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१०० जैन साहित्य संशोधक
[भाग १ सभी मनुष्योंको भोजन करवाता था। सामने आने बधाया । इस प्रकार उस दिन प्रथम तीर्थदर्शनके वाले राजाओं तथा सेठ-साहुकारोंको यथायोग्य सब कृत्य करके दूसरे दिन संघने उपवासका पहरामणी देता था। प्रतिदिन संघम, सामंत, मंत्री, पारणा किया और तदर्थ उत्सव मनाया गया। सेठ आदि सभी संघजनोंको एकत्र कर स्नात्र महो. तीसरे दिन संघ प्रयाण करके शत्रुजयकी तलहत्सव मनाता था । प्रत्येक गांव और नगरमें साध- टीमें पहुंचा । वहां पर पादलिप्तपुर (पालीताना)
इयाको अन्न, वस्त्र और प्रच्छन्न धन देकरसा- में राजाने पहले ही पार्श्वनाथका मन्दिर बनवा धर्मिकवात्सल्य करता था। प्रतिदिन भोजन करने- रक्खा था, जिस पर उस समय सुवर्णनिर्मित कलशा के समय असमर्थ श्रावकोंको तथा दूसरे भूखे दण्ड और ध्वज आदिका आरोपण कर विधिपू प्यासे गरीब गुरयोंको अपने हाथसे भोजन करा. र्वक स्नात्र महोत्सव कराया। उसके बाद अपनी कर फिर स्वयंभोजन करता था । हमेशा त्रिकाल दाहिनी वाजमें हेमन्द्रसूरिको साथ लेकर, सा. जिनपूजा, उभयकाल प्रतिक्रमण तथा पर्वके (अष्ट. मंत, मंत्री, सेठ, साहुकार इत्यादि सबके साथ मी और चतुर्दशी आदि के) दिन पीपध बनादि शत्रुजय पर चढने लगा। मार्गमें जितने वृक्ष आते करता था। जितने याचकजन आते थे उनको इ- थे उन सब पर वनखण्ड चढवाता हुआ और च्छित दान देकर संतुष्ट करता था । इस प्रकार प्रत्येक स्थान पर सुवर्ण, पुप्प. चंदन इत्यादिस प्रयाण करता हुआ वह धंधूका नगरमें पहुंचा जो पूजन करता हुआ, मरुदेवा नामक शिखर उपर हेमचन्द्राचार्यका जन्मस्थान था । इस नगरमें पहुंचा। वहांपर जगन्माता स्वरूप.मरुदेवाकी, तथा उसने पहले ही १७ हाथ ऊंचा झोलिकाविहार शान्तिनाथ और कपर्दि यक्षादिककी पूजा-अची नामक मंदिर बनवाया था जिस पर ध्वजा चढाई कर प्रथम प्रतोली ( पोल) पर पहुंचा। वहां पर तथा मात्र महोत्सव कराया । वहांसे वह क्रमशः अनेक वाचक जन खडे थे जिनको यथायोग्य दान प्रयाण करता हुआ, प्राचीन वलभी शहरके मैदा- देकर आगे बढा और युगादिदेव आदिनाथक नमें पहुंचा। इस जगह दो सुंदर पहाडियां हैं जि- मुख्य मन्दिरका द्वार दिखाई देते ही सवासर नकी चोटी पर दो मन्दिर बनवाये और उनसे प्रमाण मोतियांसे उसे बधाया। तदनन्तर मन्दिर एकमें ऋपभदेवकी और दूसरेमें पार्श्वनाथकी को तीन प्रदक्षिणा कर गर्भागारमें गया और वहां मूर्ति प्रतिष्टित की । वहांसे चल कर वह संघ उस पर अगादि देवकी प्रशमरसपरिपूर्ण भव्य मूर्तिके जगह पहुंचा जहांसे शत्रुजय पर्वतका स्पष्ट दर्शन दर्शन कर परम उल्लसित हुआ और नौ लाख सुवा हो सकता था। उस दिन संघने वहीं पडाव किया के मल्यवाले नौ हार चढा कर उस मूतिकी और राजाने सकल संघके साथ शत्रुजयको नवांग पूजा की। तदनन्तर संघपतिके लिये जो दण्डवत् नमस्कार करके पञ्चाङ्ग प्रणाम किया। जो तीर्थ कृत्य बतलाये गये हैं उन सबका उसने उस दिन तीर्थदर्शन निमित्त उपवास किया गया यथाविधि पालन किया। इत्यादि। और सोने चांदिके फुलोसे और मोतियोंसे शत्रुजयके वधाया गया । कुकुम और चंदनादिसे
न पाठक कुमारपालकी यात्राके इस वर्णनका ऊपर अष्टमंगलका आलेखन किया गया और उनपर पहले दिये गये श्राद्धविधिके संघवर्णनके साथ अनेक प्रकारके नैवेद्योंसे भरे हुए थाल रक्खे गये।
मिलान करेंगे तो मालूम हो जायगा कि संघके वहां पर फिर पूजा पढाई गई, आचार्यका व्याख्या- केवल वर्णनमात्र ही नहीं है परंतु उसके अनुसार
' निकालनेका जो वर्णन ग्रन्थकारोंने दिया है वह न सुना गया और रात्रिजागरणका उत्सव मनाया यथार्थ आचरण भी होता रहा है । और यह आचः गया। राजराणी भूपल देवी, राजपुत्री लीलू कुमारी रण उस पुराणे जमाने ही में होता था सो भी और अन्य सब सामंत वगैरहकी लिऑने भी सो. बात नहीं है । वर्तमानमें भी ऐसे संघ निकालनेतेके थालो मोती और अक्षत भरकर पर्वतको वाले यथाशक्ति और यथासाधन उक्त विधिका