________________
यात्रा के लिये निकलनेवाले संघौका वर्णन
अंक २]
किया है और तदनुसार जैन समाजमै प्रवृत्ति भी चली आ रही है।
W
पुराणे जमाने में, आज कल के समान, मुसाफरी करने के लिये रेल्वे वरह जैसे साधनों की सुवि धा न होनेसें, तथा मार्ग में अनेक प्रकारके कोंके आनेको बहुत कुछ संभावना रहनेसे, उस समय के बडे बडे श्रीमान लोक भी अकेले-दुकेले घरसे बहार निकल कर दूरके देशों में जानेकी हिम्मत कम रखते थे । फिर साधारण और गरीब वर्ग के लोगोंके लिये तो कहना ही क्या। इस लिये उस समय प्रायः लोग बहुतसी संख्या में एकत्र हो कर तीर्थयात्रा के लिये निकला करते थे। यात्रियोंके इस समूहको संघ कहा करते हैं। पिछले जमाने में, जैनसमाजमसे जुदा जुदा तीर्थों की यात्राके लिये जुदा जुदा देशांमसे प्रतिवर्ष प्रायः सैकडों ही ऐसे छोटे बडे संघ निकला करते थे, और अब तक भी सालमें दो चार निकलते रहते हैं। बहुत करके इन संघोके निकालने में कोई एक श्रीमान् भावुक अग्रणी होता है और वह अपनी औरसे हजारों लाखों रुपये खर्च कर सैकड़ों हजा
यात्रियों के तीर्थदर्शनकी अभिलापाको पूर्ण करमैं सहायक बनता है । ऐसे संघ निकालनेवालेको समाजकी और से ' संघपति ' की पदवी मि लती है और वह फिर सदा समाजमें अग्रणी माना जाता है ।
संघके निकालनेकी क्या विधि है वह किस तरहसे निकाला जाता है और उसके निकालनेवालेको क्या क्या करना चाहिए- इसके विपयमें श्राद्धविधिनामक ग्रन्थ में निम्न प्रकारका वर्णन दिया है
।
संघ निकालनेवाले पुरुपको सबसे प्रथम, अभीप्र तीर्थ की यात्रा पूर्ण न हो तब तक, निम्न प्रका
१ जैन जातियों में बहुत से कुटुम्बों को जो संघवी-संघइ- सिंघी- सिंगई आदि अटक है वह इसी ' संघपति ' पद्वी का अपभ्रष्ट रूप है ।
२ यह ग्रंथ तपागच्छके आचार्य रत्नशेखर सूरिका वनाया हुआ है। इसकी रचना विक्रम संवत् १५०६ में हुई है। भावनगरकी आत्मानंद जैन सभाने इसे छप कर प्रकट किया है !
९७
रके नियम करने चाहिएं - दिनमें एक ही दफह भोजन करना चाहिए, रास्ते में पैदल चलना चा दिए, खाली जमीन पर सोना चाहिए, सचित्त वस्तु खानी न चाहिए, ब्राचर्यका पालन करना चाहिए, इत्यादि । इस प्रकार यात्रा के लिये नियंमादि स्वीकार कर फिर राजाके पास जावे और उसे यथायोग्य भेंट दे कर संघ निकालने की इजाजत लेवे। फिर यात्रामें साथ ले चलनेके लिये युक्तिपूर्वक मंदिर बनवावे' । अनन्तर अपने स्वज नाकों और साधर्मिभाईयों को संघ आनेके लिये
१ जिस संघ में इस प्रकार के नियमोंका पालन करते हुए संघपति और अन्यान्य यात्री चलते हैं उस संघको 'पटू री पालक (गुजराती में - छ री पलतो) संघ कहते हैं । 'परी' से मतलब उन छ नियमों का है जिनमें अन्तमें 'री' अक्षर आता है । यथा
,
'एकाहारी, दर्शनधारी, यात्रासु भूशयनकारी, सच्चित्तपरिहारी, पादचारी, ब्रह्मचारी, च । श्राद्धविधि. पृ. १६४. एकाहारी भूमिसंस्तारकारी पद्भ्यां चारी शुद्धसम्यक्त्वधारी । यात्राकाले सर्वसच्चित्तद्दारी
पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥ - उपदेशतरंगिणी, पृ २४३.
२ प्राचीन समय में राजाज्ञा के सिवा ऐसे संघ वगैरह निकल नहीं सकते थे तथा उनको एक राज्यमेंसे दूसरे राज्यमें जाने आने नहीं दिये जाते थे । इस लिये संघ निकालनेथालेको प्रथम राजा के पास जाकर उसके आगे रूपयोकी खूब भेंट कर उसे खुश करना पड़ता था और उसके पाससे संघ निकालने का परवाना ( मुसलमानी शब्द फरमान ) लेना पटता था । प्रमाणके लिये देखो मेरा लिखा हुआ शत्रुंजय तीर्थोद्वार प्रबन्ध, पृ० ५६-७
तथा सोमसौभाग्यकाव्य, पु, १४० - ४१ ।
३ ये मन्दिर सोना, चांदि, आदि धातुओंकें तथा हस्तिदन्त, चन्दन अथवा अन्य प्रकारके उत्तम काठके बनाये जाते थे । ये एक प्रकारके सिंहासन समान अथवा रथके जैसे होते थे । इनको मनुष्य उठाते अथवा रथकी तरह घोडे या बैल खींचते थे । संघके प्रमाणमें ऐसे एक या अनेक मंदिर संघ के साथ रहते थे !
1