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अनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी
अंक २]
पक्षमें नहीं दे सके हैं। अब इसपर हमारा निवेदन सुम लीजिए
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'अल्पाच्तरम् " [ २-२९-३४] यह सूत्र पाणिनिका है और इसके ऊपर कात्यायनका " अभ्यहितं च " वार्तिक तथा पतंजलिका "अभ्यर्हितं पर्व निपतति " भाष्य है। इससे मालूम होता है कि पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धिटीकाके इस स्थलमें पाणिनि और पतंजलिके हो सूत्र तथा भाष्यको लक्ष्यकर उक्त विधान किया है । अयं इस पर यह प्रश्न होगा कि जय सर्वार्थसिद्धिकार स्वयं एक व्याकरण के कती हैं, तय उन्होंने पाणिनिक और उसके भाष्यका आश्रय क्यों लिया ? हमारी समझमें इसका उत्तर यह है कि पूज्यपाद स्वामी यद्यपि सर्वार्थ सिद्धिकी रचना के समय अपना व्याकरण तो बना चुके होंगे परन्तु उस समय उनके व्याकरणने विशेष प्रसिद्धि लाभ नहीं की होगी और इस कारण स्वयं उनके ही हृदयमें उसकी इतनी प्रमाणता नहीं होगी कि वे अन्य प्रसिद्ध व्याकरणों तथा उनके वार्तिकों और भाष्योंको सर्वथा भुला देव-या उनका आश्रय नहीं लेवें । कुछ भी हो परंतु यह तो निश्चय है कि उन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धिम अन्य वैयाकरणोंक भी मत दिये हैं । इस विषय में हम एक और प्रमाण उपस्थित करते हैं जो बहुत ही पुए और स्पष्ट है
सर्वार्थसिद्धि अ० ४ सूत्र २२ की व्याख्यायें लिखा है- " यथाहः द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानामिति । " इसकी अन्य पुरुथकी 'आहु:' क्रिया ही कह रही है कि ग्रन्थकर्ता यहां किसी अन्य पुरुषका वचन दे रहे हैं। अब पतंजलिका महाभाष्य देखिए । उसमें १-२-१ के ५ वें वार्तिकके भाष्यम बिलकुल यही वाक्य दिया हुआ है-एक अक्षरका भी हेरफेर नहीं है । इससे स्पष्ट है कि सर्वार्थसिद्धिके कती अन्य व्याकरण " प्रमाणनयैरधिगमः '
१ तत्वार्थराजवार्तिक में इसी सूत्रको व्याख्याम पतंजलिका यह भाष्य ज्यों का त्यों अक्षरशः दिया है | अभयनन्दिका भी यही वार्तिक है ।
२ राजवार्तिक और श्रोकार्तिकमें भी यह वाक्य उद्धृत कि गया है।
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ग्रन्थोके भी प्रमाण देते हैं । और भी एक प्रमाण लीजिए
सर्वार्थसिद्धि अ० ७ सूत्र १६ की व्याख्यामें लिखा है- " शास्त्रेऽपि 'अववृपयोमैथुनेच्छायीमित्येवमादिषु तदेव गृह्यते । " यह पाणिनिके ७-१-५१ सूत्रपर कात्यायनका पहला वार्तिक है। वहां " अश्ववृपयो मैथुनेच्छायाम् " इतने शब्द हैं और इन्हींको सर्वार्थसिद्धिकारने लिया है। यहां कात्यायनके वार्तिकको उन्होंने 'शास्त्र' शब्दसे व्यक्त किया है ।
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सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सूत्र ४ की व्याख्या में 'नित्यं' शब्दको सिद्ध करनेके लिए पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं:- " नेः ध्रुवे त्यः इति निष्पां दितत्वात् । " परन्तु जैनेन्द्रमें 'नित्य ' शब्दको सिद्ध करनेवाला कोई मूल सूत्र नहीं है, इस लिए अभयनन्दिने अपनी वृत्तिमं " ड्येस्तुद ( ३-२-८१ ) सूत्रकी व्याख्या में " नेर्भुवः इति वक्त व्यम् | यह वार्तिक बनाया है और 'नियतं सर्वकालं भवं नित्यं ' इस तरह स्पष्ट किया है। जैनेहमें ' त्य' प्रत्यय ही नहीं है, इसके बदले 'य । प्रत्यय है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धिकारने स्वनिर्मित व्याकरणको लक्ष्यमें रखकर पूर्वो
बात नहीं कहीं है। अन्य व्याकरणोंके प्रमाण भी वे देते थे और यह प्रमाण भी उसी तरह का 1
परन्तु इससे पाठकोंको यह न समझ लेना चाहिए कि सर्वार्थसिद्धि प्रन्धकर्ताने अपने जेनेन्द्रसूत्रका कहीं उपयोग ही नहीं किया है । नहीं, कुछ स्थानोंमें उन्होंने अपने निजके सूत्र भी दिये हैं । जैसे पांचवे अध्यायके पहले सूत्रके व्याख्यानमें लिखा है "विशेषणं विशेष्येण ' इति वृत्तिः । " यह जैनेन्द्रका १-३-५२ वां सूत्र है । यह सूत्र शब्दाचित्रन्द्रिका (१-३-४८ ) वाले पाटमें भी है।
इन सब प्रमाणोंसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि जैनेन्द्रका असली सूत्रपाठ वही है जिसपर अभयनन्दिकृत वृत्ति है; शब्दार्णवचन्द्र
१ तत्त्वार्थराजवातिकम भी है- " शास्त्रेऽपि अश्नवृषयो - मैथुनेच्छायामित्येवमादौ तदेव कर्माख्यायते । "