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अंक २ ]
इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, अहेत्प्रतिष्ठाल क्षण, और वैद्यक ज्योतिष आदिके कई ग्रन्थ रच चुके थे । गुणभट्ट मर जाने नागार्जुन अतिशय दरिद्री हो गया । पूज्यपादने उसे पद्मावतीका एक मंत्र दिया और सिद्ध करनेकी विधि बतला दी । पद्मा'वतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतला दी ।
जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी
परिशिष्ट |
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[ भगवदवाग्वादिनीका विशेष परिचय ] इसके प्रारंभ में पहले 'लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य ' आदि प्रसिद्ध मंगलाचरणका श्लोक लिखा गया और उसकी जगह यह लोक और उत्थानिका था । परन्तु पीछेसे उसपर हरताल फेर दी गई है। लिख दी गई है
इस सिद्धरससे नागार्जुन सोना बनाने लगा । उसके गर्वका परिहार करने के लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पति से कई घडे सिद्धरस बना दिया । नागार्जुन जब पर्वतों कों सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरणेन्द्र - पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनाने को कहा । तदनुसार उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्वनाथकी प्रतिमा स्थापित की।
पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेहक्षेत्रको जाया करते थे। उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने साथियाँसे झगडा करके द्राविड संघकी स्थापना की।
नागार्जुन अनेक मंत्र तंत्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत ही प्रसिद्ध हो गया । एकबार दो सुन्दरी. स्त्रियां आई जो गाने नाचने में कुशल थीं । नागार्जुन उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगीं और एक दिन अवसर पाकर उसे मारकर और उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनी ।
पूज्यपाद मुनि बहुत समयतक योगाभ्यास करते रहे । फिर एक देवके विमानमें बैठकर उन्होंने अनेक तीथोकी यात्रा की। मार्गम एक जगह उनकी दृष्टि नम्र हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्ठक बनाकर ज्यों की कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने श्रममें आकर समाधिपूर्वक मरण किया। "
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यह लेख शायद ही इस रूपमें पाठकोंके सम्मुख उपस्थित हो सकता ।
पूना - भाद्रकृष्ण ६ सं० १९७७ विक्रमीय
इस लेखक लिखने में हमें श्रद्धेय मुनि जिनविजयजी और पं० बेहचरदास जीवराजजीसे बहुत अधिक सहायता मिली हैं । इस लिए हम उक्त दोनों सजनों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं मुनिमहोदयकी कृपा से हमको जो इस लेख सम्ब #धी सामग्री प्राप्त हुई है, वह याद न मिलती तो
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य नमः पार्थाय । त्वरितमहिम दूतामंत्रितनाद्भुतात्मा, त्रिपममपि मघोना पृच्छता शब्दशास्त्रम् । श्रुतमदरिपुरासीद् वादिवृन्दाग्रणीनां परमपदपटुर्यः स धिये वीरदेवः ||
afrist तथाविवभक्ताभ्यर्थनाप्रणुन्नः स भगवानिदं प्राह - सिद्धिरनेकान्तात् । १-१-१ ।
इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है । पहले पत्रके ऊपर मार्जिनमें एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि आदि व्याकरणोंको अप्रामाणिक ठहराया है।
LE प्रमाणपदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणतिसूत्राणि स्यात्कारवादित्रदूरत्वात्परित्राजकादिभाषिनवत् । अप्रमाणानिच कपोलकल्पना मलिनानि हीनमानृकत्वात्तद्वदेव । "
इसके बाद प्रत्येक पादके अन्तमें और आदिम इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र पाठके भग; वत्पणीत होने में कोई सन्देह वाकी न रह जाय." इति भगवद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः । ऑनमः पावय । स भगवानिदं प्राह ।
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सर्वत्र 'नमः पावय' लिखना भी हेतुपूर्वक है। जब ग्रन्थकर्ता स्वयं महावीर भगवान हैं तब उनके प्रन्यम उनसे पहलेके तीर्थकर पार्श्वनाथको ही नमः स्कार किया जा सकता है । देनिंए, कितनी दूरतकका विचार किया गया है।
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आगे अध्याय २ पाद २ के ' सहूबहूचल्यापतेरिः (६४) सूत्रपर निम्न प्रकार टिप्पणी दी है और इससे