Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 39
________________ ........................... .......... ता गन्धहस्तिमहाभाष्यकी ग्वोज श्लोकपरिमाण गक महत्त्वशाली भाष्य पहलेसे इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् । मौजूद था तब यह बात समझमें नहीं आती कि सम्यग्मियोपदेशार्थविरोपप्रतिपत्तये ।। सवार्थसिद्धि, राजवार्तिक और लोकवार्तिकके यह कारिका जिस ढंग और जिस शैलीसे लिबननेकी जरूरत ही क्यों पैदा हुई । यदि यह कहा खी गई है, और इसमें जो कुछ कथन किया जाय कि ये ग्रन्थ गन्धहस्ति महामाप्यका सार गया ह उससे आतमीमांसाके एक विलकुल स्व लंकर संक्षेपलचिवाले शिष्योंक वास्तं बनाये गये तन्त्र प्रन्य हानेकी बहुत ज्यादह सम्भावना पाई न यह यात मी कुछ बनती हुई मालूम नहीं जाती है। इस कारिकाको देते हुए वलुनन्दी आ. होती; क्यों किसी हालतमै श्रीपूज्यपाद, अकलं- चार्य अपनी टीकाम इस 'शास्त्रार्थीपसंहारकदेव और विद्यानन्द स्वामी अपने अपने प्रन्याम कारिका' लिखते हैं, साथ ही इस कारिकाकी इस प्रकारका कोई उल्लम्म जहर करते जैसा कि टीकाके अन्तम ग्रंथकर्ता भी समंतभद्रका नाम आम तौर पर दूसरे आचायोने किया है, जिन्होंने 'कृतकृत्यः नियूंढतत्त्वप्रतिशः' इत्यादि विशअपने प्रन्याको दृसरे अन्योंके आधारपर. अथवा पोंके साथ देते हैं, जिससे मालम होता है कि उनका सार लेकर बनाया है। परंतु चूंकि इनमें इस कारिकाके साथ ग्राथकी समाप्ति हो गई, ऐसा कोई उल्लग्न नहीं है, इस लिंय ये सर्वार्थसिद्धि ग्रंथके अन्तर्गत किसी ग्लास विपयकी नहीं। आदि ग्रन्थ गन्धहस्तिमहाभाप्यके आधारपर अथवा विद्यानंदस्वामी अष्टसहन्त्रीमें, इस कारिकाके उसका सार लेकर बनाये गये हैं ऐसा माननंको द्वाग 'प्रारब्धनिर्वहण '-(प्रारंभ किये हुए जी नहीं चाहता। इसके सिवाय अकलंकदेव और कार्यकी परिसमानि) आदिको सूचित करत विद्यानन्दकं भाप्य वार्तिकके ढंगले लिग्वे गये हैं। हप. टीकामे लिखते हैंवे 'वार्तिक' कहलाते भी हैं। और वार्तिकाम उक्त, " इति देवागमाठ्ये स्वोक्तपरिच्छेद शास्त्र...! अनुक्त, दुरुक्त, तीनों प्रकारके अर्थोकी विचारणा अत्र शत्रपरिसमाप्तौ"...... और आभिव्यक्ति हुआ करती है, जिससे उनका इन शब्दोस भी प्रायः यही ध्वनित होता है परिमाण पहले भाप्यास प्रायः कुछ बढ़ जाता है। किदेवा मशान्न जो कि थानमीमांसाके शुरुमें जैस कि सर्वार्थसिद्धिस राजबार्तिकका और. राज- 'देवागम' शब्द हानसे उसीका दूसरा नाम हैं, वार्तिकस श्लोकवार्तिकका परिमाण बढा हुआ है। एक स्वतंत्र ग्रंथ है और उसकी समाप्ति इस ऐसी हालनमें यदि समन्तभद्रका ८८ हजार श्लोक कारिकाके साथ ही हो जाती है। अतः वह किसी संग्ट्यावाला भाष्य पहले से मौजूद था तो अकलंक दसरे ग्रंथका आदिम अंश अथवा मंगलाचरण देव और विद्यानन्दके वार्तिकोंका पारमाण उससे मालम नहीं होता। जरूर कुछ बढ जाना चाहिये था। परन्तु बढना --अकलंकदेव अपनी अष्टशतीके आरं मम तोदर रहा, वह उलटा उससे कई गुणा घट रहा लिखत हैंहै। दोनों वार्तिकॉकी लोकसंख्याका परिमाण क. "येनाचार्यसमन्तभद्रगतिना तस्मै नमः संततम् । मशःऔर २० हजारसे अधिक नहीं। ऐसी हाल- रुत्वा विवियत स्तवो भगवता देवागमस्तत्रुतिः " ॥२२॥ तम क्रमसेक्रम अकलंक देव और विद्यानन्दके सम- वसुनन्दी आचार्य अपनी देवागमवृत्तिक यमें गन्धहस्ति महाभाष्यका अस्तित्त्व स्वीकार अन्तम सूचित करते हैं "श्रीसमंतभद्राचार्यस्य... करनेके लिय तो और भी हृदय नय्यार नहीं देवागमायायाः कृत संक्षेपभूतं विवरणं कृतम्..." , होता। कर्नाटकदेशस्थ हुमचा जि० शिमोगाके १०- जिस आप्तमीमांसा (देवागम स्तोत्र )को एक शिलालेखम निम्न आशयका उल्लेख * मि. गन्धदस्ति महाभाष्यका मंगलाचरण बतलाया लता हैःजाता है उसकी आन्तिम कारिका इस प्रकार है- देखो जनहितपी भाग ९, अंक ९, पृष्ठ ४४५ ॥

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