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जैन साहित्य संशोधक.
गंधहस्तिमहाभाग्य की खोज और
आप्तमीमांसा (देवागम ) की स्वतंत्रता ।
[ लेखक – श्रीयुत बाबू जूगलकिशोरजी, मुख्तार । ]
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कहा जाता है कि भगवान् श्रीसमन्तभट्टाचार्यने तत्वार्थ सूत्र पर 'गंधहस्ति महाभाष्य' नामके एक महान ग्रंथकी रचना की थी, जिसकी श्लोक संख्याका परिमाण ८४ हजार है। यह ग्रंथ भारतके किसी भी प्रसिद्ध भंडारनें नहीं पाया जाता । त्रि द्वानोंकी इच्छा इस ग्रंथराजको देखनेके लिये बड़ी ही प्रबल है । स्वईके सुप्रसिद्ध सेठ श्रीमान् मा णिकचंद हीराचंदजी जे० पी० ने इस ग्रंथरत्नका दर्शन मात्र करानेवालेके वास्ते ५०० रुपयेका नकद पारितोषिक भी निकाला था । परंतु खेद है कि कोई भी उनकी इस इच्छा को पूरा नहीं कर सका और वे अपनी इस महती इच्छाको हृदयमें रखे हुए ही इस संसार से कृत्र कर गये । निःसन्देह जैनाचार्यों में स्वामी समन्तभद्रका आसन बहुत ही ऊँचा है । वे एक बडे ही अपूर्व और अ. द्वितीय प्रतिभाशाली आचार्य हो गये। । उनका शासन महावीर भगवान के शासनके तुल्य समझा जाता है और उनकी आतमीमांसादिक कृतियों को देखकर बडे बडे वादी विद्वान् चकित होते हैं ऐसी हालत में आचार्य महाराजकी इस महती कृ तिके लिये जिसका मंगलाचरण ही आप्तमीमांसा (देवागम ) कहा जाता है, यदि विद्वान् लोग उत्कंठित और लालायित हों तो इसमें कुछ भी, आश्चर्य और अस्वाभाविकता नहीं है । और यही कारण है कि अभी तक इस ग्रंथरत्नकी खोजका प्रयत्न जारी है और अब विदेशों में भी उसकी तलाश की जा राह है। हाल में कछ समाचारपत्रों द्वारा यह प्रकट
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[ भाग १
हुआ था कि पना लायब्रेरी की किसी सूची परसे आस्ट्रिया देशक एक नगरकी लायब्रेरीमै उक्त ग्रंथके अस्तित्वका पता चलता है। साथ ही, उसकी कापी करनेके लिये दो एक विद्वानोंको वहाँ भेजने और खर्च के लिये कुछ चंदा एकत्र करनेका प्रस्ताव भी उपस्थित किया गया था । हम नहीं कह सकते कि ग्रंथ के अस्तित्वका यह समाचार कहाँ तक सत्य है और इस बातका यथोचित निर्णय करनेके लिये अभी तक क्या क्या प्रयत्न किया गया है । परंतु इतना जरूर कहेंगे कि बहुतसे भंडारोंकी सूचियाँ अनेक स्थानों पर भ्रमपूर्ण पाई जाती हैं । पूना लायब्रेरीकी ही सून्रीमें सिद्धसेन दिवाकरके नामसे 'वादिगजगंधहस्तिन् ' नामके, एक महान् ग्रंथका उल्लेख मिलता है जो यथार्थ नहीं है । वहाँ इस नामका कोई ग्रंथ नहीं । यह नाम किसी दूसरे ही ग्रंथके स्थान पर गलतीसे दर्ज हो गया है। ऐसी हालत में केवल सूची के आधार पर आस्ट्रिया जैसे सुदूरदेश की यात्रा के लिये कुछ विद्वानोंका निकलना और भारी खर्च उठाना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । बेहतर तरीका, इसके लिये, यह हो सकता है कि वहाँके किसी प्रसिद्ध फोटोग्राफर के द्वारा उक्त ग्रंथके आद्यंतके १०-२० पत्रोंका फोटो पहले मँगाया जाय और उन परसे यदि यह निर्णय हो जाय कि वास्तव में यह ग्रंथ वही महाभाष्य ग्रंथ है तो फिर उसके शेष पत्रोंका भी फोटो आदि मँगा लिया जाय । अस्तु । ग्रंथके वहाँ अस्तित्व वि घयमे, अभी तक हमारा कोई विश्वास नहीं है।