Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Part 1
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 34
________________ जैन साहित्य संशाधकः [भाग १ सिद्ध किया है कि यदि यह ज्याकरण भगवत्कृत इसी तरह ४-३७ (वेत्तेः सिद्धसेनस्य ) सूत्र न हो तो फिर सिद्धहमके अमुक सूत्रकी उत्पत्ति पर लिखा हैनहीं बैंउसकती! "वेतेः सिद्धसनस्य, चतुष्टयं ममंतभद्रस्य प्रक्षेप'ऽर्वाच्यता " इद शब्दानुशासनं भगकर्तृकमेव भवति । 'सबह- स्फुटत्वात, रात्रं: प्रभाचन्द्रस्य बदिति बौटिकनिमिरोप. वल्यापतरिर्धाअरूजनमे: किलिंद चवत्-डौमासहिवाबहिचा- लक्षणे।" चालपापति, मुस्विक्रिदधिजझिनमोति सिद्धहेमसूत्रस्याऽ अन्तम ५.४-६५ (शछोमे) सूत्रपर एक टिन्यथानुपपत्तेः । सर्वधर्मपाणिन्योस्तु 'आइवणापथालीपिना प्पणी दी है जिसमें पाणिनि आदिवैयाकरणोंकी अविच १, आगमहनजन: किकिनी लिट् चेति २।" सर्वज्ञता सिद्ध की गई हैइसके बाद ३२.२२ सूत्रपर इस प्रकार टिप्प. " प्रयोगाशातना मामृदनादिसिद्धा हि प्रयोगाः । ज्ञानिना णी दी है नु केवलं ते प्रकादयंतेन तु नियंत इ.ते | अतएव शरछोटीति "कथं न धर:प्राग्भग्तेदादि क्षेत्रादिनियापि शिक्षाविशेषा:। पाणिनीयस्त्रं वर्गप्रथमेभ्यः शकारः म्युरयवरपरः शका इछ. कुमारदः प्राच्यानामादिवनं मासमूचित्रान् । कारं नवेति सर्ववर्मकर्नुककालापकसत्रानुसारि। अतएव पाणिमैथुनं तु मिारतंत्रे वाचकं मधुसपिपः॥ न्यादयोऽसर्वा इति सिद्ध । अतएव तेषां तत्वत आप्तत्यामाइत्याद्यन्यथानुपपत्तेरिति टिकातिनिरोपरक्षणम् । व इति सिद्धिः। नरभ्यःप्रभृतिनिस निरसमिया यदि य. इसके बाद ३-४-४२ सूत्र (स्तेयाहस्य) परफिर फिरते मस्करिणव मवरुतमाम्तेन तु सारस्वतवाग्देव्या। एक टिप्पणी हैं। देखिए__ "इदं शब्दानुशासनं भगवकर्तृकमेव भवति । अहंत शरछारिप्रमन्त्रः सूत्रस्तच्छश्रुप्रभृति दादर्शी कालापाचपजीवी स्तोन्त च .. महायता २, माणिगदतायः ३, स्तेनान पाणिनिरजिनत्वं प्रति व्यक्तः।" तुक वे ४, ति सिद्ध मसूत्रान्यथानुपपरे । पाणिन्यादौ जहां सूत्रपाठ समाप्त होता है, वहां लिखा है:रवाईत्यशब्दं प्रति सूत्राभावात् । कयं सरस्वतीकंठाभरणे इत्याल्यद्रगवानहन्त्वे न्द्रस्त मदं वहन् । तदाप्तिः । ऐन्द्रानुसागदहशइतयोति पक्ष्या" . वादिययन्त्राजवन्द्र स्वमंदिरागिमखोऽभवत् ।। फिर३-१-४. सूत्र (राना प्रभाचन्द्रस्य) पर . आगे ग्रन्ध प्रशस्ति देखिएएक टिप्पणी है । इसमें यौरिका या दिगभ्यरियाँ । "ओं नमः सकलकलाकौशलपेशलशीलमारिने पा. का सत्कार किया गया है. श्याय पार्श्वपादाय । स्वस्ति त-प्रवचन मुधासमुद्रलहरीस्नायि"इदं शब्दानुशासनं भगवाकर्तृकमेव भवति रात्र प्रभाच. श्री महामुनिभ्यः । परिस्मानं वडनेनं नाम महान्याकरणं । दस्य सूत्रस्व प्रक्षेपता स्फुरत्वात् । अतो वोटिकसिमिरेप लक्षणे तदिदं यत्स्वयं श्रीवारप्रभुर्मघोने पृच्छते प्रकाशयांचकार । सपादेवनन्दिमतां मोहः प्रशंपरजसोरिचत् । दलक्षव्याख्यानकपरमसमदधिकारापहारपरममिति । नमः चिराय भवता राप्रभारन्द्रस्य जीव्यता । श्रीमचरपरमेश्वम्पादप्रमादविशदस्याद्वादनयसमुपासनगुणकोपंचोत्तरः कः श्वानासीः प्रमो नग्न यस्य यः(?)! टिमकोटिकाणाविर्भूतचिद्विभूति.विमलमदचांडकुलविगुलबृहत्तविस्मयो रमयः शिष्टया स तं चेवनन्दिनामीत।। योनिगमनिर्गतनागपुरीयस्वच्छगच्छसमुत्थमुत्पविपार्श्वचंद्रशाविक्रमातुखयुगाब्द ४०६ देवनन्दी, ततो गुणाद-कमा- खासुखारुतसुरुतिवररामदूपाध्यायचारुचरणारविंदरजोराजी. नंदि-लोकचंद्रानंतर भनिरयुगाब्द प्रथमः प्रमाचंद्र इति मधुकरानुकरवाचक मधुकरानुकरवाचकपदवीपवित्रिताक्षयचंद्रावरणेभ्यः ससधी बौटिके।" रक्तचंद्रम् । श्रीवारात २२६७ विक्रमनृपातु सं. १७९७ यह 'बोटिकमततिमिरोपलक्षण' नामका कोई अन्य फाल्गुनमित्त्रयोदशीभीम तनकास्यपरस्थन रत्नर्षिगा दर्शहै और संभवतः इसी वाग्वादिनांके कताका बनाया हुआ नपाविन्याय लिखितं चिरं नंद्यान् ।" होगा। इसका पता लगानेकी वही जरूरत है। इससे दि. ग्रन्धक पहले पत्रकी खाली पीठसर भी कछ गम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायसम्बधी भनेक बातों पर टिप्पणियां हैं और उनमें अधिकांश पे ही हैं जो प्रकाश पड़ेगा। उपर दी जा चुकी है। शेष इस प्रकार हैं:

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