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अंक २]
जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी
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द शाकटायनको भी जैनेन्द्र के होते हुए एक जदा इसका आशय यह है कि गुणनन्दिने जिसके
एण बनानेकी आवश्यकता इसी लिए मालूम शरीरको विस्तृत किया है, उस शब्दार्णवको जापड़ी होगी कि जैनन्द्र अपूर्ण था, और बिना वार्ति- ननेकी इच्छा रखनेवालोंके लिए तथा आश्रय लेनेका और उपसंख्यानों आदिके काम नहीं चल सक- वालोंके लिए यह प्रकिया साक्षात् नावके समान ता था । परन्तु जब शाकटायन जैसा सर्वांगपूर्ण काम देगी। इसमें 'शब्दार्णव' को 'गुणनन्दि व्याकरण बन चुका, तव जैनेन्द्रव्याकरणके भक्तोंको तानितवपुः 'विशेपण दिया है, वह विशेष ध्यान उसकी त्रुटियां विशेष खटकने लगी और उनमेंसे देने योग्य है। इससे साफ समझमें आता है कि आचार्य गुणनन्दिने उसे सर्वांगपूर्ण बनानेका प्रय. गुणनन्दिके जिस व्याकरणपर ये दोनों टीकायेंल किया । इस प्रयत्नका फल ही यह दूसरा सूत्र- शब्दार्णव चन्द्रिका और जैनेन्द्रप्रकिया-लिखी गई पाट है जिसपर सोमदेवकी शब्दार्णवचन्द्रिका हैं उलका नाम 'शब्दार्णव ' है और वह मूल रची गयी है । इस सूत्रपाठको बारीकीके साथ (अलली) जैनन्द्र व्याकरणके संक्षिप्त शरीरको देखनेसे मालम पडता है कि गणनन्दिके समय तक तानित या विस्तत करके बनाया गया है। व्याकरणसिद्ध जितने प्रयोग होने लगे थे उन शब्दार्णवचन्द्रिकाके प्रारंभका मंगलाचरण भी सबके सूत्र उसमें मौजूद हैं और इसलिए उसके इस विषयमें ध्यान देने योग्य है:-- टीकाकारांको वार्तिक आदि बनानेके झंझटॉमें नहीं श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं पड़ना पड़ा है। अभयनन्दिकी महावृत्तिके ऐसे सोमामरबतिपपूजितपादयुग्मम् । बीसों वार्तिक हैं जिनके इस पाटमें सूत्रही बना सिद्ध समुन्नतपदं वृपमं जिनेन्द्र दिये गये हैं। नीचे लिखे प्रमाणोंसे हमारे इन सत्र तच्छन्दलक्षणमई विनमामि वारम् ॥ विचारोंकी पुष्टि होती है:
इसमें ग्रन्थकर्ताने भगवान् महावीरके विशेषण१-शब्दार्णवचन्द्रिकाके अन्त में नीचे लिखा रूपमै कमसे पूज्यपादका, गुणनन्दिका और आपना हुआ लोक देखिए-...
(सोमामर या सोमदेवका) उल्लेख किया है श्रीसोमदेवयतिनिमितिमादयानि
और इसमें वे निस्सन्देह यही ध्वनित करते हैं यानाः प्रतीतगुणनन्दितशब्दवाची ।
कि मुख्य व्याफरणके कर्ता पूज्यपाद हैं. उसको सोऽयं सताममलतसि विस्फुरन्ती विस्तृत करनेवाले गुणनन्दि हैं और फिर उसकी वृत्तिः सदानतपदा परिवर्तिपीट,
टीका करनेवाले सोमदेव (स्वयं) हैं। यदि यह इसमें सुप्रसिद्ध गुणनन्दि आचार्यके शब्दवाधि चन्द्रिका टीका पूज्यपादकृत ग्रन्यकी ही होती, तो या शब्दार्णवम प्रवेश करनेके लिए सोमदेवकृत मंगलाचरणमें गुणनन्दिका नाम लानेकी कोई वृत्तिको नौका के समान बतलाया है । इससे यह आवश्यकता नहीं थी। गुणनन्दि उनकी गुरुपरजान पडता है कि आचार्य गुणनन्दिके बनाये हुए रम्परामें भी नहीं है, जो उनका उल्लेख करना व्याकरणं ग्रन्थकी यह टीका है और उसका नाम आवश्यक ही होता । अतः यह सिद्ध है कि चन्द्-ि शब्दार्णवं है । एस टीकाका 'शब्दार्णवचन्द्रिका' का और प्रक्रिया दोनों ही कर्ता यह समझते थे कि नाम भी तभी अन्वर्थक होता है, जब मूल सूत्र हमारी टीकाय असली जैनेन्द्रपर नहीं किन्तु उसके ग्रन्थका नाम शब्दार्णव हो। हमारे इस अनुमानकी गणनन्दितानितवपु' शब्दार्णवपर अनी हैं। पुष्टि जैनेन्द्रप्रक्रियाके नीचे लिखे अन्तिम श्लोकसे २-शब्दार्णव चन्द्रिका और जैनेन्द्रप्रक्रिया इन और भी अच्छी तरहसे होती है:--
दोनों ही टीकाओंमें 'एकशेष ' प्रकरण है; परन्तु सत्माधि दधते समासमभितः स्यातार्थनामोन्नतं, अभयनन्दिकृत ' महावृत्ति' वाल सूत्रपाठमें एक निर्मातं बहुतद्धितं कम कृतमिहाख्यातं यशम्शालिना(न)म् । ----
हमारा अनुमान है कि इस प्रक्रियाका भी नाम शब्दा. सैपा श्रीगुणनन्दितानितवप: शब्दार्णवं निर्णयं, नावत्याअयता विविक्षुमनसा माणस्वनं प्रक्रिया ।। व प्रक्रिया' होगा, जैनेन्द्र-प्रक्रिया नहीं।