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जैन साहित्य संशोधक
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कावाला पाठ असली सूत्रपात्रको संशोधित और परिवर्धित करके बनाया गया है और उसका यह संस्करण संभवतः गुणनन्दि आचार्यकृत है ।
अब एक प्रश्न यह रह जाता है कि जब गुणनादि ने मूल ग्रंथ में इतना परिवर्तन और संशोधन किया था, तब उस परिवर्तित ग्रन्थका नाम जैनेन्द्र ही क्यों रखा ? इसके उत्तर में निवेदन है कि एक तो शब्दार्णवचन्द्रिका और जैनेन्द्रप्रक्रिया के पूर्वोलिखित श्लोकोंसे गुणनन्दिके व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र' नहीं किन्तु ' शब्दार्णव मालूम होता है। संभव है कि लेखकोंके भ्रमसे इन टीकाग्रंथों में ' जनेन्द्र ' नाम शामिल हो गया हो। दूसरा यदि 'जैनेन्द्र' नाम भी हो, तो ऐसा कुछ अनुचित -भी नहीं है । क्यों कि गुणनन्दिने जो प्रयत्न किया है, वह अपना एक स्वतंत्र ग्रंथ बनानेकी इच्छासे नहीं किन्तु पूर्वनिर्मित 'जैनेन्द्र' को सर्वांगपूर्ण बनानेकी सदिच्छासे किया है और इसी लिए उन्होंने जैनेन्द्रके आधेसे अधिक सूत्र ज्यों के त्यों रहने दिये हैं तथा मंगलाचरण आदि भी उसका "ज्यों का त्यों रखा है । हमारा विश्वास है कि गुणनन्द इस संशोधित और परिवर्तित सूत्रurant ही तैयार करके न रहे गये होंगे, उन्होंने इसपर कोई वृत्ति या टीका ग्रंथ भी अवश्य लिखा होगा, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है । सनातन जैन ग्रंथमालामें जो जैनेन्द्र-प्रक्रिया छपी है, वह जैसा कि हम आगे सिद्ध करेंगे गुणनन्दिको -बनाई हुई नहीं है ।
नैतेन्द्रकी टीकाचें ।
पूज्यपादस्वामीकृत असली जैनेन्द्रकी इस समय तक केवल तीन ही टीकायें उपलब्ध हैं-१ अभयनन्दिकृत ' महावृत्ति, २ भार्यश्रुतकीर्तिकी 'पंचवस्तु-प्रक्रिया, ́ और ३ युधमाचन्द्रकृत 'लघु जैनेन्द्र' । परन्तु इनके सिवाय इसकी और भी कई टीकायें होनी चाहिए | पंवस्तुके अन्तमें नीचे लिखा हुआ एक श्लोक है:
सूत्रस्तम्भसमुष्कृतं प्रत्रिसन्न्यासोरलक्षिति, श्रीमद्वृत्तिकपाट पुच्युतं भाष्यैौघशय्यातलम् । डीकामाला तं जैनेन्द्र शब्दागर्म, प्रका||
[ भाग: १
इसमें जैनेन्द्र शब्दाराम या जैनेन्द्र व्याकरणको महलकी उपमा दी गई है । वह मूलसूत्ररूप स्तम्भों पर खड़ा किया गया है, न्यासरूप उसकी रत्नमय भूमि है, वृतिरूप उसके किवाड़ हैं, भाष्यरूप शय्यातल है, और टीकारूप उसके माल या मं जिल हैं । यह पंत्रयस्तु टीका उसकी सोपान श्रेणी है। इसके द्वारा उक्त महल पर आरोहण किया जासकता है। इससे मालूम होता है कि पंचवस्तुके कर्ताके समय में इस व्याकरणपर १ न्याल, २ वृत्ति, ३ भाप्य और ४ टीका, इतने व्याख्या ग्रन्थ मौजूद थे। इनमें से श्रीमद्वृत्ति या वृत्ति तो यह अभयनन्दिकी महा वृत्ति ही होगी, ऐसा जान पड़ता है। शेष तीन टीकायै अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। हमारा अनुमान है कि इनमेंसे एक टीकाग्रन्थ चाहे वह न्यास हो या भाष्य हो, स्वयं पूज्यपादस्वामीका बनाया हुआ होगा। क्यों कि वे केवल सूत्रग्रन्थ हो बनाकर रह गये होंगे, यह बात समझ नहीं आती। अपनी मानी हुई अतिशय सूक्ष्म संज्ञाओं और परिभाषाओंका स्पष्टीकरण करनेके लिए उन्हें कोई टीका, वृत्ति या न्यास अवश्य बनाना पड़ा होगा, जिस तरह शाकटायनने अपने व्याकरणपर अमोघवृचि नामकी स्वोपा टीका बनाई है ।
आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री (पृष्ठ १३२ ) में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात् का' यह वचन उध्द्धृत किया है। यह किसी व्याकरण प्रन्धका वार्तिक है; परन्तु पाणिनिके किसी भी वार्तिकमें यह नहीं मिलता। अभयनादिफी महावृत्ति अवश्य ही न्यरखे कर्मणि का वक्तव्या" [४-१-३८ ] इस प्रकारका वार्तिक है; परन्तु हमारा जयाल है कि अमयनन्दिकी वृत्ति विद्यानन्दले पीछेकी बनी हुई है, इस लिए विद्यानन्दने यह वार्तिक अभयनन्दिकी वृत्तिले नहीं किन्तु अन्य ही किसी से लिया होगा और आश्चर्य नहीं जो वह स्वयं पूज्यपादकृत टीकाग्रन्थ हो । सुनते हैं, जैनेन्द्रका न्यास कर्नाटक ग्रान्के जैन पुस्तक भण्डारोंम है । उसके प्राप्त करनेकी बहुत आवश्यकता है। उससे इस व्याकरणसम्बन्धी अनेक संशयोका निराकरण हो 15 पिंगा ।