Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 37
________________ संक 1 गम्हस्तिमहामायकी खोज आस्ट्रियाके एक प्रसिद्ध नगरकी प्रसिद्ध लायब्रेरी है और 'देवागम' स्तोत्र उसका अदिम मगठःमें उक्त ग्रंथ मौजुद ही और हर्मन जैकोबी जैसे चरण है: इन सब बातोंकी उपलब्धि कहाँसे होती ग्वाजी विद्वानोंको उसका पता नक न लगे, यह है-कौनग्ने प्राचीन आचार्य किम ग्रंथ इन सब बात कुछ समझ नहीं आती। हम इस ग्रंथक. बानाका पता चलता है ? यह दृम बात है कि विषयम यह बात भी बहुत ग्वटकती है कि 'आप्न आजकलके अच्छे अच्छे विद्वान-न सिर्फ जैन मीमांसा ' अर्थात् 'देवागम' शास्त्रको, जो कुल विद्वान बलिक सतीशचंद्र विद्याभय ग, भारती ने १४लाकपारमाण ह. इसका मंगलाचरण बनला अर्जन विद्वान भी-अपने अपने ग्रंथा तथा लेंग्वाम या जाता है । वागम भारतके प्रायः सभी प्रसिद्ध इन सब बातोंका उल्लंग्य करने हए दंग्ये जाते हैं। मंडारोंम पाया जाता है। उस पर अनेक टीका, परंतु ये सब उल्लंग्य एक दृसंरकी दम्यादग्यी है पटिप्पण और भाप्य भी उपलब्ध हैं। अकलंकदेव- राक्षान उनका कोई सम्बन्ध नहीं और न वे जाँच की 'अशती' और विद्यानंद स्वामीको 'अष्ट- तोल कर लिये गये हैं । इसी प्रकार कछ उल्लंग्य सहस्री' उसीके भाप्य और महाभाष्य हैं। जिस पिछले भाषापंडितोंके भी पाये जाते हैं। टन मात्र ग्रंथका मंगलाचरण ही इतने महत्त्वको लिये हुए हो आधुनिक उल्लग्नास इस विषयका काई टीक निर्णवह शेष सपूर्ण ग्रंथ कितना महत्त्वशाली होगा य नहीं हो सकता | और न हम उन्द्र पनी हालतऔर विद्वानानं उसका कितना अधिक संग्रह क्रिया में बिना किसी हतुक प्रमाणकोटिम राव सरन है। होगा. उसके बतलानेकी जमरत नहीं हैं । विन पा- हमारी रायम इन सब बाताके निर्णयार्य-विकल्पोंठक सहजहीम इसका अनुमान कर सकते हैं। प- के समाधानार्थ अंतरंग दाजकी बहुत बड़ी जमरंतु तो भी ऐसे महान ग्रंथका भारतके किसी मं- रत है। हम सबमे पहले-विदेशोम जानेसे भी पडारम अस्तित्व न होना, उसके शेष अंशॉपर टी- हल-अपने घरके साहित्यका गहरा टटोलना होगा; का-टिप्पणका मिलना तो दर रहा उनके नामांकी तब कहीं हम यथार्थ निर्णय पर पहुँच सकगे। कहीं चर्चानक न होना, यह सब कुछ कम आश्च- अस्नु। यम डालनेवाली बात नहीं हैं। और इनपरस तरह इस विषयमं हमने आजतक जो कुछ ग्याज की तरहके विकल्प उत्पन्न होते है। यह खयाल पैदा है और उसके द्वारा हमें जो कुछ मालूम हो सका होता है कि क्या समन्तभदने गंधहस्तिमहाभाष्य' है उसे हम अपने पाटकांके विचारार्थ और यथार्थ नामका कोई ग्रंथ बनाया ही नहीं और उनकी आ- निर्णयकी सहायतार्थ नीचे प्रकट करने हैं:नमीमांसा (देवागम) एक स्वतंत्र ग्रंथ है? यदि :-उमास्त्रानिक तत्त्वार्थमृत्रपर सवार्थसिद्धि, बनाया तो क्या वह पूरा न हो सका और आनमी- राजवार्तिक. श्लोकवार्निक और श्रुनसागर्ग नामकी मांसा नक ही बनकर रह गया? यदि पूरा हो गया जो टीकाप उपलब्ध हैं उनम. जहाँ नक हमारे देथा नो क्या फिर वन कर समान होते ही किसी, खनमें आया कहीं भी 'गंधहस्ति महाभाप्य' का कारण विशपसे वह नष्ट हो गया ? यदि नष्ट नहीं नामोल्लंग्न नहीं है और न इसी बानका कोई उल्लंग्स हुआ तो क्या फिर प्रचलित सिद्धांनांक विरुद्ध उ. पाया जाना है कि समन्तभद्रने उक्त तत्त्वार्थमूत्रपर समें कुछ ऐसी बात थी जिनके कारण बाद आ- भाप्य लिया है। समन्नमद्रका अस्तित्वकाल इन सय चाया ग्वासकर भट्टारकोंको उसे लुप्त करनकी ज- टीकायाकं बनने से पहले माना जाता है। यदि इन रूरत पड़ी अथवा यादको उसके नष्ट हो जानका टीकाक रचयिता पूज्यपाद, अकलंक देव, विद्याकोई दूसरा ही कारण है? इन सब विकल्पोंको नन्द और शुनसागरक समोम समन्तभद्रका उसी छोडकर अभी तक हमें यह भी मालूम नहीं हुमा मत्रपर ऐसा कोई महत्त्वशाली भाष्य विद्यमान कि.१ समन्तभदने गंधहस्तिमहामाप्य' नामका होता तो उक्त टीकाकार किमी न किसी रूपमें इस कोई ग्रंथ बनाया है, २ वह उमास्यानिक तत्वार्थ वातको मूचित जसर करने, ऐसा हृदय कहता है। सत्रका भाप्य है, ३ उसकी श्लोकसंख्या ८४ हजार परंतु उनके टीकाग्रन्थोंसे ऐसी कोई सूचना नहीं

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