________________
जैन साहित्य संशोध
[माग
योंके आप अध्यक्ष और सदस्य आदि समय समय छपकर प्रकाशित हो जाय तो तुरन्त उसकी एक पर नियुक्त किये गये थे।
प्रति आपके पास भेज दी जाय, कि, जिससे आप कलकत्ते, शास्त्रविशारद जैनाचाय विजयधर्म- आपनी जैन न्यायके इतिहास विषयक उपर्युक्त सूरिजीसे आपकी मुलाखात हो गई थी जिससे पुस्तककी दूसरी आवृत्तिमें, जो वर्तमानमें छप रही आपको जैनसाहित्यसे भी बहुत कुछ परिचय है, हरिभद्र सूरिके समयवाला -ल्लेख ठीक सं. मिल गया था। आप उक्त जैनाचार्यजीके बडे शोधित कर दिया जा सके। परन्तु खेद है कि, प्रशंसक थे और उनकी प्रेरणासे आपने कलकत्ता- हमारे उस.निवन्धके प्रकाशित होनेके पहले ही, विश्वविद्यालयके पठनक्रमम जनसाहित्यको भी गत २५ अप्रैलको आप इस क्षणभंगुर संसारको कुछ स्थान दिलाया था। जैन न्यायके इतिहास छोडकर स्वर्गमें जा बसे। विषयक उपर्युक्त पुस्तकके सिवाय जैनसाहित्यके आपकी इस अकालमृत्युसे भारतवर्षके विद्याप्रथम तक ग्रन्थ न्यायावतारका आपने अंग्रेजीम व्यसनी विद्यानामसे एक बडी भारी व्यार अदृश्य अनुवाद भी किया है। भारतके दर्शन शास्त्रोके हो गई और जैन साहित्यका एक प्रतिष्ठित और इतिहासमै आपको बडारस था और इस लिये इस प्रामाणिक पण्डित लुप्त हो गया! विषयमें आपने अंग्रेजी और आपनी मातृभापा . [२] बंगलामें अनेक छोटे बडे निवन्ध लिखे हैं। हमें इन पंक्तियों के लिखते हुए अत्यन्त दुःख होता
जैन साहित्यविषयक आपका प्रेम देख जैन स- हैं कि, इस पत्र के प्रथम अंकमें, जिन प्रो० सी. माजने भी आपका यथोचित गौरव किया था। वी. राजवाडेका जैनधर्मका अध्ययन' शीर्षक लेख सन् १९१३ में यनारसमें जो अखिल भारतीय प्रकट हुया है और जिनका संक्षिप्त परिचय हमने दिगम्बर जैन महासभाका अधिवेशन हुआ था उसी अंकके 'सम्पादकीय विचार' वाले एक नोट. उसके आप अध्यक्ष बनाये गये थे और सभाने में दिया है, वे आज इस संसारमें नहीं है। गत ८ आपको जैनसिद्धान्त महोदधि की उपाधि समर्पित मईको नाशिकमे जहां, पर आरोग्यप्राप्तिके लिये पि. कर सत्कृत किया था । इसके अगले वर्ष जव छले कुछ महिनासे आय विश्रान्ति ले रहे थे, आपका जोधपुर में जैनसाहित्य सम्मेटन हुआ तब भी आप शरीरपात होगया।जैन साहित्यसंशोधकके गतांकमें उसके सभापति नियत किये गये थे।
प्रकाशित उक्त लेख और हमारे नोटको आप देख गतवर्ष जव यहां पर ( पूर्नमें ) प्रथम प्राच्यवि- भी नहीं पाये । यह किसको कल्पना थी कि इस यापरिषद'ई थी तब आप यहां पर भी आयेथे प्रस्तुत अंकम हमे अपने पाठकोंको आपका कोई और परिपदके पालीभाषा और बौद्धसाहित्य विषय- विशिष्ट लेख भेंट करनेके बदले आपकी मृत्युके क विभागके अध्यक्ष बनाये गये थे। उस समय लिये दुःखोद्गार भेंट करने पड़ेंगे। कालस्य कुटिला हमारी भी आपसे भेंट हुई थी और परिपदमें जब गतिः । हरिभद्रसूरिका समय निर्णय विषयक हमारा लेख राजवाडेजी बडे बुद्धिशाली और एक होनहार पढा गया तव खास तौरसे उसे सुनने के लिये आप विद्वान् थे । आपको ग्रेज्युएट हुए अभी पूरे १० वर्ष यहां पर उपस्थित हुए थे। हरिभद्रसूरिके समयके भी नहीं हुए थे। सन् १९९२ में यहां (पूना) के विषयमे आपका और हमारा मतभेद था । इसलिये फर्ग्युसन कालेजम अध्ययन समाप्त कर आपने इस विषयमें खास चर्चा करने के लिये, उक्त परि- वी. एस्. सी.की डिग्री प्राप्त की और १९१४ में पदकी समाप्तिके दिन याप उत्कंठापूर्वक हमारे पाली और अंग्रेजीकी एम. ए. परीक्षा पास की। स्थानपरंभी आये थे; और बहुतसी बातचीत कर इसके बाद तुरन्त ही आप बरोडा कालेजमें पाली बडे प्रसन्न हुए थे। चरते समय आप हमसे और अंग्रेजीके प्रोफेसर नियुक्त हए। वहां थापने आग्रह कर गये थे कि, जब हमारा उक्त निवन्य अपने अध्यापन कार्यके सिवाय पालीसाहित्यके