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अंक २]
आगे हम उपलब्ध टीका ग्रन्थोंका परिचय दे ते हैं-
'जनेrg व्याकरण और आचार्य देवनन्दी
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हैं । हमारा अनुमान है कि चन्द्रप्रभकाव्य के कर्ता महाकवि धीरनन्दिने जिन अभयनन्दिको अपना गुरु बतलाया है, ये वे ही अभयनन्दि होंगे | आचार्य नेमिचन्द्रन भी गोम्मटसार - कर्मकाण्डकी ४३६ वीं गाथामै इनका उल्लेख किया है । अतएव इनका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिक पूर्वार्ध के लगभग निश्चित होता है। जैनेन्द्रकी उपलब्ध टीकाओंमें यही टीका सबसे प्राचीन मालूम होती है प्रो० एस० के० बेलवलकरने अभयनन्दिका समय ई० सन् १३०० - १३५० के लगभग मालूम नहीं किन प्रमाणोंसे निश्चित किया है।
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१- महावृत्ति | इसको एक प्रति पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूटमें मौजूद है । इसकी श्लोकसंख्या १३००० के लगभग है । इसके प्रारं भके ३६४ पत्र एक लेखक के लिखे हुए और शेप ७ पत्र, चैत्र सुदी २ सं० १९३३ को किसी दूसरे लेखकके लिखे हुए हैं । प्रतिके दोनों ही भाग जयपुर के लिखे हुए मालूम होते हैं । कई स्थानों में कुछ पंक्तियाँ छूटी हुई हैं। इसका प्रारंभ इसतरह हुआ है:सो नमः | श्रीमत्सर्वज्ञवीतरागतद्वचनतदनुसारिगुरुभ्यो नमः । देवदेवं जिनं नत्वा सर्वसत्वाभयप्रदम् ।
शब्दशास्त्रस्य सूत्राणां महावृत्तिविन्ध्यते ॥ १ ॥ यच्छद्दलक्षणमसुत्रजपारमन्यैरम्यन्तमुत्तमभिधानविधौ दः । . तत्सर्वलोकयप्रिय चास्वाक्यै -
यं करोत्यभयनन्दमुनिः समस्तम् ॥ २ ॥ शिष्टाचार परिपालनार्थमादाविष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मंग. कमिदमाहाचार्य: ।
और अन्त में कोई प्रशस्ति आदि न देकर सिर्फ इतना ही लिखा है
" इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ पंचमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तथायं पंचमोऽध्यायः । "
इससे मालूम होता है कि इस महावृत्तिके कर्ता अभयनन्दि मुनि हैं। उन्होंने न तो अपनी गुरुपरम्पराका ही परिचय दिया है और न प्रन्थरचनाका समय हो दिया है, इससे निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि वे कब हुए हैं। परन्तु उन्होंने सुत्र ३-२-५५ की टीकामै एक जगह उदाहरण दिया है - " तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते । " इससे मालूम होता है कि भट्टाकलंकदेवसे याद अर्थात् वि० की नौवीं शताब्दि के बाद और पंचवस्तुके पूर्वो लिखित लोक इसी वृत्तिका उल्लेख जान पड़ता है, इस लिए आर्य श्रुतकीर्तिके अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दि के पहले – किसी समयमै वे हुए
१ नं. ५९० A और B सन १८७५-७६ को रिपोर्ट ।
२- पंचवस्तु | भांडारकर रिसर्च इन्स्टिटयूटमें इसकी दो प्रतियाँ मौजूद हैं, जिनमें एके ३००-४०० वर्ष पहले लिखी हुई है और बहुत शुद्ध है । पनसंख्या ९१ है । इस पर लेखकका नाम और प्रति लिखनेका समय आदि नहीं है। इसके अन्तमें केवल इतना लिखा हुआ है
"रुतिरियं देवनंयाचार्यस्य परवादिमथनस्य ॥ छ ॥ शुभं भवतु लेखकपाठकयेाः ॥ श्रीसंघस्य ॥”
दूसरी प्रति रत्नकरण्ड श्रावकाचारवचनिका आदि अनेक भाषाग्रन्थोंके रचयिता सुप्रसिद्ध प ण्डित सदासुखजीके हाथकी लिखी हुई है और संवत् १९९० की लिखी हुई है । इसके अन्तमें प्रतिलेखकने आपना परिचय इसतरह दिया है:अब्दे नभञ्चन्द्रनिधिस्थिरांके शुद्धे सहयम (?) युक्चतुर्थ्यांम् | सत्प्रक्रियाबन्धनिबन्धनेयं सद्वस्तुवृ तीरदनात्समाप्ता (१) ॥ श्रीमन्नराणामधिपेशराशि श्रीरामसिहे विलसत्यलेखि । श्रीमद्युघेनेह सदासुखेन श्रीयुक्तेलाल निजात्मबुद्धयै ॥ शाब्दीयशास्त्रं पठितं न यैस्तैः स्वदेहसंपालनभारवद्भिः । किं दर्शनीयं कथनीयमेतद् वृथांग संघावपलापवद्भिः ॥ यह प्रति भी प्रायः शुद्ध है ।
यह टीका प्रक्रियाबद्ध टीका है और बड़े अच्छे * वीरनन्दि और अभयनन्दिका समय जानने के लिए देखो त्रिलोकसार प्रन्थकी मेरी लिखी भूमिका ।
३ नं० १०५९ सन १८४७-९१ की रिपोर्ट । २ नं० ५९० सन १८७५-७६ की रिपोर्ट । ३ इस ग्रन्थको एक प्रति परतादगढ (माळवा) के पुराने दि० जैनमन्दिर के मंडारमें भी है । देखो जैनमित्र ता० २६ अगस्त १९१५ |