथायोग्य दीना। उपाध्याय साहिबचंदजी गणि । पं. । प्र.। मेरजी गणि पं. प्र. अमरचंदजी गणि प्रमुख । ठाणा ४१ था । ठाणे दीठ रू. १० दश रोकडा थांन प्रत्येके दीना । परगच्छीय यतियांको सतकार अछीतरे कीनो । श्रीसरकारकी पधरामणी कीनी । घोडा लवाजमो नजर कीनो । मुसद्दी वगेरे सबने यथायोग्य शिरोपाव दीना ।। - श्रीजिनभद्रसूरि शाखायां पं. प्र. श्रीमयाचंदजी गणि तत्शिष्य पं. सरूपचंदजी मुनि जेसलमेरु आदेशिना इयं प्रशस्ति रचिता । शिलावट विरामके हाथलुं श्रीमंदिरजी वणिया जिणके परिवारने सोनेकी कंठियां तथा कडीकी जोडियां मंदील डुट्टा थांन वगेरे शिरसाव दीना ।। श्रीमंदिरके मूल गुंभारेमें आसेपासे दक्षणकी तर्फ परतापचंदजीकी खडी मूर्ति छ। उत्तरकी परतापचंदजीकी भार्याकी खडी मूरती छे । निजमंदिरके सामने पूर्व की तर्फ पश्चिममुखी चोतरो कराय जिण ऊपर परतापचन्दजीकी त्था भार्यासहित सपरिवार सहीतकी मुरतीयां स्थापित किनी । सम्वत् १९४५ मिति मार्गसिर सुदी २ वार बुध । दशकत सगतमल जेठमलाणी वाफनाका । शुमं । दुहा-अष्टकर्म वन दाहके भये सिद्धजिनचंद । ता सम जो अप्पा गिणे ताकू वंदे चंद ॥ फर्मरोग ओपधसमी ग्यानसुधारस वृष्टि । शिवसुख अमृत वेलडी जय जय सम्यक्दृष्टि ।। . एहाज सद्गुरु सीख छे एहीज शिवपुर माग। .. लेजो निज ग्यानादि गुण करजो परगुण भाग ॥ भेद ग्यान श्रवण भयो समरस निरमलनीर । अन्तर धोबी आतमा धोवे निजगुण चीर ॥ कर दुःख अंगुरी नेनदुःख तन दुःख सहज समान । लिख्यो जात है कठणसुं शठ मानत आशान । ।। इत्यलम् ।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } अंक २] शोक समाचार शोक समाचार | [ १ ] जैन साहित्य संशोधक के पाठकों को यह समाचार देते हुए हमै वडा दुःख होता है कि, कलकत्ता नगरके प्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय डॉ. सतीश चन्द्र विद्याभूषणजीका गत तारीख २५ अप्रैलको असमय ही में स्वर्गवास हो गया । विद्याभूपणजी • भारतवर्षके नामी विद्वानोंमेंसे एक थे। आप अंग्रेजी भाषाके तो आचार्य (एम् ए) थे ही, साथमै संस्कृत. प्राकृत, पाली, तिब्बती आदि भाषाओंके भी उत्तम ज्ञाता थे । ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्मके दर्शन शास्त्रोंम था की उल्लेख योग्य गति थी और पुरातत्त्व शास्त्र के आप अच्छे पण्डित थे । आप स्वभावके बड़े सरल और हृदयसे पूरे निष्पक्षपात थे । ज्ञानार्जन करना ही आपका परम ध्येय था। आपका विद्याव्यासंग आश्चर्यजनक था। अंग्रेजीकी एम्. ए. परीक्षाके पास करनेके पहले ही संस्कृत भापामै आपने इतनी व्युत्पत्ति कर ली थी कि जिससे नवद्वीप - विबुध - जन-सभाने प्रसन्न होकर आपको 'विद्याभूषण' की पद्वी प्रदान की थी। एम्. ए. पास करनेके बाद कुछ काल तक आप कृष्णनगर काले जर्म संस्कृतके प्रोफेसर रहे। इसी समयके मध्य में आपने काव्य और न्यायशास्त्रका अभ्यास भी आगे वढाया; और साथमै तिब्बती भाषाका ज्ञान भी संपादन किया । आपकी इस योग्यताको देख कर बंगालकी सरकारने आपको तिब्बती भापका अनुवादक नियन किया और साथमें उसका एक शब्दकोष बनानेका काम दिया । यह काम आपने बडी योग्यता के साथ समाप्त किया। इससे सरकारने आपको फिर कलकत्ता-संस्कृतकालेजके अ ध्यापक पदपर नियुक्त किया। वहां आपने अध्यापकी करते हुए पाली भाषाके अध्ययनका प्रारंभ किया और सन् १९०१ में उसकी एम्. ए. की परीक्षा देकर उसमें प्रथम श्रेणिमें प्रथम नम्बर प्राप्त किया। आपके इन परीक्षा पत्रोंकी जांच कर नेवाला उस समय भारतमें वैसा कोई विद्वान् नहीं था इसलिये वे पत्र लन्दनविश्वविद्यालयके पालीभाषा और बौद्ध साहित्य के प्रधानाध्यापक महाशय राज डेवडिके पास भेजे गये थे । इन परीक्षक महाशयने सतीश चन्द्रजीके वे परीक्षापत्र पढकर कलकत्ता युनिवर्सिटी के रजीस्ट्रारको लिदर्जेका है । इसके बाद आपकी वहांसे बदली हुई खाता कि- इनका पाली भाषाका ज्ञान सर्वोत्तम और फिर आप प्रेसीडेन्सी कालेज के सिनियर प्रोफेसर बनाये गये । .. सन् १९०५ में जब वौद्ध तीथोंकी यात्रा करनेके लिये घी-सी-लामा हिन्दुस्थानमें आये तब. भारतसरकारने आपको लामा महोदय के साथ घूम कर उन्हें भारतके वौद्ध तीर्थोंका ऐतिहासिक महत्त्व समझानेका काम दिया । आपने यह काम इतनी उत्तमता के साथ किया कि जिससे लामा महाशयने रूप होकर, प्रेमोपहार के रूपमें आपको एक रेशमी चादर - जिसे वे लोग 'खाताग' करते हैं—लमर्पित की। आपकी इस प्रकारकी व वि पयमें निपुणता देखकर भारत सरकारने आपको महामहोपाध्यायकी उत्तम पाण्डित्य और सम्मानसूचक पट्टी प्रदान की । इसी अरसे में आपने 'मिडिवल स्कूल आफ दि इन्डियन लॉजिक' नामक जैन न्याय और बौद्ध न्यायके इतिहास विषयकी प्रसिद्ध पुस्तक लिखी जिसके कारण कलकत्ता युनिवर्सिटीने आपको 'डाक्टर आफ फिलासफी' की प्रधान उपाघिसे सम्मानित किया । सन् १९०९ में, बंगाल सरकारने आपको बौद्ध धर्मका सविशेष प्रत्यक्ष ज्ञान संपादन करनेके लिये लंका भेजा । वहां पर, सुमंगल स्थविर-जो लंकाके प्रधान वौद्ध स्थविर और कोलंबोके विद्योदय कालेजके अध्यक्ष थे- के पास उस विषयका तलस्पर्शी ज्ञान संपादन किया। वहांसे फिर आप वनारस पहुंचे और वहां पर न्याय आदि दर्शन शास्त्रोम उत्तीर्णता प्राप्त की। फिर १९९० में आप कलकत्ता संस्कृत कालेजके प्रधानाध्यापक बनाये गये और तबसे आखिर तक आप इसी पद पर प्रतिष्ठित रहे । इसके सिवाय, साहित्य और शिक्षा विषयक अने सभा-सोसाटि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोध [माग योंके आप अध्यक्ष और सदस्य आदि समय समय छपकर प्रकाशित हो जाय तो तुरन्त उसकी एक पर नियुक्त किये गये थे। प्रति आपके पास भेज दी जाय, कि, जिससे आप कलकत्ते, शास्त्रविशारद जैनाचाय विजयधर्म- आपनी जैन न्यायके इतिहास विषयक उपर्युक्त सूरिजीसे आपकी मुलाखात हो गई थी जिससे पुस्तककी दूसरी आवृत्तिमें, जो वर्तमानमें छप रही आपको जैनसाहित्यसे भी बहुत कुछ परिचय है, हरिभद्र सूरिके समयवाला -ल्लेख ठीक सं. मिल गया था। आप उक्त जैनाचार्यजीके बडे शोधित कर दिया जा सके। परन्तु खेद है कि, प्रशंसक थे और उनकी प्रेरणासे आपने कलकत्ता- हमारे उस.निवन्धके प्रकाशित होनेके पहले ही, विश्वविद्यालयके पठनक्रमम जनसाहित्यको भी गत २५ अप्रैलको आप इस क्षणभंगुर संसारको कुछ स्थान दिलाया था। जैन न्यायके इतिहास छोडकर स्वर्गमें जा बसे। विषयक उपर्युक्त पुस्तकके सिवाय जैनसाहित्यके आपकी इस अकालमृत्युसे भारतवर्षके विद्याप्रथम तक ग्रन्थ न्यायावतारका आपने अंग्रेजीम व्यसनी विद्यानामसे एक बडी भारी व्यार अदृश्य अनुवाद भी किया है। भारतके दर्शन शास्त्रोके हो गई और जैन साहित्यका एक प्रतिष्ठित और इतिहासमै आपको बडारस था और इस लिये इस प्रामाणिक पण्डित लुप्त हो गया! विषयमें आपने अंग्रेजी और आपनी मातृभापा . [२] बंगलामें अनेक छोटे बडे निवन्ध लिखे हैं। हमें इन पंक्तियों के लिखते हुए अत्यन्त दुःख होता जैन साहित्यविषयक आपका प्रेम देख जैन स- हैं कि, इस पत्र के प्रथम अंकमें, जिन प्रो० सी. माजने भी आपका यथोचित गौरव किया था। वी. राजवाडेका जैनधर्मका अध्ययन' शीर्षक लेख सन् १९१३ में यनारसमें जो अखिल भारतीय प्रकट हुया है और जिनका संक्षिप्त परिचय हमने दिगम्बर जैन महासभाका अधिवेशन हुआ था उसी अंकके 'सम्पादकीय विचार' वाले एक नोट. उसके आप अध्यक्ष बनाये गये थे और सभाने में दिया है, वे आज इस संसारमें नहीं है। गत ८ आपको जैनसिद्धान्त महोदधि की उपाधि समर्पित मईको नाशिकमे जहां, पर आरोग्यप्राप्तिके लिये पि. कर सत्कृत किया था । इसके अगले वर्ष जव छले कुछ महिनासे आय विश्रान्ति ले रहे थे, आपका जोधपुर में जैनसाहित्य सम्मेटन हुआ तब भी आप शरीरपात होगया।जैन साहित्यसंशोधकके गतांकमें उसके सभापति नियत किये गये थे। प्रकाशित उक्त लेख और हमारे नोटको आप देख गतवर्ष जव यहां पर ( पूर्नमें ) प्रथम प्राच्यवि- भी नहीं पाये । यह किसको कल्पना थी कि इस यापरिषद'ई थी तब आप यहां पर भी आयेथे प्रस्तुत अंकम हमे अपने पाठकोंको आपका कोई और परिपदके पालीभाषा और बौद्धसाहित्य विषय- विशिष्ट लेख भेंट करनेके बदले आपकी मृत्युके क विभागके अध्यक्ष बनाये गये थे। उस समय लिये दुःखोद्गार भेंट करने पड़ेंगे। कालस्य कुटिला हमारी भी आपसे भेंट हुई थी और परिपदमें जब गतिः । हरिभद्रसूरिका समय निर्णय विषयक हमारा लेख राजवाडेजी बडे बुद्धिशाली और एक होनहार पढा गया तव खास तौरसे उसे सुनने के लिये आप विद्वान् थे । आपको ग्रेज्युएट हुए अभी पूरे १० वर्ष यहां पर उपस्थित हुए थे। हरिभद्रसूरिके समयके भी नहीं हुए थे। सन् १९९२ में यहां (पूना) के विषयमे आपका और हमारा मतभेद था । इसलिये फर्ग्युसन कालेजम अध्ययन समाप्त कर आपने इस विषयमें खास चर्चा करने के लिये, उक्त परि- वी. एस्. सी.की डिग्री प्राप्त की और १९१४ में पदकी समाप्तिके दिन याप उत्कंठापूर्वक हमारे पाली और अंग्रेजीकी एम. ए. परीक्षा पास की। स्थानपरंभी आये थे; और बहुतसी बातचीत कर इसके बाद तुरन्त ही आप बरोडा कालेजमें पाली बडे प्रसन्न हुए थे। चरते समय आप हमसे और अंग्रेजीके प्रोफेसर नियुक्त हए। वहां थापने आग्रह कर गये थे कि, जब हमारा उक्त निवन्य अपने अध्यापन कार्यके सिवाय पालीसाहित्यके Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] शोक समाचार nuwaruun............. ... .. wwwwwwwwwwwwwwwwwsaner प्रकाशनका कार्य भी शुरू किया । आपकी यह बडी आपके पास नाशिक भेजे, तब आप अधिक उत्कट इच्छा थी कि समन पाली साहित्य देव- अस्वस्थ होनेके कार आपके सम्बन्धियोंने उन नागरी लिपिम छपाकर प्रकट किया, जाय, ताकि ग्रन्थोंका आपसे जिकर न करके ज्यों के त्यो एक जिससे भारतवासी,-जो आज पिछले डेढ हजार किनारे रख दिये। पीछेसे जब आपको उसकी वर्षसे इस अनन्यतुल्य साहित्यका परिचय भुले खवर लगी तब आप बहुत अधीर हो ऊठे और हुए हैं -पुनः परिचय प्राप्त कर सकें और उसके विना उन ग्रन्थोंके दर्शन किये और पन्ने उलट-पुलट द्वारा सम्यक सम्शुद्ध भगवान् गौतम बुद्ध के अमूल्य किये आपको चेन नहीं पडा। उन ग्रन्थोंको देखते उपदेशोंका आस्वादन कर सकें। इससे आपने ही आपने हमको, वैसी अस्वस्थतामें भी एक पत्र सबसे पहले 'हत्थवनगल्लविहारवंस' नामकी एक लिखा और पुस्तकोंकी प्राप्तिक लिये प्रसन्नता प्रटक छोटीसी पाली पुस्तिका छपाई और उसके बाद 'म- की। इसीका नाम सञ्चा विद्याव्यासंग है। झिमनिकायका एक भाग प्रकट किया। इसी बीचमे कर कालने इस प्रकार असमयहीमें आपको आपने विविध परिशिष्ट और उपयुक्त टिप्पणियोंके । कि ऊठा ले जा कर भारतवर्षके एक तेजस्वी विद्वत्तासाथ 'दीघनिकाय' का समग्र अनुवाद भी अपनी रकको उदित होने के पहले ही अस्तंगत कर दिया। मातृभाषा मराठी किया। इसका-एक भाग बडोदा आपकी अमर आत्माको अक्षय शांति मिले यही राज्यकी औरसे प्रकाशित होनेवाली अन्यमालामें हमारी आपके लिये आन्तिम प्रार्थना है। प्रकट भी हो चुका है । आप शीघ्र ही, अपने सहा [३] ध्यायी और सहकारी प्रो० बापट(फयूँसनकालेज, पूना) और प्रोः भागवत (सेंट झेवियर कालेज गत जुलाई मासिकी अंतिमरात्रि भारतवर्षके बम्बई)के संयुक्त परिश्रमसे प्रसिद्ध बौद्धग्रन्थ विस- इतिहासमें बडी दुःख और खेदजनक रानि मानी द्धिमग्गकी एक सर्वोत्तम देवनागरी आवृत्ति प्रकट जायगी । क्यों कि उस कालरात्रिके दुःखोत्पादक करनेकी तैयारी कर रहे थे। अधम वातावरणने भारतके द्वितीय प्रतापवान् और प्रकाशपूर्ण प्रदीपको सदाके लिये निर्वाणाव__ आयका विद्याव्यासंग वडा उत्कट था । अंग्रेजीक स्थामें पहुंचा दिया। हम ये शब्द अपने लोकमान्य आप आचार्य थे ही, साथमैं आप जर्मन और फ्रेंच | बाल गंगाधर तिलक महोदयको मृत्युको लक्ष्य कर भाषाओंका भी अपेक्षित ज्ञान रखते थे। भारतीय प कह रहे हैं। लोकमान्यका अधिक परिचय देनेकी भापाओमें संस्कृत, पाली, प्राकृत जैसी प्राचीन और कोई आवश्यकता नहीं क्यों कि भारतमें ऐसा कोई शास्त्रीय भाषाओंका यथेष्ट अध्ययन कर आपने अभागा प्राणि नहीं है जो लोकमान्यको थोडा बहुत बंगाली, गुजराती, हिन्दी जैसी वर्तमान देशभापा नहीं जानता हो। और वाकी यो आपका पूर्ण प. ऑमें भी आवश्यकीय प्रवेश कर लिया था। रिचय देनेकी शक्ति भी किसमें है। चाहे जितना . जबसे आपका हमारे साथ परिचय हुआ तवसे भी लंबा परिचय लिखा जाय तो भी वह हमेशा जैनसाहित्यका विशिष्ट अध्ययन करनेकी भी आपकी अपूर्ण ही रहेगा। तीवलालसा होगई थी|जैनसाहित्यसंशोधकके लिये आपमें जिन अनेकानेक उत्तमोत्तम शक्तियोंने 'आपने जैन और बौद्ध साहित्य विषयक तुलनात्मक आकर निवास किया था, उनमेंसे एक एक शक्ति लेखमालाके लिखनेका सोत्साह स्वीकार किया ही मनुष्यको संसारमै पूज्य और मान्य बना सकथा। जैन-ग्रन्थोके प्राप्त करनेको आप कितनी उ. ती है, तो फिर ऐसी अनेक शक्तियोंके केन्द्रभूत . त्कट आकांक्षा-रखते थे इसका परिचय तो पाठ- बने हुए आपके महान व्यक्तित्वकी पूज्यता और कोको हमने गतांक में जो नोट दिया है उससे मिल मान्यताका तो माप ही कैसे किया जाय । आप भावनगरसे हमारे एक सज्जन (श्रीयत क्या नहीं थे? आप प्रकाण्ड प्रतिभाशाली थे, उ. हीरालाल अमृतलाल शाह ) ने कुछ जैन ग्रन्थ जब कष्टं सदाचारी थे, परम परोपकारी थे, अगाध Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ धैर्यवान् थे, आदर्श कर्तव्यवान् थे, असाधारण ज्ञानवान् थे, महान् देशभक्त थे, अनुपम लोकप्रि· य थे, सर्वोत्तम राष्ट्रसुत्रधार थे, गंभीर राजनीतिज्ञ थे, संपूर्ण स्वार्थत्यागी थे, निष्काम कर्मयोगी थे, धुरंधर साहित्य सेवी थे, उत्तम लेखक और निपुण वक्ता थे; सब कुछ थे और संपूर्ण रीतिले थे। जैन साहित्य संशोधकके कार्य क्षेत्रकी विशिटताको लक्ष्य कर, हम यहां पर आपकी अनेकानेक शक्तियों से केवल उस एक ही शक्तिका संक्षिप्त उ लेख करते हैं जिसके कारण आप संसारमें एक श्रेष्ठ विद्वान् माने गये । वह शक्ति आपकी अत्यंत सूक्ष्म संशोधक बुद्धि-गहन गवेषणा शक्ति थी । आपकी इस संशोधक बुद्धिका जर्मनी, इंग्लैंड और अमेरिकाके विद्वानों तकने गौरव किया है । विद्वा नको आपकी इस शक्तिका प्रथम परिचय सन् १८९२ में मिला था । उस वर्ष लण्डन नगरमें होनेवाली ' प्राच्य विदोंकी आंतरराष्ट्रीय परिषद् (The International Congress of Orienta• list ) में वेदोंकी प्राचीनताके विषय में आपने एक गहन गवेषणा और अत्यन्त अनुसन्धानपूर्ण मौलिक निबन्ध भेजा था जो फिर अगले वर्ष ( सन् १८९३ ) ' ओरायन ( ORION ) ' के नाम से पुस्तकरूपमें प्रकाशित किया गया था। इसपुस्तकमै आपने ज्योतिष शास्त्र के नियमानुसार नक्षत्रों की गति ऊपरसे यह बतलाया है कि, ऋग्वेदमें जो ' ओरा यन = आग्रहायण नक्षत्र संबंधी ऋचायें मिलतीं हैं उनसे उनका रचना समय कमसे कम ई. स. से ४००० वर्ष पूर्व होना सिद्ध होता है । आपकी इस गवेषणाको पढ़ कर प्रो. मेक्षमुलर, विटनी, वेबर, बुल्हर और ब्लूमफील्ड जैसे प्रख्यात संशोधक विद्वानोंने आपकी शोधक बुद्धिकी उत्तम प्रशंसा की थी। डॉ. ब्लूमफील्डने तो आपकी इस गवेषणाको " विज्ञान और संस्कृत के जगत् में एक हलचल मचादेनेवाली घटना " बतलाई थी और क" free देह, इस पुस्तकसे साहित्य संसारके आगामी वर्षमें खूब सनसनी फैल जाय गी। इस वर्ष, इतिहासको तिलककी खोजके फलको अपनाने ही में सारा समय लगा देना होगा ।' जैन साहित्य संशोधक [ भाग १ तिलक महाशय के इस सिद्धान्तकी, जर्मनीके विद्वान डॉ. जेकोबीके सिद्धान्तले अचिन्त्य समानता हो गई थी। क्यों कि डॉ. जेकोबी भी अपनी स्वतंत्र गवेषणाद्वारा वेदका रचना समय लगभग वही स्थिर कर सके जो तिलक महाशयने किया । इससे पुरा तत्वज्ञोंमें आज यह सिद्धान्त तिलकजेकोबी (Tilak - dacobi theory) के संयुक्त नामसे व्यवहृत होने लगा है । ऐसा ही अनुसन्धानात्मक दूसरा ग्रन्थ आपका 'वेदोंमै आयका उत्तर ध्रुवनिवास ( The Arctic Home in the Vedas ) ' है । यह ग्रन्थ सन् १८९७ में जब आपको दूसरी वार कारागृहवास मिलाथा तव लिखा गया था । वेद, ब्राह्मण आदि संस्कृत ग्रंथ, पारसियोंके जिन्द- अवेस्ता ग्रन्थ और पश्चिमय विद्वानोंके लिखे हुए भूगर्भविद्या सम्बन्धी नवीन ग्रन्थोंका सूक्ष्म अध्ययन और मनन कर आपने इस ग्रन्थकी रचना की है । इस ग्रन्थ में आपने वेद, ब्राह्मण, पुराण, अवेस्ता इत्यादि शाखोके अनेकानेक प्रमाण देकर, यह प्रतिपादित किया है कि वेदकालीन आर्यलोग उत्तर ध्रुवके प्रदेशमें निवास करते थे । कारागृह में बैठे बैठे, इस ग्रन्थके लिखनेके लिये अपेक्षित साधनों के अध्य यन- मनकी अनुमति सरकारने आपको प्रो. मेक्षमुलरके अनुरोधसे दी थी। पीछेले उन्हीं प्रोफेसर महोदय के विशेष परिश्रम और प्रयत्नले सरकारने आपको असमय ही में बन्धनमुक्त भी कर दिया था । कारागृहमेंसे निकले बाद आपने उक्त प्रो. को एक कृतज्ञतापूर्ण पत्र लिखा जिसमें अपने किये हुए इस नवीन अनुसन्धानका कितना एक उपयुक्त सार भी लिख भेजा । इस सारको पढ कर प्रोफे सर महाशयने तिलक महोदयको लिखा था कि "कितनीएक वैदिक ऋचाओंका अर्थ आपके बतलाए मुताबिक ठीक हो सकता है; परंतु कदाचित् उनके आधारपर से निकाला हुआ सिद्धान्त भूस्तर शास्त्रके सिद्धान्तके साथ मेल नहीं खायगा, ऐसी मुझे शंका है।" खेद है कि तिलक महाशयके इस प्रन्थ के प्रकाशित होने के पहले ही यह ग्रंथ सत् १९०३ में प्रकाशित हुआ- प्रो. मेक्षमुलरका देहान्त Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 818+ अंक २] शांकसमाचार होगया, जिससे उनके अधिकारयुक्त अभिप्रायसे लिखा, जो आज भारत के प्रत्येक धर्मजिज्ञासु थापका यह ग्रन्थ वञ्चित रहा । परंतु, दूसर विद्वा- जनके चरम विराजमान हो रहा है तथा प्रत्येक नाने यापकी इस कृतिका भी खूब सत्कार किया। विद्वान् और विद्या के लिये एक अत्यावश्यक बोस्टन विश्वविद्यालयके अध्यक्ष डॉ. वारिनने इस पाठ्य ग्रंथ बन रहा है । इस प्रन्यमै आपने अपने पुस्तकके विषयमें कहा था कि " इन्डो इरानी वि. जीवनके समग्र विचार स्रोतोंको एकत्र कर शास्त्र द्वानोंने जितनी पुस्तके इस विषयपर आजतक रूप महासरोवरके रूपमें बद्ध कर दिया है। पूर्वीय लिखी हैं उन सबमें यह पुस्तक अधिक निश्चया- और पाश्चात्य तत्त्वज्ञानकी सभी मुख्य मुख्य विचारत्मक है। जो कोई स्वर्गीय मि. नील की 'देव रात्रि श्रेणियाँका गंभीर मन्थन कर आपने इस अमूल्य ( The night of Gods ) का और इस पुस्तक- ग्रन्थरत्नको प्रकट किया है। आपके नामको अजराका पारायण कर लेगा वह संभवतः फिर कसी मर बनानेवाला केवल यही एक ग्रन्थरत्न पयह न पूंछेगा कि आयोंका आदिम निवासस्थान र्याप्त है। कहां है।" __ आपको जब सत् १९०८ में तीसरी बार जेलया. आपके देह विलयसे संसारका एक श्रेष्ट और त्राका हुक्म हुआ तब मंडालेके एकान्तवासमें बैठ प्रखर ज्योतिःपूर्ण ज्ञानस्वरूप महानक्षत्र अस्त कर आपने वह गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र हो गया। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ चित्र - परिचय | سرعت जैन साहित्य संशोधकं १-गत अंकमें जो दर्शनीय चित्र दिये गये हैं उनमें पहला रंगीन चित्र पावापुरीके जलमंदिरका है । पावापुरी पटना जिलेकी सुवे विहार तहसीलका एक छोटासा गांव है। जैन समाजकी मान्यता अनुसार श्रमण भगवान् श्रीमहावीर देवकी निर्वाणभूमि यही पावापुरी है । इस लिये जैनियोंका यह एक परम पवित्र तीर्थस्थल है। इस गांवके पास एक कमलसरोवर नामका अच्छा तालाय है । इस तालाब में हमेशा असंख्य कमलपत्र खिले रहते हैं इसलिये इसका नाम भी कमलसरोवर पड गया है । इस सरोवर के मध्य में एक भव्य मंदिर बना हुआ है, जिसमें संगमर्मरके वन हुए भगवान् महावीर स्वामीके पूजनीय चरणोंकी स्थापना की हुई है । मंदिर बडा खुबसूरत और दर्शनीय है भावुक मनुष्योंके हृदय में वहां पर जानेसे वडी भक्ति उत्पन्न होती है और कुछ काल तक वहां पर बैठ कर ध्यान धरनेसे अपूर्व शान्ति प्राप्त होती है। । इसी मंदिरका वह सुन्दर चित्र है। चित्रमें में दिर, सरोवर, आसपासके किनारों पर लगे हुए वृक्ष, इत्यादि सभीका मनोहर दृश्य दिखाई दे रहा है | आरा निवासी उत्साही जैन युवक श्रीयुत कुमार देवेंद्र प्रसादजीने अपनी ओरसेही वह चित्र जैन साहित्य संशोधक के पाठकों को भेंट किया है। तदर्थ आप साधुवादके पात्र हैं। [भाग १ 'कुंभमेरा ' हैं। दूसरा स्तंभ यह जैन कीर्तिस्तंभ है। ' कुंभमेरु' की अपेक्षा यह जैन कीर्तिस्तंभ बहुत प्राचीन है और पुरातत्त्वज्ञोंने ११ वीं या १२ वीं शताब्दी में इसके बननेका अनुमान किया है । यह किसी दिगम्बर जैनका बनाया हुआ है । क्योंकि इसमें जो जिनमूर्तिमां लगी हुई हैं वे दिग'स्वर हैं। २- गतांकका दूसरा हाफटोन चित्र, भारत प्रसिद्ध वीरभूमि चितोड नगरीके समीपमें रहा हुआ इतिहास प्रसिद्ध चितोडगढ (किल्ला) मैके एक अति प्राचीन जैन कीर्तिस्तंभ (Jain Tower. का है । चितोडके किलेमें दो कीर्तिस्तंभ हैं जिनमें एक जो अधिक ऊंचा और विशेष प्रसिद्ध है वह १५ वीं शताब्दी में सुप्रसिद्ध राणा कुंभा द्वारा बनाया गया है और इससे उसका असली नाम 1 यह स्तंभ ८० फीट ऊंचा है । समुद्रकी सतह से इसकी ऊंचाई १९०० फीट और नीचेकी जमीन से ६०० फीट है। यह किलेकी सबसे ऊंची भूमिपर बना हुआ होनेसे इसका शिखर किले के सभी . मकानोंसे ऊंचा दिखाई देता है । इसके शिखरका जीर्णोद्धार हाल ही में दस बारह वर्ष पहले - सरकारने बड़ा खर्च करके करवाया है। सारे हिंदुस्थानमें जैनियोंका यही एक मात्र महत्त्वका पुरातन कीर्तिस्तंभ मौजूद है । इसका समग्र ऐतिहासिक वर्णन आगेके किसी अंकमें, एक स्वतंत्र लेख द्वारा पाठकों को सुनायेंगे । चित्रमें जो दो जुदा जुदा व्लाक हैं उनमें दाहिनी तरफवाला ब्लाक स्तंभकी उस अवस्थाका द· र्शन करा रहा है जब उसके शिखरका जीर्णोद्धार नहीं किया गया था । वाई तरफका दृश्य जीर्णोद्वारके अनन्तरका है। ३ - इस अंक में करहेड़ाके पार्श्वनाथ जैन मंदि - रका चित्र दिया जाता है । यह गांव उदयपुर [ मेवाड] राज्यमें आया हुआ है और चितोड-उदयपुर रेल्वे लाईनके वीचमें पडता है। गांव बिल्कुल छोटासा मामुली है। गांवसे वहार, कुछ फासले पर यह मन्दिर बना हुआ है । मन्दिर ५२ जिनालय है और वडा भव्य हैं । मन्दिर में पार्श्वनाथ तीर्थकर की मनोहर मूर्ति प्रतिष्ठित है। .. पुराने लेखोंमें इस गांवका नाम 'करटक ' ऐसा लिखा हुआ मिलता है । यह मन्दिर १४ वीं शताब्दी के लगभगकां बना हुआ अनुमान किया जाता है । ऐतिहासिक वर्णन फिर कभी दिया जायगा । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन माहित्य मंशोधक-19, - * RDAN महामहोपाध्याय डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूपण, एम. ए. पी. पन डी। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक ७ EX LAMMARRI . . . . TRIP ag: -, - "on. . . HV . . " .: . स्वर्गीय श्रीमान् बाल गंगाधर तिलक । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोत्थु णं समणस्स भगवो महावीरस्स। जैन सा हि त्य सं शोध क Aanan-AAAAAAAAAAAAAMARARAMANManner--ARMAAAAAAAAARAN ansoorAAAAAAAAAPAAAAAAAAAAAAAAIP-AAAAAAA भाग १] गुजराती लेख विभाग [अंक २ - - AARAMMAAMANAMARAwammanmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm AnanAAAAMAnnaranormannm N-Anand सोमप्रभाचार्य विरचित कुमारपाल प्रतिबोध । (अन्य परिचय ) [घडोदराना विद्याविलासी नृपति श्रीसयाजीराव गायकवाड सरकार तरफथी, गायकवाड ओरिएन्टल सीरीझ' नामे ५-६ वर्षथी एक ग्रन्थमाला प्रकट थवा लागी छ जेनी अंदर संस्कंत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषामोमां लखाएला प्राचीन अने दुर्लभ्य प्रन्यो प्रकाशित थाय छे. ए ग्रन्थमालाना मूल उत्पादक अने मुख्य संपादक स्वर्गस्थ विद्वान् श्रावक श्रीयुत चिमनलाल डाह्याभाई दलाले पाटण अने जेसलमेर (राजपूताना ) ना जूना जैन पुस्तक भंडारोनुं सूक्ष्म निरीक्षण करी तेमाथी केटलाक उत्तम अने अलभ्य-दुर्लभ्य जैन ग्रंथो, उक्त सीरीझमां प्रकट करवा माटे खास चुटी काढ्या इता. ए ग्रंथोमां सोमप्रभाचार्यरचित कुमारपाल प्रतियोध नामनो पण एक प्राकृत भाषामय मोटो ग्रंथ छ जेनु संपादन कार्य स्वर्गस्थ भाई दलाले घणा आग्रहपूर्वक मने सोप्यु हतुं. ए ग्रंथ हवे छपाईने तैयार थयो छे. एनी प्रस्तावना जे मारा तरफथी लखवामां आवी छे, ते जैन साहित्य संशोधकना वाचक्रोने खास वांचंचा लायक होवाथी, अत्र प्रकट करवामां आवे छे. मूल पुस्तकमां आ प्रस्तावनानो इंप्रेजी अनुवाद तथा संस्कृतसार आपवामां आन्यो छे.-मुनि जिनविजय!] स्तुमस्त्रिसन्ध्यं प्रभुहेमसूरेग्नन्यतुल्यामुपदेशशक्तिम् । अतीन्द्रियज्ञानविवर्जितोऽपि यः क्षोणिभर्तुळधित प्रवोधम् । सत्त्वानुकम्पा न महीभुजां स्यादित्येप क्लुप्तो वितथः प्रवादः । जिनेन्द्रधर्म प्रतिपद्य येन, श्लाघ्यः स केषां न कुमारपालः ॥ . -सोमप्रभाचार्य । . गुजरातना चौलुक्यवंशना प्रसिद्ध नृपति कुमारपालने जैनाचार्य हेमचंद्रसूरिए समय समय उपर जे रीते जैनधर्मना सिद्धान्तोनी, विविधकथा-आख्यानो द्वारा बोध आप्यो हतो, अने ते घोधनुं श्रवण Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक भाग १ --roman Anary करी जे रीते कुमारपाले जैनधर्मनो संपूर्ण स्वीकार को हतो तेनुं सामान्य वर्णन आ ग्रंथमा आपवामां आव्यु छे. ग्रंथकारे आ ग्रंथनुं नाम 'जिनधर्म-प्रतिबोध' ए, राख्यु छे'. परंतु, ग्रन्थनामंते, पुष्पिकालेखमां 'कुमारपाल-प्रतिवोध ' एवं नाम लखलं मळवाथी, तेम ज ग्रंथगत विषयनो नाममानना निर्देशथी पण वाचकोने ख्याल आवी शके तेवा हेतुथी; में आ पुस्तक उपर ए ज नाम अंकित करवं वधारे उचित धार्यु छे. आ ग्रंथनी प्रस्तुत आवृत्ति, गुजरातनी प्राचीन राजधानी पाटण शहर (जे वर्तमानमां घडोदराराज्यना कडीप्रांतमां एक साधारण तालुकानुं स्थान भोगवे छे) मांना जैन पुस्तक भांडागारमांथी मळी आवेला ताडपत्रात्मक पुस्तक उपरथी तैयार करवामां आवी छे. ए ताडपत्रना एकंदर २५५ पानां छे. प्रत्येक पार्नु २ फीट ७ इंच लांबुं अने मात्र २ इंच पहोळु छ, ए पानाना प्रत्येक पृष्ठ (एक बाजु) उपर प्रणथी पांच पंक्तिओ, काळी शाहीथी देवनागरी लिपिमा लखेली छे. दरेक पंक्तिमा लगभग १४० थी १५० जेटला अक्षरो आवेला छे. प्रत्येक पंक्ति त्रण विभागोमां व्हेंचाएली छे, अने दरेक विभागनी वश्चे एक एक ईच जेटली खाली जग्या राखवामां आवी छे. ए खाली राखेली जग्यामां, आखा पुस्तकनां वधां पानांओ भेगां बांधी लेवा माटे एक छिद्र पाडी तेमा संलग्न दोरी परोवेली छे. आ पुस्तक संवत् १४५८ मां खंभातमालखाएलं छे. आ समय पछी लखाएल वीज कोई ताडपत्र जैन भंडारोमां मारा जोवामां आन्यु नथी. आ उपरथी हुँ एम अनुमान करु छु के, गुजरातमां-अने साधारण रीते पश्चिम अने उत्तर हिंदुस्थानमां पण-ताडपन उपर पुस्तक लखवाना इतिहासमां आ पुस्तक सौथी अंतिम स्थान भोगवे छ. जैनानां ऐतिहासिक साधमो उपरथी जणाय छे के ईसवीनी १४ मी शताब्दिना प्रारंभमां ज ताडपत्रो उपर ग्रंथो लखवानो वहीवट कमी थवा मांड्यो हतो अने ताडपत्रोनुं स्थान कागळोए लेवा मांडयुं हतुं. ते वखत दरम्यान पाटण, खंभात, जेसलमेर (राजपूताना) आदि-जैन पुस्तक भांडागारो माटे प्रसिद्ध थएला-जूना शहरोमां ताडपत्र उपर लखेला जे विशाल पुस्तकसंग्रहो हतां ते वधाना एकी लाथे अने घाणी झडपथी कागळो उपर उताराओ थवा लाग्या हता. वर्तमानमा कागळ उपर लखेलां जूनामां जूनां जे पुस्तको उपलब्ध थाय छे, ते वधां तेज वखतनां लखेलां छे. तेम ज ताडपत्र उपर अर्वाचीनमा अर्वाचीन जे पुस्तको छे ते पण तेज वखतनां छे. ते पछी लखेलां ताडपत्रो मळतां नथी. आ उपरथी एम मानी शकाय के ए प्रदेशोमां कागळनो प्रवेश तेज वखते थएलो होवो जोईए. प्रकृत ताडपत्रना लेखन काळमां ताडपत्र उपर लखवानो प्रचार बहु ज विरल थई गएलो होवो जोईए. अने लहिआओ ताडपत्र उपर लखवाना अभ्यास अने शाहीनी बनावट विगेरेनी कळाने मुली जवानी तैयारीमा होवा जोईए. कारण के प्रकृत ताडपत्रं उपरतुं लखाण जनां ताडपत्रो करतां घणा ज हलका प्रकार दृष्टिगोचर थाय छे. १२ मा १३ मा सैकानां ताडपत्रोनी लिपि जेटली सुंदर अने शाही जेटली उत्तम होय छे तेटली आमां देखाती नथी. आ ताडपत्रनी शाही घणी ज फीकी अने अनेक स्थळेथी तो ते अत्यार आगमच खरी पडी-मुंसाई गई छे. कोई कोई पृष्ठमां तो पंक्तिओनी पंक्तिओ तेवी रीते अश्य थई गई छे अने तेना लीधे लखाण वाचवू पण बहु कठण थई पडे छे. त्यारे आना करतां २००300 वर्ष जनां ताडपत्रोनी शाही जोईए छीए तो आजे पण तेवीनी तेवी चळकती अने काळी देखाई आवे छे. जूनां ताडपत्रोनी जेटली लेखन-शुद्धि पण आ पुस्तकमां जळवाएली जणाती नथी. आनुं कारण ए छे के प्राचीनकाळमां लहिआओ साधारण रीते संस्कृत-प्राकृत भापान सामान्य ज्ञान धरावनारा थता हता. तेम ज घणाक विद्वानो ते वखते जाते ज पुस्तको लखता हता. तेथी ते वखतनां पुस्तकोमा साधारण रीते अशुद्धिओ बहु अल्प प्रमाणमां मळी आवे छे. परंतु प्रकृत ताडपत्रना लेखनसमयमां, ताडपत्रो उपरथी कागळो उपर ग्रंथो उतराववानुं काम धणा विशाल प्रमाणमां शरू थपलं होवाथी, तेटला कामने पहोंची वळे एटला, भापाज्ञानसंपन्न लहिआओना अभावने लीधे, मान, अक्षराकृति सम. . १ जिणधम्मपडिबोहे समत्थिमओ पढमपत्यावो । पृष्ठ ११५. " --जिनधर्मप्रतिवोधः क्लुप्तोऽयं गुर्जरेंद्र पुरे । पृ. ४१०. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ inute 10 .......... .. aranwwwmararmnnnn अंक २] कुमारपाल प्रतिवोध परिचय जवा पुरतुं शान धरावनारा अने मक्षिकास्थाने मक्षिका चितरनारालहिआओ पासथी ए कार्य कराववामां आयतुं हतु. तेथी जना ग्रंथोनी नकलो करतां. ए घखते लहिआओना हाथे घणी अशुद्धिओ ते ग्रंथोमा दाखल थई गई हती. या ज कारणने लईने कुमारपाल प्रतिबोधना प्रकृत आदर्शमां पण लेखन-अशुद्धिओ घणा मोटा प्रमाणमां प्रविष्ट थई गएली जोवाय छे. आ पुस्तकनी नकल करनार कायस्थ पेतार्नु भापाज्ञान के हशे तेनुं अनुमान, पुस्तकना अंतमां तेणे जे संवत् विगेरेना उल्लेख चाळो पुष्पिकालेख लख्यो छे, ते उपरथी थई शके तेम छे. उल्लिखित ताडपत्र सिवाय एक वीलु पण ताडपत्र प्रस्तुत ग्रंथ मने मळ्युं छे, जे पाटणना संघवीना पाडाना नामे ओळखाता पुस्तकभंडारनी मालिकीनुं छे. ए ताडपत्र, उक्त ताडपत्र करतां खास जून अने विशेप शुद्धरीते लखाएलुं छे. परंतु ए घणुंज अपूर्ण--खंडित छे. एमां ५१ थी ते ३०५ नंबर सुधीनां पानां छे. आ ग्रंथना चतुर्थ प्रस्तावमा देशावकासिक व्रतोपरि जे पवनंजयनी कथा आपेली. छे तेना मध्यभागथी ज ए ताडपत्र खंडित थई गयुं छे. एनी साईझ २७"+२" लांबी-पहोळी छे. प्रत्येक पृष्टमां३ थी ५ लाइनो आवेली छे, अने दरेक लाइनमा १०५ थी १२० सुधी अक्षरो लनेला छे. आवी रीते प्रस्तुत पुस्तकनो अखंड एवो एक ज उपर्युक्त आदर्श मने मळवाथी (अने ज्यां. सुधी हुँ जाणी शक्यो छ, बीजो संपूर्ण प्राचीन आदर्श अन्यत्र फ्याये छे पण नहि) अने ते पण विशेप अशुद्ध होवाथी, आ ग्रंथना संशोधन- काम मारा माटे घणुंज कठण थई पडघु हतुं. सोमप्रभाचार्य ग्रंथकार सोमप्रभाचार्य एक सुप्रसिद्ध अने सुज्ञात जैन विद्वान् छे. तेमणे प्रस्तुत ग्रंथ विक्रम संवव १२४१ मां, एटले कुमारपाल राजाना मृत्यु पछी मात्र ११ वर्षे बनाव्यो हतो. आ उपरथी तेओ राजा कुमारपाल अने आचार्य हेमचंदना समकालीन हता ए स्वतः सिद्ध छे. तेमणे आ ग्रंथ, नेमिनागना पुत्र श्रेष्टी अभयकुमारना हरिश्चंद्रादि पुत्र अने श्रीदेवी आदि पुत्रिमओनी प्रीत्यर्थे, प्राग्वाटजातीय कविचक्रवर्ती श्री-श्रीपालना पुत्र कार्य सिद्धपालनी वसति (जैन मंदिर या जैन उपाश्रय ) मा रहीने रच्यो छे; तथा खुद हेमचंद्राचार्यना महेन्द्रमुनि', वर्धमान अने गुणचंद्र नामे विद्वान् शिष्योए तेने अथथी ते इति सुधी सांभळ्यो छे. अभयकुमार श्रेष्ठी, आ ज ग्रंथमा जणान्या प्रमाणे, कुमारपाल राजाए अनाथ अने असमर्थ जनोना भरण पोपण माटे खोलेला सत्रागार आदि धर्मादाय खाताओनो उपरी हतो. (जुओ पृष्ठ २१९-२०). कविचक्रवर्ती श्री-श्रीपाल गुजरातनो एक सर्वश्रेष्ठ कवि अने सिद्धराज जयसिंहनो घणो मानीतो तेम ज स्वीकृत भ्राता हतो. तेनो पुत्र सिद्धपाल पण उत्तम कोटिनो कवि होई कुमारपाल राजानो प्रीतिपान अने श्रद्धेय सुहृद् हतो. आ कविकुलना संबंधमां में अन्यत्र सविस्तर लख्यु छ, (-जुओ द्रौपदी स्वयंवर नामे सिद्धपाल पुत्र कवि विजयपाल रचित नाटकनी मारी प्रस्तावना.) तेथी अही पुनरावृत्ति करतो नथी. श्रीपाल कवि, सोमप्रभाचायना पूर्वाचार्य देवसूरिनो चरणोपासक हतो तेथी एकवि-कुटुंबनो, तेमना शिप्यसमुदाय उपर सविशेष अनुराग होय तथा ते साधु-समूहनो पण ए कुटुम्य उपर विशेष आदरभाव होय ते स्वाभाविक छे. सोमप्रभाचार्यना गुरुओ तथा अन्य साधुओ अणहिलपुरमा घj करीने ए कविकुटुंबना मकानोमां ज निवास करता हता. सोमप्रभाचार्ये पोतानो बीजो धृहदग्रंथ नामे सुमतिनाथचरित्र पण ए कुटुंबनी वसतिमां ज वसीने बनाव्यो हतो. , आ महेन्द्रमुनिए हेमचंद्राचार्यरचित अनेकार्थनामसंग्रह नामक कोप उपर अनेकार्थकरवाकरकौमुदी नामे टीका लखी छ,-जुओ, पीटर्सन रिपोर्ट १, पृ. ५१. २ वर्धमानगणिए कुमारविहारप्रशस्ति बनावी छे.-जुभो, पाटर्सन रिपोर्ट ३, पृ. ३१६. . ३ गुणचन्द्रगणिए, प्रबन्धशतकर्तृ महाकवि रामचन्द्रने नाट्यदर्पण नामक ग्रन्थ लखवामां..सहायता करी हती. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ . ५८ जैन साहित्य संशोधक ...................... ..........! भाग १ कुमारपाल प्रतियोधनी प्रशस्ति तथा बीजा ग्रंथोक्त उल्लेखो उपरथी सोमप्रभाचार्यनी गुरुपरंपरादिनो वंशवृक्ष नीचे प्रमाणे थाय छे:-- ___ सर्वदेवसूरि यशोभद्र . नेमिचंद्र मुनिचंद्र मानदेव मुनिचंद्र ___अजितदेव मानदेव वादीदेवपूरि', आनंदसूरि आनंदसूरि विजयसिंह रत्नप्रभ' भद्रेश्वर गुणचंद्र पूर्णदेव महेश्वर जयप्रभ हेमचंद्र सोमप्रम मणिरत्न रामचंद्र जयप्रभ . जगचंद्र जगच्चंद्र जयमंगल रामभद्र. सोमचंद्र १ उपदेशपद, अनेकान्तजयपताका, ललितविस्तरा, योगविंदु आदि हरिभद्राचार्यरचित ग्रंथो उपर टीका-टिप्पणादिना प्रसिद्ध लेखक २ स्याद्वादरत्नाकर नामक महान् जैनतर्कयन्यना प्रणेता. ३. धर्मसागरगणिए पोतानी पट्टावलीमां आ विजयसिंहने, वालचंद्ररचित विवेकमञ्जरीवृत्तिना संशोधक ('श्रीविजयसिंहसूरिः--विवेकमञ्जरीशुद्धिरुत् ।' ) लख्या छे परंतु ते भूल छे. ते वृत्तिना संशोधक मा विजयसिंह नी, परंतु नागेंद्र गच्छना विजयसेनसूरि छे. जुओ पीटर्सननो ३ जो रीपोर्ट पृ. १०३. आ विजयसिंहनो एक शिलालेख आरासणना जैनमंदिरमाथी मळी आव्यो छे, जे संवत् १२०६ नी सालनो.छे. जुओ मारु प्राचीन जैनलेखसंग्रह नामर्नु पुस्तक, लेख नंबर २८९, ४. रत्नप्रमे रत्नाकरावतारिका नामे सुज्ञात तर्कप्रन्थ बनान्यो छे. उपदेशमालावृत्ति आदि बीजा पण एमना फेटलाक प्रसिद्ध ग्रंथो उपलब्ध छे. ५. भद्रेश्वरे वादी देवसूरिने स्याद्वादरत्नाकर ग्रंथ रचवामां मुख्य सहायता करी हती. तथा पोताना गुरुना अवसान पछी तेमनी गादीना मुख्य आचार्य ए पातेज नीमाया हता. गुणचंद्रे हेमविभ्रमनामे व्याकरणविषयक एक बघु ग्रंथ धनाव्यो छे.. ७. जालोरना एक शिलालेखमा आ बन्ने गरु-शिष्यनो उल्लेख करेलो छ. .. ८.सुधाटेकरी (मारवाड ) उपर आवेली चाचिगदेवनी प्रशस्तिना को.. ९ वृत्तरत्नाकरनी वृत्तिकरनार. . . .. प्रबुद्धरोहिणेय नाटकना रचन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ अंक २] कुमारपाल प्रतिबोध परिचय आ वंशवृक्षमां आपेली व्यक्तियो जैनसाहित्य अने जैनइतिहासमां सुप्रसिद्ध छ. ए साधुओमांना केटलाक तो घणा मोटा ग्रंथकारो छे अने तेमनी बनावेली अनेक कृतिो आजे पणं जैनसाहित्यनी शोभा वधारी रही छे. आ उपरथी प्रस्तुत ग्रंथकारनो समुदाय केटलो वधो विद्वान् , प्रतिष्टित, अने साहित्योपासक हतो तेनो ख्याल आची शके छे. सोमप्रभाचार्यना एक गुरुभ्राता नामे हेमचंद्रे नामेयनेमि नामर्नु द्विसंधान काव्य बनाव्यु छ जेनुं संशोधन खुद कविचक्रवर्ती श्रीपाले कर्यु हतुं.' सोमप्रभाचार्यनी गादी उपर सुप्रसिद्ध जगश्चंद्रसूरि आव्या हता जेओ तपागच्छना नामे ओळखाता सुविस्तृत सासमुदायना मूळ पुरुष मनाय छे. पट्टावलिओ प्रमाणे, सोमप्रभाचार्यनो महावीरनी पट्ट परंपरामां ४३ मो ज़बर छे. सोमप्रभाचार्यना विद्यमान ग्रंथो कुमारपाल प्रतिरोध सिवाय सोमप्रभाचार्यना वीजा प्रण ग्रंथो उपलब्ध थाय छे. जेमां एक तो सुमतिनाथचरित्र छे. एग्रंथमांजैनधर्मना पांचमातिर्थकर सुमतिनाथनुं चरित्र वर्णवामां आव्युं छे. तेचरित्र पण कुमारपाल प्रतिवोधनी माफक मुख्य करीने प्राकृत भापामांजरचेलुं छे अन तेमांपण जैनधर्मनासिद्धन्तोनो बोध आपतीपुराणकथायो कल्पित छे. तेनी लोकसंख्या लगभग साडा नव हजार उपर छे. पाटणना जैन भंडारोमा ए चरित्रना हस्तलेखो मारा जोवामां आव्या छै बीजो ग्रंथ सूक्तिमुक्तावली नामे प्रसिद्ध । १०० पद्यवाळो एक प्रकीर्ण प्रबंध छे. ए प्रबंधनुं प्रथम पद्य 'सिन्दुरप्रकर' एवा वाक्यथी शरु थतुं १आ काव्यनी अंतनी प्रशस्तिना केटलाक भोको नीचे प्रमाणे छ:-- भक्तः श्रीमुनिचंद्रमरिमुगुरोः श्रीमानदेवस्य च श्रीमान् सोऽजितदेवसूरिरभवत् पतर्कदुग्धाम्युषिः । सयः संस्कृतगद्यपद्यलहरीपूरेण यस्य प्रभाऽऽक्षिप्ता वादिपरंपरा तृणतुलां पत्ते स्म दूरीकता ।। धीमानद् विजयसारिरमुष्य शिप्यों यनxxx स्मरस्थ शरान् गृहीत्वा। क्लप्त चतुर्भिरनघं शरयन्तममे विश्वं तदेकविशिखेन वशं च निन्ये ।। श्रीहमचन्द्रसरिर्वभूव शिष्यस्तथापरस्तस्य । भवहतये तेन रुतो द्विसंधानप्रवन्धोऽयम् ॥ एकाहनिप्पन्नमहाप्रबन्धः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नवन्धुः । श्रीपालनामा कविचक्रवर्ती सुधारिमं शोधितवान् प्रवन्धम् ।। २ ए चरित्रनी अंतनी प्रशस्ति पण घणा अंश कुमारपाल-प्रतियोघना जेवी ज छे, अने ते नोचे प्रमाणे छ: चन्द्रार्की गुरुवृद्धनमसः कर्णावतंसी क्षितधुर्यों धर्मरथस्य सर्वजगतस्तस्वावलोके दृशौ । निर्वाणावसथस्य तोरणमहास्तम्भावभूतामुभावेकः श्रीमुनिचन्द्रसूरिरपरः श्रीमानदेवप्रभुः॥ शिप्यन्नयोरजितदेव इति प्रसिद्धः सरिः समग्रगुणरत्ननिधिर्वभूव । प्रीति यदनिकमले मुनिभृगराजिरास्वादितश्रुतरसा तरसा ववन्ध ।। श्रीदेवमरिपमुखा बभूवुरन्येऽपि तलादपयाजहंसाः। चेपामवाधारचितस्थितीनां नालीकमंत्रीमदमाततान! विशारदशिरोमणे रजितदेवरिप्रभोविनयतिलकोऽभवद् विजयसिंहस्प्रिंगुकः। . जगत्त्रयविजेतृभिर्विमलशीलवावृतं व्यभेदि न कदाचन स्मरशरैर्यदीयं मनः॥ गुरोस्तस्य पदाम्भोजप्रसादान्मन्दधारपि श्रीमान् सोमप्रभाचार्यश्चरित्रं मुमतेर्व्यधात् ॥ प्राग्वाटान्वयसागरेन्दुरसमप्रज्ञः कृतज्ञः क्षमी वाग्मी सूक्तिसुधानिधानमजनि श्रीपालनामा पुमान् । यं लोकोत्तरकाव्यरजितमतिः साहित्यविद्यारतिः श्रीसिद्धाधिपतिः कवीन्द्र इति च भ्रातेति च व्याहरतू॥ सूनुस्तस्य कुमारपालनृपतिप्रीतः पदं धीमतामुत्तंसः कविचक्रमस्तकमाणिः श्रीसिद्धपालोऽभवत् । यं व्यालोक्य परोपकारकरुणासौजन्यसत्यक्षमादाक्षिण्यैः कलित कलौ कृतयुगारम्भो जनो मन्यते ।। तस्य पीपधशालायां पुरेऽणहिलपाटके । निष्प्रत्यूहमिदं प्रोक्रं पराधान्तं (?)......॥ अनाभोगात् किञ्चित् किमपि भर्तिवकल्यवशतः किमप्ग्रौत्सुक्येन स्मृतिविरहदोषेण किमपि । मयोत्सूत्रं शास्त्रे यदिह किमपि प्रोकमखिलं क्षमन्तां धीमन्तस्तदसमदयापूर्णहृदयाः ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैन साहित्य संशोधकः [भाग १ होवाथी ते 'सिंदुरकर ' ना नामे तथा सोमप्रभाचार्य रचित होई तेमां एकदर १०० पद्योनो संग्रह होवाथी ' सोमशतक' ना नामे पण घणीक वखते लखाय-ओळखाय छे. ए प्रबंध जैनसमाजमां घणोज प्रसिद्ध छे अने अनेक स्त्रीपुरुषोना मुखे कंठस्थ होय छे. ए प्रबंध भर्तृहरिना नीतिशतकनी शैलिमा लखाएलो छे; अने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील, सौजन्य आदि विषयो उपर संक्षिप्त परंतु हृदयंगमते तेमां विवेचन करेलुं छे. एनी रचना बहुज सरल, सरस अने सुबोध छे. एमांनां केटलाक यो आ प्रस्तुत ग्रंथमां - कुमारपाल प्रतिबोधमां पण ग्रथित थपलां नजरे पडे छे. श्रीजी ग्रंथ 'शतार्थ काव्य ' नामे छे. ए ग्रंथ सोमप्रभाचार्यना संस्कृत भाषाज्ञानविषयक अनुत्तर पांडित्यने प्रकट करे. छे. ए ग्रंथ मात्र एक वसंततिलका छंद रूपे छे, जेना जुदा जुदा तो अर्थो करवामां आव्या छे. आ कृतिना लीधे विद्वानो तरफधी तेमने शतार्थिकनुं खास पांडित्यसूचक उपनाम प्राप्त हतुं अने तेथी पाछळना घणाक ग्रंथकारो तेमने ए उपनाम साथे ज उल्लेखे छे. ए एक वृत्ताTere iथना भिन्न भिन्न सो अर्थो तेमणे जाते ज टीका करीने बताया छे. टीकाना प्रारंभमां पांच श्लोको लखी स्वविवक्षित सोए अर्थोनी अनुक्रमणिका आपी छे. प्रारंभमां जैनधर्मना २४ तीर्थकरोना अर्धो लखी ये ब्रह्मा, नारद, विष्णु आदि वैदिक देवो विगेरेना अर्थो पण आलेख्या छे. अने छेवटे पोताना समकालीन एवा, वादी देवसूरि अने हेमचंद्राचार्य जेवा जैनधर्मना महान् धर्मगुरुओना; जयसिंह देव, कुमारपाल, अजयदेव अने मूलराज जेवा गुजरातना क्रमिक ४ चौलुक्य राजाओना; कवि सिद्धपाल जेवा सर्वश्रेष्ठ नागरिकना; अने अजितदेव तथा विजयसिंह नामे पोताना वने गुरुओना अर्थो पण अवतार्या छे. सर्वात स्वकीय अर्थ पण बेसार्यो छे अने समाप्तिमां कोई शिष्यना मुखेथी आत्मप्रशंसापर एवी पांच पद्योवाळी संक्षिप्त प्रशस्ति पण कहेवरावी छे. आ प्रशस्तिमां जणाव्या प्रमाणे सोमप्रभ गृहस्थावस्थामां प्राग्वाट ( पोरवाड ) जातिना वैश्य हता. तमना पितानुं नाम सर्वदेव, अने पितामहनुं नाम जिनदेव हतुं. जिनदेव कोईक राजानो मंत्री हतो अने ते पोताना समयमा बहु प्रतिष्ठित पुरुष हतो. सोमप्रभे कुमारावस्थामां ज जैनदीक्षा लई लीघी हती, अने तीव्रबुद्धिना प्रभावे समस्त शास्त्रोनो तलस्पर्शी अभ्यास करी आचार्य पदवी प्राप्त करी हती. तेमनी तर्कशास्त्रमां अद्भुत पटुता हती, काव्यविषयमा घणी त्वरितता हती अने व्याख्यान आपवामां बहु कुशलता हती. कुमारपाल प्रतिबोध साथै उक्तानुसार सोमप्रभाचार्यनी वर्तमानमां ४ कृतिओ उपलब्ध थाय छे. आ कृतिओमां कालानुक्रमथी प्रथम कृति तेमनी सुमतिनाथ चरित्र अने वीजी सूक्तिमुक्तावली होय तेम जणाय छे. बृहट्टिम्पनिका नामे एक प्राचीन जैनग्रंथसूचिमां सुमतिनाथचरित्रनी रचना कुमारपालना राज्यमां थई हती एवो उल्लेख करेलो छे. शतार्थवृत्तनी वृत्तिना अंते पण ते चरित्रनुं नाम आवेलुं होवाथी, ते वृत्तिनी पहेलां एनी रचना थई हती एम तो स्वतः सिद्ध थाय छे. शतार्थवृत्तनी रचना ई० स० ११७७ थी ११७९ नी वध्वे थई होय, एम मानी शकाय. कारण के एनी अंदर अजयदेवनी पछी गुजरातनी गादिए आवेला मूळराजनो उल्लेख छे. आ मूळराज इतिहासमां बाळ मूळराजना नामे प्रसिद्ध छे. अने तेणे मात्र बेज वर्ष - ई. स. ११७७ थी ११७९ सुधी - राज्य कर्यु हतुं. कुमारपाल प्रतिबोध तेमनी छेली कृति होय तेम लागे छे. १ जुओ- - पृष्ठ १४५, १९१,४२२ इत्यादि उपर आपेला संस्कृत पद्ये . २ मूळ वृत्त आ प्रमाणे छे: कल्याणसार सवितान हरेक्ष मोह । कान्तारवारणसमानजयाद्यदेव । धर्मार्थकामदमहोदयवीरधीर। सोमप्रभावपरमागमसिद्धसूरे ॥ ३ ' सोमप्रभो मुनिपतिर्विदितः शतार्थी ।' मुनिसुंदररित गुर्वावली । ' ततः शतार्थिकः ख्यातः श्रीसोमप्रभसूरिराट् ।' गुणरत्नस्स्कृित क्रियारत्नसमुचय । -1 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अंक] कुमारपाल प्रतिवोध परिचय आकृतिओ सिवाय चीजी पण तेमनी कोई कृति होय तेम अनुमान थाय छे. कारण के शतार्थ वृत्तनी वृत्तिमा कुमारपाल राजा संबंधी अर्थ करतां यदचोचाम" करीने घे पद्योटाक्यां छेजे उपलब्ध कृतिमओमा मळी आवतांनथी. कुमारपाल प्रतियोधनी रचना ग्रंथकारे मुख्यकरीने प्राकृतभापामां करी छ. छेवटना प्रस्तावमां केटलीक कथाओ संस्कृतमां आपी छे. तथा थोडोक भाग अपभ्रंश भापामां पण गुंथेलो छे. आ उपरथी लेखक प्राकृत, संस्कृत अने अपभ्रंश एमत्रणे भापाओना पांडत हता ते स्पष्ट जणाई आवे छे. ग्रंथनी रचना बहुज सरल अने भापा तहन सादी-आडंबर विनानी छे. कर्ता जोके, जेम उपर यताववामां आव्युं छे, एक उत्तम कोटिना विद्वान अने ग्रंथकार छे. परंतु तेमनी विद्वत्तानी कोई विशिष्टता आपणने आ ग्रंथमां मळी आवती नथी. • कुमारपाल प्रबंधना कर्ता जिनमंडनगाणिए पोताना प्रबंधमा अनेक स्थळे, आ ग्रंथमांना ऐतिहासिक भागनां अवतरणो टांक्यां छे. अने जयासिंह सूरिए पोताना संस्कृत कुमारपालचरित्रमा आ ग्रंथनी रचना शैलीतुं आवाद अनुकरण की छे. ते उपरथी जणाई आवे छे के पाछळना ग्रंथकारो प्रस्तुत ग्रंथ. थी सारी पेठे अवगत होवा जाईए, बुमारपालमतियोधिनी ऐतिहासिक उपयोगिता आ ग्रंथतुं महत् परिमाण अने रचना-समय तरफ दृष्टि करता इतिहास रसिक जिज्ञासुओने, आ ग्रंथमाथी कुमारपाल अने हेमचंद्राचार्यना जीवनवृत्तान्त संबंधी अशात अने अन्यत्र अनुपलब्ध एवी नवी रणवानी विशेष जिज्ञासा रहे, ए स्वाभाविक छे. अने हूं पण प्रथम एचा ज लालस ग्रंथना संपादन-भारने वहन करवा सानंद तत्पर थयो हतो. परंतु ग्रंथर्नु सायंत अवलोकन कर्या पछी मारे उदास मने जणाव पडे छे के तेवो कोई नवीन वावत, आ आटला मोटा ग्रंथमाथी मळी आवीं नथी, एटलंजनहीं परंतु प्रभावकचरित्रांतर्गत हेमचंद्रप्रवंध. प्रबंधचिन्तामणिगत कमारपालप्रथंधादि जेवा, प्रस्तुत थ करतां संक्षिप्त अने कालकृत अर्वाचीन ग्रंथोमां जेटली हकीकत, उक्त बने व्यक्तिओना संबंधमां मळी आवे छे; ते करतां पण घणी ज अल्प हकीकत या ग्रंथमा आलेखेली छे. आथी ऐतिहासिक पितो आपणने आग्रंथनी कोई पण प्रकारली विशेष उपयोगिता जणाती नयी, एम जो कहीए तो ते अयुक्त नथी. अलवत प्राकृत भापाना साहित्य-प्रकाशननी अपेक्षाए आनी उपयोगिता अवश्य स्वीकारवा लायक छ. कारण के एक तो प्राकृतसाहित्य अत्यारसुधीमा घणाज अल्प प्रमाणमा प्रकाशित थयु छ, अने वीजु हवे मुंबई युनिवर्सिटीए पोताना पठनक्रममा पालीभापानी माफक प्राकृतमापाने पण खास स्थान आपलं होवाथी ए भाषाना साहित्यना प्रकटीकरणनी धणीज आवश्यकता प्रतीत थई रही छे.तेवा प्रसंग प्राकृत भापाना आ एक महान् ग्रंथर्नु प्रकाशन ए भापाना अभ्यासिओने अवश्य आव. कार दायक थई पडशे एमां संशय नथी. * ए बे पयो नीचे प्रमाणे छे:चैलुक्येन्द्रेण चेत्ये कुचकलशनिकरर्वन्धुराः सिन्धुरस्त्रीस्कन्धारूढा विधातुं जिनजननमहे सूतिकर्मप्रपञ्चम् । पटपञ्चाशत्समीरप्रमुखनिजानिजाचारचातुर्यास्फुर्जन्माणिक्यहेमाभरणकवाचताथाकरे दिक्कुमार्यः ।। द्वात्रिंशत्रनिदशाधिपा नपगृहात चैसे द्विपाध्यासिताः कल्याणाभरणाभिरामवपुपः कल्याणकाद्युत्सवे । यात्रं कर्तुममर्त्यशैलशिराम स्वर्गादिवाभ्याययुस्तन्मध्ये च कुमारपालनृपतिर्भजेऽच्युतेन्द्रश्रियम् ॥ १जुओ मुनि श्रीचतुरविजयजी संपादित कुमारपालप्रबंध-पृ. १०, १७,५८,८०,९०, ९४, ९५,९५, १०६, १०७, १११इत्यादि. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્રૂર जैन साहित्य संशोधक [भाग १ उक्तरीते आ ग्रंथमां ऐतिहासिक वृत्तान्त विशेष न मळवाथी अलबत आपणने असंतोष थाय ए स्वाभाविक छे, परंतु ते विषयमां ग्रंथकार कोई पण प्रकारना उपालंभने पात्र नथी. कारण के ग्रंथना प्रारं भांज ते पोते हेमचंद्र अने कुमारपालनी समग्र जीवन - वार्ता लखवाना उद्देश्यनो स्पष्ट अस्वीकार करे छे. ओ ग्रंथ लखवामां लेखफनो उद्देश्य, कुमारपालादिनो इतिहास लखवानो नथी. परंतु ते व्यक्तिसोने लक्षीने धर्मोपदेश आपतो एक कथा-ग्रंथ गुंथवानो छे. तेभो लखे छेके - " यद्यपि कुमारपाल अने हेमचं द्राचार्यनुं जीवन चरित्र बीजी रीतिए, पण घणुंए मनोहर छे. तो पण हुं आ प्रथमां जैन धर्मना प्रतियोध संबंधे काक काच्छु छं. अं अनेक प्रकारनी खाद्य वस्तुओथी भरपूर रसवतीमाथी पोतानी इच्छानुं - सार मात्र कोई एक वस्तुनुं ज भक्षण करनार पुरुष कोईनी निन्दाने पात्र थई शके छे ? " अस्तु. कुमारपाल प्रतिबोधनो ऐतिहासिक सार आ संपूर्ण प्रथमां जेटलो भाग इतिहास साथै संबंध धरावे छे ते वाचकोना सौकर्यार्थ " कुमारपालं प्रतिबोध - संक्षेप" एवा शिरोलेख नीचे परिशिष्ट रूपे जुदो आप्यो छे. ए परिशिष्टात्मक ग्रंथभाग यांचीजवाथी आखा ग्रंथनो संकलित सार स्पष्टरीते समजाई जशे. संक्षिप्त ऐतिहासिकसार आ प्रमाणे छे।- अणहिलपुर पाटणमां, प्रथम चौलुक्य कुलमृगांक एवो मूल नामे राजा थयो. तेना पछी चामुंडराज अने तेना पछी 'जगज्झंपण ' एवं उपनाम प्राप्त करनार वल्लभराज थयो. तेना पछी अनुक्रमे दुर्लभराज, भीमराज, कर्णदेव अने जयसिंहदेव राजा थयो. पूर्वे थई गएला भीमदेवनो क्षेमराज करीने एक पुत्र हतो, तेनो पुत्र देवप्रसाद, तेनो पुत्र त्रिभुवनपाल अने तेनो पुत्र कुमारपाल थयो. ए कुमारपाल बहु शूर, वीर, धीर त्यागी, दक्ष अने परोपकारादि गुणवाळो हतो. तेथी जयसिंहदेवनं मृत्यु .थया पछी प्रधानपुरुषोए परस्पर विचार करीने तेनी गादी उपर कुमारपालने बेसार्यो. तेथे चारे दिशाओमां चतुरंग सैन्य साथै दिग्विजय करी प्रजाने संतोषकारक थाय तेवी रीत राज्यनुं पालन करवा मांड. एक दिवसे तेणे केटलाक विद्वान् अने वृद्ध ब्राह्मणोने पोतानी पासे बोलावीने कहा के -'जेना आचरणथी मनुष्य जन्मनुं सार्थक थाय तेवो सत्य धर्म मार्ग बतावो . ' ब्राह्मणोए वेदादिशास्त्र विहित यज्ञयाग स्वरूप धर्म बताव्यो. परंतु ते धर्ममां पशु-प्राणी आदिनो वध विहित होवाथी तेवो हिंसामय धर्म राजाने रुच्यो नहीं. ते मनमां विचार करवा लाग्यो के' जो प्राणिओनो वध करवाथी पण मनुष्यने धर्म प्राप्ति थती होय तो पछी अधर्म कयुं कर्तव्य करवाथी थाय छे ? शुं ब्राह्मणो धर्मनुं सत्य. स्वरूपज जाणता नथी ? अथवा तो जाणता छता पण भारी विप्रतारणा करे छे ?' आवी रीते आ संबंधम ते विशेष चिंतन करवा लाग्यो अने तेना योगे रात्रिमा समये ते निद्रा पण पूरी प्राप्त करी शकतो नहीं. एक समये बाहड नामना अमात्ये आवीने राजाने नमन कर्यु अने कछु के-' राजन् ! तमने जो धर्माधर्मना स्वरूपने जाणवानी जिज्ञासा होय तो हुं कहुं ते सांभळो. ' एम कही बाहड मंत्रीए जैनाचार्य हेमचंद्र सूरिनो संक्षिप्त परिचय आप्यो. मंत्रिए जणावयुं के - पूर्वे, पूर्णतल्लनामना गच्छमां श्रीदत्तसूरि नामे एक आचार्य थई गया. तेओ परिभ्रमण करता एक वखते वागडदेशना ' रयणपुर ' नामना गाम्मां गया. त्यां ते वस्त्रते यशोभद्र करीने एक राजा राज्य करतो हतो. ते श्रीदत्तसूरिपासे आधी हमेशां धर्मबोध सांभळवा लाग्यो. दप्तर त्यां केटलोक समय रही अन्यत्र चाल्या गया. पाछळथी ते राजाने संसार उपर विरक्ति थई आवी अने तेथी ते बधो राज्यभार छोडी दत्तसूरिपासे दीक्षा लेवा निकळी पडघो. सूरि ते समये *जह विचरियं इमाणं मणोहरं अस्थि बहुयमन्नं पि । तहवि जिणधम्म- पडिवाह - बंधुरं कि 'पि जपेमि ॥ बहु भक्त - जुया विरसवईए मज्झाओ किंचि भुंजतो । निय-इच्छा-अणुरूवं पुरसो कि होइ वयणिज्जी ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] कुमारपालं प्रतिवोध परिचय 'डिडुआणापुर' मां रहेता हता तेथी राजा त्यां गयो. तेनी पासे एक बहुमूल्य मुक्ताहार हतो. तेने वैचा तेना द्रव्यथी त्यां एक 'चउचीसजिणालय ' नामे मोह जैनमंदिर बंधाव्युं अने पछी साधुपणू लई दत्तसूरिनो शिष्य थयो. साधुनत लईने तेणे अनेक प्रकारनां तपश्चरणो कर्या अने ऊंडो शास्त्राभ्यास करी यशोभद्रसूरि नामे आचार्यपद प्राप्त कयु. आचार्य थया पछी तेमणे लोकोने धर्मोपदेश आपवा जुदा जुदा स्थळोमा परिभ्रमण कयु, ज्यारे वृद्धावस्थाना योगे शरीर बहु शिथिल अने क्षीणप्राय थयुं त्यारे उज्जयंत (गिरनार ) तीर्थ उपर जई तेमणे अनशनवत अंगीकार कर्यु अने समाधिपूर्वक स्वर्गस्थ थया. तेमना शिन्य प्रद्युम्नसूरि करीने थया जेमणे 'ठाणयपगरण (स्थान• कंप्रकरण)' नामे ग्रंथ बनायो. तेमना शिष्य गुणलेनलूरि अने तेमना शिघ्य देवचंद्रसूरि थया. देवचंद्रसारिए प्रद्युम्नसरिरचित 'टाणयपगरण ' उपर टीका वनाची छे. तथा 'शांन्तिजिनचरित्र' लख्युं छे. ए देवचंद्रसूरि फरता फरता एक वखते धंधुका नामे गाममां गया. त्यां चच्च अने चाहिणी नामे मोढ जातीय वणिग्दंपतीनो चंगदेव नामे एक प्रतिभावान् बालक तेमनी पासे आवघा लाग्यो अने निरन्तर तेमनो धर्मवोध सांभाळचा लाग्यो. तेमना उपदेशी प्रबुद्ध थई बालक चंगदेव तेमनो शिष्य थवा तैयार थयो, अने तेमनी साथेज ते रहेवा-फरवा लाग्यो. फरता फरता देवचंद्वसरि खंभातमां आव्या, अने त्यां, ते बालकना मामा नामे नेमि द्वारा चच्च अने चाहिणीने समजावी-युझावी, तेने दीक्षा आपी अने चंगदेवना बदले सोमचंद्र नाम स्थाप्यु. अलौकिक बुद्धिशाळी यालक साधु सोमचंद्र थोडाज समयमा सकळ शास्त्रोनो अभ्यास करी समर्थ विद्वान् थयो अने गुरुप तेनी पूर्ण योग्यता जोई हेमचंद्र एवा नवीन नामनी साथे तेने आचार्यपद प्रदान कर्यु. हेमचंद्राचार्यनी घिनत्ताथी मुग्धथई सिद्धराज जयसिंह देव तेमना उपर बहु भक्तिभाव धरावतो हतो, अने ट्रेक शास्त्रीय बांबतना तेमनी पासे खुलासा मेळवी संतुष्ट थतो हतो. तेमना उपदेशथी सिद्धराजनी जैनधर्म उपर प्रीति थई हती, अने तेना उपलक्ष्यमा तेणे 'रायविहार ' नामे एक जैनमंदिर पाटणमां, अने 'सिद्धविहार' नामे एक मंदिर सिद्धपुरमा बंधाव्युं हतुं. सिद्धराजना कथनथी हेमचंद्राचार्य 'सिद्धहमव्याकरण' नामे सरींगपूर्ण शब्दशास्त्र बनाव्युं हतुं. हेमचंद्रचार्यनो अमृतोपम उपदेश लांभळ्या विना सिद्धराजने जरा पण चेन पडतुं न हतुं. आवी रीते. हेमचंद्रसूरिनो परिचय आपी अमात्य बाहडे कुमारपाल राजाने को के-'महाराज! तमने पण जो धर्मना यथार्थ स्वरूपने जाणवानी इच्छा होय तो भक्तिपूर्वक ए आचार्यनी पासे जई, मां पच्छा करो.' मंत्रीजें आ कथन सांभळी राजा हमेशां हेमचंद्राचार्य पासे जई धर्मबोध सांभळया लाग्यो. " आचार्यजीए प्रथम तो विविध दृष्टांतो अने आख्यानो द्वारा राजाने यथावसर प्राणिहिंसा, यूतरमण, मांसभक्षण, मद्यपान, धेश्यागमन अने धनापहरण इत्यादि दुराचरणोथी मनुष्य अन मनुष्यसमाजनी केवी अधोगति थाय छे, ते चारंधार समजावी, तेनी पासेथी, आखा राज्यमां तेषां दुराचरणोनो, राजाशाना रूपमा सर्वथा निषेध कराव्यो. तदनंतर, तेमणे कुमारपालन जैनधर्मप्रतिपादित देव, गरुअने धर्म तत्त्वनो विशिष्ट वोध आपवा मांड्यो. सद्देव, सद्गुरु, अने सद्धर्मनी उपासनाथी आत्मानी केवी प्रगति थाय छे अने असद्देव, गुरु, अने धर्मनी उपासनाथी केवी अवगति थाय छ, तेनी, विविध कथानको द्वारा स्पष्ट समजण आपवा मांडी. सरिना ए बोधथी कुमारपालनी जैनधर्म तरफ प्रीति वधती गई अने क्रमे क्रमे ते ए धर्म उपर अधिकाधिक अनुरक्त थतो गयो. जनधर्म उपरना पोताना अनुरागना ग्रंथकार सोमप्रभाचार्य आ ठेकाणे जणावे छे के-ते 'चउवीसजिणालय' मंदिर माजे पण त्यां (डिडुआणा पुरंमा) विद्यमान छे. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैन साहित्य संशोधकः [भाग. उपलक्ष्यमा प्रथम तो तेणे ठेकाणे ठेकाणे जैन मंदिरोबंधाववा मांडयां. सौथी प्रथम तेणे पाटणमां, श्रीमालवंशीय मंत्री उदयनना पुत्र मंत्री बाहड अने चायडवंशीय गर्गसेठना पुत्रो नामे सर्वदेव अने सांबसेठनी देखरेख नीचे 'कुमारविहार' नामे चतुर्विंशति जिनालय युक्त महान अने भव्य जैनमंदिर बंधाव्यु. ए विहारना मुख्य मंदिरमां, स्फटिकनिर्मित पार्श्वनाथ तीर्थकरनी मनोहर मूर्ति प्रतिष्ठित करी तेनी आजुबाजुना बीजा २४ जिनालयोमां सुवर्ण, रजत अने पित्तल आदि धातुओनी बनेली जुदा जुदा तीर्थकरोनी प्रतिमाओ स्थापन करवामां आची. तेना पछी कुमारपाले 'त्रिभुवनविहार' नामे अत्युच्च अने अतिभव्य मंदिर बंधाव्यु. ए मंदिर ७२ जिनालयोथी परिवटित हतुं. एनो विशाल आमलसार अने ते उपरना कलशो सुवर्णमय बनाववामां आव्या हता. मूळ मंदिरमा नीलरत्ननिर्मित महत्प्रमाण एवी नमिनाथ तीर्थकरनी प्रतिमा, अने आसपासना ७२ जिनालयोमां, भूत, सविन्य अने वर्तमानकालना एम ७२ तीर्थकरोनी पित्तलमय प्रतिमाओ प्रतिष्ठित करवामां आवी. ए सिवाय, २४ तीर्थकरना, २४ जदां जुदां मंदिरो, तेसज 'निविहार' प्रमुख बीजा पण घणा विहारो तेणे एकला पाटण शहरमांज कराव्या हता. पाटण सिवाय बीजां नगरो अने गामोलां तेणे जे मंदिरो बंधाव्यां छेतेनी तो संख्या पण कोई जाणतो नथी. ए मंदिरोमां, जसदेवना पुत्र दंडाधिप अभयनी देखरेख नीचे तारंगापर्वत उपर बंधावेलु अजितनाथर्नु महान मंदिर खास उल्लेख करवा योग्य छे. आधी रीते मात्र जिनमंदिरो बंधाधीने जनसारपाल पोतानी जैनधर्म प्रत्येनी श्रद्धा बतावी अटकी गयो न होतो; परंतु एक परम श्रद्धालु श्रावकनी माफक ते हमेशां जिनमदिरमा जई जिनमूर्तिनी भावपूर्वक पूजा पण करतो हतो अने जैनधर्मनो माहिमा प्रकट करवा माटे अपाहिनका महोत्सव विगेरे जैन उत्सवो पण घणा ठाठथी उजवतो हतो. ए महोत्सवी प्रतिवर्ष, चैत्र अने आश्विन मासना शुक्ल पक्षना छेल्ला आठ दिवसोमां, पाटणना मुख्य अने प्रसिद्ध मंदिर नामे 'कुमारविहार' मां करवामां आवता हता. महोत्सवनी समाप्तिना दिवसे-एटले चैत्र अने आश्विन मासनी पूर्णिमाना दिवसे-सांजना बखते, रथयात्रानो वरघोडो निकळतो. हाथिए जोडला रथनी अंदर पार्श्वनाथनी मूर्ति स्थापवामां आवती. रथ प्रथम 'कुमारविहार' माथी निकळतो अने अनेक सामंत, मंत्री, व्यापारी आदिना समूहथी विटळाएलो ते राजमंदिरमा जतो. त्यां राजा जाते वस्त्र अने आभूषणोथी रथस्थ प्रतिमानी पूजा करतो. अन्य जनो ते वखते विविधभावव्यंजक अने स्तवनासूचक नृत्य अने गानादि करता. ते रात्रिए रथने त्यां (राजमंदिरमा) ज राखवामां आवतो अने बीजे दिवसे, सवारना वखते, सिंहद्वार यहार, तेना माटे खास उभा करेला मंडपमा लई जवामां आवतो. राजा पण त्यां साथे जतो, अने सकळ जनसमूहनी समक्ष, रथस्थ जिनप्रतिमानी लौथी प्रथम स्वयमेव आरती उतारतो. पूजा विगेरे सघळी क्रिया थई रह्या वाद रथ पाछो नगरमा आववा निकळतो. नगरना वधा राजमार्गोमा परिभ्र. मण करतो करतो अने ठेकाणे ठेकाणे वांधेला मंडपो नीचे उभो रहेतो रहेतो, घणा आडंबरपूर्वक रथ पाछो पोताना स्थानके पहोचतो. आवीरीत कुमारपाल जाते जैनधर्मनो महिमा करतो अने पोताना ताबामांना बीजा मांडलिक राजाओ पासे पण तेवी रीत करावतो. तेना हुकमथी बधा मांडलिक राजाओए पोतपोताना नगरोमां कुमारविहारो बंधाव्या हता, अने तेमनी अंदर आवा महोत्सवो पण हमेशां करता-करावता हता.. एक दिवसे कुमारविहारमा बेसीने कुमारपाल हेमचंद्राचार्य पासे धर्मोपदेश सांभळतो हतोते वखते केटलाक विदेशी धनाढ्य जैन यानिओए आधीने आचार्यने अने राजाने प्रणाम कर्याः ते यात्रिओ सौराष्ट्र (काठियावाड) देशमां आवेलां जैन तीर्थोनी यात्रा करवा निकळ्या हता; अने रस्तामां पाटण शहर आक्याथी, त्यांना मंदिरोनी यात्रा करवा तथा आचार्य हेमचंद्र अने राजा कुमारपाल जेवा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २ ] कुमारपाल प्रतिवोध परिचय जैनधर्मना महान् पुरुषोनां दर्शन करवा तेथे त्यां रोकाया हता. ते यात्रिभोने जोईने कुमारपालना मनमां पण तीर्थयात्रा करवानी इच्छा थई, अने हेमचंद्राचार्यने पूछी यात्रानी तैयारी करवा मांडी. ज्योतिषि व्रतवेला शुभ मुहूर्तमां, हेमचंद्रसूरिना प्रमुखपणानीचे तेणे पोताना चतुरंग सैन्य अने चतुविघ संघ-साधु, साध्वी, आवक, श्राविका रूप जैन जनसमूह-साथै सौराष्ट्र देश तरफ प्रयाण कर्यु. मार्गमां आवतां ग्राम अन नगरोनां जिनमंदिरोनी पूजा-उपासना करता कुमारपालना ए महान् संघ वन ( गिरनार ) पर्वतनी नीचे आवेला गिरिनगर ( जुनागढ ) नी पासे जई पडाव नांख्यो. गिरनार पर्वतनो चढाव वह विषम होवाथी ( ते वखते उपर चढवा माटे पगथिओं वांधेलां न होतां ) राजा उपर चढ़ी नहीं शक्यो, तेथी प्रधान पुरुपोना हाथे पूजा आदिनी सामग्री मोकली दर्द पोतानी अशक्तता माटे खेद करतो ते त्यां नीचेज बेसी रह्यो. बाकी वीजा वधा यात्रिओ पर्वत उपर गयां अने जिनपूजा आदि तीर्थकृत्य करी यथावसरे पाछा नीचे आव्या. त्याथी ए संघ शत्रुंजय तीर्थनी यात्रा करवा गयो. त्यां वधा यात्रिओनी साथै राजा पण पर्वत उपर चढ्यो अने तीर्थनायक ऋषभदेवनी भक्तिपूर्वक पूजा - सेवा करी आनंदित थयो. शत्रुंजयना ए पवित्र जिनमंदिरनो जीर्णोद्धार कुमारपालनी आज्ञार्थी वाइड मंत्रिण, थोडा ज समय पहेलां कराव्यो हतो, तेथी ते मंदिर जोई राजा बहु खुशी भयो. आवी रोते गिरनार अने शत्रुंजय नामना साराष्ट्रना बने प्रसिद्ध जैनतीर्थोनी ढाट साथै यात्रा करी राजा पाछो पोतानी राजधानीमां आव्यो. ६५ 24 ****e vou गिरनार पर्वतना चढावनी विषमताना कारणे राजा ते उपर जे चढी नहीं शक्यो हतो अने तेना ली तीर्थपति नेमिनाथनी जे पूजा-अर्चा करी नहीं शक्यो हतो, तेथी तेने बहु खेद थयां करतो हसो. एक दिवसे पोतानी राजसभामां प्रसंगोपात वात निकळतां राजाए पूछयुं के गिरनार उपर लोकोने चढवा माटे सुगम एवो रस्तो बंधावी आपे पवो कोई पुरुष छे? ते वखते कविचकवती श्री श्रीपा ना पुत्र कवि सिद्धपाले ते कार्य माटे राणिगना पुत्र आम्रनुं नाम सूचच्युं राजाए कविनी सूचनानुसार आम्रने सौराष्ट्रनो दंडनायक ( सुबेदार ) नीमी गिरनार मोकल्यो भने त्यां पर्वत उपर पगधि बांधवानी हुकम कर्यो. तदनंतर, कुमारपाले अनाथ अने असमर्थ श्रावक आदि जनोना भरण पोषण अर्थे एक सत्रागार बंधाव्यो जेनी अंदर विविध जातनां भोजनो भने वस्त्रादि तेना अर्थिओने आपवामां आवतां हतां तेमज ते सत्रागारनी पासेज एक पौपधशाला बंधावी के जेनी अंदर रहीने धर्मार्थी जनो धर्मध्यान करता पोतानुं जीवन शांतरीते व्यतीत करी शके. सन्त्रागार अने पौषधशालानो कारभार चलावचा माटे श्रीमालवंशीय नेमिनागना पुत्र श्रेष्ठी अभय कुमारनी योजना करी हती. ते श्रेष्टी बहुज सत्यव्रत, दयाशील, सरलस्वभाव अने परोपकारपरायण हतो. तेनी आवा पुण्यदायक कार्य उपर थपली योग्य नियुकिने जोई काव सिद्धपोल राजानी योग्य प्रशंसा करी हती. त्यार याद आचार्य हेमचंद्रे कुमारपालने श्रावक धर्ममां पालवा योग्य १२ व्रतोनो विस्तार साथै बोध कर्यो. प्राचीन कालमां आनंद अने कामदेवादि परमं जैन गृहस्थोग जे रीते श्रावकधर्मनुं पालन कर्य हतुं, तथा प्रत्यक्षमां पण, खुद पाटण निवासी छड्डुअ नामना महान् धनाढ्य श्रावके जे रीते पोतानी पासे श्रावकना १२ व्रतोनो स्वीकार कर्यो हतो, तेनां उदाहरणो आपी हेमचंद्रमुरिए कुमारपालनी श्रावक - धर्म - अंगीकरण तरफ सुरुचि उत्पन्न करी. राजाय तेमना बोधानुसार एक राजर्षिने शोभे तेषी राते भावकव्रतनो श्रद्धा पूर्वक स्वीकार कर्यो, अने आवी रराते अंते कुमारपाले जैनधर्मनो पूर्ण स्वीकार करी ते एक परमार्हत जैन राजा थयो. जैन या पछी कुमारपालनी नित्यनी दिनचर्या आ प्रमाणे बताववामां आवी छे:- ते प्रति दिवस Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ जैन साहित्य संशोधक [ भाग १ प्रातःकालमों व्हेलो उठतो अने सौधी प्रथम, जैनधर्ममां सुप्रसिद्ध एवा पंचनमस्कार मंत्रनुं स्मरण करतो. वाद पोताना इष्ट देव गुरुतुं ध्यान करतो. पछी कायशुद्धि विगेरे करी, राजमंदिरमांज आवेला जिनमंदिरमां जई जिनप्रतिमानी पुष्प, नैवेद्य विगेरेथी पूजा करी पंचांग प्रणिपात करतो; तथा यथाशक्ति नमोकारसी विगेरे तपनु प्रत्यास्थान करतो हतो. त्यार वाद, अवसर थप, हाथीना होढ़े बेसी, अनेक सामंत, मंत्री आदि साथै ' कुमार विहार' मां जतो, अने त्यां अणकारी पूजा करी भावपूर्वक प्रभुप्रार्थना करतो. त्यांथी पछी ते हेमचंद्राचार्य पासे जतो अने चंदन, कर्पूर तथा सुवर्णकमलादिश्री तेमनी वरणपूजा करतो हतो. तदनंतर तेमनी आगळ वेसीने धर्मोपदेश सांभळतो अने उपदेशनी समाप्ति थप यथाशक्ति कांईक तपस्यानुं प्रत्याख्यान करी लगभग मध्याह समये पाछो राजभुवनमां आवतो हतो. राजमंदिरमां आवी याचक विगेरे लोकोने उचित वृत्तिनुं वितरण करी, पुनः नैवेद्य विगेरेना थाळो भरी गृहचैत्यनी पूजा करतो अने पछी पोते पवित्र भोजननुं सेवन करतो हतो. भोजन कर्या बाद ते सभामां जईने बेसत्तो अनेत्यां जुदा जुदा विद्वानो साथै धर्मशास्त्र अने तत्त्वविचारनी वातो करतो तथा तेमनी पालेधी सांभळतो. आ विद्वानोमा कवि सिद्धपाल मुख्य हतो. ते हमेशां राजानी आगळ विविध प्रकारनी कथावार्ताओं करी तेना मनने शांत अने संतुष्ट राखतो हतो. दिवसना चतुर्थ प्रहरमां ( एटले लगभग ऋण वाग्या पछी ) कुमारपाल राजसभामां सिंहासन उपर जईने बेसतो, अने त्यां आगळ सामंत, मंत्री, मांडलिक अने सेठ साहुकार आदि राजकीय अने प्रजावर्गीय पुरुषो साथै राज्यकारभार संबंधी विचार-विनिमय चलावतो. तथा लोकोनी विज्ञमिओ (फर्यादी) सांभळतो अने तेनो उचित निकाल करतो. राजानो धर्म के एम जाणी क्यारे क्यारे, मल्लवि गेरेनी कुस्तीओं के हाथी विगेरेनी साटमारी जेवी रमतो पण अलिममने ते जोतो हतो. आवी रीते राज्यकार्य कर्या पछी, जो अष्टमी या चतुर्दशीनो दिवस न होय तो, ये घडी दिवस रहेते सायंकालनुं भोजन करतो-अमी भने चतुर्दशीना दिवसे ते एकज बार भोजन लेतो हतो. भोजनकर्या याद पुष्प आदिथी गृहचैत्यनी सायंकालिकी पूजा करतो अने वारवधुओ पासे आरती-मंगलादि करावतो. त्यार वाद रात्रिना केटलाक समय सुधी, चारण अने गायक आदि जनो तेनी आगळ बेसीने जे गुणगान तथा गायन-वादन आदि करता ते सांभळतो अने ज्यारे निद्रानो समय थतो त्यारे मनमां वैराग्य अने ब्रह्मचर्यना विचारोतुं चिंतन करतो शय्याधीन तो हतो. ते जैनधर्मप्रसिद्ध नमस्कारमंत्रनुं सतत स्मरण करतो रहेती हता. ए मंत्र उपर तेनी बहुज श्रद्धा हती. ते कह्यां करतो हता के, जे कार्यों, विपुल सैन्य साथै दिग्यात्रा करती वखते पण माराथी सिद्ध न होतां थयां, तथा जे शत्रुओ मारी जातनी चढाईथी पण वश न होता थया, ते कार्यो आ नमस्कार मंत्रा प्रभावधी विना यत्ने सिद्ध थाय छे; तथा ते शत्रुओ अंबड जेवा वणिगू दंडेशोथी पण वश धई रह्या छे. अत्यारे आ नमस्कार मंत्रना प्रभावधी मारा राज्यमां कोई पण स्वचक के परचक्रनो भय नथी तेमज दुर्भिक्षादिनुं पण क्यांए नाम सुधां संभळातुं नथी, इत्यादि. आवी रीत आ ग्रंथमां, संक्षेपमां कुमारपालना जैन धार्मिक जीवननो सार आपवामां आव्यो छे. कुमारपाल अने तत्कालीन अभ्यान्य प्रसिद्ध पुरुषो के जमनो उल्लेख प्रसंगोपात्त आ ग्रंथमां करवामां आव्यो छे, तेमना संबंधमां विशेष हकीकतो प्रभावकचरित्र, प्रबंधचिन्तामणि, जयसिंहसूरिकृत- कुमार पालचरित्र, चारित्रसुंदर रचित कुमारपालचरित्र, जिनमंडन कृत- कुमारपालप्रबंध इत्यादि प्राचीन ग्रंथोमां; तेमज फार्बलकृत रामाला अने बॉम्बेगेझेटीअर आदि अर्वाचीन ऐतिहासिक ग्रंथोमां यथाज्ञातं प्रकट धरलीज छे, तेथी ते संबंधमां अहीं कांई लांं लखं अनुपयुक्त है. यद्यपि उक्तरीते आ ग्रंथमां ऐतिहासिक वृत्तांत बहुज अल्पप्रमाणमां आपवामां आग्यो छे; तो पण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २) कुमारपाल प्रतियोधपरिचय ...... ... ...... . . . . . ................... ... .......... .. ...... जे याप्यु छे ते संपूर्ण विश्वस्त अने प्रामाणिक छ एम आपणे स्पष्ट कबुल करखं जोईए, कारण के ग्रंथकार बुद कुमारपालना समकालीनज नहीं परंतु तेना अंतरंग जीवनथी सविशेष परिचित पण हृता, एम आपणे उपर आला तमना परिचयथी निश्चित मपे समजी शकीए छीप, कुमारपालना धार्मिक जीवनना संबंधमां तेना समकालीन एवा प्रण लेखकोना लम्बेलां वर्णनो मळी आवे छे. एलेग्नकोमा एक तो खुद तंना धर्मगुरु आचार्य हेमचंद्र पोतंज छे. तेमणे कुमारपाल चरित्र (प्राकृतव्याश्रयो मां अने महावीरचरित्रमा तेना संबंधमां केटलुक संक्षिप्त वर्णनमायुं छे. कुमार. पालचरित्रमा आरलं वर्णन अने प्रस्तुत ग्रंथमां आपलं वर्णन-तेमाप खाल करीने तेनी दिनचर्या संबंधी वर्णन तो-तारवणी करतां लगमग अर्थशः संपूर्ण मळतु आव छै. बीजो लेखक कवि यशःपाल के जेणे कुमारपालना आध्यात्मिक जीवनने अनुलक्षीने मोहराजपराजय नामनुं नाटक रच्यु छ. आ कवि पोताने अजयदेव चक्रवर्ती ( के जे कुमारपालनो उत्तराधिकारी हतो) नो चरणसेवी बतावे छे. तेथी ए पण कमारपालनो समकालीन ज हतो, ए अर्थात सिद्ध छे. 'मोहराजराजय'मां, कुमारपाले पोताना राज्यमांथी प्राणिहिंसा, मांसभक्षण, सुतरमण, वेश्यागमन आदि पाप व्यसनोनो जे सर्वथा बहिष्कार कराव्या हतो तेनु घणु मनोहर अने हृदयंगम वर्णन करेलं छे. त्रीजा लेग्बक आ प्रस्तुतग्रंथ प्रणेता सोमप्रभाचार्य छे. या त्रणे लेखकों जवाबदार अने प्रमाणभूत होवाथी तेमना कथनमां कोई पण प्रकारना संदेहने अवकाश नथी. आ लग्वकोना चौकस कथन उपरथी जणाय छे के कुमारपाल एक परमधार्मिक जैन राजा हतो. जैन धर्म उपर तेनी पूर्ण श्रद्धा हती अने ८ धर्मप्रतिपादित आचार-विचारोन पालन करवा तेणे संपूर्ण कोशीश करी हती; जैन धर्मनो प्रसार करवा तेणे धनता प्रयन्नो कर्या हता; अने तेनो प्रभाव स्थापना नेणे पोताने तन्मय बनाव्या हती. ते स्वभावधी सरल अने विचारथी उदार हतो. जैन धर्म उपर तेनो पूर्ण अनुराग होवा छतां पण अन्यधर्मा उपर नेणे क्यारे पण पोताना अभाव प्रकट को न हतो. एक प्रजापालक राजा तरीके ते दरेक धर्म उपर समान भावेज आदर राखतोहतो. ते जाते सदाचारी अने सदगुणानुरागी हतो. तेना राज्यथी लोको पूर्ण सुम्नी अने संतुष्ट हता. इत्यलम. कुमारपाल प्रतिबोधनी थतनी प्रशस्ति नीच प्रमाणे छ.सूर्याचन्द्रमसी कुतर्कतमसः कणावतंसी क्षितधु- धर्मरथस्य सर्वजगतस्तत्त्वावलोके दशौ। । निर्वाणावसथस्य तोरणमहास्तम्मावभूतामुभावेकः श्रीमुनिचन्द्रमरिरपरः श्रीमानदेवप्रभुः॥ तयोर्बभ्वाजितदेवरिः शिप्यो वृहद्रच्छनभःशशाङ्क: जिनेन्द्रधर्माम्युनिधिः प्रपेदेघनोदकः स्मृतिमतीव यस्मात्॥ श्रीदेवमरिप्रमुखा बभूवुरन्येऽपि तत्पादपयाजहंसाः।येपामवाधाराचेतस्थितीनां नालीकमैत्री मुदमाततान॥ विशारदशिरोमणेरजितदेवसूररम्नमाधुजमधुव्रतो विजयसिंहरिःप्रभुः।। मितोपकरणक्रियासचिरनियवासी च यचिरन्तनमुनित्रतः व्यधित दुःपमायामपि । तत्पपूर्वादिसहस्राहिमः सोमप्रभाचार्य इति प्रसिद्धः। श्रीहमसरेच कुमारपालदेवस्य चंदं न्यगदचरित्रम् ।। मुकविरिति न कीति नार्थलाभ न पूजामहमभिलपमाणः प्रावृतं वक्तुमेतत् । किमुत रुतमुभाभ्यां दुष्करं दुःपमायां जिनमतमतुलं तत्कीर्तनापुण्यमिच्छु:॥ धम्में निर्यलतामवाप्नुमतुला श्रीहेमचन्द्रप्रमी भक्ति व्यजितुमडुतां भणितिपु द्रष्टुं परामौचितीम् । थो चित्रमयाथमत्कृतिरुतः काव्यं च लोकोत्तरं कते कामयसे यदि स्फुटगुणं तद्ग्रन्धमतं शृणु ॥ प्राग्वाटान्वयसागरेन्दरसमप्र: रुतःक्षमा वाग्मी सतिमुधानिधानमजान श्रीपालनामा पुमान् । यं लोकोत्तरकाव्यरजिनमतिः साहित्यविद्यारतिः श्रीसेडाधिपतिः कान्द्र इति च भ्रातेति च व्याहरन । पुत्रस्तस्य कुमारपालनपतिप्रीते: पदं धीमतामुत्तंसः कविचक्रमस्तकमणिः श्रीसिद्धपालोऽभवन् । क्लम तद्वसताबिदं किमपि यच्चायुक्तमुक्तं मया तयुध्माभिरिहाच्यतामिति बुधा का प्राञ्जलिःप्रार्थये।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [ भाग १ 7 हेमसूरिपदपङ्कजहंसैः श्रीमहेन्द्रमुनिवैः श्रुतमेतत् । वर्द्धमान- गुणचन्द्र: गणिभ्यां साकमाकलितशास्त्ररहस्यैः ॥ यावन्निहताखिलसन्तमसौ नभसि चकास्तो रविचन्द्रमसौ । तावत्-हेमकुमारचरित्रं साधुजनो वाचयतु पवित्रम् ॥ विमलमतिसुघार्चिर्नेमिनागाद्द्गजन्माऽभवद्भयकुमारः श्रावकः श्रेष्ठिमुख्यः । अथ निजकरपद्मप्राप्तघमर्थपद्मा विजितपदकपद्या तस्य पद्मोति पत्नी ॥ तत्पुत्रा गुणिनो ऽभवन् भुवि हरिश्चन्द्रादयो विश्रुताः श्रीदेवीप्रमुखाच धर्मधिपणापात्राणि तत्पुत्रिकाः । तत्प्रीत्यर्थमिदं व्यधायि तदुपहरागच्छष्टात्मभि ( ? ) - भूयिष्टानि च पुस्तकानि ........ ..... सोऽलेखयत् " शशिजलधिसूर्यवर्षे शुचिमासे रविदिने सिताष्टम्याम् | जिनधर्मप्रतिबोध: क्लृप्तोऽयं गुर्जरेन्द्रपुरे || प्रस्तावपञ्चकेऽप्यत्राष्टौ सहस्राण्यनुष्टुभाम् । एकैकाक्षरसंख्यातान्यधिकान्यष्टभिः शतैः ॥ संवत् १४५८ वर्षे द्वितीयभाद्रपदवृदि ४ तिथौ शुक्रदिन श्रीस्तंभतीर्थे वृहद्ध ( वृद्ध ) पौपधशालायां भट्ट • श्रीजयतिलकसुरीणां उपदेशेन श्रीकुमारपाल प्रतिवाद्यपुस्तकं लिखितमिदं ॥ कायस्थ ज्ञातीयमहं मंडलिकमुत पेतालिखितं ॥ चिरं नंदतु || छ | उ० श्रजियप्रभगणिसप्य ( शिष्य ) उ० श्रजियमंदिरगणि सध्य ( शिष्य ) भट्टा० श्रीकल्याणरत्नसूरिगुरुभ्यो नमः पं० व (वि) द्यारत्नगाणि । सोमप्रभाचार्य रचित शतार्थवृत्तकाव्यनी टीकाना प्रारंभमां नीचे प्रमाणे ५ लोको आपवामां आ व्या के जेमां १०० अर्थोनी अनुक्रमणिका आपवामां आवी छे. अत्र स्तुताचतुर्विंशतिजिना: सिद्ध-सूर्य उपाध्यायाः । मुनि-पुण्डरीक - गौतम - सुधर्म - पञ्चव्रती - समयाः ॥ श्रुतदेवी - पुरुषार्थाः विधि - नारद - देव - विष्णु - चलभद्राः । श्रीः प्रद्युम्नश्चक्र शङ्ख- शिव - गिरिसुता - स्कन्दाः || हेरम्बः कैलाशो प्रह - दिक्पाला जयन्त- घन-मदिराः । कनका- Sब्धि-सिंह- हय-करि- सरोज-भुजगाः शुको ऽरण्यम् ॥ मानसरो--S-वैद्या - निलसुत - पत्नी - महा. गुरुचतुष्कम् । जयसिंह कुमारनृपाः जयदेवो मुलराज || थोसिद्धपालकावि रजितदेवसूरि-र्गुरुर्विजयसिंहः । ताच्छप्यः सोमप्रभरिश्च शतार्थवृत्तकविः ॥ शतार्थवृत्तनी वृत्तिना अंतमां सोमप्रभाचार्यना पिताविगेरेना उल्लेखवाला जे लोको आप्या छे ते नीचे प्रमाणे छे. म एव शिष्यः स्वरुतैः कपिश्वैर्गुरो गरिम्ना जितकाञ्चनादेः | गृहस्थभावा-ऽन्वयकीर्तनेन व्यनक्ति भक्ति पुनरुक्तमेताम् ॥ प्राग्वाटान्वयनीरराशिरजनीजानिर्जिनाचपरः संजातो जिनदेव इत्यभिधया चूडामणिर्मन्त्रिणाम् । यस्यौदार्य-विवेक विक्रम दया दाक्षिण्य- पुण्यैर्गुणैः । साम्यं लब्धुमहर्निश जगदपि विलयन्न विभ्राभ्यति ॥ तस्याऽऽत्मजः सुजनमण्डलमौलिरत्नमुज्जृम्भितेन्द्रियजयोऽजनि सर्वदेवः । एकस्थ सर्वगुण निर्मित कौतुकेन धात्रा रुतोऽयमिति यः प्रथितः पृथिव्याम् ॥ सूनुस्तस्य प्रथमकमलादर्पण: पुण्यकामः कौमारेऽपि स्मरमदजयी जैनदीक्षां प्रपन्नः । विश्वेस्याऽपि श्रुतजलनिधेः पारमासाद्य जज्ञे श्रीमान् सोमप्रभ इति लसत्कीर्तिराचार्यवर्यः ॥ यो गृह्णाति समश्रुतं चइति यस्तत्कद्भुतं पाटवं काव्यं यस्त्वरितं करोति तनुते यः पावनीं देशनाम् । योऽयध्नान् सुमतेश्चरित्र + + भट्टाः सूक्तिपंक्तिपरां श्रीसोमप्रभसूरिरेष वृत्ते शतार्थं व्यधनं ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना ( प्रथम भाग. ) [ अनुवादक - शाह अंबालाल चतुरभाई, बी. ए. ] [ प्रथम अंकमां डॉ. हर्मन जॅकोयीनी कल्पसूत्रनी प्रस्तावनानो अनुवाद आपवामां आव्यो छे. आज आ नीचे, ' पूर्वना पवित्र पुस्तको (Sacred Books of the East ) ' नामनी सुप्रसिद्ध ग्रंथमालामां 'जैन सूत्रो' नामे तमनां जे ये पुस्तको प्रसिद्ध थयां छे, तेमाना पहेली पुस्तकनी (नं. २२ ) प्रस्तावनानी अनुवाद उपस्थित करवामां आवे छे. ए पुस्तकमां आचारांग अने कल्पसूत्र, एम वे जैन सूत्रोना भाषांतरो प्रकट करवामां आयां छे. -संपादक. ] जैन धर्मनी उत्पत्ति तथा उत्क्रांतिना संबंधमां विवेचन करती वखते, केटलापक विद्वानो हजी पण, जे शंकाशील कथन करयुं रीतसर समजी रह्या छे, ते आ विषयमा समग्र प्रश्ननी वर्तमान परिस्थिति जातां बिलकुल योग्य होय तेम जणातुं नथी. कारण के हवे जैन धर्मनुं साहित्य मोटा प्रमाणमां उपलब्ध थपलुं छे अने तेथी जे फोई विद्वानने ए धर्मना प्राचीन इतिहासनां साधनोने संगृहीत करवानी इच्छा होय तेने तमांथी तेवां पुष्कळ साधनो मन्त्री शके तेम हे. अने वळी आ साधनो पण गवां नथी के जेथी, तेमां आपणन अश्रद्धा राखवानुं कारण मळे. आपण जाणीए छीए के जैनोना पात्र पुस्तक - अर्थात् आगमो-प्राचीन छे.जेने आपण संस्कृत काळनुं साहित्य ( Classical literature ) कहीए. छोए ते करतां स्पष्ट रीते धारे प्राचीन है. ए भागमोनी प्राचीनताना संवं धमां कहे जोईए के तेमांना वणाक ग्रंथो, उत्त for यौना सौथी प्राचीन ग्रंथोनी साथे तुलनामां आवी शके तेवा छे. हवे बौद्धोना ए ग्रंथी जो बुद्ध अने वौद्धधर्मन इतिहास तैयार करवामां साचां साधनरूपं स्वीकारायां छे तो तेज कोदिनां जैनोनां पवित्र पुस्तको तेमना इतिहासनां प्रामा णिक साधन तरीके शा माटे न स्वीकारी शकाय, ते समजी का नथी. जो या ग्रंथी ( जैन आगमो ) परस्पर विरुद्ध कथनार्थी भरेला होत अथवा तो तेमां आवेली तारीखोथी परस्पर विरोधी अनुमानो उभां थतां होत तो आवां साघनोना आधारे उत्पन्न घपला वधा सिद्धान्तोने शंकाशी: लमने जोवानुं आपणा माटे न्याय्य गणात. परंतु जैन साहित्यनुं स्वरूप आ बावतमां बौद्ध साहित्यधी पण बहुज अल्पभ्रंशे जूटुं पडे छे, खास करीने उत्तरीय बौद्ध साहित्यथी. तो पछी शा माटे, आटला बधा लेखको, जैनसाहित्यमाथी मळी आवती ते धर्मनी उत्पत्ति अने स्थितिथी, भिन्न प्रकारनां अनुमानो करता हशे . आनुं कारण स्पष्ट छे, अने ते युरोपीय विद्वानोए जैनधर्म भने बौद्धधर्ममां परस्पर वास्तविक अगर आभासात्मक जे साम्य खोळी काढयुं छे, तेज छे. ए विद्वानानुं एवं मानवु छे के आ बन्ने धर्मोमां जे आटलं वधुं साम्य दृष्टिगोचर थाय छे तेथी, ते परस्पर स्वतंत्र नहीं होवा जोईए, परंतु एक बीजामांथी उत्पन्न थ एला अथवा एक बीजानी शाखा रूपे प्रवर्तेला होधा जोईए. आ प्रकारना, कारण उपरथी करातकार्यना अनुमानात्मक अभिप्रायश्री, घणा विवेचको- समालोचकोनी दृष्टि कलुषित थपली छे, अने अत्यारे पण तेम थती जोवामां आवे छे. आपछीनां पृष्ठोमां हुं ए मिथ्याभ्रांतिने दूर करवानो प्रयत्न करीश भने जैनागमो जे खरेखरी प्रामाणि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक . [ भाग १ . कता अने प्रतिष्ठाने पात्र छे ते पुरवार करी मापीश. कोना इष्टिकागृहमां उतर्या हता. आ. स्थाननी आपणे आपणी चर्चानो प्रारंभ महावीर विषयक नजीकमांज अम्बापाली वेश्यानुं अम्बपालिवन ऊहापोहथी करीशं के जेओ जैनधर्मना संस्थापक, नामर्नु उद्यान हतुं, जें तेणे वृद्ध अने तेमना संघने निदान तेना आतिम तीर्थकर हता. अहीं मारे समर्पित कयें हतुं. त्यांधी तेओ वेसाली गया, अने. जणाची देवं जोईए के, महावीर एक अर्वाचीन सं. त्यां लिच्छविओना सेनापतिने, जे नियो प्रदाय द्वारा उभी करेलो अथवा कल्पी लीधेलो नो एक श्रावक हतो, ' पोताना धर्मनो अनुमात्र सांकेतिक पुरुष छ, के जे संप्रदाय पोताना यायी बनाव्यो. आ उपरथी बौद्धोनुं कोटिग्गाम कल्पित संस्थापकना मिथ्याकाल पछी घणी शता- अने जैनोर्नु कुण्डग्गाम ए बन्ने एकज होय तेम ब्दिओ बाद उत्पन्न थयो हतो, ए जीतनां भ्रमने दूर घणुंज संभक्ति लागे छे.नामना साम्य उपरांत मा. करवा माटे पुरतुं साहित्य मळी चूक्युं छे..... तिकोनो उल्लेख के जे ज्ञातिको स्पष्टरूपेमहावीरनी श्वेतांबर तेमज दिगंबर-ए बन्ने जैन संप्रदायो जन्मजातिवाळा ज्ञात क्षत्रियो जछे-तथा सीह जणावे छे के महावीर कुण्डपुर अथवा कुण्डनामना. नामना जैननो उल्लेख पण एकज बाबत तरफ राजा सिद्धार्थना पुत्र हता. जैनोनी एवी मान्यता अंगुली निर्देश करें.छे... . छ के आ कुण्डग्राम ते एक मोटुं नगर हतुं तथा आ उपरथी घणु करीने कुण्डग्गाम ए विदेहनी सिद्धार्थ ते एक त्यांनो प्रतापी राजा हतो. परंतु राजधानी सालीनुं एक मात्र परुंज हतुं. आ अनु. कपिलवस्तुं अने शुद्धोदनना संबंधमां बौद्धोना मानने, सूत्रकृतांड्ग १,३ माँ महावीरने जे 'वैसाकथनी माफक, जनानु पण आखरी वस्तुस्थितिनुं अर्थना विषयमा टीकाकारो तथा अर्वाचीन भाषांतरकारोनी अतिशयोंक्ति द्वारा कराएल एक मिथ्या क. गेरसमजुती थई होय. तेम.लागे छे. महापरिनिवान सुत्तना थन छ: कुण्डग्रामने आचारोगसूत्रमा एक सनिवेश भाषान्तरमा (S. B. E. Vol.. XI ) राइझ देविड्स, तरीके जंगावेलें छे के जेनो अर्थ टीकाकारें या- प. २४ नो नोटमां, आ प्रमाणे लखे छः -प्रथम 'नादिक त्रिओं अथवा सार्थवाहोर्नु विश्रामस्थान' एम शब्द वे वार बहुवचनमा वपरायो छे'परंतु त्यार पछी करेलो छ. आ उपरथी जणाय , के ते (कुण्ड- ताजी वार-एंटले छेल्ला अवान्तर वाक्यमा ते एक वचग्राम) एक नजीवें स्थान हशे. तेना संबंधमा मात्र निमां वपरायो छे. आनो खुलासो बुद्धघोष आम करे छे-'ए एटलोज संप्रदाय मळी आव छ के ते विदेहमां नामना जलाशयना काठा उपर, एज नामनां बे गामडां. आवलं हतुं (आचारांग सूत्र २,१५६. १७.) बौद्ध हता. परंतु मारा धारवा प्रमाणे यहुवचनमा प्रयुक्त थरले तेमंज जैन ग्रंथोमा प्रसंगे प्रसंगे मळी आवता नातिका शब्द तो क्षत्रियोनो वाचक छे, अने एकवचनी उलेखो उपरथी महावीरेनी जन्मभूमिना स्थाननो शब्द गिञ्जकावसथ' विशेषण, छे, जे महापरिनिन्जान आपणे योग्य निर्णय करी शकीए तेम छीए. बी. सत्तमा प्रथम स्थान निर्देश वखते, तथा महाग ६, ३:, द्धोना महावग्गसूत्रमा ओपणे वांचिए छीए के बुद्ध ५ मां, आवे छे. : आयी महापरिनिव्यानमा जे जे स्थळे.. ज्यारे कोटिग्गामा बसता हता त्यारे तेमने, ते नादिक शब्द एकवचनान्त होय त्या त्यां तेना, गिज्जका । स्थामनी पांसे आवेली वैशालीनामे राजधानीमाथी लिच्छविओं तथा अम्बापाली नामनी वेश्यो नादिक' एकप खोटं छे अने. महापरिनिंबान. 'आतिक' नाम राजधाना- वसथ' विशेष्यने अध्याहृत मानबुं जोईए. मारा मत प्रमाणे मळवा आवी हती. कोटिंग्गामथीं बुद्ध ज्यां जां- कूप खरू छ. मि. राहझ डेविड्झे पण भाषान्तरंनी अनुक्र तिको रहेता हता त्योंगया हता, अने त्या तेओजाति- मणिकामा 'नादिक ए पटना पासे छे.' एम जे. जणाव्यु १ जुओ ओल्डनबर्गनी आवृत्ति, पृ. .२३१, २३२; स्पष्ट जणाय छै के आं स्थान तथा कोटग्गाम एबन्ने स्थळो छे ते भूलभरेलुं छे. कारण के महावग्गनी कथा उपरथी भाषांतर( बीजो भाग ) पृ: १०४. Sacred Books of बेसालिनी नजीकमा हता.. the East, Vol. XVII. ... 1 जुओं - वेबर, Indisohg Studien, AVI, . .२जे सूत्रमा आतिका शब्द आवेलोछे ते सत्र p262.... धौनी महावग्ग श काए तेम छीए. बा. शब्द गिजकावसथ' न. विशेषण Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना लिए 'एटले वैशालिक एवं नाम आपलं छ, तेथी शकाय छे आम कहेवार्नु कारण ए छे के, ते पण पुष्टि मळे छे. ते स्थळे, टीकाकारे भा शब्दनी पोताना लग्न संबंधना लीधे मोटा मोटा माणसो मर्थ ये भिन्न भिन्न रीतिए समजाव्यो छे अने वीजे साथे संबंध धरावतो हतो, तेवा उल्लेखो मळी आवे एक स्थळे बीजो अर्थ पण आपली छे. आप्रमाणे छे. तेनी स्त्री त्रिशला ते वैशालीना राजा चेटकनी मळी आवतो अर्थविरोध, एम सायीत करे छे के बहेन हती. अने आ विदेहना राजवंशमा उत्पन्न वैशालिकनो खरो अर्थ शो करयो ते संबंधी स्पष्ट थवाथीज ते वैदेही अगर विदेहदत्ता कहेवाती हती. संप्रदाय नहीं मळी आन्यो हशे; अने तेथी, अर्वा- मारा यत्किचित् जाणवा प्रमाणे चौद्ध ग्रंथोमां चीन जैन विद्वानोनां कृत्रिम अर्थयोधनो तरफ वैशालीना राजा चेटकनो उल्लेख थएलो नथी. पं. यापणे दुर्लक्ष आपत्र उचित छे. वैशालिक शब्दनो रंतु ते ग्रंथोमां एवी हकीकत तो वांचवामां आवे स्पष्टार्थ 'वैशाली निवासी' एवो थाय छै अने छ के वैशालीन राज्यशासन एक अमीर मंडळने कुण्डग्राम वैशालीनुं पर होवाथी महावीरनु ते नाम सोपवामां आव्युं हतुं अने ते मंडळनो अध्यक्ष एक वास्तविक गणी शकाय छे-जेम टनहामग्रीननो राजा हतो. राज्यमा अन्य सत्ताधारी तरीके मात्र रहेवाशी लण्डनर (Loniloner) तरीके ओळखाय एक राजप्रतिनिधि (Viceroy) अने वीजो सेनापति छ तेम. ज्यारे आ प्रमाणे कुण्डग्राम वैशालीन एक हतो. लिच्छविओना आ अजाययी भरेला राज्यतं. पलं मात्र हतुं, त्यारे एपण स्पटज छ के ते गामनो नी झांसी जैन ग्रंथोमां पण आपणने थई शके छे. राजा पण वधारेमां वधारे एक नानो सरदारज निरयावली सत्रमा एक वर्णन छ के-ज्यारेचम्पामा होचो जोईए. जो के जैनो पोताना अनुरागावि- राजा कृणिक उर्फे अजातशत्रुए चेटक राजा क्यने लईने, सिद्धार्थ एक खरेखर प्रबळ राजा हतो उपर मोटी सेना लई हुमलो करवानी तैयारी करी, एम कल्पी तेनी राजलक्ष्मीनो घणांज देदीप्यमान त्यारे चेटक राजाए काशी, कोशल, लिच्छवियो अने आदर्शभूत वर्णोमां चितार आपे छे खरा; परंतु अने मल्लकियोना १८ संयुक्त राजाओने एकत्र तेमनां वर्णनामांथी अलंकारोना आमरणो उतारी करी, तेमने पूछयु के तमारो अभिप्राय कूणिकनी लीधां पछी ए सत्य सहेलाईथी प्रकट थई जाय छे मागणीओने पूरी करवानो छे के तेनी साथे युद्ध के सिद्धार्थ एक मोटो राजा नहीं पण मात्र अमीर करवानो छ? आ सिवाय एक एचो पण उल्लेख हतो. अने ते आ प्रमाणे:-सिद्धार्थने अनेक स्थळे मळी आवे छे के, महावीरना निर्वाण वखते, आ मात्र क्षत्रियज कहेलो छे, तथा तेनी पत्नी जेनुं नाम १८ राजाओए ते प्रसंगनी यादगीरी माटे एक त्रिशला हतु, तेने पण हमेशा क्षत्रियाणी तरीकेज उत्सव उजवानो ठराच को हतों. परंतु, आ वर्णवेली छे. ज्यां सुधी मने स्मरण छे, तेने देवी ठेकाणे चेटकनो, के जेन ए सर्वे राजाओनो महा. तरीफे क्यांए लखी नथी. तेमज ज्ञात्रिक क्षत्रियो राजा तरीके बतायवामां आवे छे तेनी, पृथक् पण दरेक स्थळे तेओ सिद्धार्थना समान पदवाळा नामनिर्देश थएलो नी. आधी संभावित छे के चटक होय तेवी रीते वर्णवामां आव्यां छे नहीं क तेना - (सिद्धार्थना) सामंतो अगर तावेदारो तरीके. आ १ जुओ कल्पसूत्रनी मारी आवृत्ति, पृ. ११३. अहीं हकीकतो उपरथी एम मालुम पडे छे, के सिद्धार्थ चेटकन महावीरना मामा तरीके जणावेलो छ. राजा न हतो, तेम ते पोतानी जातिनी नेता पण न २ जुओ कल्पसूत्र, जिनचरित्र, ६११०, आचारांग २, हतो; परंतु, पूर्वीय देशोमांना जमीनदारो अने तेमा १५, १५. पण खास करीने देशना प्रतिष्टित उमरावो जेटली ३ Turnour in the Journal of the Royal सत्ता भोगवे छे तंटली सत्ता धरावनारो ते एक Asiatic Socicly of Bengal, VIJ, p. 992. क्षत्रिय हतो. छत्तां पण ते तेनी साथेना अन्य सर- ४ Ed. Warren, p. 27. दारो करतां बधारे लागवगवाळो हतो, एम कही ५ जुओ कल्पमूत्र, जिनचरित्रा. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन साहित्य संशोधक [ भाग. पण अन्य अढार संयुक्त राजाओ जेवो मात्र एक महावीर तथा बुद्ध-बन्नेए प्रकटरीते पोतपोताना भागीदार राजा हतो अने तेलना जेटलीज ते कुइम्बनी सहायता अने लागवगनो उपयोग कर्यो सत्ता भरावतो हतो. तथा, ते उपरांत तेनी सत्ता हतो. तेमना बीजा प्रतिस्पर्धिोनी अपेक्षाए तेमनो वैशालीनाराज्यशासनथी नियन्त्रित हती. आथी आ- अधिक उत्कर्ष थवामां केटलेक अंश देशना प्रतिपणे समजी शकीए छीण के प्रथम तो चेटकनो प्र- ठित कुटुम्बो साथे तेमनो जे विशिष्ट संबंध हतो, भावए कांई विशेषनहीं हतो,अने बीजं तेनो पण उप- ते पण एक मुख्य कारण छे. योगमात्र बौद्धोना प्रतिस्पर्धी पवा जैनोना पक्षमांज पोताना मातृपक्षद्वारा महावीर, मगधना राजवथयो हतो; तेथी बौद्धोए तेनो उल्लेख को नहीं शसाथे पण सगपण धरावता हता; कारण के होवो जोईए. जैनोए तेनी स्मृति कायम राखी, तेनुं चेटकनी चेल्लनो नामनी पुत्रीन लग्न, राजगृहमा कारण ए छे के, ते एक तो पोताना तीर्थकर महा. वसता, मगधना राजा सेणिय-बिम्भिसार अथवा वीरनो मामो थतो हतो अने बीजं ए धर्मनो ते बिम्बिसारनी साथै थएलु हतुं. जैनो अने बौद्धो आश्रयदाता पण हतो. आ चेटक राजानी लाग- बन्नेएं आ राजानी, महावीर अने बुद्धना मित्र तथा वगने लईनेज वैशाली जैन धर्मर्नु एक संरक्षण आश्रयदाता तरीके स्तति करी छे. परंत सेणियना स्थान बन्यु हतु अने तेथीज बौद्धोए तेने पाषंडी- पुत्र कुणिक अथवा तो बौद्धोना कहेवा प्रमाणे ओना एक मठ तरीके जणाव्यु छे. ____ अजातशत्रु-जे वैदेही राणी चेल्लनाना पेटे अवमहावीरना कौटुम्बिक संबंधनुं आ निरूपण तयाँ हतो, तेणे पोताना राज्यना प्रारंभकाळमां करवामां मारो हेतु कांई कुतहलरूप नथी, जो बौद्धो तरफ कांई पण सहानुभूति बतावी न हती; तेम होत तो तो हुं आ स्थळे ते संबंधी सघळी परंतु ज्यारे बुद्धना निर्वाणना आठ वर्ष बाकी रयां ऐतिहासिक हकीकत-पछी ते गमे तेटली नजीवी हतां त्यारे ते वद्धनो आश्रयदाता बन्यो हतो. ते होत, भेगी करत. परंतु कौटुम्बिक संबंध विषयक वखते पण ते सद्भावपूर्वक बुद्धधर्मानुयायी थयो आमाहीती अपवातुं खास कारण ए के के ते द्वारा हतो तेम तो आपणे मानी शकता नथी. कारण ए आपणे महावीरनी सफळतानी प्रामिन रहस्य शोधी छे के जे माणस खल्लीरीते पोताना पितानुं खून शकीए छीए. महावीर तथा बुद्ध ए बन्ने कृष्णसंबंधी दंतकथा १ जुओ, वॉरननी निरयावली सूत्रनी आवृत्ति पृ. २२. बौद्धो चेल्लनाने वैदेहाना नामे ओळखे छे. तिवेटना बद्ध चरिओमां वर्णवेला यादवो जेवा तथा वर्तमानकालीन त्रमा तेनु नाम श्रीभद्रा आपलं छे के जे आपणने चेटकनी रजपूतो जेवा एक जातना जागीरदार लामंत मंडळमां जन्म्या हता. आवी जातना जागीरदार मी सुभद्राना नामर्नु स्मरण करावे छे. See Schiefnसामन्त मंडळोमा कौटुम्बिक संबंधो घणा मजबुत er in Me'moires de l'Acade'mi'e Impe'riअने चिरस्मरणीय होय छे'. ale de St. Pe'lersburg, lome IV, p. 258. __ आपणे स्पष्ट जाणीए छीए के युद्ध मुख्यत्वे करीने २ घणुं करीने ते मात्र सेणिय अथवा श्रेणिकना नामेज अमीर वर्गनेज पोतानो उपदेश आपता हता, भोळखाय छ, तेनुं पूरूं नाम दशाश्रुतस्कन्धमां आपलं के जैनो पण प्रारंभमां ब्राह्मणो करतां क्षत्रियोने ऊंचा जुआ वेबर, Ind. Stud. XVI, p. 469. मानता हता. पोताना मार्गनो प्रसार करवामां, ३ आ बन्ने नामो एकज व्यक्तिवाचक होय तेम लागे छे. कारण के बौद्ध अने जैन ग्रंथकारोना कथनानुसार ते उदा. १जैनो महावीरना सगाओनां नामो तथा गोत्रो जणा- यिन अथवा उदयभद्दक-जे जैन अने ब्राह्मण ग्रंथामा ववामांज मात्र चोकस जणाय छे. तेश्रो तेमना संबंधी वीजु जणाव्या प्रमाणे पाटलिपुत्रनो वसावनार हतो तेनो-पित कोई विशप लखता नथी. कल्पसत्र, जिनचरित्रो १०९, इतो. २ जो कल्पसूत्र, जिनचरित्रो १७ अने १८, ४ वैौद्धो पण ए हकीकतवाळी विस्तारयुक्त कथा आप Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ अंक..) डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना फरनारो होय तथा मातामह साथे लडाई लडनारो युद्ध कर्यु हतुं आ राजा महावीरनो मामो होवाथी होय तेवो माणस अध्यात्मशानने माटे वटु उत्सुक अने तेथी जैनोनो संरक्षक होवाथी, एना उपर पने ते असंभवत लागे छे. धर्मपरिवर्तन करवामां करेली चढाईना परिणामे जैनोनी सहानुभूतीने ते तेनो वास्तविक शो उद्देश हशे ते आपणे सहे. खोई वेठो हतो. आथी पछी तेणे जैनोना प्रतिस्पर्धी लाईथी अनुमान करी शकाए छीए. तेनो उद्देश्य बौद्धोना पक्षमांभळवानो निश्चय.कर्यो हतो; के जे बीजो कोई नहीं पण जेम तेना पिताए पोताना बौद्धोने पोताना पिताना मित्रो होवाना सबवे प्रथम राज्यमां (मगधमां) अंगदेशनो उमेरो कर्यो हतो तेणे त्रास पण आप्यो हतो. तेम तेने पोताना तायाना मुलकोमा विदेहन उमे- आपणे जाणीए छीए के अजातशत्रु एक तो वैशारवानो हतो. आ कारणथी तेणे प्रथम विवेहनी लीने जीतवामां सफळ थयो हतो तथा पोजु तेणे जि जातिने तावे करवानाटे-काढी मुकवा माटे नन्दो अने मौर्योना साम्राज्यनो पायो नांख्यो इतो. नहीं-पाटलिग्राममा एक किल्लो बंधाव्यो हतो अने आवी रीते मगधसाम्राज्यनी सरहद वधवाथी जैन भाखरे पोताना मातामह वैशालीना राजा साथे अने बौद्ध ए वन्ने धर्मो माटे एक नवं क्षेत्र खुल्लु --------- --- --- थयु हतुं अने तेथी तरतज तेोते क्षेत्र उपर प्रसरी छ: जुभो, Kern, Der Buddhisrus und sein गया हता. ज्यारे बीजा केटलाक संप्रदायो मात्र Geschichte in Indien, I, p. 219 [p. 195 of स्थानिक अने अचिरस्थायी महत्त्वज प्राप्त करी the original],अने तेज प्रमाणे जैनोए पण निरयावलीमा अटकी गया हता; त्यारे ए बन्ने धर्मों आटली मोटी एं हकीक्त आपली छे. सफलता मेळववा समर्थ . थई शक्या हता तेनुं १ जुओ उपर. मुख्य कारण बीजं कोई नहीं पण आ मंगलकर २ महापरिनिव्वान सुप्त १. २६. अने महावग्ग ६, २५, राजनैतिक संयोगज हतो. - नीचे कोएकमां महावीर-अथवा तो अत्यारे आपणे तेमने जैनोना तीर्थकर तरीके नहीं संबोधता होवाथी, कहेयूँ जोईए के वर्धमान या शातपुत्र-ना सगाओनो पारस्परिक संबन्ध चताववामां आवे छे. सुपार्थ सिद्धार्थ त्रिशला उर्फे विदेहदत्ता चेटक सुभद्रा वैशालीनो राजा नदिवर्धन वर्धमान सुदर्शना बिम्बिसार चेल्लना स्त्री यशोदा कणिक उर्फे अजातशत्रु पुत्री मनोज्जा जमालि साथे परणी . उदायिन पाटलिपुत्रनो क्सापनार, पुत्री शेषवती अहीं मारो इरादो महावीरनुसंपूर्ण जीवन-चरित्र १ पाल तथा प्रारुतमा नातपुत्त. बौद्धो सेमने निगआपवानो नथी परंतु मात्र केटलीक एवी विगतो ण्ठनातपुत्त अर्थात् निम्रन्यज्ञातृपुत्र कहे छे. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैन साहित्य संशोधक एकत्रित करवानी छे, के जे द्वारा ते एक स्वतंत्र ऐतिहासिक पुरुष तरीके तथा aणीक महत्त्वनी बाबतोमां बुद्धथी ते एक भिन्न पुरुषरूपे सिद्ध करी शकाय. वर्धमान पोताना पितानी माफक एक काश्यप (कश्यप गोत्रना) हता. वळी तेओ, पोताना मातापि ताना मरणसुधी तथा तेनी पछी पण पोताना मोटा भाई नंदिवर्धनने पैतृकसंस्थाननो उत्तराधिकारी बनdi सुधी, गृहस्थावस्थामा रह्या हता. त्यार बाद अठ्ठावीस वर्षनी उमरे, सर्वे सत्ताधारी . ओनी अनुमती लई तेमणे दीक्षा ग्रहण करी हती. रोमन कैथोलिक देशोमां जेवी रीते नाना पुत्रोनी महत्वाकांक्षा क्षेत्र देवालय बन्युं हतुं तेवीज रीते हिंदुस्थानना नाना पुत्रोनुं ध्यान आध्यात्मिक प्रवृत्तिए खच्युं हतुं. संसार छोड्या पछी महावीरे बार वर्ष सुधी तपस्वी जीवनं गाळयुं हंतु अने ते दरम्यान तेमणे राढा नामना देशनी जंगली जातोमां पण परि भ्रमण कर्यु हतुं. तेमना आ जीवननुं प्रथम वर्ष पूरु या बाद ते अचेलके थया हता. आवी रीते सिद्धिसाधन अर्थ बारवर्ष पर्यंत करेला आत्मदमनने अंते वर्धमानने केवळज्ञान उत्पन्न थयुं हतं. त्यार बाद तेओ सर्वज्ञ तीर्थकर तरीके ओळखाघा लाग्या अने ते उपरांत जिन, महावीर विगेरे ना विरुदोधी पण संबोधावा लाग्या के जे शाक्यमुनिने पण गाडवामां आवे छे. जींदगीनां छेल्लां त्रीश वर्षो तेमणे पोताना धर्मनो उपदेश आपवामां तथा यतिमार्गनी व्यवस्था करवामां गाळ्यां हृतां. आ कार्यमां, आपणे उपर जोई गया तेम तेमने, विदेह मगध, अने अंगदेशना चेटक, श्रेणिक अने कूणिक नामना राजाओ के जेमनी साथै ते पोताना मातृपक्षद्वारा सगपणनो संबंध धरावता हता, तेमना तरफथी खास सहायता तेमज पुष्टि मंळीं हती' ए देशमां आवेलां नगरोमा तेभए पोतानी आध्यात्मिक जीवननी कारकी १ तेमना जीवनना आ विभागना संबंधमां लखाएलुं एक प्रकरण आचारांग सूत्रमां आषेलुं छे. जुनो आचारांग ( १, ८ ). [भाग १ दीना लगभग सूघळा चातुर्मासो तेमणे ए प्रदेश मां आवेलां नगरोमांज गाळ्या हतो. केटलीक वखते.. आ देशोनी पश्चिममां आवस्ती सुधी अने. उत्तरमां हिमालयनी तळेटी लगी पण तेओ पोतानुं परिभ्रमण लंबवता हता. तेमना जे मुख्य ११ शिष्यो गणधरो तरीके ओळखाय छे अने जेमनां नामो कल्पसूत्रनी स्थविरावली (११) मां आपेलां छे ते श्वेताम्बर तेमज दिगम्बर नामना बन्ने जैन संप्रदा योने समान मान्य छे. आ बावंतो उपरांत, महा-वीरना जीवनसंबंधी जे हकीकतो जैन सूत्रोमां मळी आवेछे ते उपर, तेमज मक्खालिपुत्र गोसा - लनी साथे चालेली तेमनी स्पर्धा अने तेमां थए-' ला तेमना विजय वाळी हकीकत उपर अने अंते.. तेमना निर्वाण स्थान तरीके जे पापा नामनी नानी नगरी प्रसिद्ध थपली छे ते बाबत उपर आपणे विचार करवानी जरूरत छे. आ बधी बाबतो उपर विचार करवामां आपणे मात्र जैनोनीज परंपराओ उपर आधार राखवानो छे, एम नथी. आमांनी केडलीक वाचताना संबंधमां बौद्ध ग्रंथोमांथी. पण उल्लेखो मळी आवे छे. तेथी ते प्रमाणीने पण लक्ष्यमां राखवानी जरूरत छे बौद्ध ग्रंथोमां महावीरने तेमना सुप्रसिद्ध नाम ' नातपुत्त ' थी उल्लेखेला छे अने तेमने निग्गण्डो ( जैन यतिओ ) ना नायक तरीके तथा बुद्धना एक प्रतिस्पर्धी तरीके जणावेला छे. ए प्रथोमां तेमना विषयमा जो कोई भूल थपली होय तो ते फक्त तेमना गोत्रना संबंधमां छे. तेमना गोत्रनुं नाम, बौद्ध ग्रंथोमां अग्निवैश्यायन आपलं छे, जे वास्तविक्रमां महावीरना सुधर्म नामे शिष्यनुं गोत्र हतुं. बौद्ध ग्रंथका अथवा भ्रांतिथी शिष्यना गोत्रने गुरुनुं गोत्र लख्यं छे महावीरनिर्वाण बाद तेमना गणधरोमांथी मात्र आ सुधर्म गणधर ज एकला विद्यमान रह्या हता वैशाली, १२; मिथिला, ६; राजगृह, १४; भद्रिका, २३ - १ जुओ कल्पसूत्र, जिनचरित्रो, $१२२, चम्पा, ३ आलभिक, १; पणितभूमि, १; श्रावस्ती, १; पापा, १, पणितभूमि, श्रावस्ती अने कदाच आलभिका आ त्रण शिवाय उपरनां सघळां स्थळो, उपर निर्दिष्ट थएल लणं राज्योनी सरहदोनी अंदरज आवेलां. हतां... Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना अने तेओ तेमना पछी युगप्रधान बन्या हता.महा- पत्नीनुं नाम यशोदा हतुं अने बुद्धनी पत्नीनं नाम वीर बुद्धना समकालीन हता, अने तेथी, बिम्बिसार, यशोधरा हतुं. आ यने नामो लगभग सरखां तेना अभयकुमार अने अजातशत्रुनामे थे पुत्रो, ज छे. महावीरना मोटाभाईन नाम नन्दिवर्धन लिच्छविओ अने मल्लो, तथा मक्खलिपुत्र गोसा- हतुं अने बुद्धना ओरमान भाईनुं नाम नन्द हतुं. ल आदि ते बन्नेना समकालीन पुरुपो पण एकज बुद्धनु कुमारावस्थानु नाम सिद्धार्थ हतुं अने महा के आ नामो बन्ने धर्मनां पुस्तकोमा वीरना पितार्नु नाम पण तेज हतुं.परंतु आ जातना आपणने मळी आवे छे. आपणे उपर जे ऊहापोह नामसादृश्यथी जो कोई पण बावत सिद्ध थती करी गया छीए ते उपरथी सिद्ध थयुं छे के वैशा- होय तो ते एटलीज छे के क्षत्रिय जातिमा जेम लीमा महावीरना अनुयायिओ घणीज मोटी सं- हमेशां वपराय छे तेम ते वखते पण आवा प्रका. ख्यामा रहेता हता, तेवा उल्लेखो बौद्ध पिटकोमाथी, रनां नामो मोटा प्रमाणमां वपराता हशे.' वळी मळी आवे छे. आ बाजु जनभ्रंथोमांथी पण एवां बीजी पण एक बाबत छ, के आ बन्ने क्षत्रियोण पा. प्रमाणो मळी आवे छे के महावीरनुं जन्म स्थान वैशा. ताना संप्रदायो ब्राह्मण सत्ताना विरोधीरूपे अथ. लीना समीपमांज हतं; तथा ते राजधानीना मुख्य वा तेना तिरस्काररूपे जो स्थाप्या होय तो तेमां अधिष्ठाता साथे तेमनो खास संबंध हतो. आ वन्ने पण काई असंभव जेवू नथी. कारण के है आगळ हकीकतोने परस्पर मळवता ते एक चीजी साथे उपर जणावीश ते प्रमाणे ब्राह्मणो जेमने 'वेषधासुसंगत थई रहे छ एम स्पष्ट जणाई आवे छे. आ रिओ' (untrue) कहे तेवा त्यागीथवानो क्षत्रिउपरांत बौद्धोए जणावेला निगण्ठोना केटलाक यो माटे घणो वधारे संभव हतो. . सिद्धान्तो. दाखला तरीके किरियावाद अने बुद्ध अन महावीरना जीवननो भेद बताववा पाणीमां जीव होवानी मान्यता विगेरे-जैनग्रंथोमा माटे हवे आपणे, ते बन्ने पुरुपोना जीवननी मुख्य पण तेवाज रूपमा मळी आवे छे अने अंते, नातप. मुख्य बीनाआने साथ साथै मूकी विचार करीए. त्तना निवाणना स्थळ तरीके, बौद्ध ग्रंथोमा बुद्धनो जन्म कपिलवस्तुमा थयो हतो अने महावीर जणाबेली पापापुरी पण जैन ग्रंथोना उल्लेखानुसार वैशालीनी पासे आवेला एक गाममा जन्म्या हता. यथार्थ ठरेछ, ज्यारे वुद्धनी माता तेमना जन्म पछी तरतज मरण पामी हती त्यारे महावीरना मातापिता महाधीरनी - महावीरना जीवननी आ रूपरेखाने बुद्धना जी- . वननी रूपरेखा साथै सरखावता, एमा एक पण पुख्त उमर थतां सुधी विद्यमान हतां. बुद्ध पोताना नानी यातीमां अने तेमनी मरजी विरुद्ध त्यागी एवी.बावत नथी जणाई आवती के जेना विषयमां पवी शंका उत्पन्न थई शके के प वावत बुद्धना अ बन्या हता, परंतु महावीरे पोताना मातापितान मरण थया पछी पण अधिकारी पुरुषोनी संमति नुकरणं रूपे पाछळथी उपजावी काढवामां आवी लई दीक्षा स्वीकारी हती. बुद्ध छ वर्ष सुधी तपहशे. आम होचा छतां पण आ वन्ने महापुरुषांना करी हती अने महावीरे बार वर्षे लगी करी जीवनमा जे केटलुक साधारण सादृश्य जोवामा बढे तपश्चर्यामां वीतेला पोताना कालने पाछआवे छे तेनुं कारण तो बन्नेनुं त्यागी जीवन छे. एवां जीवनीमा केटलीक साधारण समानताओ मळी पाना ध्येयनी प्राप्तिमां आवी जातनी तपश्चर्यानी ळथी वृथा (फोगट ) गएलो मान्यो हतो; तथा । आवे ते घणुंज स्वाभाविक छ. अने आची समानता को उपयोगिता नथी, एम पण जाहेर कयु हतुं. एक प्राचीन हिंदु करतां अर्वाचीन युरोपीय इति परंतु महावीरे पोतानी तपश्चर्याने ध्येयप्राप्तिमाटे हासवेत्ताने घणी महत्त्ववाळी बाबत भासे तेमां अत्यावश्यक मानी हती, एटलुज नहीं परंतु तीर्थपण आश्चर्य पामवा जेवू नथी. महावीरना केटलाक सगांनां नामो पण बुद्धना सगांनां नामो साथै १. See Petersburg Dictionary, ss, vv. समानता धराये छ. उदाहरण वरीके-महावीरनी २. तपश्चर्यामां गळाएला मा बार वो, हमेशां, सिद्धत्य Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [ भाग : कर धया पछी पण तेमणे तेवी केटलीक तपस्या- पूर्वक बुद्धनो अस्वीकार कयों छे. अने एम करओर्नु अनुसरण चालु राख्यं हतुं. मक्खलिपुत्र वामां तेमने कारण मात्र सांप्रदायिक विरोधज गोसाल जेटली मोटी विरुडता महावीरना संबंध- छे. आ सिद्धान्तनी सत्यताना प्रमाण तरीके, आ मां धरावे छ तेटली बुद्धना संबंधमां धरावतो बन्ने संप्रदायोना संस्थापकोनी कथाओमा जे महजोवामा आवतो नथी. जैनधर्ममा प्रथम मतभेद त्वनी सदृशतामो उपलब्ध थाय छे, ते रजु करीशउत्पन्न करनार जमालिनु नाम बुद्धना विरोधिोनी काय तेम छे.' नामावलीमा आवतुं नथी. बुद्धना सघळा शिष्योनां प्रो. वरती या मख्य दलील के ना उपर ते. नामहाबोरना शिप्योथी जूदा प्रकारनां छे. आ मनो आखो सिद्धान्त उभो थएलो छे, तेनुं नित भिरतान' उदाहरणांमा उपसंहार तरीके अंतिम करणारा धारया प्रमाण उपरती चर्चाधी संपूर्ण उदाहरण ए पण आपी शकाय छे के वृद्ध ज्यार रीते थई जाय छे. आ सिद्धान्तने तो संभावनानी मुसिनगरमां निर्वाण पाम्या हता, त्यारे महावीर कोटिमापणस्थानआपत्रामाटेघणामजतप्रमाणो. निश्चितरूपे युद्धनी पहेला, अने पापामां निर्वाण नीआवश्यकता रहेछे.सामान्यरीते एमजोवामांयापाश्या हता. वेछे के दरेक विरोधी संप्रदाय पोताना संस्थापकना महावीरना जीवन संबंधमां अहीं सुधी करेली उपदेशो अने सिद्धन्तोने शुद्ध अने प्रामाणिक रीते चर्चा दन्यान जे जे हकीकतो वाचको समक्ष मु. समजाववानोदावो करतो होय छे परंतु ज्यारे कोई कवानां आवी छे, तेना आधारे, जैनधर्मनी उत्पत्ति संप्रदाय पोताना मुख्यधर्मना मूळ संस्थापकना बौद्धधर्मन आश्रित छ, अथवा नहीं, ते प्रश्ननुं सहे- सिवाय अन्यपुत्पने प्रमाणरूप मानतो थाय छे, लाईयी निराकरण करी शकाशे. जो के घणा खरा त्यारे ते या तो कोई एक अन्य विद्यमान संप्रदायनो विद्वानो एटली बाबतनो तो अस्वीकार नथी करता स्वीकार करे यथवा तोते एकनवोजसंप्रदाय प्रवके युद्ध अने महावीर ए बन्ने भिन्न भिन्न व्यक्तिओ तीवे छे. आविचारानुसार चालु चर्चामांआवेमांनो नहती; परंतु, तेमो, ते उपरथी उपरोक्त प्रश्ननुं वधु जो प्रथम पक्ष स्वीकारीए तो आपणे एमज मानवू निराकरण धई जतुं होय तेम स्वीकारवा तैयार पडशे के जैनधर्म कोई पण रूपमा यौद्धधर्मनी पूर्व नधी. प्रो. वेबरे 'जैनोना आगनो' उपरना पोता- अवश्य हयाती धरावतोज हतो. अने जो बीजो ना विद्वत्ता भरेला निबंधर्मा लखे छ के-'जैनो पक्ष स्वीकारीशं तो आपणे आम कल्पना करवी नात्र बौद्धधर्मना एक सौथी जूना संप्रदायरूपे हे.' पडशे के, युद्धना विचारोथी विमनस्क थएला, आ अने वळी जणाये छ के 'मारा मत प्रमाणे शाक्य- जैन यनेला वौद्धोए पोताना मूळ शास्त्रोमांथी बुमुनि बुद्धी मिन्न एवा एक महापुरुष-के जेनो दुना एकाद विरोधीने. शोधी काढी तेमां पोताना बौद्ध ग्रंथोमा युद्धना एक समकालीन विरोधी त- पाखंडी सिद्धान्तोनुं आरोपण कयु हतुं. परंतु रोके उल्लेख करवामां आव्यो छे-ते द्वारा जैनध- आ पद्धतिनुं वीजा कोई बौद्ध संप्रदाये अनुमनी स्थापना थई हती, एवा अर्थवाळी परंपरागत करण कयु होय तेम अद्यापि जणायुं मान्यताथी पण मारा सिद्धान्तेने वाध आवतो. नथी. चर्चानी खातर क्षणभर आपणे मानी नथी. परंतु आ बाबत, मने तो आथी उलटुं. एम लईए के, जे जातनो आरोप ए लोको उपर सूचवती होय तेम जणाय छे के जैनोए इरादा मकवामां आवे छे, वास्तविकमां तेमणे तेमज कयु ने प्राप्ति माटे अत्यावश्यक मनात इतो. अने सत्यारे पर हतु, ता मानन्त्रु पडश के तमन आ कार्य घणाज जे कोई साधु, सांसारिक जीवनको त्याग करी कोई एक दक्षतापूर्वक कर्यु हशे तेम करवामां तेमने पोताना स्वर्ग या नोक्षनी अमिलाया घरावतो होय छे, तेने माटे पण प्राचीन धर्मग्रंथोमां केटलेक ठेकाणे मळी आवता ना चार वरना तपयरपर्नु विधान करेलुं है, 'निगण्ठो' अने 'नातपुत्त संबंधी केटलांक उल्ले१. Indische Saudien, ITI, 210. खोनो उपयोग करी, तेमां फेरफारो करवा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. हर्मन जैकोबीनी जैन सूत्रांनी प्रस्तावना अंक २] user द्दश: क्रेटलीक नवी हकीकतों उपजा घी काढवी पडी हशे अने तेम करी तेमणे पोताना विरोधियोना जेवाज सर्वने प्रामाणिक लागे तेवा ले श्री यनाच्या शे. परंतु आ वधी अयुक्त कल्पनाओ छे. महावीरना संबंधर्मा तथा तत्कालीन परिस्थिति अने लोकोना विषयमां उपलब्ध थती जैन तेमज afa परंपराओ, परस्पर जे आटली सुंदररीते म ळती होई, एक बीजीने सुधारनारी अने पूर्ण कर नारी देखाय छे, ते बधी बावतोनो खरो खुलासा अमे बतावेली उपर्युक्त रीतेज थई शके है, अने मात्र एज के पन्ने धर्मानी परंपराओ, मुख्यरीते एक वीजाधी स्वतंत्र छ भने जे वखते एपरंपराओनुं स्वरूप निश्चित थयुं हतुं ते चखते मनातां ऐतिहासिक सत्योज तमां नोघालां है. हवे आपणे, जैनधर्मना विषयमा लखनारा विछानोने, ए धर्म अने बौद्धधर्म वच्चे जणाई आवेला सायोनो विचार करीए के जे साहइयोए ए विद्यानोना, आ यन्त्रे धर्माना पारस्परिक संबंध विषयक अभिप्राय उपर घणी मोटी असर करी है. प्रो. लेसने,' ए वन्ने धर्मोनी एकरूपताना हेतुमां चार मुद्दाम र करेला हे अने ते द्वारा तेमणे जैनधर्म बौद्ध धर्मनी एक शाखा है एम सावीत करवानो प्रयत्न कर्यो छे. अहीं आपणे ते चारे मुद्दाओन अनुक्रमे विचार करीशुं. प्रो. लेसननी पहेली दलील एछे के बने धर्माना प्रवर्तकोने जिन, अर्हत, महावीर, सर्वेश, सुगत, तथागत, सिद्ध, युद्ध, संबुद्ध, परिनिर्वृत, मुक्त इत्यादि प्रकारां एकज सरखां विरुदो या विशे. पणी लगाडेलां जोवामां आवे छे. तेथी मूळमां ते बने एकज होवा जोईए इत्यादि. आधा शब्द अल्प या अधिक प्रमाणमां वने धर्माना श्रीमां जीवामां आवे छे, एमां संशय नथी. परंतु तेमां खास ध्यान खेचवा लायक तफावत रहेलो छे! अने ते एछे के जिन अने कदाचित् श्रमण शब्दो याद करतां यारे एक धर्म अमुक विरुदोनो विशेष उपयोग करे हत्यारे तेनो प्रतिस्पर्धा (थीजो) १. Indische Alterthumskunde IV. p. 763 scg, 65 धर्म बीजा विरुदोनो प्रयोग वधारे पसंद करे छे. उदाहरण तरीके, साधारण रीने ज्यारे बुद्ध, तथागत, सुगत अने संबुद्ध या विशेषणो शाक्यमुनिने हमेशां लगाडवामां आवेलां होय छे, त्यारे महा. वीर माटे तेमनो प्रयोगं क्वात् ज थपको होय छे. वर्धमाननां विरुदो तरीके वीर अने महावीर शब्दनो ज हमेशां प्रयोग करवामां आव्यो छे. मा करतां पण अधिक भेद सूचक एक विशेषण तीथेकर छे. आ शब्दनो अर्थ जैन ग्रंथोमां 'धर्मप्रवर्त क' एवो थाय छे. परंतु बौद्ध ग्रंथोमां ते शब्द पासंडीमतना संस्थापकना अर्थमा परापलो छ. थ प्रमाणे, आ यने संप्रदायोप उक्त विशेषणसं. ग्रहमांथी अमुक अमुक विशेषणाने जे खास रीते पसंद करी लीलां जोवामां आवे छे ते उपरथी वातविक्रमां आपणने फयुं अनुमान करवानुं कारण मळे छे ? शुं आपणे एम मानवु के जैनोए ना शब्दो बाँडो पासेश्री लीधा है ? हुं एम नथी मानी शकतो. कारण ए छे के जो आ शब्दो एक चखत अमुक विरुदरूपेज नक्की थई चुक्या होय अथवा तेनी व्युत्पत्ति उपरथी निकळता अर्थ करतां कोई खास अर्थमां रूढ थई गया होय तो ते शब्दोनो या तो तेज रीते स्वीकार थई शके अगर तो अस्वीकार थई शके. परंतु जे शब्द एक वलत अमुक खास अर्थ सुचक बनी गयो होय, तेने, वौद्धो पासेधी नारा जैनोप, फरी तेना असल अर्थमां चापर्यो हतो एम मानवुं तद्दन अशक्य छे. आ यावतनो स्वाभाविक खुलासा तो एज थई शके के दरेक कालni as मानसूचक विशेषणो तथा नामो प्रचलित होय छे अने ते विशिष्ट गुणधारी पुरुषोने लगाडवामां आवे के. आi विशेषण तथा गुणवाचक नामी ते बलते पण प्रचलित छतां आ शब्दोनो वधा संप्रदायो ना मूळ अर्थमां, विशेपणरूपे प्रयोग करता हता. आ शब्दोमांना केटलाक शब्दोने, तेमां रहेकी अर्थ शक्ति अनुसार बधा संप्रदायोग पोताना धर्मप्रवर्तको माटे पसंद कर्या हता अने आ पसंदगीमां तेश्रो शब्दनी अर्थशक्ति तरफ तो जोऩाज हता! परंतु साथे साथे तेओ ए बाबत तरफ पण जोता हवा कथा शब्दने पोताना कया प्रतिस्पर्धी मत Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक - [भाग १ पाळाओए तेमनी सर्वोत्कृष्ट ब्याक्त माटे पसंद कर्यो धर्मप्रवर्तकोने देवरूपे मानता-पूजना होवा छे. उदाहरण तरीके, तीर्थकरशब्दनो व्युत्पत्त्यर्थ जोईए. आथी निश्चितरूपे एम केम कहीं शकाय के धर्मनो स्थापनार एटले धर्मप्रवर्तक एवो थाय छे. जैनोए पोतानी आ वायत विषयक आचार-विचारी अने तदनुसार जैन तथा अन्य संप्रदायोए तेज बौद्धो पातेथीज लीधा हता पण वीजा पासेथी अर्थमां तेनो प्रयोग करेलो छे परंतु बौद्धोए तेने ते नहीं? आथी विरुद्ध एम तो कहेवाने कारण छे के अर्थमां न वापरतां प्रतिस्पर्धी या पाखंडी मतना बद्धना उपदेशमां एवं काई पण तत्त्व जोवामां आ. आचार्यना अर्थमां वापयर्यो छे, अने तेम करी तेमणे, वतुं नथी जेथी तेमना अनुयायियोने वुद्धना मंदिजेओ ते शब्दमे मानसूचक अर्थमां वापरता हता रो वांधवा माटे अगर तेमनी मूर्ति स्थापित. तेमना तरफ पोतानो द्वेप व्यक्त को छे. आवीरीते करवा माटे प्रोत्साहन मळी शके. तेमना उपदेशोधीजा दाखलामां, बुद्ध शब्द सामान्य रीते, मुक्त मां एवी तो घणीक यावतो अवश्य नजरे पडे छे अर्थात् बंधरहित थएला आत्माना अर्थमां वपराय के जे आवा प्रकारनी भक्ति-पूजा-अचानी छे: अने एज अर्थमां जैन ग्रंथोमां ते शब्दनो प्रयोग (अर्थात मूर्ति पूजानी) पद्धति तरफ विरुद्धता धतो अद्यापि दृष्टिगोचर थाय छे. परंतु बौद्ध ग्रं- बतावती होय छे. परंतु जैनाना विषयमा आवू काई धोमां ए शब्द खास तेमना धर्मप्रवर्तकना विरुद कारण बतावी शकाय तेम नथी. तेओ जो पोता सपेरुद्धथएलो छ. आ हकीकत उपरथीए अनमा- नातीकर महावीरने देवस्वरूपे पजे तो त याए अनुमा- ना तीर्थंकर महावीरने देवस्वरूपे पूजे तो तेमां ते. न सहज थई शके छ के जे समयमा बौद्धोनी सां- ओ पोताना सिद्धान्त विरुद्ध वर्तन करे छे, एम प्रदायिक परिभाषा निर्णीत थई ते वखते तेओ कही शकाय तेम नथी. खरी रीते आ विषयमा प्रकटलपे जैनोना प्रतिपक्षिमओ लेखाता होवा जो मार पोतानुं स्वतंत्र मानवें तो एवं छे के । ईए. आथी उलहं, एटले जैनोए जे वखते पोतानी असली बौद्धधर्म या जैनधर्मने मूर्तिपूजा साथै परिभाषा स्थिर करी ते वखते तेओ यौद्धोना प्रति- कांड संबंध नहीं होवो जोईए.कारण के मूर्तिपूजानी पक्षीरूपे प्रसिद्ध नहीं थएला होवा जोईए. उत्पत्ति निर्ग्रन्थो द्वारा नहीं पण गृहस्थो द्वारा थए बुद्धधर्मनी पूर्वकालिकताना पक्षमा, प्रो. लेसनबी- ला छे. तेनी उत्पत्तिनुं कारण पण ए लागे छे के जी दलील एरजु करे छे के, ए वन्नेधर्मोमांमृत्युशील ज्यारे भारतना धर्मविषयक विकासक्रममां भाक्त मनुष्योनी अर्थात् मनुष्यरूप धर्मप्रवर्तकोनी देव एक मोक्षना मुख्य साधन तरीके मनावा लागी तरीके उपासना करवामां आवे छे, तथा तेमनी त्यारे लोकोने पोताना प्राचीन अणघड (जंगली) मूर्तिओने मंदिरोमां पूजवामां आवे छे, इत्यादि. देवी-देवताओनी प्रचलित पूजाथी असंतोष रहेवा चौद्धधम अने जैनधर्म सिवाय एवो अन्य कोई लाग्यो अने तेथी तेमणे केटलाक उच्च प्रतिना पण संप्रदाय, के जेनो संस्थापक, महावीर उपास्योनी पूजा करवानी प्रथा शरु करी. खरी वृद्धनी माफक, पोताने सर्वज्ञ अने सर्वथा कृतकृत्य वस्तुस्थिति आवी होपाधी चैत्यस्थापन तथा मूर्तिकरडावतो हतो,आपणी प्रत्यक्ष जाणमां आती पूजामा बौद्धोने पुरोगामी अने जैनोने तमना अनुशके तेटला समय सुधी टंकी शक्यो नयी पी कर्ताओ न मानता, मारा विचार प्रमाणे, आ बन्ने आपणने ए क्न्ने धर्मों सिवाय आ वावत संप्रदायोए स्वतंत्र रीतेज हिंदु लोकोना धार्मिक प्रत्यक्ष उदाहरण मळी शके तेम नथी. तो पण, जे " विकासना शाश्वत अने अनिवार्य प्रभावने वशथई यीजा जुना संप्रदायोना विपयमां आपणने आ प्रथा स्वीकारी हती, एम मानवू जोईए. . ज्ञान मळेलं छे ते उपरथी एम अनुमान करी शकाल आ बन्ने संप्रदायो वञ्चेनी समानतानी त्रीजी य छे के घणा भागे ते सघळा संप्रदायो, अने तेम दलील, ए वन्नेमा सरखी रीते मळी आवता अहिं. नहीं तो छेवटे तेमांना केटलाक तो अवश्यमेव, साना सिद्धान्त विषयनी छे, आ दलीलनी चर्चा दौद्धो भने जैनोनी माफक पोताना तीर्थकरो- भागळ उपर करवामां आवशे तेथी अही हुँ प्रो. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक २] डॉ. हर्मन जेकोधीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना लेसननी चोथी दलील उपर आ छु. ते दलील ए बौद्ध भिक्षुना दश शीलो नीचे मुजब छ:छे के बौद्धो तेमज जैनो बन्ने जगतना इतिहासमुं हुं प्राणीनी हिंसा न करवानुं वत लउंछु. परिमाण बतावामा एटली मोटी काळसंख्याओ २९ चोरी न करवानुं बत लउंछु: घापरे छे के जे समर्थमां समर्थ कल्पनाशक्तिने ३हुं अब्रह्म-अपवित्रताथी विरमवार्नु नत लउंछ. पण आंजी नाखे छे अने त्रस्त करी दे छे. इत्यादि. ४ हुं असत्य न बोलवानुं व्रतल छु, अलबत, ए वात तो खरी छे के आ विषयमा ५ हुं प्रगति अने सदाचारनुं प्रतिबन्धक एy जैनो बौद्धोने पण पाछळ पाडी दे छे. परंतु, आ मद्यपान न करवानुं व्रत लडं छ. प्रकारनी कालगणनामां जैनो मात्र वौद्धोनेज मळता ६हं निपिद्ध काले भोजन न करवानुव्रत लउंछं. आवे छे एम कांई कही शकाय नहीं. ब्राह्मणीनां ७ हुं नृत्य, गान, संगीत अने नाटकोथी विरक पण आ बावतमा तेवांज वर्णनो आपणने मळी थवानुं बत लडं छु.। आवे छे. जैनांनी कालगणनात्मक पद्धतिनां परि- ८हुं हार, सुंगंधी लेपन तथा अलंकारो न वापमाणो, ब्राह्मणो तेमज बौद्धो बन्नेथी सरखी रीते रवानुं व्रत लउं छु. जुदां पडे छे. जैनोना उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी- ९ हुँ ऊंची अगर पहोली पथारीनो उपयोग नहीं रूप कालचकनी तथा ते दरेकना छछ आराआंनी करवातुं नत लांछं. कल्पना जेटले अंशे वौद्धोना चार महाकल्पो तथा १. हुं सुवर्ण तथा चांदीनो परिग्रह न करवान ८० नाना कल्पो के जे विश्वना क्रमथी थता सर्ग व्रत अंगीकार करुं छु. अनं प्रलयरूपी नाटकना अंको तथा दृश्यो जेधा आ उपरांत बौद्धधर्ममा अष्टांग शीलो ( अदंग. लागे छे, तेमनी-कल्पनाथी भिन्न छे, तेटलेज अंशे सील ) मानेला छे. तेमांना पहेलां पांच दरेक ते ब्राह्मणांनी युगो अने कल्पानी कल्पनाथी पण बौद्ध आचरवानां छे; परंतु छेल्लो त्रण खास करीने भिन्न छे. मारो एवो मत छे के बौद्धोनी कल्पना धर्मिष्ठ गृहस्थीने तो अवश्य पाळवा माटे भला. ते ब्राह्मणोनी युगपद्धतिनुं संस्कारित रूप छे अने मण करेली छ. ए अष्टांग शील आ प्रमाणे :जैनांना उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणारूप कालचक्रनी १. हिंसा न करवी. कल्पना ब्रह्माना दिवस अने रात्रिनी कल्पनाने २. चोरी न करवी. आधारे उत्पन्न थएली छे ३. असत्य भाषण न करवू. ४. मद्यपान न कर. प्रो. लेसननी त्रीजी दलीलनी चर्चा उपर मुलतवी राखबार्नु कारण एटलुज हतुं के ते दलील ५ ब्रह्मचर्य पाळg -(अधर्म्य एवी परलीसंग न करवो.) आहंसाना सिद्धान्त विषयक होवाथी तेने, ए बन्ने ६. समयविरुद्ध रात्रिए भोजन न करg. धोना अभ्य नीतिविषयक विचारी साथे धधारे सारी रीते चर्चवानी आवश्यकता है. प्रो. घेवरे' पा ७. हार, चंदन आदे सुगंधी पदार्थो धारण न करवा. जैनोना पंचमहाव्रतो अने बौद्धोना पांच मुख्य पापी ८. जमीन उपर मान सादडी पाथरीने खूछु, मन शालोनी वच्चे खास निकटवर्ती संबंध बताव्यो । चौद्धानां पांच व्रतो, नीचे आपेला जनयतिओनां छ; अने प्रो. विन्डिशें (Windisch) जैनोना । पांच महावतो साथे लगभग मळतां आवे छे:- . पंच महाव्रतोनी, बौद्धोनां दश शीलो ( दससील) ' साल) १. अहिंसा--प्राणीनी हिंसा न करवी. साथे सरखामणी करी छ. . ३. अस्तेय-नहीं आपेलुं न लेg. १. Fragment der Bhagavati, II, pp. . 175, 185. १. Rhys Davids, Buddhism, p. 160. २. Z. D. M. G.XXVIII, p. 222, note. २. Rhys Davids, Buddhism, pg. 139. - ---.. . २. सूनृत-जूकुं न बोलवं. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक भाग . ४. ब्रह्मचर्य-स्त्रीसंयोगथी विरमg. लीधां होयां जोईए: नहीं के बौद्धो पासेथी. एम ५. अपरिग्रह-दुनियादारीनी चीजोमां आसक्ति मानवानुं वौजु एण एक कारण छे, अने ते ए के, न करवी. खास करीने ममत्वभावनो त्याग बौद्धोए सत्यवतने वीलु स्थान न आपतां श्रीजु करवो. ___ अगर चोथु स्थान आप्यु छ, अने तेम करी तेमणे जैनोनुं पांचमुं व्रत, बौद्धोना पांचमा शील करतां व्रतोना पुरातन कपने बदल्यो छे. वळी, जैनो पधारे व्यापक छे. परंतु वाकीनां व्रतो. लहेंज क्रम- बोद्धो करतां घणाज प्राचीन अने अधिक प्रतिष्टितं भेद सिवाय (जेमके वौद्धोना नं. ५-४) सरखांज एवा ब्राह्मणोना संन्यासावरणने सूकी बौद्धोना छे. आ बन्ने धर्मोनां व्रतोनी वच्चेनुं सास्य खरे- आचरणर्नु अनुकरण करे ए मानg पण असंभवित खर एटलं बधुं अद्भुत छ, के सामान्य रीते पम लागे छे. सहजे अनुमान थई जाय छ के, आ बेमांथी एक आ स्थळे जगाववं जोईए के, आ त्रणे धर्मोमां धर्मभाळाए बीजा धर्ममाथी पोतानां तो लोधां पांचसं व्रत, पोतपोताना आचारने खास अनुलहोवां जोईए. परंतु तेम छतां पण ए प्रश्न तो क्षीने वनाववामां आव्युं छे. जेम के ब्राह्मण सन्याउभोज रहे छे के असलमा आ व्रतो जैनोए बौद्धो सिने पांच त्याग (उदारता ) व्रत एवं छे के जैन पासेथी लीधेलां के बौद्धोए जैनो पासेथी? वास्त- अगर बौद्ध भिक्षना आचारो तरफ जोतां, स्वाभाविक रीते विचार करतां जणाय छे, के आबावतमा विक रीतेज ते तेमना माटे विहित थई शके तेवू जैनो अथवा बौद्धो-ए बेमांथी कोई पण एक संप्र- ल नथी. महावीरनी पूर्वे जैनधर्ममां चार दाय मौलिकतानो दावो करी शके तेम नथी. कारण महावतो पाळवामां आवतां हतां अने हालतुं चोथु के आ बन्ने बाए प्राचीन ब्राह्मण धर्मना संन्या- नाते वखते पांचमा व्रतमा अन्तर्गत थतुं हतुं. सिओन जे पांच व्रतो हतां तेनोज स्वीकार करेली ला परंतु महावीरे फरीथी आ चार व्रतनां पांच व्रत छ. ब्राह्मण संन्यासिनां पांचवतो नीचे प्रमाणे छ: बनाव्यां हतां बीजी तरफ चौद्धो पण पांच शीलो १. अहिंसा. माने छे. ते उपरथी एम जणाय छे के पूर्वे आ पा२. सत्य, चनी संख्याने खास रीते पवित्र मानवामां आ३. अस्तेय. वती हती. ४. ब्रह्मचर्य, उपर्युक्त चर्चाना परिणामे आपणे ए स्पष्ट सम५. त्याग: अने पांच गौण व्रतो: जी शकीए छीए के जैनो तथा बौद्धोना भिक्षुसंप्र. ६. क्रोध न करतो, दायनो मूळ आदर्श कोण हतो? ए आदर्श ब्राह्मण ७. गुरुनी आज्ञामा रहे. धर्सनो संन्यासी-संप्रदाय हतो अने एमाथीज ते८. अनौद्धृत्य. ओए पोत पोताना यतिजीवन माटे घणाक महत्वना ९. शौच, आचारी तथा नियमो लीधा हता. आ प्रकारतुं १०. आहारशुद्धि. मारुं अनुमान कांई खास नवीन नथी. प्रो. मेक्स संन्यासिनां उपर्युक्त पांच मोट बोगस मूलरे अत्यार आगमच पोताना Hibbert Lect. लो चार व्रतो जैन भिझुनां चार व्रतोने मळतां ures (पृ. ३५१) मां एवो विचार प्रदर्शित कों आवे छे. अने क्रम पण एकजसरखो छे. आथी संभ- सना अनवादमां तथा प्रो. केने पोताना भारतीय छे अने तेज प्रमाणे प्रो. बहलरे, पोताना बौधायन वित छेके जैनोए पोतानां तो ब्राह्मणो पासेथी बौद्ध धर्मना इतिहास (History of Buddhism १ बोधायन २,१०, १८, जुओ, बुल्हरनो अनुवाद _in India) मां पण तेवोज अभिप्राय आपेलो छे. Sacred Books of the Masi, "Vol. XIV हवे हुँ जैन साधनं जीवन केटले अंशे ब्राह्मणधर्मपृ. २७५. ना संन्यासी-जीवनना अनुकरणरूपे छे ते बताववा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह२] डॉ. हर्मन अकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना माटे गौतम अने बौधायन धर्मसूत्रमा' आपला महावीर गाममां एक रात अने नगरमां पांचरातर्थ. संन्यासीना नियमोन जैन यतिधोना नियमो साथे वधारे क्यारे पण रह्या न हता. सरखावी वतावत्रा इच्छु छु. घणीखरी बारत'मः १. 'तेणे मोडेथी (लोकोप भोजन करी लीधां बौद्धो पण एज नियमोने अनुमरेले तथापि नेनो पछी ). भिक्षा मा जर्बु जाईए. तथा वीजी वार पण यथावसरे संक्षेपमा सूचना करवामां आवश जब न जाईए. जैन साधुओ सचारे अगर बपोरे ११. संन्यासीए कोई पण प्रकारनो संग्रह भिक्षा अर्थे भ्रमण कर छ. तेम करवामां कदाच करवो जोईए नहीं." (गौतम धर्ममत्र ) जैन तेमनो उद्देश पोताना प्रतिस्पर्धी भिक्षओना समातेमज बौद्ध भिक्षुओने पण एची कोई पण वस्तु गमना प्रसंगने दुर रासवानो हश. खास कराने तो राखवानो निषेध करवामां आव्यो छे के जेना माटे तेओ दिवसमां एकज वार भिक्षा माटे जाय छे. तेने 'आ वस्तु मारी छ' मम कहेवोनो प्र- परंतु एकथी वधारे उपवास करेला साधुन दिवसंग आवे.-सुश्री जैनोनुं पांचU (अपरिग्रह ) प्रत. समां ये वखत पण जवानी छट आपेली छ. जैन भिक्षु वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि ले केटली- १६. (मिष्टान्न माटे) सर्वे लिप्साआनो नेण क वस्तुओ पोतानी पासे हमेशा राखे छ तेने पण त्याग करवो जोईए.' आज वायत जनोना पांचमा तेश्रो पोतानी मिलकतरूप राखता नथी. परंतु महाव्रतना चोथा पेटा वाक्यमां पण विसंहत करफक्त धमक्रियाना आचरण माटे आवश्यक साध- वामां आवेली छे .त उपरांत, भिक्षामां ग्रहण अने नो (धमापकरणी) मानी तना स्वीकार कर छ अग्रहणनी बाबतना ज नियमो छत उपरथी पण १२. 'ब्रह्मचर्य (न तेणे पालन कर, जोईप)' आज आशय तारवी काय छे. वोधायननी माफक जैनोनुं पण आ चो, महावत १७. 'तेणे पोतानी वाणी, दृष्टि (अने) कों छे. धौन्द्रो एने पांचमुं प्रत माने छे. उपर अंकुश राखयो जोईए.' आ धावत जैनोनी १३. 'वर्षाऋतु दरम्यान तेणे एकज स्थळे त्रण गुप्तिओ, अर्थात् मन, वाणी,अने कायानां संयवास करवा जोईए 3 आ सूत्र उपरनी पोतानी मननी साथे लगभग एक भाव धारण करे छे. टिप्पणीमां बुहलर लखे छ के-'आ नियम उपरथी १८. 'तेणे नग्नताने ढांफवा खातर घन पहेरनु. एम सूचित थाय छे के बौद्धो तथा जमोना वस्सो वस्त्रोना संबंधमा जैनांना नियमो आटला बधा (वर्षावास) पण ब्राह्मणोना (था वतना) अनुक- सादा नथी; ते पोताना यतिने नग्न रहवा माटे छट आपे छ तेसज एक रणरूपे छे. एक, बे तथा त्रण सुधी वस्त्रो नया , १४. मात्र भिक्षा लेवाने अर्थेज तेणे गाममा वापरवानी पण छूट आपे छे. परंतु सशक्त अने प्रवेश करवो जोईए. ' आ बाबतमा जैनो आटला युवान साधुने नियमपूर्वक एकज वस्त्र चापरवानुं चधा सख्त नथी. तेओ साधुने गाम अगर नगरमां विधान करेल छे. महावीर तो नग्नज रहा हताः सूवानी पण छूट आप छे. तथापि घणा लांबा वखत अने तेथी बने तेटलं तेमतुं अनुकरण करवामां सुधी रहवानो तो तेमने पण निषेधज करेलो के. - १ कल्पसूत्र, जिनचरित्र, ११९. १ जुओ, पहलरनुं भापनिर, Sacred Books of २ बौधायन, २, ६, १२, २२. the East, Vol. II, pp. 191,192. अहीं आपेला ३ कल्पसूत्र सामाचारी, २०. अंको गीतमना त्रीजा अध्यायना सूत्रोने अनुसरीने छ । ४ आचारांग सूत्र, २, १५,५,६ १५. बौधायननां तेने मळतां सूत्रो टिप्पणीमा सूचवेला छे. ' ५ कल्पसूत्र, जिनचरित्र ११८. २ सरखावो, बौधायन २, ६, ११, १६. ६ बौधायन, ]. C. ६१६. ४. ३. बौधायन २, ६, ११, २०. ७ आचारांग सूत्र २,५,1,१. ४. आचारांग सूत्र २, २,२, ६. “ कल्पसूत्र, जिनचरित्र ११७, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [ भाग छूट हती. तत्पर एवा जिनकल्पी साधुओ पण नग्नज रहेता २२. 'तेणे या तो शिर मुंडावयु जोईए. अगर हता. एम छता. तेभोने पण नग्नता ढांकवानी एक शिखा मात्र राखधी जोरए.' जनोग आ नियमने सुधारो पोताना साधुओ माटे मात्र १९. 'केटलाक ( एम जणावे छ के तेणे) जाण- आलुं मस्तक मुंडाववानोज विधि करेलो छे. बौधावन धोईन (पहेरचं जाईप).' बांधायना' यननी' अनुसार संन्यासी बनती वखते ब्राह्मणे जणाव्यु छ के, 'लेणे वस्त्रन पीत-रक्त वर्णधी रंगीने 'पोताना माथाना, दाढीना तथा शरीरना वाळ पहेरवं जोईए.' आ नियम जैनोना करतां चौद्धाना कढावचा जोईप तथा नख पण उतराववा जोईए.' नियम साथ वधारे मळतो आवे छ. कारण के जैनो पण दीक्षा लेती वखते वाळ कपाववाना आ जैन यतिओने नो वस्त्रोने धांवानो अगर रंगवानो बाचारनु अवश्य पालन करे छे अने आयोज निषेध करेला छ. तेमणे तो जे स्थितिमा जे वस्त्र मुंड बनीने ( अगर पोताना वाळ उखेडी नाखीने) मळ्युं होय तेज स्थितिमां तेने पहेरबानुं छे. तेम अगार छोडी अनगार स्थितिमा प्रवेश को.'' छतां पण कहे जोईए के जैनो ब्राह्मणोना ए आवो उल्लेख सर्वत्र थएलो छ. नियमना--के जेनो भावार्थ मात्र एटलोज छ के २२. 'तेण धीजोनो नाश नहीं करवो जोईए.' संन्यासिओनो वेश वनी शके तेटलो सादो अने वांचनार आचारांगना वीजा स्कंधना घणा सूत्रोमां शुद्र होवो जोईए, तेना-मूळआशयन पराकाष्टानी जोई शकश के अंड, जीव, वीज. अंकुरादिने हानि सीमाए घसडी गया छे.जैनो पोताना आचारनी न थई जाय, ते माटे जैन भिक्षुने केटलो वो. कठोरताना विषयमां ब्राह्मण प्रतिस्पर्धियोने पाछळ सावचेत रहेचानी भलामण करवामां आवी छे. पाडी देवामां एक प्रकारनुं गौरव समजता होय एम जणाय छ के जैनोप. उपर्युक्त नियमने वनस्पतेम देखाय छे. थने तेथी तेओ मलिनता अने ति भने प्राणिवर्गना सघळा सूक्ष्मजीवोने लागु कुत्सितताने यतिजीवन- परम भूषणे मानवानी पडे तेवो एक व्यापक नियम बनाव्यो छे. भूल करे छे. आर्थी विरुद्ध बौद्धो हमेशां पोताना २४. । तेणे सघळा ) जीवो प्रत्ये उदासीनता आचारने जेम बने तेम मानव-समाजना बंधारणने राखवी जोईए. पछी ते जीवो गमे तो तेमा प्रति अनुकूल बनाववा प्रयत्नशील रह्या छे. मायाळूपणुं धरावता होय के क्रूरपणुं.' २०. 'तेणे वृक्षो अथवा छोडवाओना भागोने २५. 'तेणे ऐहिक अगर पारलौकिक कल्याणलेवा नहीं. परंतु जो ते (पोतानी मेळे ) ज़दा थई माटे कोई पण प्रवृत्ति करवी जोईए नहीं.' . गया होय तो ते लेवामां बाध नथी । जैनोनो पण छेल्ला ये नियमो तो जैनोना कोई पण आगमतेवोज नियम छे; परंतु तेओ आथी पण आगळ मांधी अक्षरशः वतावी शकाय तेवा छे. कारण के वधीने पोताना यतिओ माटे फक्त तहन अचित्त ते जैनधर्मना तत्वता सलमत है. महावीरे आ वनस्पति अने फळ इत्यादिनेज भिक्षामा लेवानी नियमोन यथार्थरीते परिपालन कर्यु हतुं. आना छूट आपे छै. प्रमाणमां नीचेना उल्लेखो बस थशेः 'तमना (महा२५. वर्षाऋतु सिवाय तेणे (एकज) गाममां बेरात वीरना) शरीर उपर चार मास करतो आधिक रहे नहीं. 'आपणे उपर जोई गया छीए. तेम समय पर्यंत अनेक प्रकारना प्राणिओनो टठ जान्यो महावीरे तो आज नियम प.ळ्यो हतो. पछी अन्य हतो; तेओ, ते उपर हरता फरता हता अने विविध साधुओए गमे ते रोते तेनुं आचरण कर्यु होय. क्लेशो आपता हो.''तेमणे हमेशां त्रिगुप्तिपूर्वक १ आचारांग सूत्र १,५,७,.. तृण,शीत, अग्नि,माखी,मशक आदिथी जनित अनेक २L.C.६२१. ३ आचारांग सूत्र २,५, २, १, अने १, ७, ५, २. १ बौधायन, २, १०, १७, १०. ४ सरस्खायो, भाचारांग सूत्र. २, २, २, .. २'मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वाए' ५आचार्गग २, १,५, ६, भने । मुंअध्ययन, . ३ आचारांग सूत्र,,१, २, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना अंक २] प्रकारनां कष्ट सहन कर्या हतां." "तेमणं देव, मनुष्य अने तिच जनित अनेक अनुकूल तेमज प्रतिकूल नावां लगताथी सहन कर्या, खम्या नया अनुभव्याहर्ता' इत्यादि, जनयतिना संबंधमां एम पण वारंवार कहेवामां आवे छे के ते पोताना आध्या त्मिक जीवननी चरम अवस्थामां' मरण या जीवित एवम निराकांक्षी होय छे." बौधायने आपला वीजा केटलाक नियमो पण जैनोना आचारो साथै घणाज मळता आवे छे. जे मर्क:-' तेण वचन, विचार अने कर्म ए त्रणं प्रकानां कष्टदायक साधनों द्वारा कोई पण सर्जित जीवनी हिंसा करवी जोईए नहीं." आ नियम जैनोना प्रथम महाव्रत ( बुआ उपर ) नुं एक स्पष्टी करण मात्र छे आ 'कायक साधनाने ' जैनां शस्त्र कहे छ. ५ 'ते शौचादि कर्म माटे अपेक्षित जळने गळवा सास बन राखनुं जीईए ' ' तेथे ( आवश्यक ) शौ. चादि ( कुवा अगर तळावांची ) काढला अनं गळेला पाणीश्री करवां जीईए." आ नियमोनुं जैन साधुओं यथार्थ पालन करे छे. तेओ पाणी गळ वा माटे ग्यास चत्र राखे छे टीकाकार गोविन्द, श्रा पवित्र, पटले पाणी गळ्वाना वयखंडनो अर्थ 'मार्ग उपरथी जंतुओंने दूर करवा माठे राखेलों कुश जानना तृणनो एक गुच्छ,' एम करे छे. ७ गोविन्दना बतावेली आ अर्थ जो यथार्थ होय अने तेना प्रमाणमा जी कार्ड साची अने प्राचीन परंपरा रहेली होय-अने ते मारा मानवा प्रमाणे तो अवश्य होवीज जोईए-तो जैन साधुओं मार्गमां चालती वन वच्चे आवता तथा बेसती चखन नीचे आवता जीवजंतुओने दूर करवा माटे जे रजोहरण अथवा पादोन राखे के तनुं प्रतिरूप ब्राह्मण १. आनागंग सूत्र १, ८, ३, १. २ कल्पसूत्र, जिनचरित्र, ११७, अंतिमभाग. ३. उदाहरण तरीके कल्पसूत्र सामाचारी $ ५१. ४. यौवायन २, ६, ११, २३. ५. आचारांग सूत्र, पृ १, नोट २. ६. बौधायन २, ६, ११, २३. ७. जुओ प्रो. चुल्हरनं भाषांतर पृ. २६०, टिप्पण. ८३ ग्रंथोमां पण मळी आये है; एम आपणे अहीं जणा वी शकी. ' ब्राह्मण संन्यासिजीवननां उपकरणी तरीके दण्डो (यष्टिकाओं ), रज्जु, पाणी गाळचामादे वस्त्र खंड, जलपात्र अने भिक्षापात्र छे" जैन साधुओ पण दण्डी राखे छे-अत्यार तो अवश्य राखे छे. परंतु बौद्धों तरफ दृष्टि करनां. पिटकांमां एवो एक पण उल्लेख मारा जोवामां आव्यो नथी के जेमां यटिका राखवा मांडे स्पष्ट विधान करवामां आयु होय. जैन साधुओं पण ब्राह्मण संन्यासियोनी माफक भिक्षापात्र अने तेने बांधचानी एक दोरी तथा जलपात्र राखे छे; पाणी गळवा माटे वस्त्रखंड अने रजाहरण था वे वस्तुओं राखवा संबंधी उल्लेख तो आनी पहेलां ज आपण करी आव्या छीए. जैन साधुनुं जो कोई पण एवं खास उपकरण होय के जे अन्य संन्यासिओ पासे नहीं देखा होय, ते त मनी एक मात्र मुखवस्त्रिका (मुहपत्ती ) छे. आ वधी हकीकत उपरथी जणाशे के जैनानां घणां खरां उपकरणो, तेमना माटे आदर्शरूप चनेला एवा ब्राह्मण संन्यासिन अगर भिक्षुभोनां जेवांज छे. तेणे तेज अन्न लेवं जोईए के जे विना माग्ये मळेलुं होय, जेना संबंधमां पहेलां कांई व्यवस्था थपली म होय, जे अकस्मात्ज मळी गये होय, अने से फक्त पोताना जीवितने टकाचवा परतुं ज होय. 3 जैनधर्मना 'भिक्षाचर्याना नियमो वांचवाथी सहजं जणाई आवे तेम छे, के, ब्राह्मण संन्यासिभ माटे अन्नग्रहण करवा संबंधी ज जातना नियमोनंबौधायने उपर प्रमाणे विधान कयुँ छे, तेज प्रका. रना नियमो प्रमाणे मळला आहारने जैनोप पण 'शुद्ध अने ग्राह्य' मान्यो छे. बौद्धो आ विषयमां आटला वधा सख्त नथी. तेओ तो खास करीने , बौधायन २, १०, १७, ११. २. जो के भिक्षापात्र उपरांत साधुने जलपात्र राखवानी पण छूट अपेली छे सरी तथापि एकज पात्र रासं अधिक उत्कष्ट मनाय छे. २. बौधायन २, १०, १५, १३. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैन साहित्य संशोधक [भाग १ तेमना माटेज तैयार करवामां आवेला भोजनना बौद्ध धर्मनी उत्पत्तिनी पूर्वे थई गया छे. कारण आसंत्रण सुद्धांनो स्वीकार करे छे. के, मो, बुल्हरना मत प्रमाणे आपस्तम्ब सूबनी ब्राह्मण संन्यासी अने जैन यति माटे विहित करे. रचनानो काळ मोडामा मोडो ई. स. पूर्व पांचमी ला नियमोनी जे तुलना आपणे उपर करी छे, ते अगर चोथी शताब्दीमा मृकयो जोईए.' बौधायन उपरथी ए स्पष्ट जणाय छे के जैनोना नियमो ते ते आपस्तम्बनी पूर्वे थपलो छे. अने डॉ. ब्राह्मणोनी नकल मात्र छे. परंतु अहीं ए प्रश्न थाय बुरहरना२ कहेचा प्रमाणे ते बन्ने बच्चेना छ के 'निग्रंथ 'ए सीधी रोते (साक्षात् ) ज वोर्नु अंतर दशकथी नहीं परंतु शतकथी संन्यासीनी नकल छ के यरंपरापूर्वक ? केम के मापवा जेटलं छे. गौतम ए बौधायनथी पण एवो पण तर्क थई शके तेम छे के ब्राह्मण संन्या- पूर्वकालीन छ. आ हिसाबे गौतम, अने घणुं करीने सिनी प्रथम बौद्धोए नकल करी हशे अने बुद्धभि- बौधायन पण, बौद्धधर्मनी उत्पत्तिनी पूचे थई अनी, पाछळयी निथोप. परंतु हुँ जेस उपर गएला निश्चित थाय छे. हवे उपर वर्णवेला ब्राह्मण सूचची गया हुं तेम ओ तर्क प्रमाणशून्य छे. कारण संन्यासमार्गना सघळा नियमो तो खास गौतम के वधारे प्राचीन अने प्रमाणभूत आदर्शने छोडी, द्वाराज बांधवामां आवेला छे तेथी ते मार्गन योजैनो अल्पप्रतिष्ठित अने नकली एचा पोताना प्रति- धोनी नकलरूपे मानयो ए प्रत्यक्ष भूल छे. धारो के स्पर्धी बोद्धार्नु अनुकरण करे ६ असंभवित छ. उक्त धर्मशास्त्रोनी रचनाना समयना विषयमा आथी एज कहेदु वधारे योग्य जणाय छे के तेमणे प्रो. वुलहरे करेलु कथन कदाचित् खोटुरे; तो मीधी रोनेज ब्राह्मणानुं अनुकरण कर्यु हतुं. आ एण ते धर्मशास्त्रो वौद्धधर्मनी उत्पत्ति पछी लैकामुख्य दलील उपरांत, प्रस्तुत प्रश्न विरुद्ध श्रीजी ओ बीत्यां वाद रचायां हता, एम तो कोई पण रीते पण ए एक दलील छ के--उपर जणान्या प्रमाणे सिद्ध करी शकाय तेम छेज नहीं. तथापि मानो केटलाक ब्राह्मण आचारानु ज्यारे जैनोए अनु- के, कदाचित तेम पण सिद्ध करी शकाय-जी के करण कयु छ त्यारे बौद्धोए तेस कयु जणानुं नथी तेम थर्बु तो सर्वथा असंभावितज छे-तो पण आ तेथी एम साबीत थाय छे के बौद्धो जैनोना आद- स्मृतिकार ब्राह्मणो पोते जेमने आधुनिक कालमा शसत विल्कुल हता नहीं. उत्पन्न थएला मानता होय तथा जेमने मिथ्यामतिमहीं एक पत्रो पण वितर्क उठवानो संभव रहे ओमानी तिरस्कारता होय तेवा बौद्धो पासेथी छे के ब्राह्मण संन्यासीज जैन निर्मथ अथवा बौद्ध मोटा प्रमाणमा पोताना भाचार-नियमो ग्रहण करे, भिक्षुनी नकलरूपे फेम न होय ? परंतु आ वितर्क ते सर्वधा अशक्य वाबत छे. तेमज नास्तिको पातदन प्रगाणविरुद्ध छे. संन्यासमार्ग ब्राहाणोनो सेथी पोते लीधेला नियमोने ब्राह्मणो एटला बंधा आश्रम व्यवस्थानुं एक खास अंग छे. अने आ पवित्र मान ए पण नहीं मानवा जेवी यायत छे. आश्रम व्यवस्थाने कदाचित् ब्राह्मण धर्म जेटली परंतु, आधी उलटू. बौद्धोपज ब्राह्मणोना नियमानु प्राचीन न मानीए तो पण जैन तथा बौद्ध धर्मथी अनुकरण कर्यु हतुं, एम मानवू यनियुक्त अने तो नेने अवश्य प्राचीन मानवी पडे तेम छे. वळी प्रमाणसंगत लागे छे. कारण के ब्राह्मणोनी बुद्धिब्राह्मण संन्यासिओ ज्यारं आखा भारतवर्षमा प्रस. विषयक अने नीतिविषयक उत्कृष्टताने माढ़े चौद्धो रेला हता, त्यारे बौद्धो तेमना संपनी स्थापना हमेशा ऊंचो अभिप्राय धरावता अने ते बदल यहु या पछी, निदान प्रधमनी व शताब्दीमा तो, मान करता हता. एज कारण के के जैना तेमज तेओ मात्र देशना एक अमुक भाग जेवा संकुचित बौद्धोए ब्राह्मण ए शब्दने एक मानसूचक बिरुद प्रदेशमांज देता हता. तेथी आखा देशमा संन्या- -- सिआ माटे नेओथादशभुत वन्या होय एम मानवू introdnction, p. ALIII. 9. Sacred Laws of the Aryas, part 1, सर्वथा प्रमाण शून्य छे. त्रीजी वावत वळी ए छे २... c. p. XIII. केवारण धर्मशालना कर्ता गौतम निश्चितरूपे ३L. c. p. 19. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] तरीके स्वीकारेलो छे, भने ब्राह्मणेतर जातिना पुरुपोने माटे पण तेमणे तेनो प्रयोग करेलो छे. स्थळे जण जोई के जनो तेमज बौद्धोनो भिक्षमार्ग, ब्राह्मणोना संन्यासमार्गना अनुकरण रूप होवा छतां, ते मूळमां तथा मुख्यरीते क्षत्रियो माटेज योजाएको हतो. प्रो. ओल्डनवर्गना दर्शा· व्या मुजब बुद्धे प्रथम पंकिमां उमराव अने अमीर लोकोनेज स्थान आप्यं हतं. कारण के, बनारसमां आपला पोताना प्रथम उपदेशमां, बुद्धे पोताना धर्म - ना संबंधां हतुं के ' यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पव्वजन्ति जेने माटे कुलीन जातिना पुत्रो घर छोडीने अनगारता स्वीकारे छे. ३ डॉ. हर्मन जेकोवीनी जैन सूत्रांनी प्रस्तावना जैनो पण ब्राह्मणो करतां क्षत्रियोने उच्चकोटिना मानता हता, ए बाबत, महावीरना गर्भसंक्रमना संबंधमां जे एक आश्चर्यभरेली पुराण कथा प्रसिद्ध क्रेते उपरथी सावीत थाय छे. ते दंतकथा एवी छे h - महावीरनो गर्भ देवानंदा ब्राह्मणीनी कुक्षिमांथी त्रिशला क्षत्रियाणानी कुक्षिमां फेरववामां आव्यो हतो. अने ते करवानुं कारण मात्र एटकुंज वताववामां आव्युं छे के ब्राह्मणी अगर अन्य कोई नीच जातिनी स्त्रीला उदरथी तीर्थकरनो जन्म थई शके नहीं. १ Buddha, soin Lebon, &c., p. 157 secy. २. महावग्ग १, ६, १२. ३. दिगंबरी आ दंतकथाने युक्तिशून्य कही, एनो अस्थीकार करे छे. परंतु श्वेतांवरो तेने दृढतापूर्वक साचा जणावे छे. आ दंतकथा आचारांग तथा कल्पसूत्र आदि घणा प्रथमां मळी आवे छे, तेथी तेनां प्राचीनतग्मां तो आपणने शंका रहती नथी. परंतु ए कांई स्पष्ट समजातुं नथी के कया कारणधी आयुक्तिशून्य दंतक्म्या उत्पन्न थई लोकमां प्रचार पामी हो ? आ अंधकारप्रस्त प्रश्न उपर मने जो अभिप्राय आपवानी छूट होय तो, माई तो एवं मानवु छे के सिद्धार्थने ब्राह्मणी देवानंदा - जे महावीरनी साची माता हती ते भने क्षत्रियाणी त्रिशला एम वे स्त्रीओ हती. पहेली स्त्रीना पति तरीके बताश्वामां आवतुं ऋषभदत्तनुं नाम घणुं प्राचीन होय तेम लागतुं नधी. कारण के जो ते प्राचीन होय तो तेनुं प्राकृत रूप 'उसमदत्त ' थवाने बदले प्रायः 'उसभदिन' एवं ८५ वीजी वाजुए जोतां ब्राह्मण संन्यासिओ प पोताना जेवाज परम आस्तिक ब्राह्मणेतर जातीय संन्यासिओने स्वसमान उच्च कोटिना न होता मानता. कारण के पाछळना समयमां एवो मत प्रचलित थपलो स्पष्ट देखाय छे के ब्राह्मण सिवाय अन्य कोई वर्णने चतुर्थ आश्रमनो अधिकार हतो नहीं आ भतना प्रमाणमां, प्रो. बुल्हरना जणाववा प्रमाणे, मनुनो ६, ९७ मो श्लोक बताववामां आवे छे. परंतु, भिन्न भिन्न टीकाकारोना अभिप्राया तरफ दृष्टिपात करतां, आ श्लोकना अर्थना संगधमां वधा टीकाकारो एक मत थता जगाता नथी. तेथी आ विवादग्रस्त उल्लेखने बाजुए मूकीए तो थ जोईए. विशेपमां, आ न म पण एक जनने छाजे तेवु छे; ब्राह्मणने छाजे तेवुं नथी. तेथी मारुं तो एम चोक्कस मानवुं धाय छेके पमदत्त ए फक्त जैनाए देवानंदाना बीजा पति तरीके एक कल्पी काढलो पुरुष छे. आपणे जाणीए डीए के सिद्धार्थ पोताना विशला साधना लमद्वारा अनेक ऊंची पदवीवाळा अने मोठा प्रभाववाळा पुरुषो साथै संबंध धराक्तो हतो. तेथी कदाचित् एवो विचार तेन उत्पन्न भयो होय, तो ते संभावित छे के महावीरने त्रिशलाना सपत्नीसुत तरीके प्रसिद्ध करवाने वदले औरस पुत्र तरीके जो जाहेर करवामां आवे ता वचारे लाभदायक बायत बनशे, कारण के तेम करवाथी, महावीर त्रिशलानां प्रभावशाली सगओना आश्रयनो हकदार बनी शकशे. आ दंतकथा लोकोमां विश्वासपात्र पण घणजि सहेलाईथी मनाई गई हो. कारण के महावीर तीर्थकर तरीके प्रसिद्धिम आव्या तेनी पहेलां घणां वर्षो अगाउ तेमनां मातापिता गुजरी गयां हर्ता. परंतु खरी वस्तुस्थिति लोकोनी स्मृतिमांधी, सर्वथा लुप्त नहीं थरे होय तेथी पाळधी गर्भसंक्रमनी आ कथा उपजानी काटवामां भावी हशे . आ कल्पनाना मूळ उत्पादक जैनो नधी. तेमणे तो मात्र देवकीनी कुक्षिमांथी रोहिणीनी कुक्षिमां थरला रुप्णना गर्भसंक्रमनी पौराणिक कथानुं स्पष्ट रीते अनुकरण कर्यु छे. आ उपरथी एम पण जणाय छे के जैनधर्मना विका सनी प्रथमनी सदीओमा कृष्णनी उपासना लोकप्रिय थई रही हती. कारण के जैनोए पोताना वावीशमा तीर्थकर अरिष्टनेमि जे एक प्रसिद्ध यादव हता, तेमनुं चरित्र लखवामां फेटलाक फेरफार सिवाय कृष्णनुं असुं जीवन यथार्थ रीते आलेखी दोधुं छे. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक ८ पण पटलं तो स्पष्ट देखाय छे के पाछळना समयमां ए विचार तो खास रूढ बनी गयो हतो के चारे मनो अधिकारी एक मात्र ब्राह्मण वर्णज होई शके छे. क्षत्रियो माटे त्रण, वैश्यो माटे वे अने शूद्र माटे फक्त एक आश्रमनो अधिकार जणाववामां आव्यो छे' आळी हकीकत उपरथी ए विचार तो निश्चित लागे छे, के प्राचीन काळमां पण ब्राह्मणेतर संन्यासिओ, ब्राह्मणसंन्यासिओथी एक जुदाज वर्गना तथा पृथग्भूत मनाता हता. अने तेथी आपणने एम मानवानुं कारण मळे छे के ब्राह्मणेतर संन्यासिओनी आ प्रकारनी अवस्थाने लईने एवा संप्रदायोनो जन्म थयो हतो के जेमणे ब्राह्मणधर्म सामे पोतानो प्रकट विरोध जाहेर कर्यो हतो. आवाज कारणने लईने वेशधारिओ - पाखंडिओ उत्पन्न थया हता वो भाव वशिष्ठना कथन उपरथी पण तारवी शकाय छे. त्यां एम जणावेलुं छे के केदलाक सं न्यासिभए धार्मिक क्रियाओ ( विधिओ ) करवी छोडी दीधी हती अने वळी केटलाके तो आथी पण आगळ वधी वेदमंत्रोच्चारण पण छोडी दीधुं हतुं. आ प्रकारे क्रियामानं उल्लंघन करनाराओने उद्दे शीने वशिष्टमां नीचे प्रमाणेनुं कथन करेलुं छे, के 'भले कोई मनुष्य सघळी धार्मिक विधिओनुं अनुछान छोडी दे परंतु वेदमंत्रोच्चारण तो तेणे कदापि न छोड़वं जोईए. कारण के वेदनी उपेक्षा करवाथी शूद्र थवाय छे. तेला माटे तेणे तेम करडं नहीं. ' आटला बधा भारपूर्वक करेला प्रतिबंध उपरथी सहज अनुमान थाय छे के आधुं क्रियानुष्टान एक वखतेखरेखर बंध थयुंज हशे. वळी आ उपरथी जो आपणे एटलं अनुमान करी शकता होईए के केटलाक संन्यासिओए आवी ते वेदोच्चारण- वेदाभ्यास करवो पण छोडी दीधो हशे, तो आपणे तेवं अनुमान पण करी शकीर, के बीजाभए, वेदने ईश्वरप्रणीत तथा स्वतः प्रमाणभूत तरीके मानवानो इनकार [ भाग १ पण कर्यो हशे आ विचार उपरथी ए कल्पना सहज करी शकाय तेवी छे के आ मार्ग स्वीकारनार तेज पुरुषो हता जेओ एक प्रकारना पृथग्भूत अने ब्राह्मणेतर संन्यासिओ मनाता हता. आ रीते प्रस्तुत विवेचन उपरथी एक तो आपणे ए बाबत जोई शकीए छीए के जैन अने बौद्ध जेवा विरोधी संप्रदायोना मतभेदनं वीज चतुर्थ आश्रमनी संस्थामा रहेलुं हतुं भने बीजं ए पण आपणे जोई शकीए छीए के मतान्तर धारिओए चतुर्थ आध्रमनुं अनुसरण कर्यु हतुं. आ उपरथी आपणे मानवं पडे छे के जैनधर्म अने बुद्धधर्म ए ब्राह्मणधर्ममाथी उत्पन्न थपला एक आकस्मिक सुधारा स्वरूप मतो नथी परंतु लांबा वखतथी चालता भवता एक धार्मिक आन्दोलनना क्रमिक परिणाम स्वरूप छे. wwwm man won a drun १. Maxmuller, The Hibbert Lectures, P. 343. 2 Chapter X, 1. Bubler's 'Translation, आपणे उपर जोई गया तेम, जैनोनी तेमना छैला तीर्थकर संबंधी परंपरांगत कथाओ; अथवा जैन साधुओ माटे विहित करवामां आवेला आचारो; अगर ते धर्मना श्रद्धाळु गृहस्थो माटे योजांएली धार्मिक क्रियाओ उपरथी एवं कांई पण सिद्ध थतुं नथी के जेथी आपणने एम मानवानुं कारण मळे जैनधर्म ए बौद्धधर्ममांथी निकळ्यो हतो. ए उपरांत बन्ने धर्मोना मुख्य सिद्धान्तो मां पण परस्पर एटलो बधो भेद रहेलो छे के जेथी आ बन्ने धर्मोनुं मूळ उत्पत्ति स्थान एक हशे एम पण मानी शकायतेम नथी. बुद्धे निर्वाणनी अवस्थाना संवधमां गमे तेम विचार्य अगर उपदेश्यं होय अर्थात् ते अवस्थाने या तो सर्वथा अभावात्मक बतावी होय के पछी तेने एक अगम्य अने अचिन्त्य सत्ताचाळी कल्पी होय; परंतु एटलुं तो निःसंदेह छे के तेमणे ब्राह्मणधर्मना आत्मवादनो के जे वादमां विश्वदेवतावादिओ तथा अणुचादिओना मत प्रमाणे आत्मा स्वतंत्र अने नित्य मानवामां आयो छे तेनो, स्पष्ट विरोध कर्यो हता. अने ते विरोधज ए बौद्धधर्मनी एक खास विशिष्टता छे. परंतु आ विषयनो ज्यारे जैनोनो सिद्वान्त तपासीप छीपतो, ते संपूर्णरीते ब्राह्मणमतने मळतो आवे छे. जे भेद छे ते मात्र एटलोज छे के जैनो ज्यारे आत्माने मर्यादित आकाशव्यापी माने छे; त्यारे सांख्य, न्याय अमे वैशेषिक दर्शन जेवा प्रा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २ ] ए. ह्मण संप्रदायो आत्माने सर्व विश्वव्यापी माने छेः चळी, जेवी राने बौद्धोतो असंख्य उपविभागात्मक पञ्चस्कन्धवाद ज़ैनीना अध्यात्मशास्त्रमां बिलकुल जणातो नथी, तेवी राने जैनोनो अतिविस्तृत चेतनवाद ( IIylozoistic theory ) जेवा सिद्धान्त पण बौद्धांना तत्त्वज्ञानमां दृष्टिगोचर श्रतो नधी. जैनोनो ए सिद्धान्त तेमना संपूर्ण तत्त्वज्ञान अने आचारशास्त्रमां आंतप्रोत धरलो जोवामां आव : अने ए सिद्धान्तानुसार प्राणी अन वनस्पति उपरान्त पृथ्वी, जल, तेज अने वायु जवां तत्त्वानां सूक्ष्ममां सूक्ष्म अणुओ सुद्धांने चेतनायुक्त मानवामां आवे छ. भारतवर्षना सघळा तत्त्वनानिभए सर्वक्षता अधीनी ज्ञाननी जदी जदी तरतमताओ-पायरीओ ने एक अति महत्त्वना विषय मान्यो छे. तदनुसार जैनो पण आ विषयमा पोतानी एक स्वतंत्र मत धरावे छे. अने विषयनी तेमनी परिभावा पण अन बौद्धोधी तद्दन जुदाज प्रकारनी छे ते ओए जानना नीचे प्रमाणना पांच प्रकारो मानेला छः -- ( १ ) मति - सम्यग अवबोध (२) श्रुत-मति वाद थप स्पष्ट मानः (३) अवधि एक जातनुं अतीन्द्रिय ज्ञान; (४) मनः पर्यीय-परकीय विचारोनुं विशद ज्ञान; (५) केवल सर्वोत्कृष्ट प्रकारनुं अथवा संपूर्ण ज्ञान. जैनांनो आ एक मौलिक आ ध्यात्मिक सिद्धान्त छे, अने ए सिद्धान्त तीर्थक. रोनां चरित्र लखती खते लेखकांना मगजमां हमेशां प्रधान पणे रमी रहे छे. आ प्रकारनो सिबान्त ग्रन्थमा बीलकुल जोघामां आवती नथी ए सिवाय व संप्रदायांना मुख्य सिद्धान्तो वधे नीजा पण पवा णा भेदी बतावी शकाय तेम है. परंतु ते वधानं वर्णन वांचतां कदाच वाचकने कंटाळो आव वा भयथी अमे आटलेथी ज विरमीए छीए. डॉ. हर्मन जेकोयीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावनां जैनोना जे केटलाक सिद्धान्तो बौद्ध सिद्धान्तो साथै मळता आवे छे ने तो ब्राह्मणधर्ममां पण समान है - उदाहरण तरीके पुनर्जन्मनो सिद्धान्त अर्थात् मरण पछी फरीधी जन्म धारण करवो तेः कर्मनो सिद्धान्त- अर्थात् पूर्वकृत कर्मोना धर्मा धर्मरूपी परिणामो आ भत्रमां अगर आगामी ५ ८७ जन्ममां जीवात्माने भोगववां पडे छे ते; तेमज संपूर्ण ज्ञान भने उत्तमचारित्र - के जेथी मनुष्यं भवचक्रपरिभ्रमणनो अन्त लावी शके छे तेःइत्यादि सिद्धान्तो लई शकीप. बीजो पण जैनो अने बौद्धोनो एक समान विचार छ, जेनी अनुसार एम मानवामां आवे छे के अनादि काळथी तीर्थकरो अने बुद्धो एकज प्रकारना सिद्धान्तो प्ररुपता आल्या छे तथा नए थता धर्मेन पुनर्जीवित करता आया है. ए विचार पण ब्राह्मणांना विष्णुना अवतारोवाळा विचार साथै मळतो आवे छे. परंतु, ते उपरांत, जैन अने बौद्ध ए यन्ने धर्मना एक अत्यावश्यक प्रयोजनरूपे पण था विचारनी उत्पत्ति थपली समजाय ले. कारण पछे के बुद्ध अगर महावीरे जे कांई प्रतिपादन कर्यु हतं तेने तंमना अनुयायिओ सत्य - एकमात्र सत्य मानता हता. हवे आ सत्यने पण ब्राह्मणोना वेदनी माफक अनादि काळधीज अस्तित्व धरावतुं मानवं जोईए. कारण के जो एम न मानवामां आवे तो प्रइन थशे के शुंभ सत्य तीर्थकरोना अवतारनी पूर्वे व्यतीत थई गएला अनंत काळ सुधी मात्र अज्ञातज रहयुं हतुं ? आ प्रश्नना उत्तरमां दरेक श्रद्धाळु जैन अगर बौद्ध पमज कहशे के नहीं एम बनधुं तो तद्दन अशक्य छे. ते तो एमज कहेशे के आ सत्यधर्मनी उपदेश भिन्न भिन्न काळमां उत्पन्न "थपला एवो असंख्य तीर्थकरो तथा वृद्धों द्वारा हमेशां अपातो आयो छे अने भविष्यमां पण तेवी ज रति अपातो रहेश. आ प्रमाणे भूतकालमा अनेक धर्मप्रवर्तको थई गयानो आपने धर्मानी विचार-सिद्धान्त न्यायशास्त्रानुसार एक अत्यावश्यक प्रयोजनमपे छे. चळी जनाना आ विचार सिद्धान्तने प्रमाणश न्य ठरावी शकाय तेम पण नथी. कारण के बौद्ध ग्रंथोमां कोई पण स्थळे निर्ग्रथीने एक नवीन उत्पन्न थरला संप्रदाय तरीके अथवा तो नातपुत्तने तेना संस्थापक तरीके वर्णवामां आव्या नथी. तेथी युद्धंना समयमां निर्ग्रथोनो संप्रदाय, ते प्रायः एक प्राचीन संप्रदायज मनातो हतो, एम सिद्ध थाय छ. तेमज नातपुप्त ते, वं करीने पार्श्व नामे तेघीशमा तीर्थकर द्वारा स्थापित थरला जैन धर्मना Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग १ एक मात्र सुधारक समझाता हता. परंतु आमां व ग्रंथो, छेक ई० स० नी पांचमी शदीमां,-एटआश्चर्य उत्पन्न करवावाळी वावत ए छे के जैनो लेके ए संप्रदायती स्थापना थया पछी लगभग एक तेमज बौद्धो बन्ने वर्तमान युगना धर्मप्रवर्तकोनी हजार जेटलां को व्यतीत थयां बाद, लखाएला संख्या लगभग सरखीज माने छे.-एटलेके जैनो होवाथी तेना आधारे कोई पण सबळ अनुमानकरी २४ तीर्थंकरों माने छे अने वौद्धो २५ युद्धो माने छे. शकवाना संबंधमां ते मोटी शंका धरावे छे. जैनआ मान्यताना विषयमा हुए वातनी ना नथी पाडी धर्मना संबंधमां तनो पयो अभिप्राय छे के ए संप्रशकतो, के, आमां एक संप्रदायनी वीजा संप्रदाय दायना, ते प्राचीन काळथी लई पुस्तको लखाता उपर असर नहीं थई होय. परंतु हुँपटलुं तो दृढ़ता- सुधीना समय सुधीना, स्वसंवेदित अने सतत पूर्वक कहीं शकुं हुं के आ बन्नेमांना कयाधर्मे प्रथ- एवा मस्तित्वनो-अर्थात् तेना खास खास सिद्धा म आ मान्यता शोधी काढी हती; अगर तो सौथो तो भने नौधोनी निरंतर परंपरानो-हजी सुधी प्रथम कोणे ब्राह्मणो पालेथी तेनो स्वीकार को निर्णयात्मक रीते निकाल थयो नथी. वळी ते ज.. हतो; तेनो निर्णय करवो कठण छे. कारणके यौद्धो- णावे छ के 'वी शदीभोलधी तो जैनो, तेमना मां जेम, बुद्ध-निर्वाण पछीनी प्रारंभनी ज शताब्दि- जेवा वीजा अनेक संन्यासिवर्गों के जे फक्त अप्रओमां पच्चीस बुद्धोनी उपासना दाखल थई हती, सिद्ध अने अस्थिररूपे पोतानं जीवन गाळता हता तेम चोवीश तीर्थंकरांनी मान्यता पण, महावीर तेमोथी सिन्नरूपे ओळखायाज न होता. तेथी मि. निर्वाण बाद अणुं करीने वीजी ज शताब्दिमा हुदा बार्थना अभिप्राय मुजय जैनोनी सांप्रदायिक परंपपडेला दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ए वन्ने संप्रदायोने राओ ते मात्र बौद्ध परंपराओना अनुकरणरूपे, सरखी रीते मान्य होवाथी, ते पण तेटली ज जुनी तेमणे पोतानां अस्पष्ट मने अनिश्चित स्मरणोमांधी छे. परंतु या प्रस्ननुं निराकरण करवं ते अहीं कांई उपजावी काली छे. महत्वनो विषय नथी. कारण के पूर्वकृत विवेचन. मि. यार्थनो आ मत एवा अनुमान उपर स्थिर द्वारा जे निर्णयो उपर आपणे आन्या छीए ते उपर थपलो मालुम पड़े छ के जैनो पोतार्नु पवित्र ज्ञान तेनी बिलकुल असर थती नथी. ते निर्णयो एज छे एक पेदिथी बीजी पढिने थापवामां घणाज वेदरके-(१) जैनधर्म, ए बौद्धधर्मथी तहन स्वतंत्र कार रहा हता; अने तेम रहेवामां कारण ए छे के रीते उत्पन्न थएलो एक प्राचीन धर्म छे; तेनो वि- ते घणी शदीओ सुधी मात्र एक नानो अने अनुकास पण तेटलीज स्वतंत्र रीते थएलो के तेमज पयोगी संप्रदाय हतो. मि. बार्थनी आ दलीलमा तेमां यौद्ध धर्ममांथी विशेष काई लेवामां आव्युं हुं कोई प्रकारनुं वजन जोई शकतो नथी. हूँ अहीं नथी. तथा (२) जैनो तेमज वौद्धो ए वन्नेना तत्त्व. ए प्रश्न पूर्छ के-जे धर्म पोताना थोडाक अनुज्ञान, आचार, नीतिशास्त्र, भने जगदुत्पत्तिशास्त्रनुं यायिओ बडे एक मोटा प्रदेश उपर पथरापलो सूळ ब्राह्मणो-खास करीने संन्यासिमोने आ- होय ते धर्म पोताना मोलिक सिद्धान्तो अन परंपभारी. । राओने वधारे सुरक्षित राखी शके छ, के जे धर्मने अत्यार सुधीनी आपणी सघळी वी जैनोना एक मोटा जनलमूहनी धार्मिक जरूरीआतो पूरी पवित्र ग्रंथोमांथी उपलब्ध थती परंपरागत कथा- पारधानी होय छे ते आयेमांनी कई बाबत वधारे ओनी प्रामाणिकता उपर ज चालेली छे. परंतु एक संभवित छ? जो के एकंदररीतेआ प्रकारनी हेत्वाअतिशय विशाल ज्ञानवाळा अने कुशल विचारक भासात्मक तर्कपद्धतिथी आवा प्रश्ननो निर्णय विद्वाने ए प्रामाणिकताना संबंधमां जशंका करेली थचो तो अशक्य ज छे. उपर्युक्त वे पक्षोना प्रथम छे. ए विद्वान् ते मी. बार्थ (Barthi छे. ते पोताना पक्षमा याहुदी तथा पारसीमोनुं उदाहरण रजु करी Rerue de II Histoire des Religions,Vol. शकाय हे अने वीजा पक्षमा रोमनकथोलिक धर्मIII, p. 90. मां नातपुत्त नामनी एक ऐतिहासिक नो दाखलो आपी शकाय छे. परंतु जैनो संबंधी व्यक्किनो स्वीकार करे छ खरो, परंतु जैनोना पवि. प्रस्तुत प्रश्नना वादविवादनो निर्णय करवामां भावी Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना.. जातना सामान्य सिद्धान्तो उपर आधार राखबानी नथी कहतो के आवी गुर्वावलीओ पाछकोई आवश्यकतानथी कारण के तेओने (जैनाने) लथी पण जोडी कढानी नथी के अपूर्ण पट्टापोताना सिद्धान्तोनुं एटलु बधु स्पष्ट ज्ञान हतुं के वलीओने पूर्ण, पटले हिंदुओना शब्दमां कहीए तो तमोर घणीज नजीवी वावतमां मतभेद धरावनार 'पक्की' वनावी शकाती नथी. कारण के दरेक संपुरुषोने पण निवम्प जाहर करी, पोताना श्रद्धा प्रदायने, पोतानो संप्रदाय एक प्रतिष्ठित आप्तपुरुषलुभाना विशाल समुदायमाश्री तेमने जूदा करी थी प्रामाणिकरीते उतरी आवलो छ, एम बतावधा दीधा हता. आ कथननी सत्यताना प्रमाण तरीके खातर पीतानी गुरुपरंपराना नामी उपजावी काढडॉ. ल्यूमने (Dr Le monn) प्रकट करेली श्वेता- घानी स्वाभाविक रीतेज जरूर पडे छे. परंतु कल्पम्घर संप्रदायनी सात निन्हवो विपनी परंपरा' छे. सूत्रमा एक,स्थविर,गणोअने शाखाओनी विस्तृ. तथा दिगम्बरो, जे श्वेताम्बरोथी महावीर निर्वाण त नामावली आपेली छतेने कल्पी काढवामांजैनोने पछी प्रायः बीजी अथवा त्रीजी शाब्दिमां, जुदा कोई पण प्रकार प्रयोजन होय तमहं मानी शकतो पच्या हता, तेभो कांई तेमनाप्रतिस्पर्धियो (श्वेता नथी. कल्पसूयमा जेटली विगतो आपेली छे-तेटली म्वरो) थी तात्विक सिद्धान्तोमा मोटो मतभेद पण घिगतानुं ज्ञान त्यार पछीना जैनोने रघु न हतुं. धरायता नी छतां पण आचारविपयक तेमना तेम तेथी अधिक जाणवाना तओए क्यारे डोळ केटलाक मिन्न नियमान लीधे, श्वेताम्बरोए तेमने पण को नहता. गुरुपरंपरानो नांधयोग्य यधोव्यपापंडिधोना नामे घगोव्या छे. बहार चलायवा माटे कल्पसूत्रमा आपेली संक्षिप्त __ आ सघळी हकीकता उपरथी आ वायत स्पष्ट स्थविरावली पर्याज हती. तेम छतां पग तेमा रीते सिद्ध थाय छ के जैन आगमा [ नुहालतुं स्व- आवली विस्तृत स्थविरावली-के जेमां पण केटरूप] नक्की थयां पहेलो पण जैनधर्म एवा अन्यच- लांक तो एकलां नामोज जोवामां आवे छ-ते ए या. स्थित अथवा अनिर्दिष्ट स्वरूपमा विद्यमान न हतो, वत स्पष्टरीत जणावे छ के जैनो पोताना प्राचीन के जेथी, तेनाथी अत्यंत भिन्न एवा अन्यधर्मो (द. धर्माचार्यो-स्थायरानी यादगिरी राखवामा केटलो शनो) ना सिद्धान्तो द्वारा तेनुं असल स्वरूप परि- यधा रस धरायता हता. ते स्थविरावलीमा आले. वर्तित अगर कलुपित थयुं हतं; एम मानवाने आप खेला युगो तथा धनावोनी यथार्थ माहीती तेना णने कारण मळे. परंत थाथी विरुद्ध उपर्युक्त प्र. पछी थोडीक ज शदीयोमा नष्ट थई गई हती. माणो एम तो सिद्ध करी आपे छे खगं के तेमनी परंतु, मात्र आटलं सिद्ध करी बताववाथी के सूक्ष्ममा सूक्ष्म मान्यता पण सुनिश्चित स्वरूपवाळी जैनो तेमना आगमोनुं स्वरूप नक्की थया पहेला पण पोताना धर्म तथा संप्रदायने सतत चालु रा. जेवी रीते जैनांना धार्मिकसिद्धान्तोनी वायतो खवा माटे, तेम ज अन्यदर्शनीय सिद्धान्तोना सं. आपे सिद्ध थई शके छ तेवीज रीते तेमनी ऐति- मिश्रणयोग उत्पन्न थती भ्रष्टताथी तेन यचावी सुरहासिक परंपराविषयक बावतो पण सिद्ध थई शके क्षित राखवा माटे योग्य गुणसंपन्न हता; आपणे तेवी छ. वंशपरंपराधी चालती आवती जे विविध मा विषयमां कृतकार्य थई शवाता नथी. आपणे ए गच्छोनी विस्तारयुक्त गुर्वावलीओ मळी आवे छे पण बतावी देव जरूरन छ के तेश्रोमा जे जे बाबत तथा जैन आगमग्रंथोमा जे स्थविरावलीमा उपल- फरी शकवा सामर्थ्य हतुं ते सघळू तेमणे संपूर्ण पर यताची आपे छ के जैनो पो. ते काय हतं. आचर्चा उपरथी आपणे स्वाभाताना धर्मनो इतिहास राखवामां फेटलो बधो विकरीते ज वर्तमान जैनसाहित्यना कालनी चर्चा रस धरावता हता. है एम कांड चौकस उपर भावी जईए छीए. आ विषयमां जो आपणे 9 See Indische Studien, XVI. andion. IT. आटलं सिद्ध करी शकीए के जैन साहित्य अथवा See Dr. Klatt, Ind. Ant. Val. XI. तो छवटे ते पैकी जे केटलाक सौथी प्राचीन ग्रंथो हती. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ܘܝ ܝܟܕ जैन साहित्य संशोधक छे, ते जैन पुस्तकारोहणना समयथी. घणी शदीओ पहेलां रचापला हता, तो ते द्वारा आपणे जैनोना (अंतिम) तीर्थकर अने प्राचीनमां प्राचीन ग्रंथो ए ने वना गाळाने, जो के सर्वथा दूर नहीं करी शकीर तो पण घणे अंशे अल्प करी आपना समर्थ थई शक़ीशुं .. - सर्वसंमत संप्रदायनी अनुसार जैन सिद्धान्त वलमिनी सभामां देवर्धिगणीना अध्यक्षपणा नीचे, निश्चित करवामां आव्यो हतो. आ बनाव वीर निर्वाण पछी ' ८० ( अथवा ९९३) मा वर्षे पटले. इ० स० ४५४ ( अगर ४६७ ) मां' बन्यो हतो, एम कल्पसूत्र [. १४८.] उपरथी जणाय छे. संप्रदाय एवो छे.के ज्यारे देवर्धिगणी सिद्धान्तने नष्ट, थई जवाना जो खममां जोयो त्यारे तेणे. तेने पुस्तकाधिरूढ करा. व्यो. तेनी पहेलां, आचार्यो क्षुल्लकोने सिद्धान्त शीखवती वखते लिखित ग्रंथोनों बिलकुल उपयोग करता न होता. देवर्धिगणीना समय पछी ज लिखित पुस्तकोनो उपयोग शरू थयो. आ हकीकत-तद्दन साची छे. कारण के प्राचीन समयमा पुस्तकोनो बिलकुल उपयोग थतो न इतो एम आपणने बीजी हकीकत उपरथी पण जणाई आवे छे. ब्राह्मणो तो लिखित पुस्तक करतां पोतानी स्मरणशक्ति - उपर ज विशेष आधार राखता हता. अने निःसंदेहरीते जैनोए तेमज बौद्धोए तेमनी अ आ प्रथानुं, अनुकरण कर्यु हतुं. परंतु अत्यारे जैनयतिभो -पोताना शिष्योने शास्त्र शीखवती वखते लिखित पुस्तकोनी उपयोग अवश्य करे छे.. आ उपरथी आपणे मानवुं पड़े छे के शिक्षण पद्धतिमां थपलो आ फेरफार देवर्धिगणीने आभारी छे, एम बताव नारो वृद्ध संप्रदाय तद्दन साचो छे. कारण के आ atra बहु महत्त्व होवाथी भुली शकाय तेम थी. प्रत्येक आचार्यने अथवा तो छेवढे प्रत्येक उपने पवित्र आगमोनी नकलो पूरी पाडवा माटे देवर्षिगणीने सिद्धान्तना पुस्तकोनी खरेखर १. संभवित न लागतुं होवा छतां ए शक्य. छे. के सिद्धा न्तनिर्णयनां समय आ करतां ६० वर्ष पछी एटले .. ई. स. ५१४ ( अथवा ५२७ ) होवो जोईए. जुओ वल्पसूत्र, उपोदूधात पृ. १७. [भाग १ wwwwwwww www. घणी मोटी संख्या तैयार कराववी पडी हशे. हवे देवर्धिगणीए सिद्धान्तने पुस्तकारूढ कराव्यो एवो जे लेखी संप्रदाय मळे छे तेनो भावार्थ प्रायः उपर प्रमाणेनोज होवो जोईप कारण के ए तो भाग्ये ज मानी शकाय तेवु छे के तेनी पहेलां जैन साधुभो जे कांई कंठस्थ करता हशे तेने सर्वथा नज लखता होय. ब्राह्मणो वेदनुं अध्ययन कराव वामां लिखित पुस्तकोनो उपयोग करता नथी छतां पण तेमनी पासे तेवां पुस्तको तो जरूर जोवामां आवे छे. तेओ ( ब्राह्मणो ) आ पुस्तकोने खानगी उपयोग माटे पटले के गुरुनी स्मरणशक्तिने मदत करवा माटे राखे छे. मारुं दृढ मानवु छे के जैनो पण आज प्रद्धतिने अनुसरता हशे बल्के तेभो ब्राह्मणोथी पण वधारे आ पद्धतिनुं अनुसरण कर ता हरो, केमके ब्राह्मणोनी माफक तेओनुं एवं मानधुं तो हतुं ज नहीं के लिखित पुस्तको अविश्वस्य छे. तेओ तो मात्र जे एक प्रचलित रिवाज हतो, के आगमनुं ज्ञान. मौखिकरीते ज एक पेढीद्वारा बीजी पेढीने अपाधुं जोईए, तेने लईने जलि - खित ग्रंथोनो विशेष उपयोग करवामां संकोचाता हता. हुं अहीं एम प्रतिपादन करवा इच्छतो नथी के जैनोना पवित्र आगमो असलथी ज छुटा छवाया पण आयी रीते, पुस्तकोमां लखेला ज हता. अने एमन कहेवानुं खास कारण बीजं काई नहीं, परंतु बौद्ध भिक्षुओ पासे लिखित पुस्तको न हतां एम जे कहेवाय छे तेज छे. बौद्ध भिक्षुओ पासे आवां पुस्तको नहतां तेना प्रमाण तरीके एवं कहेवामां आवे छे के तेमनां सूत्रोमां, ज्यारे प्रत्येक जंगमवस्तु थी लईने नानामां नानी अने क्षुद्रमां क्षुद्र एवी घरंमां चापरवा लायक वासणो जेवी चीजोनो पण कोई ने कोई रीतिए उल्लेख थपलो अवश्य जडे छे" त्यारे लिखित पुस्तकनो क्या. ए. पण बिलकुल उल्लेख थएलो जोवामां आवतो नथी. आ कथन, मारा मानवा प्रमाणे, ज्यां सुधी जैन यतिओ, भ्रमणशील पडे तेवुं छे. परंतु ज्यारथी तेओ पोताना ताबाना जीवन गुजारता हता त्यां सुधी तेमने पण लागु १. Sacred Books of the East, Vol, XIII Introduction, p, XXXIII, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] अथवा पोताना माटे बनावेला उपाश्रयोमां रहेवा लाग्या त्यारथी तेभो पोतानां हस्तलिखित पुस्तको पण अत्यारना माफक राखवा लाग्या हता. डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना आ दृष्टिए जोतां देवर्धिगणीनो जैन आगमसा हित्यसानो संबंध, साधारणरीते जेम मनाय ले, तेनाधी कोई विलक्षण प्रकारनो होय तेम जणाय छ. तेमणे वस्तुतः तेमनी पहेलां अस्तित्वधरावता रस्तलिखित ग्रंथांने सिद्धान्तना आकारमां गोटवी दीधा हता. अने तेम करती वखते जे जे सूत्रोआगमाना. हस्तलिखित ग्रंथो उपलब्ध थया न होता, ते सधळा तेमणे विद्वान् धर्माचार्याना मुखेथी लखी लीधा हता. वळी, आवी राते धार्मिक शिक्षणपद्धतिमां दाखल थरला आ नवा फेरफारने लीधे पुस्तको एक अत्यावश्यक साधनरूप थई पडेलां होवाथी प्रत्येक उपाश्रयने आगमग्रंथोनी नकलो पूरी पाडवा माटे तेनी घणी नकलो कराववामां आवी हरो. भा रीते जोतां देवर्धिगणांनी सिद्धान्तनी आवृत्ति ते, तेमनी पहेलां अस्तित्व धरावता पवित्र सिद्धान्तग्रंथोनोल गभग प्राचीन ज आकारमां निर्णीत करेलो एक नवो पाठमात्र छे. आ आवृत्तिकारे, संभव छे के, प्राचीन सिद्धान्तमां कोईक कोईक उमेरा कर्या हशे. परंतु आटला उपरथी संपूर्ण सिद्धान्त नवो वनाववामां आव्यो छे एम तो खरेखर नज. कही शकाय. आ अंतिम आवृत्तिमां निर्णीत थरला पाटनी पूर्वेनो सिद्धां त पाठ पण केवळ यतिभोनी स्मरणशक्तिना आधारे जलखवामां आवता पाठ जेवो भव्यवस्थित न हतो परंतु ते पाट हस्तलिखित प्रतिओ साथै मेळवेलो हतो. विवेचन कर्या याद हवे आपणे: जैनोना पवित्र आगमांनी रचनानो समर्याविषयक विचार करीए. संपूर्ण आगमशास्त्र प्रथम तीर्थकरनुं ज प्ररूपे छे ए जातना जैनोना विचारनुं तो निराकरण करवा खातरज हुं अहीं सूचन करूं छु. सिद्धान्तना मुख्य ग्रंथोनो समय नक्की करवा माटे आप आना करता वधारे सारां प्रमाणो - पुरावाओ एकत्र. करवा जोईए छूटक अने असंबद्ध सूत्रा: लारको गमे त्यारे आगमप्रथोमां दाखल थई: गया होय तथा देवर्धिगणीए पण भले तेने पोतानी आ. ९१ वृत्तिमां स्वीकारी लीधा होय. पण तेटला उपरथी आपणे कोई प्रकारनं सवळ अनुमान काढी शकीए नहीं. हुं म्लेच्छ अथवा अनार्य जातिओनी' जे यादीओ ए. सूत्रोमां मळी आवे छे ते उपर वधारे वजन मूकी शकतो नथी. तेमज साते निहूनवो, के जेमांनो छेलो वीरनिर्वाण पछी ५८४ वर्षे थयो हतो, तेना उल्लेख उपरथी पण कांई अनुमान काढी शकाय नहीं. आवा प्रकारनी विगतोना संबंधमां जो एम मानवामां आवे के जे आचार्यो पोतानी शिष्यपरंपराने पेढी दरपेढीए लिखित या कथित रूपे सिद्धान्तपाठ सोपता गया हता, ते ओए ते ( विगतो) ने सिद्धान्तनी टीका-टिप्पणीरूपे अगर तो मूळ सुद्धांमां पण दाखल करी दीधी हती तो तेमां काई अस्वाभाविकता जेवुं नथी. परंतु सिद्धान्तमां एक महत्त्ववाळी वावत ए जणाय छे के तेमां कोई पण स्थळे ग्रीक लोकोना खगोळशाखनी गंध सरखी जोवामां आवती नथी. कारण के जैन ज्योतिषशास्त्र ते वास्ताविकमां, एक अर्थराहत अने अश्रद्धेय कल्पना मात्र छे. तेथी आपणे एम अनुमान करी शकीए छीए छे के जैन ज्योतिषशास्त्रकारोने ग्रीक जातिना खगोळ शाखनी स्हेज पण माहीती होत तो तेवुं असम्बद्ध तेओ जरूर न लखत. हिन्दुस्थानमां श्रीसनुं आ शास्त्र ई.स. नी श्रीजी अगर चोथी शताद्विमां दाखल धयुं हतुं एम मनाय छे आ उपरथी आपणे ए रहस्य काढी शकीए छीए के जैनोना पवित्र आगमो ते समयनी पहेलां रचायां हतां. nane जैन आगमोनी-रचनाना समयनिर्णयमाटे वीजं प्रमाण ते तेनी भाषा विषयक छे. परंतु, कमनसीये हजी सुधी ए प्रश्ननुं स्पष्ट निराकरण धयुं नधी के जैनागमो, जे भाषामा अत्यारे आपणने उपलध्ध थाय छे ते ज तेनी मूळभापा छे , शब्द ते, वेयरना १ अनार्य जातिओमानो 'आरब धारषा प्रमाणे, कदाच ' आरय ' वाचक बने, परंतु मारा मानवा प्रमाणे ते शब्द ' तामिलो ' नो वाचक छे. कारण के अश्वमु कहे छे. तामिलोनी भाषाने द्रविडीयन लोको २. See Weber Indische Studien, XVI, P. 237. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~.. ........ . जैन साहित्य संशोधक [भाग १.. अर्थात् जे भाषामां सौथी प्रथम 'तेनी संक- रणमा साहाय्यभूत वनेली बधी हस्तलिखित प्रतिलता धई हती तेज भाषामा अत्यारे आपणने उप. ओमा जे जे भिन्न भिन्न लेखनपद्धतिओ मळी आ. लब्ध थाय छ, के पाछळधी, पेडो दरपेढीए ते ते चती हती ते बधी प्रामाणिक मानवामां आवी हती. फाळनी रूढ (प्रचलित ) भाषानुसार तेमा उच्चा- बने तेथी ते सबळी पद्धतिओने ए सूत्रनी नकलोरण-परिवर्तन थतां थतां छेक देवर्धिगणीना मांसाची राखयामां आवी हती. आ विचार जो नवीन संस्करण वखतनी चालू सायाना उच्चारण युक्तियुक्त जणातो होय तो, थापणे, साथी प्राचीन . यंतती भापाथी मिश्रित धरला आजे मळे छे? अने रूढिवाहिकृत लेखनपद्धतिने आगमरचनाना आये विकल्पोमांनो मने तो बीजोज विकल्प स्वी- आदि समयनी अथवा तो तेना निकट समयनी . करणीय लागे छ. कारण के ए आगमोनी प्राचीन उच्चारसूचक मानी शकीए. अने सौथी अर्वाचीन . भाषाने चाल भापानी रूढिमां फेरववानो वहीवट लेखनशैलीने सिद्धान्तना अंतिम संस्करणना स. ठेठ देवर्धिगणी सुधी चालु रहो हतो. अने अते मयनी अगर तेनी नजीकना समयनी उच्चारदर्श देवर्धिगणीना संस्करण जते वहीवटनो अंत आण्यो कमानी शकीप.'वळी साथी प्राचीनरूपमा उपहतो. एम मानवाने आपणने कारणो मळे छ. जैन लब्ध थती जैन प्राकृत भापाने, पाली तथा हाल, प्राकृत भापामां स्वरूपलंगत वर्णविन्यासनो जे सेतुबन्ध विंगरेनी ( पाछला समयनी ) प्राकृत अभाव दृष्टिगोचर थाय छे तेनु कारण, जे लोकमा- साथे जो आपणे सरखावी| तो आपणने स्पष्ट ज... पामां ( Vernacular Language) ते पवित्र णाशे के जैन प्राकृत ए पाछळनी प्राकृत करतां पा.. आगमो हमेशा उच्चाराई रहा हता, ते भापामां लीने वधारेमळती आवे छे.आ उपरथी आपणे निरंतर थर्नु रहेलु क्रमिक परिवर्तन ज छे. जैन. एवा निर्णय उपर आवी शकीप. छीप के कालगण- . सूत्रोनी लघळी प्रतिओमां एक शब्द एकज रीते नानी दृष्टिए पण जैनोना आगमो. त्यार पछीना। लखेलो जोवामां आवतो नथी. आ वर्णविन्यास. समयमा थएला प्राकृत ग्रंथकारोना ग्रंथो करता विषयक विभिन्नतानां मुख्य कारणोमांनुं एक कार- दक्षिणना यौद्धसूत्रो [गा रचना समय ] साथै . ण तो बेस्वरो वचे आवता असंयुक्तव्यंजननो प्रक- वधारे समीपता धराये छे. तिभाव (तदवस्थ राखवारूप ), लोप, के मृदकर परंतु, भापणे जैन आगमोनी रचनाना समयनी ण थवारूप छ भने वीडुकारण चेलंयक्त व्यंज. मर्यादा, तेमां प्रयोजाएला छंदोनी मददथी, आथा नानी पूर्वेना ए अने ओ ने तदवस्थ पटले कायम, पण वधारे निश्चितरते आंकी शकीए तेम छाए. हूं राजवारूप अथवा तेने क्रमथीइ अने उना रूपमां ------- परिवर्तित करवा ( लघूकरण) प तो . १. कोई अहीं एवी दलील कर्या को छेके आवी . शक्य ज छ के एकज शब्दना एकज समयमां एक- आप एटले रूठिब हैष्फत लेखनपद्धतिना अस्तित्वन कारण . थी वधारे शुद्ध गणावा लायक उच्चारोहोई शके. मात्र संस्रुत मापानी असर छे. परंतु जैनोनुं प्रारुत-मषानुं ... उदाहरण तरीके-भूत, भूयः उदग, उदय थने अय: ज्ञान हमेशा एटलुं वधू संगीन रत्यु हतुं के जेथी तेमने पो.. लाभ,लाह इत्यादि.आपणे आप्रकारतीजदीजी ताना आगमोने समजवा माटे संम्रुतनी सहायता लेवी ज . . खन पद्धतिओने ऐतिहालिक लेखनपद्धतिमओ मान पडती नहोती के जेथी तेनी तेना उपर असर पडे. परंतु वो जोडेपोवाशिणीवाटा सिद्धान्तका आथी उलटुं, जैनोना संस्कृत ग्रंथानी प्रतिभामा । - शब्दो जेवा लखेला घणा शब्दो मळी आवे छे. उपर प्रमाणे . ' - १ हु एन नथी कईतो के कोई पण शब्दना एक काळा मानतां पण केटलीक जोडीओ तो एवी मळी आवे छे. वहपां ज न होई शके बचे रूपोवाळा घणाए शल्दो जेने संस्कृतीकरणनी दृष्टिए पण समजावीशकाय तेम नाम्- - यया हो. परंतु प्रायः प्रत्येक शब्दना बछेत्रण त्रण रूपो उत. दारयने बदले मळतुं दारग एवं रूप लईए. आशा एक साथे प्रचलित रहेवानी वावतमा मने जरूर शंका न्दर्नु संस्कृत प्रतिरूप 'दारक' थायछे परंतु 'दारग' ५७ रहे छ. . थतुं नथी. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक 1 डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना आचारांग अने सूत्रकृतांग सूचना प्रथम स्कंधोने, . उपरथी एम सिद्ध थतुं होय तेम जणाय छ के सिद्धान्तना सौथी प्राचीन भाग तरीके मानुं . आ प्रकारना अर्वाचीन ग्रंथोनी रचनाना समय अने मारा आ अनुमानना प्रमाण तरीके हुँ आ बे पूर्वे जैनोनी साहित्य विषयक अभिरुचि निश्चित ग्रंथोनी (स्कंधोनी) शली यतावीश. सूमहतांग सू- थपली हती. आ सघळी बाबतो उपरथी आपणे अनु आखं प्रथम अध्ययन, चैतालीय वृत्तमां रचा- एवो निर्णय करी शकीए छीए के, जैनोना सौथी एलुं छे. आ वृत्त धम्मपद आदि दक्षिणना अन्य प्राचीन साहित्यनी समयमर्यादा पाली साहित्य चौद्ध ग्रंथोमां पण चपराएलो जोवामां आवे छे. अने ललितविस्तराए उभयना रचनाकालनी बच्चे परंतु पालीसूत्रोनां पयोमा प्रयोजाएलो चैतालीय निश्चित थाय छे. पाली पिटकोनुं पुस्तकाधिरोहण वृत्त, त, सूत्रकृतांग सूचना पयोमा मळी आवता (अर्थात् पुस्तकरूपे लखाण) वहगामणि जेणे ई. चैतालीय वृत्तनी हटिए जोतां, वृत्तना विकास क- स. पूर्वे ८८ वर्षे पोतार्नु राज्यशासन शरू कर्य हा मना प्राचीन स्वरूपनो द्योतक छे. या पावतमा हुँ तेना समयमा थयुं हतु. जो के मा लमयथी कैटलीअहीं पधारे न लखतां. थोडाज समयमा जर्मन फशदीमो पूर्वे पण ते पिटको अस्तित्व तो धरावतां ओरियन्टल सोसाइटीना जर्नलमा, 'वेदनी पछीना हतां ज. आ विपयनी चर्चा करतां छेक्टेप्रो.मेक्सकालना छंदो' ('Post-Vedic Jetres ') ए मूलरे नीचे प्रमाणेना विचारो जणाव्या छ 'ते. मथाला नीचे प्रकट थनारा मारा लेखमां विस्तृतरी- टला माटे,मारा विचार प्रमाणे, अत्यारे तो आपणे ते चर्चवा इच्छु छ. संस्कृत साहित्यना सामान्य घौद्ध सूत्रोना अर्वाचीनमां अर्वाचीन रचना-समय पैतालीय [वृत्तना ] श्लोको, के जेमांना केरलाक तरीके ई. स. पूर्व ३७७ मा वर्णने, निर्णीत फरी, ललितविस्तरामा पण मळी आवे छे, तेनी साथे संतोप मानवो जोईए,-के जे समये द्वितीय संगिमुकाबलो करी जोतां, सूत्रकृतांगनो वैतालीय वृत्त ति मळी हती.' त्यार वाद पण ए पाली सूत्रोमां तेथी वधारे प्राचीन रूपनो जणाय छे. घळी ए उमेरा तथा फेरफारो थया होय ए असंभावित बाबत पण अहीं लक्ष्यमालेचा लायक छे के प्राची- नथी. परंतु आपणी प्रस्तुत दलील धम्मपदना कोई न पालीसाहित्यमा आर्यावृत्तमां गुंथेलां पयो मळी एकाद फकराके भागने आधारे उभी थपली न होई, आवतां नयी धम्मपदमां तो ते सर्वथा नथी ज. तेमा तथा अन्य पालीग्रंथोमां मळी आवता वि. तेम अन्य बौद्ध ग्रंथोमां पण तेवां पद्यो मारा जोधा- विध छंदो उपरथी तारवी कढाता छंदःशास्त्रना मां मान्यां नथी. परंतु, आवारांग अने सूत्रकृतांग नियमोना पाया उपर स्थापित करयामां आवे. सूत्रोमां तो एक एक संपूर्ण अध्ययन आर्यावृत्तमां ली छे. तेथी, ए ग्रंथोमां दाखल थएला उमेरा या लखेळ मळी आवे छे. आ आर्यावृत्त,, सामान्य फेरफारोथी, अमारा ए निर्णयने-के समस्त जैन [रीते ओळखाता] आर्या वृत्तथी स्पष्ट रीतेप्राचीन सिद्धान्त साहित्य ई.स. पूर्वे चोथी शताब्दि वाद तथा तेनो जनक स्वरूप देखाय छे. सामान्य आ- रचाएल छे,-तेने कोई पण प्रकारनी हानि पहोंची यावृत्त ते, सिद्धान्तना वधारे अर्वाचीन भागोमां, शफती नथी. तथा प्राकृत अने संस्कृत भाषाना ब्राह्मण आपणे उपर जोई गया के जैनसिद्धान्तनो सौथी ग्रंथोमां अने ललितविस्तरादि जेवा उत्तरना बौद्ध प्राचीन विभाग ललितविस्तारानी गाथाओथी ग्रंथोमां पण नजरे पडे के प्राचीन जैनग्रंथोमां अधिक जूनो छे. आ ग्रंथ (ललितविस्तर) ना प्रयोजाएलो त्रिष्टुभ् छंद पण पाली ग्रंथोमां मळी विपयमा एवं कहेवाय छे के तेनो ई. स. ६५ मां आवता ते छंद करतां अर्वाचीन रूपनो अने ललि- चीनी भाषामा अनुवाद थयो हतो. आ उपरथी तविस्तरामांना करतां प्राचीनरूपनो छे. अंते, ल- चर्तमान जैन साहित्यनी उत्पत्तिनो समय ई.स. लितविस्तरादि ग्रंथोमा जोवामां आवता आलिवा- - यना वीजा अनेक प्रकारना कृत्रिम वृत्ती-जेसांनो १ Sacred Books of the East, Vol. x, एक पण वृत्त जैनसिद्धान्तमा जडी आवतो नथी- p. XXXII. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग १ ---- हुना नामधी आगळ नहीं चलावतां, तेमना समकालीन स्थविर संभूति- विजयता - नामधी आगळ लंबावे छे. प उपरथी एम फलित थाय छे के पाटलिपुत्रना संघे एकत्र करेलां गो मात्र श्वेतां बरोना ज लिद्धान्ती मनाया हशे, पण आखी जैन समाजना नहीं. आवी वस्तुस्थिति होवाथी, आप णे सिद्धांत रचनाना कालने जो युगप्रधान श्री. लभट्टना समयमां एटले ई. ल. पूर्वे त्रीजी शताद्विना प्रथम भागमां स्थिर करीए तो ते खोई नहीं राणाय. ९४ नी शरुआत पहलं मानवो जोईए. वळी दक्षिण अने उत्तरना पद्यात्मक बौद्ध ग्रंथोनी छन् अने भापाशैली विषयक विशिष्टताओना प्रात्रनिवन पद्यात्मफ जैन सिद्धान्तमां मन्त्री आवता अल्प या आधिकांश साम्यद्वारा, आपने जो आवे सीमाओं बच्चे याला प्रस्तुत विवादास्पद समयना कालविषयक अंतरनो विचार करीए छोए तो जैन साहित्यनी शदनातनी समय, उत्तरना यौद्र साहित्यना समय करतां पाली साहित्यता समयनी अधिक समीप करे हे. चळी या प्रकारमा अनुमानने श्वताम्बर संप्रदायती एक परंपरागत कथाद्वारा समर्थन पण मळे हे. परंपरा एवी छेके जे वखते भद्रबाहु युगप्रधान हता ते वसते वार वर्षनो एक दीर्घ दुष्काळ पड्यो हतो. ते कालना अंते पाटलीपुत्रमां तंत्र भेगो थयो हतो बने तेणे सकळां अंगो एकत्र कय हतो. आ भद्रबाहुना अवसाननी वारी श्वेतान्यरोना कथन प्रमाणे वीर पछी १७० वर्षे के अने दिगम्य रोना कवन प्रमाणे ते १६२ वर्षे छे. आ उपरथी तेस्रो चंद्रगुप्त के जे श्वेतान्यरोना उल्लेखानुसार वी. नि. पछी १७५ मा वर्षे चाहीए आव्यो हतो, तेना समयमां यया हता. प्रो. मंक्लटरेचन्द्रमतो लमय ई. स. पूर्व ३१५-२९१ जणावेले छे तथा चेस्टखार्ड (Westergaard] अने केर्न (Kera) वधारे संभावित रात त समय ई. स. पूर्वे :२० जणांचे है. या वन्नेव जे अल्प तफावत के वे महखनो नथी. लगभग था हिसावे जैन सिद्धान्तनो रचना समय ई. स. पूर्वेची शदीना अंतमां अगर तो त्रीजी शङ्कीनी शरुआतमां आवे छे. साये साथै ए-पण लक्ष्यतां राखातुं के के उपरांत संप्रदाय-परंपरानौ भावार्थ ए ई के पाटलिपुत्रा संबे, aaar हुनी साहाय्य सिवाय ज अगीवार गो एकठां क्या हवा. भद्रबाहु दिगम्बरो अने श्वताम्बरो ने संरखी रीठे पोताना यात्रार्य मानेतेम तां वेदान्वरो पोताना स्थविरोनी यादीने मढ़वा आपणी उपरोक्त तपासनं परिणाम जो प्रामाणिकताने पात्र यतुं होय, अने ते वनधुंज जोईए कारण के तेना वाधक प्रमाणोनो अभाव है-तो वर्तमान जैन साहित्यनी उत्पत्तिनो समम ई. स. पूर्व लगभग ३०० वर्ष पहलां अथवा स धर्मनी उत्पत्ति पछी लगभग ने शनादी पहेलां मूकीशकाय नहीं परंतु आ उपरथी एम तो. खास कोई मानी लेवानी जरुर नयी ज के जैनो पासे पोताना अंतिम तीर्थंकर अने सिद्धान्तरचनाना आ समय वथेना अन्तरालमां, एक अनिश्चित अने असंकलिन धार्मिक तथा पौराणिक परंपरा उपरांत खाल आधार राखवा योग्य वधारे सुदृढ धर्मसाहित्य हतुं ज नहीं. कारण के एम जो मानवामां आवे तो पछी जैन परंपरानी विश्वसनीयताना विषयमा जे विरोधदर्शक प्रमाणी मी. दार्थ र करेला ते वास्तविक्रमां पाया विनानां के एम कही शकाय नहीं. तथापि एक याचत नहीं ध्यानमा ठेवा लायक छे. अन ते ए के के श्वेताम्बरां भने दि रोए बन्नेनुं एम कहेवु छे के अंगो सित्राय पहेलांना कालमां तेनायी पण वधारे प्राचीन एव चींद पूर्वो हतां. अने ते पूर्वोनुं ज्ञान क्रमयी नष्टं धेनुं धतुं अंत सर्वथा नष्ट थई गये हेतु. esi आ प्रमाणे :-बद पूर्वोप दृष्टिवाद नामना यारमा aisyair विषमां श्वेताम्वरांनी मान्यता अंगमा समाएां हतां अने ते महावीर निर्माण १ परिशिष्ट १५२. २. Gessbiejenis var bei Buddhisme पछी -२००० वर्ष व्यतीत थवा पहेलां नयां हतां. in Indie, i, p. 266 note. जो के या कथन प्रमाणे चौद पूर्वो तो सर्वथा नए Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] 1 थई गयां, छे, तो पण दृष्टिवाद अने तेमां अंतर्गत थपलां चौद· पूर्वोना विषयोनी विस्तृत सूचि अद्या वधि समवायांग नामना चोथा अंगमां तथा नन्दीसूत्रमां आपेली जोवामां आवे छे. आ दृष्टिवादआवेलां पूर्वी ते:खास मूळ पूर्वोज हतां के, जेम हुं मानुं, छू, तेना साररूप हतां तेनो आपणे नि श्चय करी शकता. नथी. गमे तेम हो. परंतु तेमां समाएला विषयांना संबंधमां एक घणी विस्तृत परंपरा तो अवश्य जोवामां आवे छे. डॉ. हर्मन जकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना. खरेखर आपणे,:कोई पण नष्ट थई गएला एवा अति प्राचीन ग्रंथ या ग्रंथसमूहना विपयमां मळी आवती परंपराने साची मानी लेवामां घणीज सावधानी रखवानी जरूर छे. कारण के आंवा प्रकारनी प्राचीन परंपरा, वणीक वसते केटलाक ग्रंथकारोद्वारा पोताना सिद्धान्तोनी प्रामाणिकताना पूरावा रूपे कल्पी काढवामां आवी होय हे. परंतु प्रस्तुत वावतमां, पूर्वांना विषयमा मळी आवती आटली ची सामान्य अने प्राचीन परंपरानी स त्यताना विषयमा शंका करवाने आपणने कोई कारण जणातुं नथी. कारण के अंगोनी प्रामाणिक ता ते कांई पूर्वोनेलईने मानवामां आवती नथी. अंगो तो जगत्ना निर्माणना समकालीन ( एटले अनादि ज ) मनाय छे. तेथी जो पूर्वी संबंधी आ परंपराने मात्र एक कूटलेख रूपेज मानीए तो तेनो कांई पण अर्थ थई शक नहीं. परंतु तेने जो सत्य रूपे मानी लईए तो, जैनसाहित्यमा विकासविष यक आपणा विचारो साथे ते बराबर बंधयेसती आधी जाय छे. 'पूर्व ' ए नामज ए बातनी पूरेपूरी साक्षी आपे छे के तेनुं स्थान पाछळयी वीजा एक नवा सिद्धान्ते लीधुं हतुं. अर्थात् पर्वनो अर्थ पलानुं वो थाय छे.' अने आ दृष्टिए व्यारे आपणे विचा १ See Weber, Indische Studien, XVI p. 341. २. ' पूर्व ' शब्दनो अर्थ जेनाचार्यांए नीचे सुजय समजावेलो छे:- तर्थकरे पातेज प्रथम पोताना गणधर नामे प्रसिद्ध शिष्योने पूर्वोनं ज्ञान आप्यं हतुं त्यार पछी गणधरे.ए अंगोनी रचना करी. आ कथन, पहेलाज तीर्थंकरे अंगो प्ररुपेलां छे एवा आग्रह साथ जेटले अंशे ऐक्य धराव नधी, तेटल अंशे ते खरेखर सत्य गर्भित लेखाचा योग्य थे. ९६ रपि छोए त्यारे निःसंदेहरीते प्रतीत थाय छे के, जे समये पाटलीपुत्रना संघे अंगसाहित्य एकत्र कर्यु हतुं, तेज समयथी पूर्वोनुं ज्ञान व्युच्छिन्न चाल्युं हतुं, एवी जे हकिकत कहेवाय छे, ते तद्दन वास्तविक छे. उदाहरण तरीके भद्रबाहु पछी चौदमांथी दशज पूर्वोनुं ज्ञान अवशिष्ट र हतु, एवं जे कथन छे ते आपी शकाय छे. आ उपरथी खात्री यशे के चौद पूर्वविषयक प्रच लित परंपरानो अमे जे एवो खुलासा करेलो छे के पूर्वी ते सौथी प्राचीन सिद्धान्तग्रंथो हता, अने तेना पछी तेनं स्थान- एक नवा सिद्धान्ते लीधुं हतुं, ते युक्तिसंगत छे. परंतु आटलो खुलासा बाद आ प्रश्न उभो धाय छे के आधी रोते प्राचीनसिद्धान्तनो त्याग करवामां तथा नवा सिद्धान्तनुं नि रूपण करवामां शुं प्रयोजन उपस्थित थयुं हशे ? आ विषयमा मात्र कल्पना सिवाय अन्य कोई गति नथी. अने तदनुसार मारो स्वतंत्र अभिप्राय आ प्रमाणे छे:- आपणे जाणीए छीप के दृष्टिवाद ना-मना बारमा अंगमां चौद पूर्वा आवेलां हतां तथा ने पूर्वोमा मुख्यत्वे करीने टिओनं पटले जैन अने. जैनेतर दर्शनांना तात्त्विक विचारो - अभिप्रायोनुं वर्णन करेलुं हतं, आ उपरथी आपणे एम कल्पी शकीए छोए के तेमां महावीर अने तेमना प्रतिस्पर्धी धर्मसंस्थापकोनी वच्चे थपला वादोनुं वर्णन आवे - लुं हशे मारा आ अनुमानना समर्थनमां प्रत्येक पूर्वना नामना अंते जे ' प्रवाद' ए शब्द सूकवामां आव्यो छे ते आपी शकाय छे. आ उपरांत ए पुण एक बात ध्यानमा राखवानी छे, के महावीर कोई एक नवा धर्मना संस्थापक न हत्ता, परंतु, जेम में सिद्ध करेल छे, तेथ एक प्राचीन धर्मना सुधारक मात्र ज हता. तेथी पण ए घणुंज संभवित छे के महावीरने पोताना प्रतिप्रक्षिभोना अभिप्रायोनुं मजबुतरीते खंडन करचं पडधुं हशे अने जाते स्त्रीकारेला अगर सुधारेला एवा पोताना सिद्धान्तोनुं घणुंज समर्थन करवं पड्र्यं हशे आम कहेधानुं कारण ए छे के प्रत्येक धर्मसंस्थापकने यथाथेमां पोताना नवा सिद्धान्तोनुं प्रतिपादन करवा पूरतो ज प्रयत्न करवानी आवश्यकता रहे छे. तेने Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ जैन साहित्य संशोधक · [भाग १ एक सुधारकना जेटलो प्रवादी बनी जवाना जोख. असंभवित लागे छे. वीजीए पण बाबत लक्ष्यमां मने उपाडवानी अवश्यकता रहेती नथी. हवे वखत राखवा योग्य लेके जैन धर्ममां वे संप्रदायो थया जतां ज्यारे महावीरना ते प्रतिस्पर्धिओ आ जगत- पछी तेना तत्त्वज्ञानमां वीलकुल फेरफार. थयो न मांथी अदृश्य थई गया हता, तथा तेओ द्वारा स्था. होतो-अर्थात् ते तद्दन स्थिरज रा हतुं. आनुं पित थएला संप्रदायो पण नामशेप थई गया हता, प्रमाण मात्र एज छे के आ बन्ने संप्रदायोना तत्त्वत्यारे महावीरना ए प्रवादो, के जे तेमना गणध- शानमां कोई विशेष उल्लेखयोग्य भेद नजरे पडतो रोएं स्मरणमा राख्या हता तथा तेओ द्वारा पाछ- नथी. आचारशास्त्रना विपयमां अलबत आ यन्ने ळनी शिष्यपरंपराने पण जे सोपवामां आव्या संप्रदायोमा केटलाक भिन्न भिन्न विचारो जोवामां हता, ते पाछळना लोकोमा महत्त्ववाळा न मनाया आवे छे, परंतु, अत्यारे पण ज्यारे श्वेताम्बरोमां होय ए स्वाभाविक छे. ए कोण कही शके एम छे लांवा समयथी, तेमना वर्तमान सिद्धान्तसमूहमा के जे एक जमानामां आ प्रकारना दार्शनिकोना विहित थपला घणाक आचारोनुं पालन बंध थएलं तत्त्वज्ञान विषयक विविध प्रवादो अने कलहो होवां छतापण तेओ तेनातरफउपेक्षा धरावतानथी व्यावहारिक उपयोगितावाळा जणाया होय तेज प्र- त्यारे तेवाज कारणने लईने ते वखते अस्तित्वं वादो अने कलहो, सर्वथा परिवर्तित थएला एवा भोगवता एवा तेमना पूर्वात्मक सिद्धान्तसमूहअन्य जमानामां पण तेवाज उपयोगी सिद्धान्तो ना विषयमा श्वेतास्वरोए तेटला बधा आवेशमां तरीके मनाई शके ? आ ज विचारानुसार, नवा आवी जई पोताना पूर्व साहित्यनो सर्वथा त्याग. जमानाना जैनसमाजने पोतानी सामायक परि- सुधां करी नांख्यो हतो एम मान, युक्तिसंगत. स्थितिने अनुकूल आवे तेवा एक नवा सिद्धान्तनी जणातुं नथी. आ उपरांत नवा सिद्धान्तनो जे समजरूर जणाई हशे अने तेने परिणामे, माकं मान य आपणे उपर निर्णीत को छे, ते समय पछी पण छ के, नवा सिद्धान्तनी रचना अने जूना सिद्धा- लांवा वखन सुधी पर्वो विद्यमान हतां एम मानवा-. न्तनी ( पूर्वोना ज्ञाननी उपेक्षा थवा पामी हशे. मां आवे परंत. आखरे ज्यारे पर्वोना प्रवादमय प्रो. वेवर' दृष्टिवाद अंगने नष्ट थवामांए, कारण साहित्य करतां नवा सिद्धान्तद्वारा जैन तत्त्वो जणावे छ के श्वेताम्बर समाज ज्यारे एक समये वधारे स्पष्टीते प्रकाशित थता देखावा लाग्यां अने एवी अवस्थाए आवी पहोंच्यो हतो के जे वखते - तेने पोताना (प्रचलित ) विचारो अने ते ग्रन्थमा त्यारे पर्वो स्वभाविक रीते ज, नहीं के तेमनी. त वधारे व्यवस्थासर लोको समक्ष सूकावा लाग्यां (एटिवादमा ) आलेखित विचारोनी वच्चे अत्यंत वृद्धिपूर्वक कराएली उपेक्षाने लीधे, अदृष्ट थयां अनुपेक्षणीय अंतर स्पष्ट देखाचा लाग्युं, त्यारे ए ता. चौद पूर्वोवाळु दृष्टिवाद अंग उपेक्षाने पात्र थयुं हतुं. परंतु, प्रो. वेबरनी आ कल्पनानी विरुद्ध श्वेता- आपणी प्रस्तुत चर्चा जे आ स्थळे समाप्त थाय म्बरोनी माफक दिगम्बरो पण, पोताना पूर्वी अने छ ते उपरया, हुं धालं छु के, आटली बायतो ते उपरांत अंगो सुद्धाने व्युच्छिन्न थएलां जणावंता प्रकटरीते लद्ध थपली छः-जैनधर्मनी उत्क्रांति होवाथी, हुं तेमना मतने मळतो थई शकतोनथी. (प्रगति) कोई पण समये कोईपण अत्यंत असो.. तेमज निर्वाणनी तुरतज पछीनी ये शताब्दिमां जैन धारण एवा बनावोथी, जबरदस्त अटकाव पामेली समाज पटली बधी झडपथी प्रगति करी लीधी नथी. बीज ए के आपणे आ उत्क्रांतिनी शरुआतनी होय के जेषी ते समाजना वन्ने मुख्य संप्रदायोने अवस्था उपरांत तेनी सधळी विविध अवस्थाओनो पोताना पूर्व सिद्धान्तनो त्याग करवा जेटली आव पत्तो मेळवा शकीए छीए, अनेत्रीजं ए के जैनधर्म ए श्यकता जणाई होय, एम पण मानी वेसवं तन निविवादीत स्वतंत्र मनाता एवा कोई पण धर्मनी माफक स्वतंत्ररीते उत्पन्न थएलो छे-परंतु कोई १. Indische Studien, IVI, p. 248. अन्य धर्म अन खास करीने बौद्धधर्मनी शाखा रूपे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ im.............. ९७ -uuuuuuuu... --.-muvuwwwve अंक २] साहित्य-समालोच बिलकुल प्रवतेलो नथी. आ विपयनी विशेष विग- क लेखी साधनोरूपे स्वीकारवाना विषयतोना संशोधननुं कार्य भावि शोधखोळ उपर निर्भ- . रछे तेम छतां मने आशा छ के, हुं जैनधर्मनी स्व मां, अत्यार सुधी जे केटलाक विद्वानोना मनमा तंत्रताना संबंधमां तथा सेना पवित्रन (आगमो) अमुक संदेहो स्थान पामी रह्या छे, तेने दूर करवा ने, ते धर्मना प्राचीन इतिहासने कर करवामां सफळ थयो छु. साहित्य-समालोचन, भविष्यदत्त कथा जैन समाजमां जाणीती छे अने धनपालकृत भविष्यदत्त कथा. संस्कृत प्राकृतमां बनेली ए नामनी बीजी पण घणी [डॉ. हर्मन जेकोबी द्वारा संपादित अने जम- मीनं माहात्म्य वर्णवामां आव्यु छे. धनपालनी आ .. कथाओ उपलब्ध थाय छे कथानी वस्तुमां शान पंच. नीमा प्रकाशित. प्रख्यात जर्मन विद्वान् डॉ. हर्मन जेको नाम .. कथानुं संपादन करवामाटे डॉ. जेकोबीए जे परिएक जैन स्कॉलर तरीके जगत्प्रसिद्ध छे. तेमणे - श्रम उठाव्यो छे ते तेमा रहेली वस्तुनी हटिए नार्ह जैनधर्म अने जैन साहित्यनो घणो ऊंडो अभ्यास परंतु तेनी भापानी दृष्टिप. छे. आ कथानी रचना कों छे. जैन धर्मना केटलाए संस्कृत-प्राकृत अपभ्रंश भाषामां थएली छे. अपभ्रंशभापा ए भारग्रंथोनुं तेमणे संशोधन अने संपादन कर्यु छे. तवर्षनी हिन्दी गुजराती आदि प्रचलित मुख्य भा. तेमज केटलाएन जर्मन अने इंग्रेजी भाषामां भापां षाओनी अनंतर जननी छे. मूळ संस्कृतमांधी प्रा. तर कर्यु छे. जैन धर्म, जैन इतिहास अने जैन सा कृत निकळी, प्राकृतमाथी अपभ्रंश जन्मी अने अने हित्य उपर तेमणे अनेक लेखो लख्या छे, अने भा - अपभ्रंशमाथी आजनी देशभापाओ अवतरी; एबुंभापणो प्य छे. आजे अमे, आ नीचे, डॉ. साहेये पाशास्त्रनुं कथन छे. अपभ्रंश भाषानुं व्याकरण तो संपादन करेला एक जैन पुस्तक संक्षिप्त परिचय , हम हेमचंद्रसूरिए पोताना सिद्धहेम व्याकरणना आठ । आपवा इच्छाए छीए जे हमणांज प्रकट थयु छे. मा अध्यायना चोथा पादमा विस्तृत रीते आपलं - छे परंतु भाषाशास्त्रिओने आज सुधीमा ए वातनी ए पुस्तकनुं नाम भविष्यदत्त कथा ('भावस्स- खवर होती मळी के, केटलाक छूटा छवाया दोयत्त कहा') छे अने ते धनपाल नामे एक वणिक् हाओ के तेवाज वीजा पद्यो सिवाय ए भापामां रविद्वाननु चनावलं छे. धनपाल नामे प्रसिद्ध जैन चापला अखंड ग्रंथो पण जनोना जूना पुस्तक ब्राह्मण पंडित, जे विक्रमनी ११ मी शताब्दीमां, भंडारोमां पड्या पड्या उड्या करे छे ! सन् १९१४ संस्कृतसाहित्यप्रसिद्ध नृपति भोजना समयमां नी सालमां ज्यारे डॉ. जेकोबी हिंदुस्थाननी मुलाथई गयो छे अने जेणे तिलकमंजरी नामे एक श्रेष्ठ खात आल्या त्यारे तेमणे ए संबंधमां केटलीक जैन आख्यायिका वनावी छ, तेनाथी आ धनपाल पूछ-परछ करी, जेना परिणामे अमदाबाद निवाभिन्न समजवो जोईए. ते धनपाल जाते ब्राह्मण हतो सी साहित्यरासिक श्रावक भाई श्रीकेशवलाल प्रेमअने था धनपाल धक्कडवंशीय वैश्य जातिनो छे. - चंद मोदीना प्रयत्नथी प्रस्तुत कथानी एक प्रति एना पितानुं नाम महेश्वर अने मातातुं नाम धनश्री हतुं. ए उपरांत, ए क्यांनी वतनी हती अने व्यारे तेमना जोवामां आवी. डॉ. जेकोबी ए ग्रंथ जोई बटु थई गयो, ते जणायुं नथी. एनी कृतिनी भापा उप- खुशी थया अने तुरत ते आखा पुस्तकनो फोटोरथी जे अनुमान थाय छे ते प्रमाणे ए विक्रमनी ग्राफ पडावी लई पोतानी साथे जर्मनी लई गया. १२ मी अगर १३ मी शताब्दी थयो होवो जोईए. पाछळथी तेमणे ए ग्रंथनी बीजी प्रतो मेळववामाटे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ जैन साहित्य संशोधक [भग १ पण प्रयत्न कर्यो अने तेना लीधे पाटणनाभंडारमां- जे जर्मन भापामां लखवामां आव्यां छे, ते इंग्रेजीमां थी तेनी एक जुनी प्रति कहावी प्रवर्तक श्रीकांति- लखायां होत तो वधारे ठीक थात. कारण के भारविजयजीए डॉ. जेकोबी तरफ मोकली आपी. परंतु तना अभ्यासियोमा जर्मन भापा जाणनार विरल ज कमनसीये तेज अरसासां जर्मनीए इंग्लांड साथे होय छे. तेथी बधा जिज्ञासु अभ्यासियो एनो यथेष्ट महायुद्ध जाहेर कयों, तेथी ते प्रति डॉ. जेकोबीने लाम नार्ह मेळवी शके. घीजें. मूळ ग्रन्ध जे रोमन मळतां थोडा माहिना पछी पाछी पाटण आवी. न लिपिमा छापवामां आव्यो छ ते पण भारतीयो. डॉ साहेबने युद्धना कारणे बीजी प्रत मळवानी नी साटिए निरुपयोगी जेची ज . भारत वर्पना आशा रही नहिं अने युद्धनी समाप्ति सुधी चाट मोटा मोटास्कॉलरो सुधांने रोमनलिपिमांछापेलासंजोईने तेमनाथी केशी शकाय नहि, तेथीतेमणे एक स्कृत-प्राकृत ग्रंथो वांचता घणो परिश्रम पहे छ; मात्र ते फोटोग्राफना आधारे ज महान् परिश्रम ता पछी साधारण आभ्यासिओना माटे तो कहेवू उठावी आ प्रथनी प्रस्तुत आवृत्ति, लढाई ज शुं परंतु ए विषयमां तो अमने संतोपराखवानुं दरम्यान ज (सन् १९९८ मां) प्रकट करी छे अने कारण छ के वडोदरा राज्य तरफथी प्रकट थती तेम करी तेमणे सापाशास्त्रिओ पाटे एक नवीन वि- गाइकवाड ओरिएन्टल सीरीजमां पण ए ग्रंथ छ. पयना उपयोगी अध्ययन महाद्वार खुलं कयु छे. पाय छ जेनी लिपी देवनागरी (यालयोध)ज छे, ए. समन पुस्तकमां डेमी ४ पेजी जवी पहोळी जो कोई पण विद्वान आ पुस्तकनी बहुतथ्यपूर्ण साईझना एकंदर ३२० लगभग पानां छे, जेमां प्रा. प्रस्तावनानो इंजीमां के देश भापामां जो अनुवाद रंभनां १०० पानां प्रस्तावना अने विचरणमा (जे करी-करावी आपे तो भाषाशास्त्रनी हाटिए यह जर्मन भापामां लखापलां छ) रोकाएलां छे. विव- मोटो लाभ थवानो संभव छे. रणमा प्रथम ग्रंथ, कर्ता, ग्रन्थगत वस्तु आदिनो परिचय आपवामां आव्यो के भने पछी, लंवाणथी अपभ्रंश भाषा, तेनो इतिहास, तेनो विकास, तेनुं व्याकरण, तेनुं छन्दशास्त्र, अन्यान्य भाषाओ साथै सूरीश्वर अने सम्राट. रहेलो तेनो संवंध, साहित्यमा मळेलं तेने स्थान, इत्यादि अनेक प्रकारना ज्ञातव्य विषयो, घणी ऊंडी [कर्ता मुनिराज विद्याविजय. प्रकाशक, यशो. शोधखोळ साथे, चर्चवासां आन्या छ. विजय जैन ग्रंथमाला, भावनगर. पृष्टसंख्या, २१विवरण पछी मूळ ग्रंथ आप्यो छे जेणे १२० पृष्ठ ४१७. पाकुं फूटुं. किं. २०२-८-०] रोक्यां छे ग्रंथ रोमन लिपिमां मुद्रित करवामां जैन समाज तरफथी, आधुनिक गुजराती भाषाआन्यो छे. अन्यान्ते, ग्रन्थमां आवेला वधा शब्दोनो मां, बेचार मुनिओ अगर श्रावकोना हाथ लखा. कोप आप्यों के अने ते साये रेक शब्दनो संस्कृत एलां नानां मोटां ५-१० पुस्तको प्रकट थयां छे, ते प्रतिशब्द पण आयो छे. सौमां मुनिराज विद्याविजयजानुं लखेलं 'सूरीश्वर पोताना देशमां चाली रहेला महान् युद्धना भ- अने सम्राट' नामर्नु पुस्तक प्रथम स्थान भोगवे यंकर अशांतिकाळमां पण जगन्ने एक तहन नवीन छ, एम कहेवामां जराए अतिशयोक्ति जणाती नथी. विषयनें उपयोगी ज्ञान आपवा माटे, आटली वृद्धा- मुनिजीनी आ कृतिए केवळ जैन साहित्यमा ज वस्थामा उठावला अथान परिश्रम निमित्ते, विद्ध- नहि परंतु समत्र गुजराती साहित्यमां-खास करीसमाज तरफथी डॉ. जेकोबी खरेखर बहु बहु ध. ने ऐतिहासिक पुस्तकोमां-एक उपयोगी उमेरो न्यवादने पात्र के. कार्यों छे, एम कहेतां आमने आनंद थाय छे. आ अमूल्य पुस्तकना विषयमा अमने वे वात जगद्गुरु हीरविजयसूरिए मुगल सम्राट अकवयदुखटके केः-एक तो पनी प्रस्तावना मज विवरण रना बादशाही दरवारमा जई, धर्मजिज्ञासु कहे Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] *." अथवा राज्यनीतिकुशल कहो गमे ते कहो परंतु ते असाधारण व्यक्तित्ववाळा वादशाहने जे रीते ए त्यागी जैनाचार्य पोताना धर्मनो प्रभावोत्पादक बोध आप्यो हतो, थने ते बोधने सांभळी जे रीतें ते दयाळु बादशाह जैनधर्म प्रति पोतानी सविशेष प्रीति प्रकट करी हती, तेनो संक्षिप्त पण सारभूत इतिहास अमे अमारा कृपारसकोप नामना पुस्त कमी लांबी प्रस्तावनामां (जे हिन्दी भाषामा लखाएली हे) आज श्री ४-५ वर्ष अगाउ आप्यो हतो. प्रस्तावना लखती चखते ज अमारा मनमां पवो संकल्प थयो हतो के प्रसंग मळे, हीरविजयसरि ना जीवन संबन्धमां मळी भावतां सघळां साथ नोने एकत्र करी, ते उपरथी एक सविस्तर जीवन चरित्र महान् जैनयतिनुं अवश्य तैयार करयुं जोईंग, प्रस्तुत पुस्तक जोईने अमने आनंद थाय ले के अमारो शुभ संकल्प, अमारा एक योग्य मुनि धना साधे उत्तमरीते पूर्ण थयो छे. साहित्य समालोचन हरिविजयसूरिनुं आसन जग धर्मगुरुओमां एक उच्च स्थान भोगवे छे. अकबर जेवा महावुद्धिवान् व्यवहारचतुर, गृढहृदयी, सूक्ष्मदर्शी अराजनीतिकुशल सम्राट्ना अंतःकरणमां, तेना देश, जाति, धर्म, स्वभाव, यने ध्येयथी तद्दन विरुद्ध संस्कारवाळा धर्मगुरुनो विरक्तिप्रवोधक धर्मबोध अनायासे उच्चस्थान मेळवे ए एक जगना इतिहासमा आश्चर्यजनक नॉध गणाची जोईए. प्रतापी सम्राट्ना, तेनी आसपासनी समग्र परिस्थितिथी अने तेनाखास थानुवंशिक जीवन-संस्का· रोधी विरुद्ध जता अनेक विचारो अने आचारो भिन्न भिन्न इतिहासकारोए अनेक स्थळे नोध्या छे, परंतु ते आचार-विचारानं यथार्थ कारण कोई पण लेखके स्पपरीत आपलं न होवाथी आधुनिक इतिहासोए-खास करीने युरोपीय इतिहासोए-ए विषयमा अनेक तर्क-वितर्को चलाच्या छे अने हजी ए चलाये जाय छे. पण कहतां खेद थाय छे के, जैन साहित्यमां, ए विपयनो खरो खुलासो आपना रा असंख्य पुरावाओ विद्यमान होवा छतां, कोई पण विज्ञाने आज सुधीमां ए पुरावाओनी तपास ९९ सुधां करी नथी. युरोपना विद्वानो तो विदेशी होवाथी कदाच ए बाबातमां ओछा उपालंभने पात्र होई शके परंतु भारतना पुरातत्त्वज्ञोनी ए विषयक उपेक्षा तो खरेखर अक्षम्य जगणी शकाय. युरोपना केटलाक विद्वानोने अकबरनी विविध अने परस्पर विरुद्ध एवी जीवनवार्ताओ मां क्रिश्चियन ध भनी असरना स्वप्न आववां लाग्यां अने तेमनां स्वप्रस्मरणोने अमारा देशवंधु विद्वानो यथार्थरूपे पण मानवा भने कहंचा लाग्या; परंतु कोईना मनमां ए विचार नथी आव्यो के जैनोना सैकडों लेखोमां अकबरनी जे आटली बधी प्रशंसा करवामां आवी छे तेनुं शं कारण छे, छ तरफ पण जरा दृष्टि तो नांखी जोईए. अमारा लोकोनी आवीज अनुकरण • प्रियता के प्रमादशीलताने जोईन परदेशी विद्वानो जे अमने मौलिकताशून्य अने गंभीर विचारविहीननी कुत्सित उपाधिभोधी संबोध्या करे. छे तेमां केटलेक अंशे सत्य अवश्य ले, एम अनिच्छाए मानवानी फरज पडे छे. resent प्रधान मंत्री शेख अयुल फजले आईन-ए-अकबरीमां अफवरना साम्राज्यमांनी प्रधान प्रधान व्यक्तिओनी जे लांबी टीप आपी छे, तेमां, प्रथम श्रेणिमां गणावेला सर्व श्रेष्ठ मनुष्योमां हीरविजय सूरितुं पण नाम दर्ज छ; तेमज पांचमी श्रेणिना मनुष्योनी नामावलीमां ए सूरिना प्रधान शिष्य विजय सेनसृरि अने भानुचंद्र उपाध्यायनां नामो पण आपलां छे. परंतु आजथी दश वर्ष पहेलां कोई पण देशी के विदेशी विद्वाने अघुल फजले नौधेला सर्व श्रेष्ठ मनुष्योमांना एक एवा ए हीरविजयनरि, तेमज पांचमां वर्गमां आपेला विजयसेनसूरि अने भानुचंद्र नामना पुरुषो कोण छे अने शा कारणथी तेमना नामो आईन-ए-अकवरी जेवा महात् ग्रंथमां नोंधवामां आव्यां छे तेनी तपास करवा माटे परिश्रम कर्यो न हतो. 'हीरविजय सूरि' ए नाम फारसीमां कोई जुदा प्रकार ती जोड. णीथी लखवामां आव्युं हशे तेथी आईन-ए-अकवरीना इंग्रेजी अनुवाद कर्ता मी ब्लॉकमेने ते नाम इंग्रेजीमां 'हारजीमर (Harigi Sur ) आवी रीतनी जोडणी करीने आप्युं छे. मी. ब्लॉकमेने आईन- ए. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० wwwwwwwwwwww.m www.www.wwwwwwwwwwhhane जन साहित्य संशोधक [भाग १ अकबरीमा आपेली नामोनी उक्त लांबी टोपमांनी प्रेमी विद्वाने, हीरविजयसूरिने केटलेक अशे उचित घणीक व्यक्तिओनी, बीजा बीजा इतिहासो उपरथी स्थान आपी, प. बावतमा इतिहासवेत्ताओथी थती पण ओळखाण आपवा बावत महेनत लोधी छे; आवती मोटी भलर्नु काईक संशोधन कर्यु छे. परंतु 'हरिजीसूर' नाम माटे तेणे कोई पण नोध सूरीश्वर अने सम्राट्मा मुनिराज विद्याविजयकरी नथी. जीए एज विषय अनेक ऐतिहासिक प्रमाणोना ___ आईन-ए-अकवरीमांनुं आ नाम सुप्रसिद्ध आधारे संपूर्णरीते आलेख्यो छे अने सम्राट जैनाचार्य हीरविजयसूरिन छे, एवं ज्ञान कराववानुं अकबरना इतिहासमां जगद्गुरु हीरविजयसूरि मान अमारा सद्गत स्नेही श्रीयुत चिमनलाल के महत्त्वनुं स्थान धरावे छे ते सारी पेठे समजा. डाह्याभाई दलाल, एम्. ए. ने घटे छे. तेमणे बना- व्यु छे. पुस्तकने प्रामाणिक बनाववामाटे मुनिजीए रसथी निकळता जैनशासन' नामक एक साम. यथेष्ट संभाळ लीची छे. परिशिष्टमां जे केटलाक यिक पत्रना, वीर संवत् २४३९ ना दीवाळीना कारसी फरमानो आप्या छे, ते आज सुधीमांजाखास अंकमा 'हरिविजयसूरि अथवा अकवरना णमा नहिं आवेला एवा छे अने तेथी पुस्तकनी दबरमां जैनो' ( HIRAVIJAYASURI महत्तामा उपयोगी उमेरो थयो छे. हीरविजयसूरि, or THE JAINAS AT COURT OF अकबर अने अबुल फजल विगेरेनां चित्रोथी पुस्तAKBAR ) एवा मथाळा नीचे, 'C' एवी संक्षि- कनी शोभा वार आकर्षक बनी छे. परंतु, हीर प्त सही लाथे, एक प्रामाणिक लेख इंग्रेजीमां विजयसूरीनी जे मूर्ति- चित्र आप्यं छेते तेवू सुन्दर प्रकट कराव्यो हतो.' ते लेखमांज:भाई श्रीदलाले अने आल्हादक नथी, तेथी कोई वीजीवधारे सुन्दसौथी प्रथम पुरातत्वज्ञोने ए अज्ञात वावतनी राकृति मूर्तितुं चित्र मेळववामां आव्युं होत तो माहीती आपी हती के आईन-ए-अश्वरीमा जे वधारे ठीक लागत । 'हरिजीसूर' एवं नाम मळी आवे छेते नाम अंते, आq उपयोगी, प्रामाणिक अने मूल्यवान् वीजा कोईनु नथी पण जैन समाज अने जैन इति. पुस्तक लखवा माटे मुनिराज विद्याविजयजीनुं पुनः हासमां प्रसिद्ध एवा आचार्य हरिविजयसूरिनु ज एकवार अभिनंदन करी अमे अमारुं वक्तव्य समाछे. अने तेनी लाथे तेसणे संक्षेपमा हरीविजयसूरि तकरीए छीए अने ट्रेक जैन अने जैनेतर विद्वान् अने अकवरना समागमनो सप्रमाण इतिहास ने एक वार आ पुस्तक अवश्य जोई जवानी खास पण आलेखी बताव्यो हतो. भलामण करीए छोए, भाई श्रीदलालनो ए मौलिक आविष्कार वांचीने ज प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ मि. विन्सेन्टए. स्मीथ साहेवे 'अकवरना जन गुरुयो'(THE JAIN TEACHERS OF AKBAR) ए नामनो तत्त्वार्थ परिशिष्ट मूल अने भाषांतर. एक महत्त्वनो इंग्रेजी निबन्ध 'भांडारकर स्मारक [' मूल कर्ता आगमोद्धारक आचार्य श्रीसागनिवन्ध संग्रह' (R.G.Bhandarkar Comme- रानंद सरीश्वरजी.-भापांतर कर्ता मुनी (?) मा moration Volume) मा प्रकाशित कराव्यो हतो, अने तेमां अकवरना जीवनमां हीरविजयसू- मु. अमदाबाद. मूल्य ज्ञानाभ्याल.' पृ.१८-१४८, नसागरजी. प्रसिद्धकर्ता मास्तर उमेदचंद रायचंद. रिए भजवेलो भाग संक्षिप्त परंतु स्पष्ट रीते वता __ समग्र जैन साहित्या वामां आव्यो हतो. तेवीज रीते पोताना 'अकबर' एक तत्त्वार्थसूत्र ज एवो नामना प्रसिद्ध पुस्तकमां पण ए साचा इतिहासः पमा जैन धर्मनं संपूर्ण स्वरूप समजी शके छे. ए र ग्रंथ छे के जैना अध्ययनथी जिज्ञासु मनुष्य संक्षे१ ए लेख पाछळयी, वडोदराथी प्रकट थता ' लाईबेरी ग्रंथ जैन धर्मना श्वेतांबर अने दिगंबर-बन्ने संप्रदा. मेसेलेनी' नामना त्रैमासिकमां पण प्रकाशित थयो हतो. योने समानभावे पूज्य अने मान्य छे. अलवत्, बन्ने Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] साहित्य समालोचन १०१ संप्रदायांना सूत्रपाठमां कटलोक पाठ-भेद अवश्य आ परिशिष्टात्मक सूबोनी संख्या १३० जेटली रहेलो छ, परंतु तेथी तेनी पूज्यतामां कोई पण छ भने ए मूत्रोमा घणा भांग खगोल भने भगोप्रकारनी भेद नधी. ए सत्र पर बन्ने संप्रदायांना लना विषयनीज पूर्ति करवामां आवी जे. जैन समर्थ पूर्वाचापि भाग्य टीका आदि अनेक व्या- मान्यता प्रमाणेना खगोल अने भगोल- वर्णन केटख्यानो करेला छ अने तेनो सर्वत्र प्रचार पण छ. लाक सूत्रनन्या सिवाय मुख्य करीने क्षेत्रसमास पज सूचना परिशिष्टरूपे लमालांचित पुस्तकनी अन संग्रहणी नामना प्रकरण ग्रंथोमा विस्तृतरीते रचना करवामां आवी छ. वास्तविकमां, सत्यार्थ. वर्णवामां आवलु छे.एग्रंथो वधारे विस्तृत होवाथी सूचनी रचनामां एवी कोई ग्यास न्यूनता नथी के संक्षेपमां तनुं ज्ञान करावधामाटे मा परिशिष्टनी जेथी तेनी पूर्ति करवा माटे परिशिष्ट अनावधानी रचना लागरानंदसरिए करी छे, एम भाषांतरकार आवश्यकता प्रतीत थाय. अने कदाच तेवी आव- जणाचे छ. परिशिष्टकार आचार्य, आविषयक जैन श्यकता जणाय ती पण ने कार्य पूर्ण अनुरूप तो साहित्यना शब्द-शरीरना समर्थ माता के एमा चीजा उमास्वातीर्थी व थई शके. बीजाए तेवी संशय नथी.ए विषयमा तेमना जेटलं सूक्ष्म ज्ञान प्रयत्न करचा ते अमारा लघुमत प्रमाणे तो एक प्र- भाग्यज बीजा कोई मुनि घराबता हशे. परंतु कार अनधिकारचेष्टा जर्बुज गणाय. पूर्वना महान् तेमनी आ प्रस्तुत कृति अमने तो अनुपयुक्त अने महान् आचार्याप केरलाक शास्त्रांनी प्रति मार्ट एवा असंबद्ध जैवी लागेछ कारण के एक तो या परिशिकैटलाफ प्रयत्नो कर्या छपरा परंतु ते पार्तिक के मां आपला लवीनी रचनामां कोई पण क्रम गोडभाग्यना नपमा छे, मूत्रना नपमा तो नहिं ज. अस्तु. बवामां मान्यो नी, अने बीजं सूत्रोनी संकलना मूल तत्वार्थशास्त्रनी नत्र-संन्या श्वेताम्बरोना पण लियार्थ मरेली छे. जो भावा प्रकारना परिपाठ प्रमाणे ३४४ ले अनं दिगम्बरोना पाट प्रमाणे शिष्टनी तेमने खास आवश्यकता ज जगाई हती ३५७ छे. जो के आम संन्यानी दृष्टिए जोता बन्ने तो जाते नवीन सूत्रकार अवानी आकांक्षा करतां संप्रदायांना पाठमा मात्र १३ ज सत्रानी फेर जणाय जूना प्रन्योमांधी नेवां सूत्रो घंटी काही संग्रहकार छेपरंतु वास्तविकमां तेम नयी कारण के श्वेताम्बरी- थवानी इच्छा वधारे प्रशंसनीय गणाई होत. य सूत्रपाठमांना केटलांप सूत्री दिगम्बरीय सूत्रः तन्वाथ सूत्रकारनी ज कृतिम मनाता जंबुद्धीपसपाठमां नथी अन तेबीज रीत दिगम्बरीय सूत्रपाठ मास नामना ग्रंथमांधी आ परिशिष्ट पूर्णते संग्रही ना केटलांए सूत्री श्वेताम्बरयि मृत्र पाटमां नथी. शकायतम . तमज दिगम्बर संग्रदायना सुप्रश्रीजा अध्यायमा ज्यां जंबुद्धीपतुं भौगोलिक वर्णन सिद्ध ग्रंथरत्न तत्त्वार्थराजवार्तिकमां आ जातनां थावलं छत्यांएक साथ श्यताम्बराय पाठ करत, एकथी एक उत्तम अन यत्युपयांगी दिगम्बरीय पाटमा २०-२१. सूत्रो सर्वथा पधारे भरेला छे, तेमाथी पण जो आ विपयनां चार्तिको छे. सर्वथा यधार एटला माटे के ते सूत्रोमां आपलं उदत करवां होय तो धणी सारी रीते करीशकाय घर्णन श्वेताम्बरीय पाटमां बिल्कुल नथी. श्वेताम्ब. तेम छे. प्रस्तुत परिशिष्टमाए पण केटलांक सूत्रों रीय सुन्न पाटना समर्थ टीकाकार आचार्य हरिभद्रे तादिगम्बरीय सूत्रपाठमांधीज-शब्दो उलट पालट दिगम्बरीय पाठना ए आधिक्य माटे टीका पण करीन जमनां तेम-लीघेला अमारा जोशमा आत्रे फरी छ भने जगान्यु छ के आ सूत्रो पाछी छ. तेथी तेम न करता तना तेज शब्दोमा जोते कोईण बनावी लीधा अने सूत्रकारना संक्षेप क- सूना राख्यां होत तो, आमां जे क्लिष्टार्थता नजरे रणात्मक अभिप्रायनी दृष्टिए तनुं अस्तित्व अयुक्त पडे न पडत. छे. याश्चर्य छे के ले जातनां सूत्राने हरिभद्रसुरिसूत्रकारनी अपेक्षाए, अयुक्त जणाचे तेज सातनां मुनि मानसागरजीनु करेलु भापान्तर बहुज नवां सूत्रो रची तत्त्वार्थना परिशिष्टम्पे सागरानंद. साधारण प्रतिनु छ अने केटलेक टेकाणे तो उलटो सरि प्रकट कराव छ. अर्थ-विपर्यास करावं तेत्रो छ. उदाहरण तरीके Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ RANAARA जैन साहित्य संशोधक [ भाग। एक दाखलो आपीशं. पांचमां पानामां नीचे प्रमाणे तेथी ए विषयना अभ्यासीने सहेलाईथी अर्थशान सत्र छ. थई शके तेम छे. 'उध्दृताश्चक्रिहरियुगाइजिनयतिदेश- आहि प्रसंगी एक जरा कडवी पण हितकर सम्यक्त्ववन्तः। वात सूचक्वानुं मन थई आवे छे के-सागरानंदआ सूत्रनी रचनामां जे खामी छे तेनो तोअमे अ.. . सूरि जेवा विद्वान अने प्रतिभाशाली मुनिए आजना जमानामां आवा अनावश्यक अने अनुपयोगी का. हिं निर्देश ज करवा इच्छता नथी.भापान्तरना विप - मोमां काळक्षेप करत्रो उचित नथी. समय घणो यमा ज अमारे थोडेक कहेवू छे. आ सूत्रनो शब्दा - बदलाई गयो छ. सर्वसाधारणनी आभिरुचि कोई र्थ अने विशेषार्थ नीचे प्रमाणे करवामां आव्यो छे. जुदा जविपयोना अभ्यास तरफ वधती जाय छे. 'शब्दार्थ-अनुक्रमे पहेली नारकी आदीथी । विद्वानोना अध्ययन-मनननुं साहित्य क्षेत्र भिन्नज नीकळेला चक्रवर्ती, बलदेव अने वासुदेव, आरहंत प्रकार थई रही छे. नवीन वातावरणमां उछरती केवली, सर्वविरति, देशविरति अने सम्यक्त्व बने केळवणी पामती प्रजानो आवी जातना लूखा, वाळा थाय छे.' नीरस, अनुपयुक्त, जूना विषयो तरफ अभिरुचि 'वि०-पहेली नारकीची नीकळेलो चक्रवर्ती वधे के श्रद्धा वेसे तेम बिल्कुल नथी. वर्तमान थाय, वीजी नारकीथी नीकळेलो जीव वासुदेव समयमा प्रत्यक्ष प्रमाणथी निश्चित भएला खगोल अथवा बलदेव थाय. श्रीजी वालका प्रभाथी नीक- अने भूगोलना सिद्धान्तो आगळ जगतना दरेक लो जीव तीर्थकर थाय.' इत्यादि. धर्मनाए विषयना जूना विचारो निस्तेज अने __ आ शब्दार्थ अने विशेपार्थनी वाक्यरचनायी अर्थहीन सावित थ्या छे, अने प्रत्येक धर्मना यहुतो वचकने एवोज अर्थावबोध थाय के पहेली श्रुत विद्वान् ते विचारोने अधिकांश कल्पना-प्रसूत नरकमांथी निकळेलो प्राणी चक्रवर्तीज थाय, बी. माने छ. जीमांथी निकलेलो बासदेव अगर बलदेवज थाय. तत्त्वार्थसूत्र में जाते कॉलेजियनो तेमज प्रेज्युएटत्रीजीमाथी निकळेलो तीर्थकर ज थाय. इत्यादि। डवलप्रेज्युएट जेवा उच्च शिक्षण पामेला अनेक परत यशानां परिशिपकारनो सानो सानो जैत-अजैन अभ्यासियोने तुलनात्मक भावार्थ द ना कहवानों जैन-अजैन अभ्यासियोने तुलनात्मक पद्धति भावार्थ एस नहिं हशे, कारण के तम होय तोते पण शीखव्युं अगर पंचाव्युं छे तेमां आवतो तदन असंगत गणाय. आ विषयमां शास्त्रकारोनो खगोल-भूगोल विषयक भाग केवळ विनोदनी अभिप्राय तो एत्रो छे के नरकमांथी निकळेलो खातर समजावतां पण मने घणो संकोच थतो जीव जो चक्रवर्ती पद प्राप्त करवाने योग्य होय तो हतो अने शीखनार तेवा एके एक सूत्र उपर सादते फक्त पहेली नरकमाथी ज निकळेलो होय छे. र उपहास व्यक्त करता हता. जो के हुँ केटलेक वासुदेव अगर वलदेव पदनी प्राप्ति पहेली अने वी- अंशे तेनुं समाधान अमुक पद्धतिए करी शकतो. जी एम यन्ने नरकमाथी निकळेला जीवोने होई परंतु यथार्थ समर्थन तो माराथी कोई पण प्रमाशके छ भने तेवीज रीते तीर्थकर पदनी प्राप्ति पहे- णथी न ज थई शकतुं. मने घणाक विद्वांनाएं तो ली, पीजी बने त्रीजी नरकसुधीमाथी निकळेला आवी खास सुचनाओ करी के के तत्वार्थसूत्रमाथा प्राणियोने थई शके छे. इत्यादि. आवी रोते वीजां आ विपयने लगतो विभाग काढी नांखी तेने पण घणां स्थल अर्थ-करणमां भूलो थयेली नजरे संक्षिप्त वनावधानी अवश्यकता छ के जेथी नवीपडे छे. आशा छे के बीजी आवृत्तिमां न शिक्षितोने आ विपयनी गंध सुधां न आंचे अने आ संबंधमा उचित लक्ष्य आपवामां आवशे. याकी तेथी तेमना मनम, आपणा पूर्वाचार्योनी बीजी एकंदर रीते परिशिष्टमा ए विषयनो सारो संग्रह अननुपमेय कृतियोनी प्रामाणिकताना संबंधमां थयो के अने साथे जे आकृतियो विगेरे आपी छे कोई पण प्रकारना कुतकों किंवा सन्देहो उत्पन्न Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] थवा न पामे. त्यारे वीजी बाजू सागरानंदसुरि जेवा एक सारा विद्वान् आ विषयना परिशिष्टो रचवामां महत्त्व समजी रह्या छे । जैन विद्वानों कर्तव्य छे के तेओ जगत्मां प्रसार पामती भिन्न -भिन्न ज्ञान शाखाओनुं विशाल अध्ययन करी, तत्त्वज्ञान, इतिहास अने साहित्य जेवा गंभीर विषयो उपर वधारे प्रकाश पाडे अने तेम करी जैन धर्मनं गौरव प्रकाशित करे. आ विषयमां अमारे जैन विद्वानाने धणुंक कहेवानुं छे जे यथावसरे कहेवामां आवशे. आजे तो फक्त सूचनारूपे आ वे शब्दो लख्या के आशा छे के नम्र अने प्रेमभावे लखाएल आ वाक्योनो सरल ज अर्थ करवामां आवशे अने भविष्य सागरानंद सूरिनी कोई आदर्श कृतिनी स्मरणीय समालोचना करवानी उत्तम अवसर अमने प्राप्त थशे. साहित्य समालोचन मुंबई युनिवर्सिटीनो एम्. ए. क्लासनो अर्धमागधीना कोर्स. गत अमां, मुंबई युनिवर्सिटीए पोताना अभ्यासक्रममां आ वर्षथी जे अर्धमागधी ( अथवा तो (प्राकृत ) भाषाने दाखल करी छे तेनो वी. ए. सुधीनो कोर्स आपी देवामां आव्यो छे. स्थळाभावने ली एम्. ए. नो कोर्स आपवो रही गयो हतो ते आ नीचे आपवामां आवे छे. ई. स. १९२१ ना वर्षमां. 1. उत्तराध्ययन सूत्र संस्कृत टीका साथे. 2. ( a ) Comparative Philology(1) Relation bet ween Sanskrit and Prakrit and between the Prakrits themselves, as in Bhandarkar's Wilson Philological Lectures. (2) General Principles, as in Gune's Introduction to Comparative Philology. /h History of Jain Literature -- १०३ (1 ) Buhler. - Indian Sect of the Jainas, translated by J. Burgess. Lazac & Co., London. (2) Weber. Sacred Literature of Jainas. (3) Warren. --Jainism. 3. Jaina Philosophy: Pravachanasara of Kundakunda, With the Baudha, Sankhya and Arhata Darsana, from Sarvadarsa - nasamgraha (Anandasrama Series) 4. Translation from and into ArdhaMagadhi. ई. स. १९२२ ना वर्षमां. 1. आवश्यक सूत्र पूर्वार्ध, हरिभद्रसूरिनी टीकासाथै, आगमोदय समितिए छपावेलुं. 2. उपर प्रमाणे. 3. Jaina Philosophy:-- Syadvadamanjari of Mallisena, with Baudha, etc. Darsanas as in 1921. 4. Translation from and into ArdhaMagadbi. ए सिवाय वी. ए. क्लासना ऐच्छिक विषयमां जे एक पेपर जैन साहित्यनो राखेलो छे तेमां नीचे प्रमाणेनां पुस्तको पाठ्यपुस्तको तरीके नियुक्त करेला छे. १९२०. १. आचारांग सूत्र ( मूळ मात्र ). २. हेमचन्द्राचार्यरचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष - चरित्र, पर्व १० ( महावीर चरित्र ) मांना सर्ग १-८. १९२१-१९२२. १. प्रवचनसार दीपिका साथे. २. बीजामां उपर प्रमाणेज. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन साहित्य संशोधक [ माग. पंजाव-युनिवर्सिटिमें जैन साहित्यको स्थान | आप स्वयं भी प्राकृत के अद्वितीय विद्वान हैं, आर जैन साहित्यसे हार्दिक प्रम रखते हैं। बंबई और कलकत्ता युनिसिटिमें तो आज कई वर्प चूंकि पंजाबमें संस्कृत पढनेवाले जैन विद्यार्थी हुए जैन साहित्यको कितनाएक स्थान मिल चुका है । परंतु. बिरले हैं, इस लिये अन्य धर्मी विद्यार्थीयों को जैन पंजाव-यूनिवर्सिीटमें अभीतक उसे किञ्चित् भी अवकाश साहित्य की और लाने के लिये एक वजीफा नहीं मिला था । उसमें कारण केवल पंजावके जैन भाईयों- (Scholarship) की आवश्यकता है जिस को की अनभिज्ञता और उपेक्षा ही है। पंजावके जैनिय में स्थायी रूप देने के लिके रु० १०००० चाहिए। मामूली शिक्षाका भी बडा भारी अभाव है तो फिर ऊंची जो महाशय इस खाते में दान देना चाहे वे इसी कक्षाकी शिक्षाके वारेमें तो कहना ही वया। यही सवव है पत्र द्वारा सूचना देवं ताकि रुपया शान यूनिवर्सिकि आजतक पंजाबमें, अन्य धर्माय सेंकडों ही ग्रेज्युएट टिमें भेजने का प्रबन्ध किया जावे।" संस्कृत के पारंगत विद्वान् हो गये हैं परंतु जैनियोमें वैसा एक रकालशिपके लिये जो सूचना बनारसी दासजीने इस निवेभी मनुष्य नहीं था। हमें यह जान कर प्रसन्नता हो रही है दनमें की है उसकी तरफ हम प्रत्येक विचारशील और उदाकि पंजाबके जैन समाजकी इस न्यूनताकी पूर्ति करनेवाला रचित्त भाईका लक्ष्य खींचना चाहते हैं। खास कर पंजाबी एक पुरुप तैयार हो गया है और वह है लुधियाना निवासी जैन भाईयोंको इस विपयमें पूरा खयाल करना चाहिए और श्रीयुत लाला बनारसी दास जैन | वनारसी दासजीने एम्. अपना कर्तव्य बजाना चाहिए। ए. तककी ऊंची शिक्षा प्राप्त की है और संस्कृत-प्रारुतका अच्छा ज्ञान प्राप्त किया है। आपका एक इंग्रजी लेख जै. सा. अशुद्ध-संशोधन. सं. के प्रथम अंकमे प्रकाशित हो चुका है । आप लाहोरके ___ गया अंकमां प्रकट थएला श्रीयुत हीरालाल ओरिएन्टल कालेजमें प्रोफेसर हैं। आपने हालहीमें बहुत कुछ परिश्रम करके पंजाव युनिवर्सिटिकी एम्. ए. की परी- शीर्षक लेखमां भ्रमथी एक-बे ठेकाणे अशुद्ध पाठ __ अमृतलाल शाहना "हरिभद्रसूरिनो समयनिर्णय" क्षामें जैन साहित्यको उचित स्थान दिलाया है और उसके छपाई गयो छे, तो ते नीचे प्रमाणे सुधारी पांचशुभ समाचार जैन साहित्य संशोधकमें प्रकट करने के लिये वानी भलामण करवामां आवे छे. भेजे हैं जो आपहीके शब्दोंमें नीचे प्रकट किये जाते हैं:- पृष्ठ ४१, कालम २,पंक्ति १३-१४ मां नीचे प्रमाणे "बडे हर्प की बात है कि पंजाब युनिवर्सिटिने पाठ छ:-- अपनी (संस्कृत की) सब से उच्च परीक्षा अर्थात 'आ ५९८ ने वर्तमान गणतरीए गणाता गुप्त एम० ए० ( AI. A.) में जैन फिलॉसफी तथा सा- संवत् तरीके....' हित्य को भी स्थान दे दिया है। इस वर्प निम्न तेना बदले नीचे प्रमाणे वांचqलिखित ग्रन्थ नियत हुए हैं: 'आ ५९८ ने मारी गणतरी मुजबना मूळ १ स्याद्वाद मञ्जरी (संपूर्ण)। गुप्त संवत् तरीके....' २ सूत्रकृतांग (प्रथम के ६ अध्ययन)। तेवीज रीते, तेनी नीचे पंक्ति २४ मां नीचेप्रमाणे ३ उत्तराध्ययन (प्रथम के दस अध्ययन)। पाठ छे-- ४ जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास (अंग्रेजी)। गुप्त संवत् ५९८....सिद्धर्षिए श्रीचन्द्रकेवली इसके लिये सारी जैन समाजको श्रीयुत ए० चरित्र रच्यु. तेने नाचे प्रमाणे सुधारी वांचqसी० वूलनर (Captain A. C. Woolner )- 'गप्त संवत् ५९८....सिद्धपिए (श्रीचंद्रकेवली लाहोर के ओरिएन्टल कालेज के प्रिंसीपाल-को चरित्र धन्यवाद देना चाहिये जो कि इस देशमें जैन । । चरित्रमा जणान्या मुजब ) ग्रन्थ रचना करी.' साहित्य के प्रचार का वडा प्रयत्न कर रहे हैं। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T बृहट्टिप्पनिकानामप्राचीनजैनग्रंथसूची H एकादशाङ्गानि । 1 ११. श्रीविषाकसूत्रम्-१२१६ । १. श्रीआचारांगसूत्रं श्रीसुधर्मस्वामिरुतम्-२५२५ । (१) वृत्तिः ९००। एकादशांगीसूत्रसंख्या ३५३३९ । (१) नियुक्तिः श्रीमद्र पाहुरुता ग्रन्थामम् ४५०, गाथा वृत्तिसंख्या ७४७९.। ३६२। (२) चूर्णि: ८३००। . 'द्वादशोपाङ्गानि । (३) वृत्तिः शीलाचाीया ९३३ वार्षिका, १२००० । २. श्रीसूत्ररुतांगसूत्रम् -२...। (१) वृत्तिः ३.२५ अभयदेवीया । (१)नियुक्तिः २६५, गाथा २०८ । १३. राजप्रश्नीयसूत्रम-२०७९, २१२० । (२) चूर्णिः १००००। (१) वृत्तिर्मलयगिरीया ३७००। । (३) वृत्तिः शीलाचार्येण कृता, १२८५० । १४. जीवाभिगमसूत्रम्-४७००। ३. श्रीस्थानांगसूत्रम्-३६०० । (१) चूर्णिः-१५००। (१)वृत्तिः श्रीअभयदेवैः ११२० वर्ष रुता,१४२५० (२) वृत्तिहरिभद्री प्रदेशवृत्तिनाम्नी ११९२ । ४. श्रीसमवायांगसूत्रम्-१६६७ ॥ (३) वृत्तिर्मलयगिराया १४०००। (१) वृत्तिः ११२० वर्षे अभयदेवीया, ३५७४ । १५. प्रहापनासुत्रम्-पत्रिंशस्पदमयम् - ७७८७ ॥ ५. भगवतीसूत्रम्-एकचत्वारिंशत्-शतकमयम् १५७५२ ।। (१) लघुवृत्तिारिभद्री-३७२० । . (.)चूर्णि: ३११४ । (२) वृत्तिमलयगिरीया-१६.००, १४५०० (१)। (२) अवचूर्णिः पत्तचित्कोशेऽस्ति । (३) प्रज्ञापनातृतीयपदसंग्रहणी श्रीअभयदेवसरिरुता (३) वृत्तिः ११२८ वर्षे अभयदेवसूरिकृता १८६१६ ।। गाथा १३३ । तदवचूरिश्व-४३० । ६. ज्ञानधर्मकथासूत्रमू-५४०० । । १६. श्रीचन्द्रप्रज्ञाप्तसूत्रम्-२०५४ । (१) वृत्तिः १.२० वर्षे रुता ३८०० । । (१) वृत्तिमलगिरीया ९५०० । ५. श्रीउपासकदशासूत्रम्-८१२ ॥ | १७. श्रीसूर्यप्रज्ञ-तिसूत्रम्-२२९६ । ..श्रीअन्तरुद्दशासूत्रम्-०९९ । (१)वृत्तिमलयगिरीया ९...। ९. श्राअनुसरोपपातिकदशासूत्रम्--१९२ । २. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रम्-४४५४ । (१) उपासक-अन्तकृत्-अनुत्तगैपपातिरवृत्ति:- (१)चूर्णिः १८७९ । १३००। (२) वृत्तिर्मलयगिरीया ९५००। १०. श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्रम्-१२५६ । १९-२३. निरयावलिका-कल्पावतंसिक-पुष्पिता-पुष्पधु. (१)वृत्तिः ४६००। लिका-दशा-(५) सूत्राणि-११०९ । देवसरिकृता १८६१६ चन्द्रप्रज्ञाप्तिसूत्रम् Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट [भाग १ (१) निरयावीलकादीनां पंचानां वृत्तिः, १२२८ वर्षे ।। (२३ ) चैत्यवन्दनाविचारो ग.यावन्धेन सूत्रव्याख्याआवश्यक-मूल-च्छेद-सूत्र-वृत्यादीनि । । । चैत्यवन्दनकप्रत्याख्यानभाध्याणि .त्रीण तपा. २४. मूलावश्यकसूत्रसामायिकादीनि, पड् अध्ययनानि-१०० रुतानि, गाथा ६३, ४१, ४८ । प्रमाणानि । (२५) चैत्यवन्दनामाष्यवृत्तिः संघाचारनाम्नी तपा(१) साधुप्रतिक्रमणसूत्रं तु ३० । श्रीधर्मघोषसरिकता ८५००। (२) ललितविस्तरा पैत्यवन्दनावृत्तिहरिभद्री १२७० ।। ( २६ ) चालावपोधा चैत्यवन्दनावृत्तिः खरतरतरुणप्रभ(३) ललितविस्तराटिप्पनकं देवसरिगुरुमुनिचन्द्रीयम् । सूरिभिः १३३१ वर्षे कृता ७०००। (२७) साधुप्रतिकपणादिषावधावश्यकसूत्रवृत्तिः नेमि(४) चैत्य-साधुवन्दन-श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः ९५६/ साधुना ११२३ वर्षे रुता १५५० । ___ वर्षे पार्श्वेण कृता २००० प्रमाणा। पंचपरमेष्ठिविवरण प्रारुतगाथासयं ववन्तरका (५) ईर्यापथिकी-चैत्यवन्दनासत्र-इन्दनकानि । थन् ११६८ ६र्षे मातिसागरम् गाथा २५० । (६) ईर्या० १५० चैत्य० ८४० बन्द ७२७ चूर्ण- (२९) आवश्यकनियुक्तिः ३१००, २५५० । यः ११७४ वर्षे यशोदेवकृताः। (३.) आश्श्यकचूणि: ११६.०, १८४७४ । (७) प्रत्याख्यानस्वरूपं यशोदेवकृतम् गाथ-३६० ।। (३१) आवश्यकबृहवृत्तिहरिभद्री २२०००। (८) प्रत्याख्यानवृत्तिः-५५०। ( ३२ ) तहिप्पनकं सलधारि-हेमचन्द्रीयम् ४६४० । (९) चैत्यवन्दनादिसूत्र-साधु श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रपदप. । (३३) आवश्यकवृत्तिर्मलयगिरी या १८०००। र्यायमंजर्यः-अकलंकदेवस्रीयाः । (३४) लघुवृत्तिः श्रीतिलकीया १२९६ रुता१२३२५॥ (१०) श्राद्धसामायिक-तिक्रमणसूत्रव्याख्याप्रकरणम्-- (३५) आवश्यकावचूरिः प० २२६ । ११८३ वर्षे जैनदेवम् गाथा २९३ श्लोक ३६५।। (३६) विशेषावश्यकसूत्रं जिनभद्रगणिरुतम् ४०००। (१) चैत्यवन्दनामहाभाष्यं श्रीशान्तीयम्, सुत्रव्या. (३७) वृहद्वृत्तिलधारि-हेमचन्द्रीया २८०००। ख्याचरणादिवाच्यम्-'महामहपणमंत' (३) वृत्तिर्मलयगिरीया ९००० नास्ति। इत्यादिपदम् गाथा ९२२। (३९) जीर्णा वृत्तिः १४०००, पत्तनं विना नास्ति । (१२) चैत्यवन्दनाभाध्यवृत्तिः । | २५. ओयनियुक्तिसूत्रम् ११६४ ॥ (१३) पढावश्यकं चैत्यवन्दनादिसर्वसूत्रव्याख्यारूपम् (१) चूर्णिन स्ति। तपाश्रीदेवेन्द्रसुरिरुतम् २७२० । (२) मध्यम् ३००. नास्ति । (१४) चैत्यवन्दनादिवृत्तिः कुलप्रदीपः २४५८ । (३) वृत्तिोणीया ६८२५ । (१५) चैत्यवन्दना-वन्दन-प्रत्याख्यानवृत्तयः श्रीतिल (४) वृत्तमलयगिरीया सूत्रमित्रा ८८५. नास्ति । कीयाः ५५०। | २६. दशवकालिकसूत्रम् ७००। (१६) श्रादप्रतिक्रमणसूत्रलघुवृत्तिः श्रीतिलकीया ३०० (१) नियुक्तिः गाथा ४४५, ५५२। (१५) साधुप्रस्क्रिमणसूत्रवृत्तिः श्रीतिलकीया २९६ । । (२) चूर्णिः ७०००, ७९७० । १०) चैत्यवन्दनाटीका हरिभद्रीया ४८२॥ (३) वृवृत्तिहरिभद्री ७५५० । १९) साधुप्रतिक्रमणसत्रवृत्तिः आवश्यकबृहद्धत्तिगता। (४) वृत्तिः श्रीतिलकीया नमिचरित्रग्मी ७.०० । (२०) साधुप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः १३६४ वर्षे जैनप्रभी (५) लघु-वृद्धृत्युद्वाररूपा मुमतिसूरीया २६०० । ५४८ । | २७, पाक्षिकसूत्रम् ३०.1 (२१) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि:११८३ वर्षे विजय (१) वृत्तिः यशोदेवरुता ११८० वर्षे २७०० । सिंहीया ४५९०। २८. पिण्डनियुक्तिसूत्रम् ७०८ । (२२) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः ३२२२ वर्षे श्रीचं- (१) वृत्तिस्ति ४०००। द्रीना १९५०। . (२) लघुवृत्तिराद्या, तत्राद्यानि १३५० हारिभद्राणि, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक 1 प्राचीन जैनग्रंथसूची पनि नु १५. देवानाभित्र्यवीराबाश- (५) यंदहविषापधिनिः १३६४ वर्ष जैनप्रभा । नानि 0.1 ३८, महानिशीथमत्र स-मध्यम-वृवाचनम् ३५००, (निर्मल गिराया मिश्रा ५.० ४२००, ४९४८ ॥ २... उनाध्ययनं पदजिदययनमय मृत्रम ...। . ३.. पंचकर :३३ । (1) युक्ति: 5.., गायः ६.31 । (.)नियुक्तिनास्ति । (2) नावान्टियनानाशिवता ५९.००, ५०५०। (२) भाप्य संघदामाणिकृतम् गाथा २१४४,३०३५। ()लनः ११९ व देवगम्यमानानश्रीनेमि , (३) चर्णिः ३०००,३३६ चन्द्रनगया मधुत्रा 120.01 ४०, जीतकलमूत्रं जिनभद्रीयम् गाथा १०५। (४) अन्याचा या वृहदानः नृत्रीमा ८०. (3) भाष्यम् ३१.५ नास्ति। ३०.निमीया दिशमयम १२,१५.। (२)र्णिः द्धिमेनीया १०००। (१) वृरनाम्यन्न १०. (३)पिटियन भगु० गु.३ बिना न। . (2) कृतिः 1२२८ वर्षे श्रीतिल कीया १८००। (नियन्नित्र-माध्यामि०८०० (5)जीतकल्पाविवरणं संक्षप्तगमानिकारूपमू 'मिरि(४) नियमविशव्यान्या ११७३ वर्षे पाव वीरनि नमिई' इति ५४३। देवपनिकता 1100नस्ति। (६) अजीतकास्य नत्र-वृत्ती श्रीतिलकाय गाथा (५)नियमितमोशन, १३७१ व श्रीचन्द्री- ३. वृनि० ११५॥ या 11: (1) यतिजातकणस्य श्रीमानप्रभसूरीयम्य वृत्तिः सा३. कम्पविशेष ३it धुरत्नमूरीया ५७००1 १२. : १२.३०.1 (८) श्रादीतपस्य दपाश्रीधर्मघोषनरीयस्य वृभिः ३३. कान्तिः नृत्रमाभ्यगर्मा. आद्यानि १६०० मलयगि- . श्रीमोमनिटकसूरीया २६.. न । यायिः, नेत्रा नु १३२ वर्षे नपाक्षेमकीनीया ४१. नन्द सूत्रम् ७००। (1)चणिः ७३३ वर्ष कृता, स्तम्भतार्थ विना नास्ति। ३१. व्यवहारसत्रं देशोदशकममा (2) लघुधिर्नास्ति १६०० प्रमाणा । (१)माध्यम ४० । (३) नन्दोवृहदुत्तिर्मलयगिरीया ७७३२ (३)वृषिः १२...1 (८) हिप्पन श्रीचन्द्रीयमाद्यावृत्तिसत्कम् ३३००। (३) व्यवहारतः नृत्रमागर्मी मलयागीया : ४२. अनुयोगद्वारतूत्रम् गाया १६०४॥ (१) णिजिनदासनदत्तरीया २२६५ । ३५. ऊपत्रं पड़-मंगनयमा (२) लघुवृत्तिास्ति। (1) मान्यन १२०००। (६) यवृत्तिर्मलधारिहेमचन्द्रीया ५८०० । (२)माध्यम .. ४३. आनुरप्रत्याख्यानम् गाया ८४-१३४ | (3) विशेषणिः १६०० (1) बानुरप्रत्याख्यान्वृत्तिराञ्चलिकमुवनतुंगारिकता ३, दशातरमन्यन्त्र दल व्यवन न्यम् २१०६, १९९५ ६३ ध्यानकनामगर्मा ४२०॥ ()नियुक्तिः १४४, २२० । ४४. महामत्याख्यानमुद्रम् १४३। (:) चूनिः ४३६१ ४५. देवेन्द्रस्तपः गाया ३०३॥ ३५. पर्युषगाकान्त्रम् १२१६। ४६. तंदुलविचारिकम् ४००1 (१) नियुक्नि: गाथा ६८॥ ४७. मुस्तारकः गाया १२१॥ (२) चर्णिः ७००। १८. भवपरित १७१। (३) कल्पनिम्नटिप्यन दिनयचन्द्ररिकतम १५८४९. आराधनापताका, १०७८ वर्ष वीरभद्राचार्यरुता ९९३॥ (४) कल्पटिशनकं पृथ्वीचन्द्रीयम् ४०1 । ५०, गणिविद्या गाथा ८५॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट [भाग १ ... अंगविद्या पष्टिअध्यात्मिका ९००० 1 . पञ्चानिकायसंग्रहाऽभवसनयस्य वृत्तिः, अन्नचन्द्र५.. सरजम गाया १४ ॥ नूरीया देव [पत्तन] विनना (1) चउसनदृनः आञ्चलिकनुवननगरीया ८..: ' ३४. प्रवचनमान्य वृति, अमृतचन्द्रसूरीया देव० विना न ! ५३. पसागरप्रतः गाया २२३ लोकाः २८० ७. पात्रसूत्रं प्रातमूलक. नत्राशि २९० । ५४. ज्योतिष्करण्डत्तिः मन्त्रा मलयगिरीया स० १८५० ७६. पचवस्तुकसूत्रं हारिभद्रम्, १६९४ । ५६.मरणसमाधिः मथा ५६ । (.) पचवन्नुटका हारिभद्री, ५०५०। ...नीयाँद्वारा गाया १२३३। ७. पद्राराकानि १९, हारिभद्रागि, १९८४ । ५७. मिदनानुन नसुत्रम् १२, वृतिः ८५० (१) पाशवृत्तिः १९, नवागअभयदेवः ११२४ दः शता, ७४८ ५८. निरपवनक्तिः २०० नास्ति। ५९. चन्द्रवेषकन १७४ : (६) आयात्रास ि१७२ वर्ष यशोदेवीया भावाच्या, ३३००। ६०. अजीवजन्म गाथा टर। । ७८. शेडसूत्रं हारिभद्रं, ३३ । . गच्छाचारः गाया ! २.वारस्तवः गाथा ४३ । . (१) पोडशकतिः , १५०० आगमेनर-चरणकरणानुयोगादिग्रन्थाः पागारमन्या । ९. ३२ अन्वृत्तिः १०८० वर्षे जैबरी, ३३७४।। । . ८०.धर्मनाक हरिभद्रे २७३, २५६ । .६३. मुदवाडियमवाट पदारवाचकलन ::००० धर्म वन्दनिमोनिया, ३०००। १५. यमुदेवाडि द्वनीचन्हं अरावा ६०० ८२. .गदिन्दनं हारिम, ५२० । ६५. वसुंदवमध्यनलाई संग्रहणी ९००० (१) चोगन्दुिवृत्तिः ६६२० । ६. पिनापिनानि ४१८! ८३. प्रशमरतिवृतिः १८५ वर्ष हरिभद्रीया, १८००। ७. सह-मुहल-निगोद-बन्ध-पद्दनिमिभानयोरनहिसारबिन्तारिताः। । ८१. श्रावकागकादि-विकार-गाधादिवृत्तिजयदेवमूरि६८. स्वार्थमूत्रं नानात्वातं३२५ । (.) भाष्यं वृति। ८५. दर्शनसत्तरी हरिभद्रो, गाथा, १२० । (:)ोचा भास्वामिशिवितेनीया भव्याख्या : ८६. जीवसमासवृत्ति धारिदमचन्द्रीया, ६६२४ ॥ • ८७. नवतन्त्रगाथानां देवगुप्त यानां नायव नवाडामस्मा १८२८२, २२२०२। (३) चालवृतिः दिगम्बरी देव. विना नान्ति। भयदेव यस्य वृत्तिः १६७४ वर्ष यशोदेवी, २४०॥ ६९ श्रावनीप्तसूत्रं मात्नातं ४००। ८८." एणविहं समन्ह' इत्यादि सम्यक्त्व गाथा(१)वृत्तिइरिभद्री २३३॥ निः, १०५। ...विशेगनवतावं जिनमद्रामाश्रमणकृतं गा४३८।। ८९.शिरमारप्रकरण प्रचन्ननतिं सोपयोगि, बहुम (१) विपन-ननान्ति। गाथा, ८९५॥ १ प्रननमारोवार ७६ वारस्य नमिचन्द्र मा १०. पक्या संदोहः .............। २००० गाया ६.६ : (१)पवयम संदोवृत्तिः ..........। 1.पिदिषगाशकास्त्रो पात्रोदेवेन्द्रसरोये-७१० (1) दृनिः २०४० निवस्त्रामा, २७६ द्वाग, १२४६ . योनिगमतं वातात् ६० धारटेनम् । व सिद्धमनमुरिकता १८...::.. . विविधादिमत्रं जन्यल्लम-गाथा-१.३ ॥ (२) विपनपदीया गु. दिनाना (५)ति: १७५ व योदेवी-२६..! ( धर्मसंप्रमाइनिर्मलमलिया, नमश्रा...... (२)दग्मिा लयुद्धतिला-५01 १०५०० प्रत्यार। अतः १९८० वर्षाचन्द्ररिया ४४०० 2. समसान्टका अमृतचन्दना गाद लम्र अनुत्तिः ११६ वर्ष यशोदेवी-२०००। तुतिः ११८०६ चन्द्रसीया ४४०८। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २] प्राचीन जैनग्रंथसूची ९४. कर्मप्रकृतिसूत्रम्-गाथ-४७५ कवृत्तयः ५ मूत्रकारलपाश्रीदेवेन्द्रतरीयाः, १८८२, (१) मलयगिरीया तसत्रा-2...। ३०, १८५, २८००, ४२४.1 (२) वेदनादि ८ करणवाच्या चूर्ण:-७०००। (३) कर्मप्रतिनिटिप्पनकं मुनिचन्द्रगम १९२०।११५ सत्तरीटीका प्रारुता प्रानन्द्रगणिमहत्तरीया २३००, ९५. पञ्चसंग्रहस्य शतक-सप्ततिका-कपायप्राभृत-सत्कर्म- १२२८ कर्मप्ररुति-संग्रहात्मकस्य वृत्तिः सूत्रकारचन्द्रर्पिः ११६ सत्तरिटिप्पनकम, खरतरसरामदेवगणिरुतम्, गाथा, रुता, पत्तनं विना न ५४७३ (१) वसंग्रहात्तमलयगिरीया ......। ११७. सत्तगटीका मलयगिगया.......। ९६५कमंग्रवृत्तिमलयदीपकम (?), प्राक तुल्य दंग । ११८. सत्तरी प्यं नास्ति । म्बम् , भृ० दे० विना न । ११९. बृहत्संग्रहणी जिनभद्रगणरुतम्, गाधा, ५३० । ९७. बृहत्कमीवरावृत्तिः परमानन्दरुता-९६० । (१) वृहत्संग्रवर्णावृत्तिः । १३९वर्ग शा.लिभद्र २८००९८. बृहत्कर्मविपाकारीपनकम्-उदयप्रभसूरीयम् ४२० । २५..। ९९. बृहकर्मस्तववृत्तः श्रीगोविन्दाचार्यरुता १०.९- (२) बृहत्संग्रहणावृत्तिालयागरी ५०००। १०९०। (३) लघुपंग्रहणीवृत्तिः, 'नाम अरिहंताई ' ति, १०.. बृहत्कर्मस्तवटिप्पनं वृत्तिरूपम् उदयप्रभसूर्गयम् । मलधारिदेवभद्रीया ३५००। १२०. बृहरक्षेत्रसमामवृत्तिालयगिरी ७८८७ । १०१ वृहद्वन्धस्वामित्ववृत्तिः ११७२ ६५ हरिभद्रीया- १२१. बृहक्षेत्रमासवृत्तिः सिद्धिगया ११९२. वर्ष, ५६० । १०२. वस्तुविचारसाराख्रवृहस्पडशीतिकस्य जनवमस्य | १२२. बृहक्षेत्रसमामवृत्तिः, १९३३ वर्षे देवपट्टी या १०००, वृत्तिः प्रारुता रामदेवी ८०५ ।। स्तम्भने । १०३. आगमिकरस्तुविचारसाराऽपरनामकस्य जिनवल्लभी-1 १२३. बृहरक्षेत्रममासलधुवृत्तिनास्ति । यस्य बृहत्पडशीतिकस्य वृत्तिर्मालयगिरी २१४०। । १२४. लघुक्षेत्रसमासवृत्तिहरिभद्रपुरीया ५११॥ १०४. वृहदातकवृत्तिर्मलधारि-हेमचन्द्रीया ३७४०। | १२५ क्षेत्रसम ससूत्रं संस्कृतमान्हिकचतुष्टयरूपम् उमा । १०५. जिनवल्लभायस्य सार्वशतकस्य सूक्ष्मार्थविचारमाय. । स्वातिवाचकरुतम्.......। पराग्व्यस्य वृति: १९७१ वर्षे हरिभया ८५० । (१) वृत्तिः , २०४०। १०६ सुस्मार्थविचारसारापरनामक-जिनवल्लभ'यसार्धशतक- १२६. जम्बूद्वीपसंपदणी वृत्तिः १५० । त्तिः ११७१ वर्ष धनेश्वरीया ३७०० । १२७. वैतरागस्तवाः .......। १०७. शतकवृणिः २३८ । (१) वृत्तिः प्रमानन्दी २०२५ । १०८. शतकटिप्पनकम-उदयप्रभसूरीयम् ०७४ | १२५. शोमनस्तुनयः ९६। १०९, आगमिळवस्तुविचारसारस्य ___' वृहत्पडशीतिक (१) वृतिः पं० धनपाररुता, ९५०। इति प्रसिद्ध नाम्ना जनवल्लभस्य वृत्तिः-यशोदेवीभट्ट- १२९. धनपालए वाशिका । मुरीया (?)-१६३० । (१) धनपालपञ्चाशिमावृत्तिः प्रभानन्दमूरीया ६४०, ११०. मूक्ष्मार्थविचारसाराऽपर पसार्धशतकवृत्तः टिप्पन ११..! कम् १४००। १३..निम्मलन हे वि' इति धीरस्तवस्य पं. धनपाकस्त. ११. सूक्ष्मार्थविचार राख्यसार्धशतकवृत्तिः प्रारुता। स्य वृत्तिः भराचार्यरुता २२५॥ ११२. आगमिकवरतविचारसाराग्यपदशीतिकवृत्तिः ११७३ / १३१. भक्तामरप्रदीपिका भृगुपुरं विना नास्ति । वर्ष हरिभद्रसूरीया ८५०। १३२. भक्तामरस्तस्यूनिः गुणाकराचायः १४२६ पर्ने ११३. नध्यकर्मविपाकवृत्ति-नव्यकर्मस्तरवृत्ति-नव्यबन्ध कता, १९७२। स्वामित्वाऽत्रचूर्णि-नव्यपहशातिनि -नव्यशत-- | १३३. 'जनेन गेन' स्तुनिवृत्तिः ३०५। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोध-परिशिष्ट [मार, १३४. जिनेन्द्रनो' इलादेबील्लुटकः ९६१ ११. राजवादि इयतयाः परप्रातः, ३८. दो डिनमारत द्वाति१. सत्राऽखिल ५.८, नगन ४, अपन २८ वाच्यःः ३५०३।। नुनयः, इलाकामा ४, ६ रन 2, देवेन्द्रनि- १५. नमुंजयमाहात्य, अलिनायन, आधुनिश्चनेदाद देन::, मिटा ३५६. वेदममा- दीयन् । ३८२, श्रीक्षेत्रकन, इसदिन्तवनानि व मोम- कनयन्यः, पालिकाः , पलनं विना न ! दिलगानि १.०१-५०-६::-- - ५७. नवनामानि काव्यानि ४२ प्राकृतानि । १५८. विवेकदिलानो जिन्दनविकता बानालासात्मक १३.बिनानिलाइन, सानोविन्दया 01. १५९, नोनीतमोदेवमुरिलता। ..पदी १७ पदयमयी मालिकाना १२.४ 18. जयविद्युमरकृतिः २५.! नन्द्रनिहाच मता ५४५० । १२. निम्नति-नर-मा- मन-सि .निवार्थमिततनिमाजमनामतगंधर भव-नयाहिट-महिमामलापन: १३६५ र हरियम नायटिकाभिमानित 52-. पर- नलवृतं या दृतः १. १६३. आसामननं वाहनोदविक्ष मतपदीर्वनगरः इति विपनदिन! धम्! ?..वसंत्र इत्यादिव्यन्दनः३०८॥ १३.अ.वमामात्रावृत्तिर्देवगुभावाचा १२० ४२. चनेनन्ततिः । 5६४, प्रवचनमाक्षिदि २५ अधिकारप्रतिवद्रा आरम्पकाः १३. पिहननाः शिवः ५ : ४३ वर्षे आकुलमण्डनीयाः । १४४,२४ दिनमः२४,१, गाथा भनटवन्मदि- पासनावारी ७००। ६. अमावारी अविनर नलवारिदेवानमुरीया । ४५.१४ गिनतवाः २४, ८,८ गाथाः, व्यवना . नमावारी सुधा नयनांचा धनवशिषद- . यानलधान्वितनयः। श्रीचन्द्रमा ४५, -१२२ ४. अम्ल तादगतकति आमगन्ता २५, १८ मावारी भनेकविधा गटानगया। शाशंपनुनिता, अनारमुम-बाबद- १६२. मसान्त देवदारकम् । विच्छेदः, सुकन्यानि १० दृतिः १७. उपदेशमानः प्रहमा कुष्मतिविन्यजयासइ. १४, मन्ना-नुन नृद्दिनेन डे मनमा १० पदेशनालाति: मिट्टीया हेयोपदिवसादिका। इत्यादि २४ हिन्दः४. वृतयः दिगममा.. '१७२. योपादेलार्दिक नादि यानिजिता . ५००, १५० २. मनालाकि १२९९ कै दयनी नत्रा १४.'कारामनामात्र आञ्चलिन १९३७४, समूत्रा-१४, । ४.दाही उपमालवृत्ति गली . १२३ दरें अत्रा १११५०, रसुवा ११८२९॥ दमदत. :. उपदेशनालापुनःनिकीमा ३.८६ । ३३. उपदेशनालावृति योगदत्यादिशा मिसरांचा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २1 प्राचीन जैनग्रंथसूत्री १७७. पुप्पमालावृत्तिर्मलधारि-सूत्ररुत्-हमचन्द्रः ११७५] २०१. नवपदवृत्तिः कुलचन्द्रादिरुता १०४३ वार्षिकी वर्षे रुता १३८६८। १७८. धर्मोपदेशमालावृत्तिः ११९० वर्षे मुनिदेगया२०२. नवपदवृत्तिः १६५ वर्षे यशोदेवोपाध्यायरुता ६८.०। ९५..। १७९. धोपदेशमागलघुवृत्तिः ५१५ वर्षे जयसिंहीया। २०३. अभिनवनवपदवृत्तिः ११८२ वर्षे सूत्रकारदेवेन्द्रीया १८. धर्मो देशमालाविवरणं स्तम्भत थै विना न । ९०००। १८१.भवभावनात्तः, सूत्रकृन्-मलधारी-हेमचन्द्रीया २०५. भगवतीद्वादशशतकंगततृतीयउद्देशसत्कजयन्तीप्रश्नोत्त११७० प १३०००। १०२. दिनरुत्य वृत्तिः तपाश्रीदेवेन्द्रीया १२८२० ।. रसंग्रहप्रकरणस्य मानतुंगीयस्य वृत्तिजयन्तिचरित्र१८३. धर्मग्नवृत्तिः तपाश्रीदेवेन्द्रीया श्राद्ध २१ गुणादि वाच्या प्रारुतमूला १२६० वर्षे मालयप्रभी ६६००। । २०५. ठणवृत्तिहमसूरिगुरुदेवचन्द्रीया, तत्सुत्रं प्रद्युम्नसूरकवाच्या ९७००.९६.२ । १८४. हितोपदेशमालावृत्तिः सूत्रकार-प्रभानन्द-अतृ ५० तम् १३००० (वृत्तिमानम् )। परमानन्दीया १३०४ वर्षे ९५०० । | २०६. धर्मोपदेशप्रकरणं प्राकृतमूलं-बहुकथासंग्रह १३०५ १८५. सम्यवत्ववृत्तिः सूत्रकार-चन्द्रप्रभसूरि-संतानीय-श्री. वर्ष यशोदेवीयम् ८३३२ । तिलकीया १२७७ यापिकी ८०००। २.७. पवज्जाविहाणवृत्तिः १३३८ वर्षे प्रद्यम्नीया ४५००। १८६. सम्यक्त्व वृत्तिः मारुतकथागी १२०००। २०८. पवनाविहाणवृत्तिः जैनप्रमी २४८ । २०९. धर्मावधिप्रकरणवृत्तिः जयसिंहसूरिकृता १११४२ । १८७. दर्शनशुदिवातिदेवभद्रतरिहना ३०००१ २१०. धर्मविधिप्रकरणवृत्तिः १२९६ वर्षे उदयसिंहाचार्थीया १८८. दर्शनशुद्धिः संदेहविपीपधीनाम्नी गया २६२।। ५५२० । १८९. माणुस्सबिते । ति विवेकमनरावृत्तिः १२२३ वर्षे अकलकदेशीया।। २११. ऋपिमण्डलस्तयः संस्कृते मेस्तुंगरिकत: कारिफा ७०। १९०. विवेकमकरवृत्तिर्यालचन्द्री ...। १९१. उपदेशकन्दलीवृत्तिालचन्द्री ७६०० । २१२. ' इसिमंडल ' इत्याद्यऋषिमण्डलस्तवः गाथा २७१। -१९२. शालोपदेशमालावृत्तिः १२९४ वर्ष रुद्रपाद्रीय सःम- २१३. ' इसिमंडल ' इति ऋपिमंटलतः.४६१४ । तिल कीया। २१४. 'भत्तिभर' इति ऋषिमण्डलसूत्रम् २००। १९३. योगशास्त्र १२ प्रकाशवृत्तिहमी १२००-१२३००। (१) अस्य वृत्तिः आंचलिकभुवनतुंगीया । १९४. योगशास्त्र केवल ४ प्रकाशवृत्तिः | २१५.गौतमपृच्छावृत्तिः खरतरश्रीतिलकोपाध्यायरुता५६००। १९५, उपदेशपदसूत्रं हारिभद्रम् १०४०। (१) उपदेशपदवृत्तिः ११७४ वर्षे निवन्द्री सूत्र कथानुयोगग्रंथाः। गर्मिता १५५००। | २१६. कथाकोशसूत्रम् गाथा २३९ ।। १९६. संवेगरंगशाला ११७५ वर्षे नवागाऽभयदेववृन्दभ्रातृ (१) कथाकोशवृत्तिः ११०८ वर्षे जैनेश्वरी ६०००। जिनचन्द्रीया १००५३। १९७. वन्दनकुलकवृत्तिः श्रीजिनकुशलसरिता ४३७० २१७. कथामाणकोशवृत्तिनमचन्द्रत ४१ अधिकारसत्र व्याख्यारा ११९० वर्षे आनंदवी। पावात्र न (१)। १९८. विषयविनिग्रहका यत्तिः १३३७ वर्षे मालचन्द्री २१८. शीलभावनावृत्तिः १२२९ वर्षे रविप्रभी ९५७०। २१९. कथारत्नकोशः सम्यक्त्वादि ५० अधिकारः १:५८ १०००८ स्तम्भतीर्थ विनान । वर्षे देवभद्रसूगैयः १२३००। १९९. नवपदवृत्तिदेवगुप्ताचादिभिः १०७३ वर्षे कृता | २२०. धर्माख्यानककोशवृत्तिः प्रारुतबहुकथामयी पत्तनं घि. २१७०। २००. नवपदवृत्तिः १०७३ वर्षे जिनचन्द्रागण्यायेः रुता- . ना न । २२१०। ।२२१. दानोपदेशमालावृत्तिः पत्राणि ७१। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक -पारीशष्ट [ भाग 4 २२२. प्रश्नात्तरमालावृत्तिः १४२९ वर्षे देवेन्द्रसूररुता। । २४९. विमलचरितं सं० न । २२३. उपदेशचिन्तामणिः १४३६ वर्षे आंचलिकज पशेखर- २५०. विमलचरितं प्रा० न । सूगिकता १२०९३ । २५१. अनंतचरितम् प्रा० गाथावद्ध १२१६ वर्षे श्रीनेमिचन्द्र२२४. श्रीआदिनाथदरित्रं प्रारुतम, जयसिंहदेवराज्ये११६० सूरीयम् गाथाः १२००० । वर्षे वर्धमानसूरिचितम, ११०००, १२००० । २५२. धर्मचरितं सं० नेमिचंद्रीयं न । २२५. धीआदिनाथचरित्रं संस्कृतं संप्रति न । २५३. धर्मवीरत प्रा० न। २२६. श्रीअजितरितं सं० न । २५४. शांतिचरितं सं. १३३२ वर्षे मोनिदेवम् ४८८५। २२७. श्रीश्रीजतचरित प्रारुतं न । २५५. शांतिचरितं सं. माणिक्यसरीयम् ५५७४ । २२८. श्रीसंभवचन । २५६. शांतिचरितं सं० पौर्ण-अजितप्रभसूरिभिः १३१७ वर्षे २२९. अभिनन्दनर० सं० न । रुतम् ४९१।। २३०. मीभनन्दनच० प्रा० न । २५७. शांतिचरितं प्रा० गद्यपद्यमयम् ११६० वर्षे श्रीहेमगू२३१. मुमतिचरित संन । रिगुरुदेवचन्द्रसूरीयम् १२१.०1 २३२. सुमतिचरितं प्रा० मुख्यं सेःमप्रभीयं कुमारपालराज्ये २५८. श्रीशांतिचरितं सं० श्रीमणिभद्रसूरिणा १४०२ वर्षे रुतम् ९६२१॥ रुतम् ६२७२। २३३, पद्मप्रभचरित्रं प्रारुन। २५९. कुंथुचरितं सं० विबुधप्रभसरिरुतम् ५५५५ । २३४. सुपाचचरतं संस्कृतं न । २६०. कुंथुचरितं प्रा. न । २३५. सुपार्श्वचरितं ११९९ व लक्ष्मणगणिरुतम् गाथा २६१. अरचरितं प्रा.न। ८७०० श्लोकाः १०१६८-१०९८८ । २६२. अरचरितं सं० न । २३६. चन्द्रप्रभनरितम्, सं० १३०२ वर्षे सार्वनन्दम् | १६३. मल्लिचरितं प्रा० ११७५ वर्षे जैनेश्वरम् ५५५५ । ६१४१ २६४. माहिचरितंसं.श्रीविनयचन्द्रीयम । २३७. चंद्रप्रभचरितं सं० प्रा० १२६४ वर्ष देवेंद्रवीयम् | २६५. मल्लिचरितं बहुप्रारुतं हरिभद्रीयं कुमारपालराज्ये रु. ५३२५। तं गाथाकाव्यमयं प्रधानम् ९०००। २३८. चंद्रप्रभचरितं प्र' याशोदेवम् ६४००। | २६६. मुनिमुवतचरितं सं. पौर्ण० मुनिरत्नमरिरुत २० स्था' २३९. चंद्रप्रभचरितं ग्रा. श्रीकुमारपालराज्ये हारिभद्रम् नककथाकलितम् ५१८५। २४०. मुधिधिचरितं प्रा० न । २६७. मुनिसुव्रतचरितं प्रा. ११९३ वर्षे चंद्रमूरिसइयं गाथा १.९९४ । २४१. सुविधिचरितं सं०न। २६८. मुनिसुव्रतचरितं वहुकथानकं ९ भदं विनयचंद्रसूरी२४२. शीतलचरितं सं०न। यम् ४५५२ । २४३. शीतलचरित प्रा०न । २६९. नामचरितं सं.न। २४१. श्रेयांसचरित से. १३३२ वर्षे मानतुंगाचार्यः कतम्, २७०. नमिचरितं प्रा. न। ५१२४. स्तम्मतीर्थ दिना न । । २७१. नेमिचरितं प्रा. १२१६ वर्षे हरिभद्राचार्यः कृतम् २४५. श्रेयांसचरितं प्रा. देवभद्रीयम् ११०००, स्तम्भतीर्थ ८०३२। विना न । २७२. नेमिचरितं प्रा. भवभावनावृत्त्यन्तर्गतमन्तरंगवक्तव्य. २४. Jयासचरितं प्रा. जयसिहंदवराज्ये हरिभद्राचार्य तामिथम् ५१०२। रुतम्. गाथ६५८१, स्तम्भतीर्य दिना ना २७३. नेमिचरितं प्रा. गद्यपद्यमयं १२३३ वर्ष देवतरिदिप्य. २४७. वासुपूज्यचरित सं० ११९९ व वर्धनानाचार्यकृतम् । रत्नप्रमीयम् १२६..! २७४. पार्थचरितम् सं. सर्वानंदतरिकतम् । २४४. बासुपूज्यचरितं प्रा. नांभन, हेमर्यादिशोधितम् ! ---- ८००० स्तम्भतार्थ बिना न। प्रत्यन्तरे १३२२ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Parner-.Rwww .vAAMuva..NAM M ARvuwwwwwwwwermane n ....... ....... बैंक २] . प्राचीन जैनग्रंथसूची २७५. पार्श्वचरितं सं. १२१८ वर्षे भावदेवरिकृतम् ६७७४- द अनागमिकाथै ३३०० । ६४..1 २९८, ११ मणधरचरित्रं सं० खरतर देवमत्युपाप्पापीयं २७६. पाचचरितं सं. माणिक्यचन्द्रसूरिर्शत १२७६ वर्षे ६५००। ५२७८ । | २९९. हरिवंशचरितं सं० नेम्यादियहुमृत्तवाथ्यमाचस्तरहितं २७७, पार्श्वचरितं मा० ११६५ वर्षे नाग-अभयदेवप्रथमशि- लोकाः ९०००। " प्यदेवमद्राचार्यः कृतम् ९००० ।। |३००. हरिवंशचीरतं सं० पन्दिकविकृतं पुराणभाषानियद्धं २७८, पार्श्वचरितं प्रा० दशमववाच्य गाथा २५६४ ग्रंथा. नेम्यादिवृत्तवाच्यं ९०.. प्रम ३२००1 ३०१, पद्मचन्ति प्रा. वारान् ५३० वर्षेप गते विमस्ट२७९. महावीरचरितं सं० न। सुरिभिः कृतं मुख्येवराग्यग्स १०५५। २८०, वीरचरित्र प्रा. ११३९ प गुणचन्द्रगणिरुतम् | ३०२. सीताचरितं प्रा. ३१००। १२०..। १२.३.मीताचरित धर्माध्यमशात्रगतं प्रारुनं ३४..। २८1. चीररित्रं प्रा.११३९ वर्षे नेमिचंइसरिझतम्१२००० 1३०४. प्रत्येकवुचरितं १२६१ वर्षे श्रीतिलकीयं ६०५० । २८२. वारचरित्रं मा० ११३९ वर्षे नेमिचंद्रसरिझतं २०१०-३०५, जम्यूस्वामिचन्तिं प्रा० ८२ (१) वर्षे गाथा १६४ | २४००। |३०६. जम्वृस्वामिचरितं प्रा. संध्यादियन्धे १०१६ वर्षे ५० २३. महापुरुपचरितं मु.प्रा.शलाकापुष्यवृत्तवाच्यं ९२५ मागरदत्तन रुतं २६०० । वर्य शीलाचार्यः रुतम् १००००। : (.) तस्य टिप्पन ११००। २०४. महापुरुषचरित्रं प्रा०६३ शलाकापुरुपवृत्तवाच्यं आन-1१०७. पृथ्वीचन्द्रचरितं प्रा. मुख्य गायादिमयं ११७५ वर्षे रुतम् गाथा ८७९०, श्लोकाः १.०५०। । शान्तिरिभिः कृतं ७५००। २८५. कथावलीप्रथमपरिच्छेदः, प्रा. मु. २४ जिन-१२ (१) पृथ्वी टिप्परं १९२६ वर्षे कानकचन्द्रं ११००१ चक्रयादिहरिभवरिपर्यंतसत्पुरुषचरित्रवाच्यो भाद्रे- (२) पृथ्वी० चरित्रसंकेतो विषमपदव्याख्याळपो रत्नवरः २३९०.1 प्रभसूनिरुतः ५९५ । २८६. प्रिपष्टिः श्रीऋपभादि ६३ महापुरुषवृत्तप्रतिबद्धा श्री-३०८. अमरादित्यचरित्रं प्रा० मूल हारिभद्रं गाथा ..... हेमसूरीया संपूर्णा । ३०९, ममादित्यचरित्रं सं० १३२४ वर्षे प्रद्युम्नायं ४८७४) २८७. त्रिपष्टीयं श्रीआदिचरितं केवलं ५०००। ' ३१५. पाण्दवचरित्रं स. मलधारि देवप्रभसूरीये ९८८४॥ २८८, त्रिपष्टीयं रामायणं पृथक् ३७१४॥ ३११. प्रभावकचरितं सं० दलस्वामिप्रमुखप्रभावशानार्यवृत्त. २७९. त्रिपष्टीय नेमिचरितं ४९६५। वाच्य १३३४ वर्षे प्रामाचन्द्रं ५७७४ । १९. विषष्टीय पार्श्वचरितं १६००। | ३१२. फुमारपालप्रतियोधः यहुप्रा० शतार्थसोमप्रभसूरिभिः २९१, त्रिपष्टीय महावारचरितं ३४९३ प्रत्यन्तरे ५१६, | १२४१ वर्षे रुतः ८...। . देवगिरि। ३१३. कुमारपालप्रतिवोधः सं० १५७५ । २९२. परिशिष्टपर्व अम्बप्रमुखाऽऽयरक्षितान्तपुरुषवाच्यं ! ३१४. मुनिपतिचरित्र प्रा० ११७२ वर्षे हारिभद्रीय गाथा ३४६.1 ४४ श्लो.८०५। २९३. त्रिपष्टिगट नलचरित्र ११७७ ॥ ३१५. मुनिपतिचरित्रं सं० १००५ य जम्बूनागमुनिकृतं २९४. पद्मानन्दमहाकाव्य २४ जिनवृत्तप प०अमरचन्द्र ३२०० उट्ट० २७०० । कविकृतं १८ वर्गरूपं १९१। ३१६. महीपालचरित्रं स्तम्भतीध विना न | २९५. श्रीपाच १० गणधरचरित्राणि प्रा० मुख्यानि ४३५० J३१७. उपमितभवप्रपञ्चोद्वारः सं० देवसरिकतः २३७० । २९६. अममजिनस्य भाविमचरित्रं मुनिरत्नप्रिमिः १२५२ / ३१८. उपमितमभवप्रपञ्चासारसमुच्चयो वार्धमानः १४६० । धर्षे रुतम् । ११९, उपमितसारोद्वारः - १२९८ वर्ष श्राचम्प्रशिध्यदेव१९७. पुण्डरीकचरित्रं मं० १३५२ वर्षे काम , पदचि-1: न्द्रसूरीयः ५५३० । ' Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ we wwwwwwwwimmm orvu ram..w.www.namaruwaon जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट [भाग १ ३२०. कुवलयमाला प्रा० मु० ४३५ वर्षे उद्द्योतनसूरीया | सूरीयः १५ कथः । १३०००। |३४९. धन्यशालिभद्रचरित्रं पूर्णभद्रगणिना १२८५ वर्षे कृतं ३२१. कुवलयमाला सं.रत्नप्रभसरया ३८९५ । | श्लोकाः-१४६० ३२२. भुवनसुन्दरीचरित्रं प्रा० गाथाबद्धं नाइनकुलश्रोविन-३५०. स्थूलभद्रचारित्रं तपाजयानन्दसूग्रुितं लोकाः ६॥ यसिंहाचार्यः ९७५ वर्षे रुतं गाथा ८९१ 1 | ३५१. पञ्चाख्यानकं पूर्णभद्राचार्यः १२५५ वर्षे शोधितम् ३२३. हरिविक्रमचरित्रं सं० आगमिकजपतिलकसूरीया । । ४६..। ३२४. सुलसाचा मं. आगमिकजयतिलकसूरी। (३५२. प्रद्युम्नचाग्निं शाम्गचरित्रं १०७० । ३२५ मलयसुन्दरी कथा सं. न्दश कथा स० आगमिक त्यतिलाया 1 343. गामक न्यातलमाया | ३५३. प्रबन्धचूडामणिमस्तुइगसरायः ३५.४ । २४३.। ३५४. २४ प्रबन्धाः ८४ कथाच राजशेखरसूरीयाः । ३२६. मलयसुन्दरी कथा प्रा. न । |३५५. लीलावतीकथा भूपणभट्टसुतरुताऽऽधरस मेश्रिता च ३२७. मनोरमाचरित्रं प्रा.मु. गाथामयं च ११४० वर्षे परसमयगता गाथा:-१४३९ । श्रीअभयदेवसूरीशिष्य वर्धमानसूरीयं १५०. ० ३५६. कथापुस्तिका अनेकविधकथाभिरनिर्दिशनामिकामिन३२८. सप्तक्षेत्रीनामकथा ११७८ वर्षे गुणाकरीया ५२००। पेताः । ३२९. मुदर्शनाचरित्र प्रा. तपाश्रीदेवेंद्रीय गाथा ४.५२। ।३५७. कथापुस्तिका विविधाः । ३३०. मृगावतीचरित्रं मलधारि देवप्रभपुरीयं १८७३ । न्याय-तर्कग्रन्थाः । १३१. सुरसुन्दरीकथा १६ परिच्छेदा धनेश्वरमुनिरुता संवत् | ३५८. सम्मतिनं सिद्धसेनदिवाकररुतम् गा० १७० ! १.९५ वर्षे गाथा ४०००। (१) सम्मतिवृत्तिा गार्दिकता-७०० । ३३२. वृहत्पूजाष्टकं रत्नचूडकथयांऽकितम् । । (२) सम्मतिवृत्तिः काण्डत्रयोपेता प्रद्युम्नशिष्यअभय१५३. रत्नचूहकथा पूजाफलवाच्या नेमप्रभाचार्यांया ३५००। देवाया २५००० 1 ३३४. पूजाष्टककथा प्रा० १०६०। (३) सम्मतिवृत्तिरन्यकर्तृका । ३३५. पूजाष्टककथा सं. न । | ३५९. प्रमाणकलिकाख्यवार्तिकसूत्र-वृत्ती शान्त्याचार्याये,म्. . ११६. विजयचन्द्रवलिकथा मा. पूजाष्टककथागर्भा | ६०, वृ० २८७३। ११२७ वर्षे चन्द्रप्रभसूरीया ४७०० गाथा ३९१०11३६०.नयचक्रवालवृत्तिमलवादीयद्वादशारनयचक्रतुम्बसूत्रन्या. ३३५. विजयचन्द्रवलिकयारहितास्तद्गताः पूनाष्टककथा: ख्यारुपा ससूत्रा १८००० । मा. ३६१ अनेकान्तजयपताकासूत्रं हारिभद्रं सदसदादिधि३३८, कौमुदीकथा जैनरुता १६००। कारं-३६००-३५००। ३३९. पञ्चमी रुथा दशकथानकात्मिका प्रा. महेश्वरसूरीया | ३६२ अनेकान्त० वृत्तिारिभद्री ८२५०। २०.४। (१) तट्टिप्पनकं मौनिचन्द्रम् २००० । ३४०. नर्मदासुन्दरीकथा १७०० । ३६३. स्याद्वादरत्नाकरसूत्रं ८ परिच्छेदं पादिरादेवसूरि३४.. जयसुन्दरीकथा पा० न । रुतम् । ३४२. सर्वांगसुन्दरीकथा प्रा. १६७५। ३६४. स्याद्वादरत्नाकर आछाणिया वादिश्रीदेवरिरुतः ३४३. ऋषिदत्ताचरित्र प्रा० न। ३६.००, प्रथमखण्डं विना । ३४४. कुसुमसारकथा नेमिचंद्राचायः १०९९ वर्षे सता गा- (१) रत्नाकरावतारिकाऽऽख्या तल्लघुटीका रत्नप्रभीया था १७००। ३४५. दमयन्ती कथा २, ५० (1) (२) तटिप्पनके न । १४६. सौभाग्यसुन्दरी कथा । ३६५. न्यायावतारसूत्रं सिद्धसेनीयम् .! ३४७. जिनदत्तकथा १२०० (१) तदृत्तिहाँरिभद्री च, सू० ३२, वृत्तिः २०७३ । ३४८. कयारत्नसागरः १५ तरंगात्मको मलधारिनरचन्द्र-1 (२)न्यायावतारवृतिः सिद्धव्याख्यानिकरुता । ५०००। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक २) प्राचीन जैन ग्रंथसूची ११ -u-arriumwatiwarwarenmumirmwaramwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ३६६. आप्तमीमांसालंकारनामाऽटसहस्रोतों विद्यानन्द-|३९२. माप्तपरीक्षावृत्तिस्तत्त्वार्थसूत्राद्यश्लोकव्याख्यारूपा । सूरीयः ८०००। ३९३. पन्नपरीक्षा च पत्रवाक्यप्रकारख्याख्या । ३६७. प्रमाणमीमांसासूत्र-वृत्ती हेमसूगैये म.........। | ३९४. प्रमेयकमलमार्तण्डो दिगम्बरोयप्रभाचन्द्रीयः ३६८. अनेकान्तवादप्रवेशो हारिभद्रः-७००-७३०।। ११...। २६९. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणं हारिभद्रम् ३००। ३९५. अध्यात्मतरडिगणीटीका दिगम्बरीयतकरूपा। ३७०, द्रव्यालंकारस्ती पं. रामचन्द्रगुणचन्द्र रुतः ४००। १९६. हेतुविन्दुटीका तरूपा। ३७१. प्रमाणसंग्रहप्रकरणं ९ प्रस्तावं जनं ७१२। ३९७. प्रमाणवार्तिकाऽऽद्यपरिच्छेदसूत्र बौद्वीयम्। ३७२. प्रमेयरत्नकोशः सर्वज्ञसिद्धयादि २३ वादस्थल: चन्द्र- (१.)दूधत्तिश्च आद्यपत्र. २-३ रहिता। प्रभसूरीयः १६८०। | ३९८, तर्कभापा टीका बौद्धमतवाच्या यालाववोध ३ परि३७३. पइदर्शन दिङ्मात्रविचारः। च्छेदा ८४०। ३७४. पड्दर्शनसमुच्चयसूत्र-वृत्ती, सूत्र-८६, पृ. ११५२। ३९९ न्यायविन्दुसूत्रं बौद्धमतवाच्यम् । ३७५. परिणामिवस्तुभ्यवस्थापनं १८०। (१)तहीका च धर्मोनराचार्यरुता स.टी. १४001 २७६. बोटिकनिषेधो वस्त्रव्यवस्थापनरूपः । ४००. न्यायप्रवेशकटीका च हारिभद्री स.टी. ५९७॥ ३७७. सर्वार्थप्रमाभावाद्यभन्यनिरासवादस्थलानि ४-३१०।४.१. न्यायप्रदेश कटिप्पन ११६९ वर्षे श्रीचन्द्रीयम् । ३७६, केवलिभक्ति-स्त्रीमुक्तिप्रकरणं शब्दानुशासनसत-४०२. तस्वसंग्रहः मरुतश्चगदिनिरासवाच्यो बौद्धः शाकटायनरुतं, तत्संग्रहश्लोकाश्च ९४, प्रत्यन्तरे९०। १७१६। ३७९. हारिभद्रो नन्दिवृत्यायनमस्कारसयद्धसर्वज्ञव्यवस्था- | ४०३. न्यायकुसुमाञ्जलितर्कः ५०४६ मितः । - पनावादः। ४०४. न्यायतकसूत्रं (१) भाग्य, (२)वार्तिक, ३८०. सर्वज्ञव्यवस्थापनायादो योऽपि सोऽपि बहुरल्पो वा । (३)तात्पर्यटीका, ( ४ ) तत्परिशुद्धि, ३८१. अपशब्दनिराकरणं ११५। . । (५)न्यायालंकारपीत, (६) पचप्रस्थानन्यायतकोणि ३८२, भेदाभेदाधनेकान्तव्यवस्थापनं च-२००। (क्रमश:)-अक्षपाद-वात्स्यायन-भारद्वाज-वाचस्पति-उदयन. ३८३. स्याद्वादमञ्जरी मल्लिपेणाचार्य: १३४९ वर्षे कृता | धीकण्ठ-अभयातिलकोपाध्यायरुतानि पापि ५३०००। ३८४. समन्तभद्रुत-श्रीवर्धमानस्तोत्रवृत्तिविपमाः । ०५. न्यायकलिकाटीका नैयायिकीय १६ पदार्थतत्ववा३८५. अपीरुपेयवेरनिराकरणम् । च्या ४०५। ३८६. प्रत्यक्षानुमानाधिकप्रमाणनिराकरणं च यशोदेय- ६. सारसंग्रहो नेयायिकीय १६ पदार्थवाच्यः। . साधुरुतम् । १०७. न्यायभूपणसूत्र न्यायसारापरनामक ४०.1 साद्यं तु निवर्गपरिहारेण । मो० पत्राणि ११, प्रत्य- (१)न्यायसारटीका जायसिंही २९००। न्तरे प. १४। (२)न्यायसारटीका न्यायसारविचाराख्या। ३८७ श्वेताम्बरदर्शनसिद्धिः, प..१९।। (३)न्यायसार रात्रिका। ३८८. लोकतत्त्वनिर्णयो हारिभद्रः-१७० । ३८९, न्यायकुमुदचन्द्रसूत्र-वृत्ती दिगम्बरीय सकलडकदेव-प्र.४०८, मतमनोहरग्रन्धगतहेतुसाम्यगताशेपविशेषनिरूपणसत्रः ___ व्याख्यारूपं ७४०। भावन्द्ररुते सु० वृ. १६०००। ३९०, प्रमेयरत्नमाला परीक्षामुखलघुवृत्तिरपरनानी, तत्स४०९. पट्पदार्थपवेशप्रकरणं वैशेपिकीयं-९५०। ४१० भास्करभूषणः पृथ्थादिवाच्यः। ' च-वृ. १५६५, सू. १४०। ३९१. न्यायविनिश्चयवृत्तिः-अनन्तवीर्यरुता देगम्बरी ।। ४१, किरणावली। |४१२. न्यायतन्त्रटीका व्याप्ट्याखण्डम् ।। * कवर्ग-चवर्ग-टवर्ग-इति वर्गत्रयगतव्यजनानि परि-४१३. किरणावलीटिप्पनके द्रव्यपदार्थः २३७३ । हत्यान्यैर्यजनरेतत् प्रकरणं रचितम् । . [४१४. कन्दली-किरणावल्योः सूतम् ७७७॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट माम ४९. न्यायकन्द का सीधरे. १०४८ हा वैद- १३५. मनारायन। ४३८. हैनो दिवाने ३१५० ! 4. कन्टाटिन्दक पं. नचन्द्रहास..! . ४३९. हैमन्यायवृतिः ७५ ४१..अन्दा १३८. वन सदस्य४.० मममम.टा १८०॥ i) मनाममालापतिः । कम प्रभुमोमनरे ४:८. न्यायलिवनी। ११. ल्वानिपुर- म........! 2.मानेकांनाममाला 5.२४॥ १२. वृकइयर बजपुरोग्य मा श्रीफलम् (मनामनाला व्यारूपा सरकारमा आदी स्वर-कन्क्रमेन नामाउन्त४९.दहनामिनावाच्या जनकपडा महन्द्रसरका ६६.॥ ४२. डाइन्स.झे इंडोदर परिच्छेदाः ४, .देन नाममाडायूत्रम् । ...! हमदर्शनमारका रत्नावती-इति नानी मिर . गोरक्रमन्निद्धा-३०-३५०-१ व्याकरण-कोश-अन्याः । रमाइदिवारप्रकरण हैनसंबदम्। २. देशात १..1 ४४४. हैमनन-वृत्ती पं. गुन्चन्द्रन्दे मू. ११.१. ४२४ समादि३० ४४५. करमनुष्योऽधिमात्रयमकः, जयवृतिला तो हनुमायाट्टा इमारतीत १२०० वर्षे अंःप्रमभूनिकृतः प्रायनिमः ४६. मुटण्यास मच्यामिरिकतम् । हेमन्मृतिः, १८:.. ४४३. कालन्त्रापरनान कन्द्रा चतुल्काटकवृत्तिारपदे हान्य प्रशमहाविनान! सिंहराना। ४. पहनन्या:-..::न! ४४८, मन्त्रम्हयनकलनका-डिटोनदारना ४२७. चन्द्रसन्न्यास:-....! - होम हवनव्याया। ४०. मिश:-.. ५४९. कल्यावाचूटक्किममम्मदा २.३६! १२९. हैम दरो ठन्वाः कनभरः २८ पाद... ० किमिन यून-निगमम् । मन्कः । १५.. कन्न न्दः २१.०,८०.. ५. मगइसमनदास ४५३. वाटनारायः त्रिलोचनदाचीयन् । '४३. कलाविषयाने न्यास मदमत्र यावत् ४.गह परः २४ ८५ ४.४. हरि तिवद्धनम् । दिः- लोहरा मट... कनारमारमन्जरको वृद्धिदरमहाछा. . नरबन्दना दबवाच्या ४५६, कटकनादिनिः पाद पस्क। ४३. नुकद-फन- दिवनिः ४५. मायानगरपनं ३४। १३. नस्यान इन्न १ क-2..४५८.मेरलनंडामारे दिशावर स्नपरास्त रुपियम् । १.मरमट्टी का १२:३१ ४. मनाला निकायलदसम्हारि२५६ १३. परन ३८.1 .४६. रन्नोसन्म: २००३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंक प्राचीन जैनगंथसूची ---- - १६१. कातन्त्रोत्तरं विद्यानन्दापरनामकं समासप्रकरण | ४८८. काव्यप्रकाशविकाशः ...। यावन् विद्यानन्दसू० रु. व्या० । ४८९. काव्यप्रकाशावचर्णिः १२५० । ४६२. लिडमानुशासनममररुतं अमरकोशसंबद्धकाण्डनये ४९०, काव्यप्रदीपिका सूत्र-वृत्तिगी पाल्हदेवरुता ...॥ १४७० । ४९१, काव्यानुशासननामालंकारचढामणिवृत्तिः श्रीहेम४६३. लिङ्मानुशासन ३४ मार्यामितं वामनकृतं ३४॥ सुरीया 6 अध्याया २८..-४२०० प्रत्यन्तरे। ४६४. अमरकोशशेषः। १४९२. अलकारचुडामणिवृत्तिविवेको हेमसूरीयः ४०००। ४६५. अमरकोशटिपनकम् । ४९३. दण्डपकारः...| ५६१. स्यादिसमुच्चयः १० अमरकविकृतः। ४९४. अलंकारमहोदपिटीका मलया. नरेन्द्रप्रमीया १२८४६७. त्यादिसमुच्चय: अमरकविरुतः। वर्षे कृता ४५..1 ४६८. लौकिकयादिप्रक्रिया सर्वधारुता। ४९५. कविशिक्षा नाम काव्यकल्पलता सु.५००। ४६९. सारस्वतच्याकरणं १२२० । (१) सूत्रवृत्तिः पं० अमरकविरुता वृ. ३३५७ । ४७०. सारस्वत टप्पनकं १२.० । ४९६. वाग्भटालद्वारयत्तिः ६..। ४७१. सारस्वतव्याकरणप्रक्रिया । ४९७. रुद्रटारकार: ६ अध्यायः। ४७२. गणरत्नमहोदधिः पं० वर्धमानेन ११९७ बर्षे कृतः । ४९. कावशिक्षा अप्पभट्टशिष्यविनयचन्द्ररुता। ४७३. शास्टायनव्याख्या पहूव्यः । ४९९, अलबारसर्वस्वं राजा-कोरुचकरुतं १६००। ४७४. शब्दप्रमेदानुयायिनाममाला महेश्वरकांवरुता। ५००. काव्यकल्पलतापरिमलः, पं. अमरकविहरः। १७५. काशकावृत्तः पाणिनिरुता (2) ५०१. श्री भोजराजसताऽलकारस्य वृत्तिः पदप्रकाशनानी । ४७६. व्याकरणरत्नकोशः पाणि लघु००। आजडता काव्यबन्धादिवाच्या......। ४७७. रूपावतारकसंक्षिप्तव्याकरणं पाणिनीयसंग्रहात्मकं /५०२. चन्द्रालोकालङ्कारः पं. अमरकविरुतकाव्याम्नाय: समासान् यावत् । प० २० । गद्यपद्य काव्यग्रन्थाः । छन्दः-साहित्यग्रन्थाः। . ५०३. श्रद्वपाश्रय महाकाव्य आहेमसूरीयं २० संगै संस्कृत ४७८. हलायुवच्छोवृत्तिर्भटहलायुधस्ता १२३३ | २०२८-३०२। ४७९. छन्दप्रदीपो विप्ररुतः ५०.। ५०४. द्वथाश्रयकाव्यपाद २८ वृत्तिः, १३१२ वर्षे खरतर४८०, वृत्तरत्नाकरो महकेदारकृतः १५.! अभयतिलकीया १७५७४ । (१) तवृत्तिः श्रीकण्ठरुता २.! ४८१. जयदेवच्छन्दःशास्त्रवृत्तः टिप्पनकं श्रीचन्द्रसूर. ५०६. प्रारुतद्वयाश्रयपाद ४ वृत्तिः. खरतरपूर्णकलशीया रुतम्। १३०७ वर्षे कृता ४२३० । ४८२. नन्दिनात्यारुतश्छन्दोवृत्तिः श्रीदेवाचायशिष्यप्रकरण-५०७. धर्माभ्युदयकाव्यं वस्तुपालचरित्रवाच्यं, उदयपीय सु (शत ?) कारिरत्नचन्द्रगणिकृता। ५२००-५०४०। ४४३. छन्दोऽनुशासनाऽपरनामकच्छन्दश्बूमामणिवृत्तिमसू- ५०८. श्रीशालय काव्यं शालिभद्रचारित्रवाच्यं पं० धर्मकुमाररिकृता ४१००-२९९९ ।। कृतं १३३४ वर्षे १२२४ । ५८४, गाथारत्नकोशो गाथालक्षणादिवाच्या ७३॥ |५.९. श्रीधर्मनाथमहाकाव्यं २१ वर्ग दिगम्बरीयकाच्यादि. ४८५. काव्यप्रकाशसूत्र-वृत्ती १० उल्लासे सू० १४१ वृ. बन्धकांव-हरिचन्द्रकृतम् । १७३० । ५१०. श्रीनेमिचरित्रं महाकाव्यं संस्हतं गद्य-पद्यमयं बहु४८६. जयन्तीदीपिका जयन्तपुरोधःकृता ४७३.1 चण्डितं १०९० वर्ष भोजराजराज्ये सूराचार्यरुतम् । ४८७. काव्यप्रकाशसंकेत: १२१६ वर्षे माणिक्यचन्द्रीयः५११ श्रीनेमिमहाकाव्यरिप्पनकं १४..। ३२४४॥ ५१२. श्रीनेमिनिर्माणका व्यं वाग्भटकृतं १५ सर्ग १३६० । .प्राफतदशाप्रयसत्रहै ९५०1 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ५१३. नेमिदूतकाव्यं विक्रमकृतम् । ५१४. कुट्टिनीमतकाव्यं सं० दामोदरकतं १२९० । जैन साहित्य संशोधक- पारीरीष्ट wwwwwwwwwww ५१५. विक्रमांकाभ्युदयकाव्यम् । ५१६. बालभारतं ४३ सर्ग अमरकविकृतं परसमयवाच्यं ६७७४ । ५१७. अभिनन्दकाव्यं रामचरितं वा ३६ सर्गम् । ४१८. सोमपालविलासकाव्यम् । ५१९. जल्हण विकृत काव्यम् १००० । ५२०. नरनारायणनन्दकाव्यं मन्त्रिवस्तुपालकृतं १६०० । ५२१. तिलकमञ्जरीकथा, धनपालकता चम्पूरुपा वर्णन. साथ 1 (१) तिलकमञ्जशीटप्पनकं शान्त्याचार्याय १२०० । ५२२ तिलकमञ्जरीसारोद्वारो लघुधनपालकृतः - १२०० । ५२३. कादम्बरीकथा वाणकविरुता पुलिंद्रकृतसंधाना । ५२४. सौभाग्यमंजरी कथा सं० गद्यपद्यमयी, परतीर्थ पं० म. हेंद्रा ३१०० । ५१५. वासवदत्तकथा सुबंधुकविरुता । ( १ ) वासवदत्ता ० टीका नारायणकविकृता । ५२६, चम्पूकथा ७ उल्लास। त्रिविक्रम भटकता दमयन्तीकधाऽपरनाम्नी २५०० । (१) चम्पूकथादिटिप्पनकं चण्डपालरुतं १९०० । ५२७. शातवाद्दनकृतगाथासप्तशती ......। ( १ ) टीका भुवनपाल कृता ४५०० । ( २ ) ज्ञात गाथावृत्तिः, श्रीआजडेन कृता । ( ३ ) शात० गाथावृत्तिः, जल्हणदेवरुता । ५२८. रघुकाव्यं २० सर्ग १५७२ । ५२९. माघकाव्यं २० सर्ग २७०० | (१) माघकाव्यटीका वल्लभदेवकता १२००० । ५३०. कुमारसंभवकाव्यं ८ सर्ग ६१५ काव्यानि । ( १ ) कुमारसंभवकाव्यवृत्तिदिगम्बरीय भर्मकीर्तिता । '३३१. मेघदूतकाव्यम् । (1) मेघदूतवृत्तिः । वर्षे ५३२. किरातकाव्यं १८ सर्गे भारविकविना कृतम् । ( १ ) किरातकाव्यस्य भारतीयस्य वृत्तिः प्रकाशवर्ष - ... [ भाग 1 ५३४. नैषधमहाकाव्यं श्रीहरुविरुतं २२ सर्ग काव्यानि ४००९। (१) नैषधटीका चाण्डवी । (२) नैपघटीका गादावरी | (३) नैपधीटीका विद्याधरी । ५३५. दशरूपालोकम् । ५३६. भारतशास्त्रम् । ५३७. धनुर्विद्या च । रुता । ( २ ) किरातार्जुनीय काव्यटीका लोकानन्दरुता । ५३३. गौरवाच्यं गाथाः ११६८ ॥ नाटकानि । ५३८. रघुविलास नाटकं पं० रामचंद्रकृतम् | ५३९. नलविलासनाटकं पं० रामचन्द्ररुतम् । ५४०. चाणाक्यनाटकम् | ५४१. मोहपराजय नाटकं मन्त्रियशः पालकृतं श्रीकुमारपाकनृपप्रतिबद्धं प्रायोऽन्तरङ्गवाच्यं १३२० । ५४२ मानमुद्राभञ्जननाटकं सनत्कुमारचा क्र- विलासवती - संवन्धप्रतिबद्धं देवचन्द्रगणिरुतं १८०० । ५४३. प्रबुद्ध रौहिणेयं रामचन्द्रीय १००० । ५४४. मुद्रित कुमदचन्द्रनाटकं यशचन्द्ररुतं ५३५ । ५४५ प्रबोधचन्द्रोदयनाटकं १०१० ॥ ५४६. दूतांगनाटकम् | ५४४. शृंगारतिलकनाटकम् | ५४८. मुरिनाटकम् । (१) मुरारिटिप्पनकं देवप्रभसूरिरुतं ७५०० । (२) मुरारिटिप्पनकं मक० नरचन्द्रसूयं २३५० । ५४९. अन राघवनाटकम् | ५५०. मुद्राराक्षसनाटकं चन्द्रगुप्त चाणाक्यसंबद्धं विशाखदेव कृतं । ५५१. सुरुतमण्डनं वस्तुपालसंबद्धम् । ५५१. राघवाभ्युदयनाटकं पं. रामचन्द्ररूनं १० अंकम् । ५५२. चन्द्रलखाविजयनाटकम् | ५५३. विक्रमोर्वशी नाटकं कालिदासकृतं ७५० ! ५५४. कर्पूरमंजरी नाटकम् | ५५५. रत्नावलीनाटिका हर्षदेवकृता ७३३ । ५५६. चनमालानाटिका पं. अमरचन्द्रकृता । ज्योतिः - शकुन - योगाम्नाय - मन्त्र - कल्प-सा मुद्रिक शास्त्राणि । |५५७. आयज्ञानतिलकसूत्र - वृत्ती बोखिरिते सू. गा. ७५० ५५८. आयसद्भावः १९५ । वृत्तिः १६०० । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक प्राचीन जैनग्रंथसूत्री ५५९. कूरपर्वतः (१)। १५९०, रुतज्ञानं पामावलीविशेषलो . २१५॥ ५६०. प्रश्नव्याकरण ज्योतिर्वृत्तिः। ५९१: मातृकाकेवली ५० ५६. चूडामणियन्य: २३००। ५९२. देवतादि ११द्वारः कालज्ञानम् । ५६१. चूडामणिसारमन्य:४१ प्रकरणो रक्ष्मणभकृत:६७२,५९३. प्रारुतं पिपालिकाज्ञानम् । ५६३. त्रिशती श्रीधराया। ५९४ नाढीसंचारज्ञानं च। ५६४, गणितशास्त्रम्। ५९५. सिद्धाज्ञापद्धतिः । ५६५. चन्द्रन्मिीलनचूडामणियारशास्त्रम् । ५९६. नायपुस्तिका योगिनामाम्नायग्रन्थसत्का हरीनेखलाज५६६. ज्ञानमजरी। नाश्चर्यकराञ्जनसिद्धयादियोगादिवाच्या, खेलवाडिमा५६५, वस्तुसार १, ज्योतिषसार २.द्रव्यपरीक्षा ३. रत्न हुयारुटा, गाया १३९७ । परीक्षा ४, त्राशती तवृत्तयः ६प्रन्धाः ३७२ वर्षे ५९७ अर्घकाण्डं दुर्गदेवीयं अ० १०-१४७॥ ठ. फेकृताः। १५९८. मन्त्रमहोदधिः प्रा. दिगम्बर श्रीदुर्गदेवतः, मं. ५६८. गणिततिलकप्रन्यवृत्तिः सिंहतिलकसरीया। गा.३६। ५६९. प्रदनप्रकाशो नरचन्द्रमुरिकृतः २० प्रकाशः ३६. ५९९. भैरवपद्मावतीकल्पः श्रीमलियगतरिकतः ४०.। ५७०. नरपतिजयचर्या एकाशीतिकादि का। |६००, रुद्राक्षकल्पः ७५ ५७१. नरपतिजयचर्या गतग्रहा। ६.1.तार्ककल्यः। ५७२. नयनपूर्वायमचायतिथिविवरण करणशेखावृत्तिनामक ६०२. कामरूपपत्राशिका निमित्तनाच्या तवृत्तिः स. ७.८८ १९.। गा. (391 ५७३. वागहीसंहिता सूत्र-वृत्ती-४०००। ६०३. वसन्तराजो लावशर्मणः २३५०। ५५४. भाद्रवाहवीसंहिता सूत्रम्....... |६०४. शकुनसारोद्धारो माणिक्यसूरीयः १३३८ वार्षिक: ५७५, सारावलीज्योतिष्क २७..। ५०८1 ५७६. ज्ञानदर्पणज्योतिष्क त्रैलोक्यप्रकाश हेमप्रमसरिरुत ६०५. शकुन शास्त्रं प्रारुतं वार्तामयं . १४। ११४11 ६०६. सामुद्रिकम् ६७॥ ५७५. भुवनदीपकः पाद्यप्रमः १६७॥ प्रकीर्णकग्रन्थाः। (१) वृत्तिः सिंइतिलकोया...। ६०७. श्रीशान्तिनाथचरितं दिगम्बरीयं गा. २११६ ५७८ रनकोशज्योनिकम् । ६०५. यशोधरचरितं दिगम्बरीयम् । ५७९. रत्नमालाज्योतिः। ६.९. यशोधर काव्यपीजका। ५८०. परिसंवत्सरादिदेवगन्धा अनेकविधा इह अनिदिए-६१०, प्रतिक्रमणटीकासत्रं दिगग्यरीयम्। नामकाः। १६... आनन्दसमुच्चयः। ५८. हर्पप्रकाशज्योतिप्कं हर्षदेवणिरुतम् । 1६१२. अध्यात्मशानं बहुप्रकरणमयम् । .५८२. चन्द्रार्कमहसारज्योतिष्कम् ।। ६३. पातञ्जलयोगशात्रवृत्तिः स॒त्रयुता श्रीभोजराज५८३. आशाधरीयपद्धतिः, यन्त्राणि च । . रुता। ५४. हज्जातकं २५ अध्यायरूप वराहमिहिरीय ४०. ६१४. आत्मावबोधो मलधा..देवप्रभसूरिरुतः ५५०४ ५८५, श्रीधरीयजातकपद्धतिटीका । ६१५. ज्ञानार्णवोऽध्यात्मवाच्यः श्रीशुभचन्द्रसूरीयः हैमयोग५८६. पट्पञ्चाशिकावृत्तिः सप्ताध्याया ५५०। शामतुल्यबाच्यो बहुदैराग्यः ४०००। ५८७ प्रश्नज्ञानपद्धतिः मोपलरुता १८.1 1 ६१६ ज्ञानदीपिका पिण्डस्थादिध्यानवाच्या। ५८८. विद्वजनवडमाण्यप्रश्नज्ञानं १९ अध्याय श्रीमोजी-६१७ तत्त्वार्थसाराख्यं मोक्षशाखं अमृतचन्द्रसयिम् । यम्। ६१८. संवेगदमकन्दली विमलाचाहता, कारिका ५२ ॥ ५८९. पुस्तकेन्द्रग्रन्धः गा. ११५॥ |६.९. ज्ञानार्णवशुद्धोपयोगसूत्रम् । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन साहित्य संशोधक-परिशिष्ट ............. भागः । annnnnnnnmammmmmmmrrrrrrrrrrrrrnmnern winnaririram.orrnmentaminnrmmam ६२०, ज्ञानाङ्कुशः का. २८1 | ६३९. कुसुमाञ्जस्यादिवाच्या समुद्राचार्यरुता २५०। ६२१. योगकल्पद्रुमः। . ६१०. ग्रहदोषज्ञानाध्यायः (..).. . ६२२. अमृतासद्विारा दोषशान्तिक जैनं (२)... : ६२३. विरूपाक्षयोगशतं गा. १०१, अ.६१॥ __ लौकिक (३). . . . ६२४, साम्यशनं विजयासहीयं १०४. त्रयमपि सिंहतिलकसरिरुतं त्रयाणां ग्रंथांमम् १२४ ६२५, शमभावशतं अन्तरङ्गकथावाच्यं श्रीधर्मघोषवरिफ- संख्या पर ५... .. तम् १०२ १६४१:मालोचनाविधान-आलोचनपदसंग्रहादयोऽने के संग्रह ६२६. गीता भारते भीष्मपर्वगता ७६ . १६४२. सूक्तरत्नाकर-सुभाषितसमुद्रप्रमुखाः सुभाषितप्रन्या ६२७. धर्मपरीक्षा परसमयाऽसंबद्धतावाच्या दिगम्बरीयाs- अनेकविधाः सर्वे धर्मकुमारीयाः । मितगतिरुता। १६४३. शुभावली।' . . .. .. ६२८. वज़सूत्री विप्रजात्यादिनिरासवाच्या | ६४४. दानादिप्रकरणं सं. सूराचार्य रुतं सप्तावस काम्मादि६२९. भविष्योत्तरोद्धारः परसमयवहुस्वरूपवाच्यो मन्ध प. ३४ । .: : परसमयज्ञानाय। १६४५. सुधाकलशाख्यसुभाषितकोशः ५. रामचन्द्ररुतः, ६३०. द्विजवदनचपेटा विप्रजास्यादिनिराकरणवाच्या। पन...... ... ६३१. वनस्पतिसत्तरी (१) श्रीमुनिचन्द्रसार ६४६. दीपालीकापः १.४४. . . . . ६३२: पाक्षिकसत्तरी (२) कृता. ( प्रत्येक) ६४७.'दीपोत्सवकल्पः, सं. १३८५ वर्षे विनयचन्द्रकृतः ६३३. अगुलविचारा(३) ) गा.'७० - २७४।. . . . ६३४. सम्यक्त्वस्वरूपं जिनचन्द्रगणिरुतं ६४८. दृष्टान्तशतं १०४ 1. ६३५, जिनप्रतिष्ठा। ६४९. तत्वबिन्दुः ७१. ६१६. यतिप्रतिष्ठास्थापनस्थलं जिनदेवसूरिकृत, ११८५ वर्षे, ६५० बोधप्रदीपिका ५२ ।। " ६५१, सिन्दूरप्रकरः ९८ :: ६३७. श्रीशान्तिवेनालीया पर्वपशिका सपनविध्यादिवाभ्या। ६५२. इष्टोपदेशः ५१ । ६३८. श्रीशीलाचा या धूमावल्यादिवृत्तिः। . . . . . ६५१. सर्वेऽपि सूक्तकंपा पन्धानम्.३८५ ... - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -हारमावायरसमानणर ने बड़ी ही निप्पक्षता और उदारतासे लिग्ने जाते हरिसदाचार्यस्य समयनिर्णयः। त्मक दृष्टिसे लिरे हुए लेख भी इसमें रहते हैं और - सुप्रसिद्ध महान् रास्यशजनाचार्य हरिभद्गमूरिना है। यह सब संप्रदायोको समदृष्टिसे देखता है। . समयनिर्णय संबंधी जे संस्थत निवन्ध्र मुनिराज जैनग्रन्थोंकी समालोचनायें भी इसमें रहती हैं । श्रीजिनविजयीय पूनामां,मरापल 'प्रथम प्राच्य वि- प्रत्येक जैनीको इसका ग्रहक होना चाहिए। वार्षिक द्या पनिहन परिषद' यागळवांच्यो हताने जुदापेम्फ- मूल्य दो रुपया । ग्राहक वर्ष के प्रारंभ और मध्यले लेटमा छपाईने प्रकट करवामां आन्यो छे. निबन्ध बनाये जाते है । वर्ष दिवालीसे शुरू होता है। सरल भाषामा लखापलो होई अनेक अपूर्व ऐनि- mar हासिक मुद्दाओथी भरपूर छ. संस्कृत भाषा जाण नाणसागरण* माणिकचन्द-दिगम्बर जैनग्रन्थमाला । नार दरेक विद्वानने अवश्य वांचया लायक छ.कि इसमें दिगम्बर सम्प्रदायक संस्कृत और प्राकृत मान ४ आना. पाटेत खर्च जुहूं. भाषाकं अन्य प्रकाशित होते हैं और सब अन्ध ..समराइच्चकहा। सिर्फ लागतके मूल्यपर. बेचे जाते हैं। स्वर्गीय दानवीर सेट माणिकचन्द हीराचन्द जे. पी. के पाटमा संकाना प्रग्न्यात महात्मा याकिनी मह- स्मारकम यह निकलती है। अब तक इसमें नीचे जरासूनु श्रीहरिभद्रसूरए प्रशमरसपरिपूर्ण आ लिखे १५ मन्थ निकल चुके हैं। प्रत्येक लायब्रेरीमें कथा-धनी रचना करी छ, आना जोटानो बीजों उनका एक एक सेट मँगाकर रखना चाहिए। अंध मळवा दुर्लभ है. मूळग्रंथ प्राकृनमा छे. पण लघीयत्रयादसंग्रह, भट्टाकलंककृत मू० अम मूळ माथे तेनो संस्थत अनुवाद पण छपाव्यो - छ. आ पुस्तक मुंबईनी युनिवर्सिटीप पोताना पाध्य २ सागारधर्मामृत सटीक, पं० माशाधरकृत - पुस्तकोमा पण दाम्पल कर्य छे. आ ग्रंथमा समरा- ३ विक्रान्तकोरवीय नाटक, हस्तिमल्लकृत - दिस्य राजाना कल दवभवोनी वाती छे, तेमांना ४ पवनाथचरित, वादिराजकृत ॥ ,त्रण भत्री अमोप प्रकट कर्या छे. मृल्य म०-२-८-0 ५ मैथिलीकल्याण नाटक, हस्तिमलकृत । ६ आराधनासार सटीक, देवसेनकृत आ काव्य रत्नचन्द्र उपाध्याये रचेल छ. श्री. ७ जिनदत्तचरित्र, गुणभद्रकृत रस्नबन्द्र प्रसिद्ध श्रीहरिविजयमरिनी संततिमांना ८ प्रद्युम्नचरित्र, महासेनकृत. पक पंदित रत्न ले. काव्य घणुंज सरस अने सरल . ९ चारित्रसार, चण्डिरायकृत .छ, नेमा संस्थत भाषा द्वारा कृपणना पुत्र प्रद्युम्ननी रममय वाती वर्णववामां आवेल छ. म०-२-०-० १० प्रमाण-निणेय, विद्यानन्दकृत जैन साहित्य संशोधक कार्यालय. ११ आचारसार, वीरनन्दीकृत पोट खर्च जुहूं। टे. भारत जैन विद्यालय, फर्म्यु- १२ त्रिलोकसार सटीक, नेमिचन्द्रकृत समजवु सन कॉलेलरोड, पूनासिटी. १३ तत्वानुशासनादिसंग्रह, जैन-हितैषी। . १४ मनगारधर्मामृत सटीक, आशाघारकृत ३ रु. हिन्दीका सुप्रसिद्ध मासिक पत्र । इसमें दिग- १५ युक्त्यनुशासन सटीक मूल समन्तभद्र १ रु. म्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदायोंके विद्वानोंक मिलनेका पत्तालेख रहा करते हैं । ऐतिहासिक लेवोंके लिए यह मैनेजर जैन अन्धरत्नाकर कार्यालय, बास नौरसे प्रसिद्ध है। अब तक इसमें 'अनेक महत्त्वके लंग्य निकाल चुके हैं। जैनधर्मपर तुलना हीरावाग, पो० गिरगांय, बंबई । प्रद्युम्नचारित्रम्। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जागृति ******** जैन जागति पाक्षिक पत्रः ). सम्पादक मुनिराज श्रीजिनविजयजी जैन जागृति नमेचैन हो ? जैन समाजनी सरी हालत.) उपर पण सारा सारा लेखो अने विचारों- एमा जाणवा इच्छो छो? जैन धर्मनी उन्नति थाय हमेशा आव्या करो रोम चाही छो ? दुकाणमा कहीए तो जैन संघमा वळवणी विषयक, व्यापारविषयक राष्ट्रविषयक समाज. विषयक अने धमेविषयक दरेक प्रकारनी जा गति उत्पन्न करवा माटे ए पत्र प्रसिद्ध करवामा आवे छे." जो आ प्रश्नांना उत्तर 'हो ? एम आपवानी | गंजा होय तो तो आजे ज. एक कार्ड लग्खी जैनजाति नामना पाक्षिक पत्रना ग्राहक लीस्टमां यो नाम करायचो. 'आरतबपना नवीन उदयना वेसता चर्षे एटले अवनी कार्तिक शदी प्रतिपदाना, दिवसे--था प्रथम अंक, प्रकटे थशे अने पछी हमेशा दर प्रतिप्रदाना दिवस त प्रकट धतुं रहेशे.. -", जैन समाज ने उत्तम अतै साम बांचन आपना भाट, तेमज दरेक सामाजिक अन धार्मिक म पत्रना आदीमाङ्के विशेष लग्यबू नकाम डे कारण के सूज वानको एंटला उपर थी जा ने यावनमविचारी शेकशे के पर्नु सम्पादन कार्य स्वयं मुनिराज श्रीजिनविजयजी महाराजना हस्तक धश “किं बहुना ?, पथनी भाषा मुख्य करीने गुजराती रहेश.. धनोना पंचपातशून्य, विद्वत्तापूर्ण अनं युक्तिसंगत । परंतु लिपि देवनागरी (बलवान ) रहेश जेथी "खुलासा आपा मारे आ पत्र प्रकट करवामां पंजाब, राजपुताना ते पूर्वदेशना भाईओ पण आवे छे. एमी योधकारक, मार्गदर्शक, उत्साह-- सरलताथी तेना लाभ हुई शकशें प्रेरक, समुचि उत्पादक अने आनंद दायक लेखो आवणे. जैन समाजनी वर्तमान परिस्थि-| निओ उपर प्रामाणिक विचारो दर्शाववामां आ] वशे, जीवन कहना आ भयंकर संक्रांतिकाल सा आपणुं व्यावहारिक वर्तन केनुं होचु जोईए ? | -जडवादना प्रचंड तोफानी लमयमा आप धार्मिक आचरण कबु धधुं जोईए ? अने स्थालपता आ उच्छृंखल युगमां आपणुं सामाजिक, पंधारण के वन जोईए ? ए प्रश्नो उपर आ पत्रमा ऊपोह करवामां आवशे. सामाजिक अने धार्मिक विषयो उपरांत, नैतिक, वैज्ञा निक, ऐतिहासिक, साहित्यिक आदि विषयोः Publishr—Bechandas Jivaraj Pandit, Jain Snhitva, Sanshodhaka Fergusson College Road, Poona Gits, Printer =1axmiau Bhanrao Ko]:ale Hanumn Press' Satdishiv, 300 Pooni City. "पत्रनु वार्षिक लवाजम. टपाल “खर्च साथै, || रु० ( अढी रूपिया ) राखत्रामा आवशे यांन हफी पुरती जे नकलो काढवामा आवशे. तेथी ग्राहरु थवा इच्छनारने तुरतमाज: एक कार्ड लखी तेची सूचना करी देवा विनंती छे. पत्र व्यवहार नविना शिरनामे करवी. व्यवस्थापक, Dawajib जैन जागृति कार्यालयः 1 C/o भारत जैन विद्यालय, 931-1921. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- _