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चन्द्र श्रीवास्तव, प्रो० राधा कान्त वर्मा, डॉ० सन्ध्या मुकर्जी, श्री विद्याधर मिश्र, श्री आर० के० द्विवेदी, प्रो० यू० पी० अरोड़ा, डॉ० ओम प्रकाश तथा अन्य गुरुजनों का हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने समय-समय पर परामर्श एवं प्रेरणा प्रदान की है। विभाग के ही रीडर डॉ० जय नारायण पाण्डेय ने एक अभिन्न मित्र एवं प्रेरक के दुर्वह दायित्व का निर्वाह किया, जिसके लिए वे धन्यवाद और श्रद्धा के पात्र हैं । मेरे सहपाठी मित्र डॉ० रुद्रदेव तिवारी, प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने इस कष्टसाध्य एवं सान्तराय शोध-यात्रा में मुझे आद्यन्त उत्साहित किया, जिसके लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ । इसके अतिरिक्त अपने अन्य मित्रों, सहयोगियों एवं शुभचिन्तकों में प्रो० लक्ष्मी नारायण तिवारी, प्रो० कमला कान्त शुक्ल, श्री उमाधर द्विवेदी, श्री जगत नारायण त्रिपाठी, श्री राम भवन मिश्र, श्री आलोक श्रीवास्तव, श्री राम कुमार सिंह, डॉ० राम निहोर पाण्डेय, डॉ० हरि नारायण दुबे, श्री परम हंस दुबे, डॉ० चन्द्रिका प्रसाद दीक्षित 'ललित', डॉ० (श्रीमती) प्रतिभा त्रिपाठी, डॉ० (श्रीमती) रंजना बाजपेयी, श्रीमती हीरामणि अग्रवाल, को धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने मुझे यथासमय प्रोत्साहित एवं उत्साहवर्धन किया। त्रिनिडाड (वेस्ट इण्डीज़) निवासी अपने प्रिय मित्र श्री रवीन्द्र नाथ महाराज को मैं भूल नहीं सकता, जिन्होंने शोध-कार्य के समय चार वर्षों तक मेरे साथ रह कर मित्र के पावन-कर्तव्य का निर्वाह किया। इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
न्यायमूर्ति पं० राम वृक्ष मिश्र, पूर्व न्यायमूर्ति, उच्चतम न्यायालय, नई दिल्ली; प्रो० अम्बा दत्त पन्त, निदेशक, गोविन्द वल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद; प्रो० बदरी नाथ शुक्ल पूर्व कुलपति, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी; प्रो० विश्वम्भर नाथ त्रिपाठी, संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय; प्रो० ए० सी० बनर्जी, कुलपति, अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद डॉ० विद्या निवास मिश्र, कुलपति, काशी विद्यापीठ, वाराणसी; प्रो० करुणापति त्रिपाठी पूर्व कुलपति, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने अपने गरिमामय व्यक्तित्व से न केवल मुझे प्रभावित किया, अपितु अपने स्नेह और सत्परामर्शों से मेरा उत्साहवर्धन किया, जिसके लिए मैं आप सभी का कृतज्ञ हूँ।
जैन वाङमय के विद्वान् डॉ० गोकुल चन्द्र जैन, अध्यक्ष, प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने शोध-प्रबन्ध के निर्माण के समय जो मार्ग-दर्शन दिया, उसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। जैन वाङमय
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