Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 63
________________ अंक २] शोक समाचार nuwaruun............. ... .. wwwwwwwwwwwwwwwwwsaner प्रकाशनका कार्य भी शुरू किया । आपकी यह बडी आपके पास नाशिक भेजे, तब आप अधिक उत्कट इच्छा थी कि समन पाली साहित्य देव- अस्वस्थ होनेके कार आपके सम्बन्धियोंने उन नागरी लिपिम छपाकर प्रकट किया, जाय, ताकि ग्रन्थोंका आपसे जिकर न करके ज्यों के त्यो एक जिससे भारतवासी,-जो आज पिछले डेढ हजार किनारे रख दिये। पीछेसे जब आपको उसकी वर्षसे इस अनन्यतुल्य साहित्यका परिचय भुले खवर लगी तब आप बहुत अधीर हो ऊठे और हुए हैं -पुनः परिचय प्राप्त कर सकें और उसके विना उन ग्रन्थोंके दर्शन किये और पन्ने उलट-पुलट द्वारा सम्यक सम्शुद्ध भगवान् गौतम बुद्ध के अमूल्य किये आपको चेन नहीं पडा। उन ग्रन्थोंको देखते उपदेशोंका आस्वादन कर सकें। इससे आपने ही आपने हमको, वैसी अस्वस्थतामें भी एक पत्र सबसे पहले 'हत्थवनगल्लविहारवंस' नामकी एक लिखा और पुस्तकोंकी प्राप्तिक लिये प्रसन्नता प्रटक छोटीसी पाली पुस्तिका छपाई और उसके बाद 'म- की। इसीका नाम सञ्चा विद्याव्यासंग है। झिमनिकायका एक भाग प्रकट किया। इसी बीचमे कर कालने इस प्रकार असमयहीमें आपको आपने विविध परिशिष्ट और उपयुक्त टिप्पणियोंके । कि ऊठा ले जा कर भारतवर्षके एक तेजस्वी विद्वत्तासाथ 'दीघनिकाय' का समग्र अनुवाद भी अपनी रकको उदित होने के पहले ही अस्तंगत कर दिया। मातृभाषा मराठी किया। इसका-एक भाग बडोदा आपकी अमर आत्माको अक्षय शांति मिले यही राज्यकी औरसे प्रकाशित होनेवाली अन्यमालामें हमारी आपके लिये आन्तिम प्रार्थना है। प्रकट भी हो चुका है । आप शीघ्र ही, अपने सहा [३] ध्यायी और सहकारी प्रो० बापट(फयूँसनकालेज, पूना) और प्रोः भागवत (सेंट झेवियर कालेज गत जुलाई मासिकी अंतिमरात्रि भारतवर्षके बम्बई)के संयुक्त परिश्रमसे प्रसिद्ध बौद्धग्रन्थ विस- इतिहासमें बडी दुःख और खेदजनक रानि मानी द्धिमग्गकी एक सर्वोत्तम देवनागरी आवृत्ति प्रकट जायगी । क्यों कि उस कालरात्रिके दुःखोत्पादक करनेकी तैयारी कर रहे थे। अधम वातावरणने भारतके द्वितीय प्रतापवान् और प्रकाशपूर्ण प्रदीपको सदाके लिये निर्वाणाव__ आयका विद्याव्यासंग वडा उत्कट था । अंग्रेजीक स्थामें पहुंचा दिया। हम ये शब्द अपने लोकमान्य आप आचार्य थे ही, साथमैं आप जर्मन और फ्रेंच | बाल गंगाधर तिलक महोदयको मृत्युको लक्ष्य कर भाषाओंका भी अपेक्षित ज्ञान रखते थे। भारतीय प कह रहे हैं। लोकमान्यका अधिक परिचय देनेकी भापाओमें संस्कृत, पाली, प्राकृत जैसी प्राचीन और कोई आवश्यकता नहीं क्यों कि भारतमें ऐसा कोई शास्त्रीय भाषाओंका यथेष्ट अध्ययन कर आपने अभागा प्राणि नहीं है जो लोकमान्यको थोडा बहुत बंगाली, गुजराती, हिन्दी जैसी वर्तमान देशभापा नहीं जानता हो। और वाकी यो आपका पूर्ण प. ऑमें भी आवश्यकीय प्रवेश कर लिया था। रिचय देनेकी शक्ति भी किसमें है। चाहे जितना . जबसे आपका हमारे साथ परिचय हुआ तवसे भी लंबा परिचय लिखा जाय तो भी वह हमेशा जैनसाहित्यका विशिष्ट अध्ययन करनेकी भी आपकी अपूर्ण ही रहेगा। तीवलालसा होगई थी|जैनसाहित्यसंशोधकके लिये आपमें जिन अनेकानेक उत्तमोत्तम शक्तियोंने 'आपने जैन और बौद्ध साहित्य विषयक तुलनात्मक आकर निवास किया था, उनमेंसे एक एक शक्ति लेखमालाके लिखनेका सोत्साह स्वीकार किया ही मनुष्यको संसारमै पूज्य और मान्य बना सकथा। जैन-ग्रन्थोके प्राप्त करनेको आप कितनी उ. ती है, तो फिर ऐसी अनेक शक्तियोंके केन्द्रभूत . त्कट आकांक्षा-रखते थे इसका परिचय तो पाठ- बने हुए आपके महान व्यक्तित्वकी पूज्यता और कोको हमने गतांक में जो नोट दिया है उससे मिल मान्यताका तो माप ही कैसे किया जाय । आप भावनगरसे हमारे एक सज्जन (श्रीयत क्या नहीं थे? आप प्रकाण्ड प्रतिभाशाली थे, उ. हीरालाल अमृतलाल शाह ) ने कुछ जैन ग्रन्थ जब कष्टं सदाचारी थे, परम परोपकारी थे, अगाध

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