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जैन साहित्य संशोधक
[ भाग १
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दिया । इसे सुनकर संघके हौंस ऊड गये । सब दिङ्मूढ हो गये । यात्रीलोक दिलमें बडे प्रवराये और अब क्या किया जाय इसकी फिक्रमें निश्चेष्टसे हो र है। किलो प्रकार हाँस संभालकर और परमात्माका ध्यान घर संघ पीछा लौटा और विपाशा के तटका आश्रय लिया । नावों में बैठ कर जल्दी से उस को पार किया और कुंगुद नाम के घाट में हो कर मध्य, जांगल, जालन्धर और काश्मीर इन चार देशोंकी सीमाके मध्य में रहे हुए हरियाणा नामके स्थान में पहुंचा । इस स्थलको निरूपद्रव जान कर वहां पर पडाव डाला। वहीं पर, कानुक यक्षके मंदिर के नजदीक, शुचि और धान्यप्रधान स्थान में चैत्र सुदि एकादशी के रोज सर्वोत्तम समय में, नाना प्रकार के वाद्योंके वजने पर और भाट चारणों के, बिरुदावली बोलने पर, सर्व संघने इकट्ठा हो कर, साधुश्रेष्ट लोमा को, उसके निषेध करनेपर भी, संघाधिपतिका पद दिया । मल्लिकवाहनके सं० मागटके पौत्र और सा० देवा के पुत्र उद्धर को महाधर पद दिया गया । सा० नीवा, सा० रूपा और सा० भोजा को भी महाधर पद से अलंकृत किया गया। सैलहस्त्य का विरुद वुच्यासगोत्रीय सा० जिनदत्त को समर्पण किया गया। इस प्रकार वहां पर पहीदान करनेके साथ उन उन मनुष्योंने संघ की, भोजन-वस्त्र आभूषणादि विविध वस्तुओं द्वारा भक्ति और पूजा कर याचक लोको को भी खूब दान दिया । संघके इस कार्यको देख कर मानों खुश हुआ हुआ और उल के गुणों का गान करनेके लिये ही मानों गर्जना करता हुआ दूसरे दिन खूब जोर से मेघ वर्षने लगा । बेर बेर जितने बड़े बड़े ओले बादल में से गिरने लगे और झाडो तथा झंपडीओ को उखाड कर फेंक देनेवाला प्रचण्ड पवन चलने लगा। इस जलवृष्टिके कारण संघ को वहां पर पाँच दिन तक पछाव रखना पडा । ६ वें दिन सवेरे ही वहां से कूच की। सपादलक्षपर्वत की तंग घाटियों को लांघता हुआ, सघन झाडियों को पार करता हुआ, नाना प्रकार के पविताय प्रदेशों को आश्चर्य की दृष्टि से देखता हुआ और पहाडी मनुष्योंके आचार-विचारोंका
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हाथ में तलवार थी तो किसीके हाथमें खड्ग था । कोई धनुष्य लेकर चलता था तो कोई जब रदस्त लठ्ठ उठाये हुआ था। इस प्रकार सबसे आगे उछलते कूदते और गर्जते हुए सिपाही चले जाते थे । उनके पीछे बडी तेजी के साथ चलनेवाले ऐसे बडे बडे बैल चलते थे जिन पर सब प्रकारका मार्गोपयोगी सामान भरा हुथा था । उनके बाद संघके लोक चलते थे जो कितने एक गाडी घोडी आदि वाहनों पर बैठे हुए थे और कई एक देव गुरुभक्ति निमित्त पैदल ही चलते थे । कितने ही धर्मी जन तो साधुओंकी समान नंगे ही पैर मुसाफरी करते थे । इस प्रकार अविच्छिन्न प्रयाण करता हुआ और रास्तेमें आनेवाले गाँवों को लांघता हुआ संघ निश्चिन्दीपुर के पास के मैदान, सरोवर के किनारे आ कर ठहरा । सघके आनेकी खवर सारे गाँवमें फैली और मनुष्यों के झुंड झुंड उसे देखनेके लिये आने लगे । गाँव का मालिक जो सुराण (सुल्तान) करके था वह भी अपने दिवान के साथ एक ऊंचे घोडे पर चढ कर आया, और जन्मभर में कभी नहीं देखे हुए ऐसे साधुओं को देखकर उसे बडा विस्मय हुआ । उपाध्यायजीने उसे रोचक धर्मोपदेश सुनाया, जिसे सुन कर नगरके लोकोंके साथ वह वडा खुश हुआ और साधुओंकी स्तुति कर उसने सादर प्रणाम किया | वाद संघपति सोमाका सम्मान कर अपने स्थान पर गया । संघ वहां से प्रयाण कर क्रमसे तलपाक पहुंचा। वहां पर गुरुओंको वन्दन करने के लिये देवपालपुरका श्रावकसमुदाय आया और अपने गाँवमें आनेके लिये संघको अत्याग्रह करने लगा | उन लोकों को किसी तरह समझा-बुझाकर संघने वहां से आगे प्रयाण किया और विपाशा ( व्यासा ) नदीके किनारे किनारे होता हुआ क्रमसे मध्य देशमें पहुंचा। जगह जगह ठहरता हुआ संघ इस देश को पार कर रहा था, कि इतने में एक दिन, एक तरफसे पोषरेश यशो रथ सैन्यका और दूसरी ओरसे शकन्दर के सैन्यका, "भगो, दोडो, यह फौज आई, वह फौज आई, "इस प्रकारको चारों तरफस कोलाहल सुनाई
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