Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 112
________________ ९८ जैन साहित्य संशोधक [भग १ पण प्रयत्न कर्यो अने तेना लीधे पाटणनाभंडारमां- जे जर्मन भापामां लखवामां आव्यां छे, ते इंग्रेजीमां थी तेनी एक जुनी प्रति कहावी प्रवर्तक श्रीकांति- लखायां होत तो वधारे ठीक थात. कारण के भारविजयजीए डॉ. जेकोबी तरफ मोकली आपी. परंतु तना अभ्यासियोमा जर्मन भापा जाणनार विरल ज कमनसीये तेज अरसासां जर्मनीए इंग्लांड साथे होय छे. तेथी बधा जिज्ञासु अभ्यासियो एनो यथेष्ट महायुद्ध जाहेर कयों, तेथी ते प्रति डॉ. जेकोबीने लाम नार्ह मेळवी शके. घीजें. मूळ ग्रन्ध जे रोमन मळतां थोडा माहिना पछी पाछी पाटण आवी. न लिपिमा छापवामां आव्यो छ ते पण भारतीयो. डॉ साहेबने युद्धना कारणे बीजी प्रत मळवानी नी साटिए निरुपयोगी जेची ज . भारत वर्पना आशा रही नहिं अने युद्धनी समाप्ति सुधी चाट मोटा मोटास्कॉलरो सुधांने रोमनलिपिमांछापेलासंजोईने तेमनाथी केशी शकाय नहि, तेथीतेमणे एक स्कृत-प्राकृत ग्रंथो वांचता घणो परिश्रम पहे छ; मात्र ते फोटोग्राफना आधारे ज महान् परिश्रम ता पछी साधारण आभ्यासिओना माटे तो कहेवू उठावी आ प्रथनी प्रस्तुत आवृत्ति, लढाई ज शुं परंतु ए विषयमां तो अमने संतोपराखवानुं दरम्यान ज (सन् १९९८ मां) प्रकट करी छे अने कारण छ के वडोदरा राज्य तरफथी प्रकट थती तेम करी तेमणे सापाशास्त्रिओ पाटे एक नवीन वि- गाइकवाड ओरिएन्टल सीरीजमां पण ए ग्रंथ छ. पयना उपयोगी अध्ययन महाद्वार खुलं कयु छे. पाय छ जेनी लिपी देवनागरी (यालयोध)ज छे, ए. समन पुस्तकमां डेमी ४ पेजी जवी पहोळी जो कोई पण विद्वान आ पुस्तकनी बहुतथ्यपूर्ण साईझना एकंदर ३२० लगभग पानां छे, जेमां प्रा. प्रस्तावनानो इंजीमां के देश भापामां जो अनुवाद रंभनां १०० पानां प्रस्तावना अने विचरणमा (जे करी-करावी आपे तो भाषाशास्त्रनी हाटिए यह जर्मन भापामां लखापलां छ) रोकाएलां छे. विव- मोटो लाभ थवानो संभव छे. रणमा प्रथम ग्रंथ, कर्ता, ग्रन्थगत वस्तु आदिनो परिचय आपवामां आव्यो के भने पछी, लंवाणथी अपभ्रंश भाषा, तेनो इतिहास, तेनो विकास, तेनुं व्याकरण, तेनुं छन्दशास्त्र, अन्यान्य भाषाओ साथै सूरीश्वर अने सम्राट. रहेलो तेनो संवंध, साहित्यमा मळेलं तेने स्थान, इत्यादि अनेक प्रकारना ज्ञातव्य विषयो, घणी ऊंडी [कर्ता मुनिराज विद्याविजय. प्रकाशक, यशो. शोधखोळ साथे, चर्चवासां आन्या छ. विजय जैन ग्रंथमाला, भावनगर. पृष्टसंख्या, २१विवरण पछी मूळ ग्रंथ आप्यो छे जेणे १२० पृष्ठ ४१७. पाकुं फूटुं. किं. २०२-८-०] रोक्यां छे ग्रंथ रोमन लिपिमां मुद्रित करवामां जैन समाज तरफथी, आधुनिक गुजराती भाषाआन्यो छे. अन्यान्ते, ग्रन्थमां आवेला वधा शब्दोनो मां, बेचार मुनिओ अगर श्रावकोना हाथ लखा. कोप आप्यों के अने ते साये रेक शब्दनो संस्कृत एलां नानां मोटां ५-१० पुस्तको प्रकट थयां छे, ते प्रतिशब्द पण आयो छे. सौमां मुनिराज विद्याविजयजानुं लखेलं 'सूरीश्वर पोताना देशमां चाली रहेला महान् युद्धना भ- अने सम्राट' नामर्नु पुस्तक प्रथम स्थान भोगवे यंकर अशांतिकाळमां पण जगन्ने एक तहन नवीन छ, एम कहेवामां जराए अतिशयोक्ति जणाती नथी. विषयनें उपयोगी ज्ञान आपवा माटे, आटली वृद्धा- मुनिजीनी आ कृतिए केवळ जैन साहित्यमा ज वस्थामा उठावला अथान परिश्रम निमित्ते, विद्ध- नहि परंतु समत्र गुजराती साहित्यमां-खास करीसमाज तरफथी डॉ. जेकोबी खरेखर बहु बहु ध. ने ऐतिहासिक पुस्तकोमां-एक उपयोगी उमेरो न्यवादने पात्र के. कार्यों छे, एम कहेतां आमने आनंद थाय छे. आ अमूल्य पुस्तकना विषयमा अमने वे वात जगद्गुरु हीरविजयसूरिए मुगल सम्राट अकवयदुखटके केः-एक तो पनी प्रस्तावना मज विवरण रना बादशाही दरवारमा जई, धर्मजिज्ञासु कहे

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