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बोलपुरका शान्तिनिकेतन ब्रह्मचर्याश्रम।
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क्योंकि जो बात सोच समझकर की जाती है, उसका असर चिरकाल तक रहता है । उसको यह मालूम हो जाता है कि अमुक कार्य बुरा होता है, उससे अमुक बुराई होती है, मैंने यह बुरा किया, इसलिए अब मैं कोई ऐसी बात करूँ जिससे सदा इसकी बुराई मेरे ध्यानमें रहे, ताकि दुबारा यह कार्य न कर सकूँ । इस कुराईको ध्यानमें रखनेके लिए जो शारीरिक या मानसिक वेदना सहन की जाती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। हमारे शास्त्रकारोंने भी हमारे दुष्कृत्योंका प्रायश्चित्त लेनेकी आज्ञा दी है। आलोचनापाठ इसी आज्ञाका फल है। इससे हमें मानसिक वेदना होती है। अगले जमानेमें मुनियोंके संघमें भी यही प्रथा प्रचलित थी जिसके सैकड़ों उदाहरण हमारे शास्त्रोंमें मिलते हैं।
इसके प्रतिकूल विद्यार्थियोंको दण्ड देनेकी जो रीति अन्यान्य संस्थाओंमें प्रचलित है वह सर्वथा अनुचित है। क्योंकि उसमें विद्यार्थियोंको बहुत ही कम खयाल होता है कि यह ताड़ना हमारी भलाईके लिए हो रही है। बल्कि उसका उल्टा नतीजा होता है। लड़कोंकी आत्मायें दिनोंदिन मलिन होती जाती हैं। ईर्ष्या भाव
और क्रोध वृद्धिंगत होता जाता है और उसका यहाँतक परिणाम होता है कि कभी कभी लड़के बड़े बड़े भयङ्कर और घृणित कार्य कर बैठते हैं। __ शिक्षाका उद्देश्य यह है कि उससे विद्यार्थियोंके हृदयमें मानवजातिके प्रति सच्ची सहानुभूति, वास्तविक प्रेम और प्राणी मात्रकी भलाईकी लालसा उत्पन्न हो और समय पड़ने पर वे उसको आचरणमें
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