Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ श्रीमत्सापुराण | ५३५ होती हैं । गज यह कि लक्ष्मीकी वृद्धि भी धर्मसे ही होती है । आश्चर्य की बात है ! कंजूस चाचा, चेतो! चटपट धर्मका आचरण करो ! नहीं तो याद रक्खो इकट्ठी की हुई लक्ष्मी भी चली जायगी ! लक्ष्मीका देनेवाला एक धर्म है और धर्मकी पहली सीढ़ी दान है । लीजिए, सारा शहर घूमकर, आये आखिर ठिकानेके ठिकाने ! ( २ ) धर्मः कल्पद्रुमो लोके धर्मश्चिन्तामणिर्नृणाम् । धर्मः कामदुधा धेनुः धर्मः किं वाक्षयो निधिः ॥ अर्थात् धर्म ही कल्पद्रुम है, धर्म ही चिन्तामणि रत्न है, धर्म ही कामधेनु है और धर्म ही अटूट खजाना है । यह सुनकर कि 'धर्म अटूट खजाना है "नादिहन्द' या कंजस चाचाओंके मुँहमेंसे लार छूटती होगी ! धर्म नामकी मुफ्ती चीज़ से यदि अटूट खजाना मिलता है तो फिर और क्या चाहिए ? परन्तु लोभी बनियों के गुरु भी बड़े बने हुए हैं ! उन्होंने धर्म के भीतर ही सारा खजाना दबा दिया और उस धर्मकी खान खोदनेके लिए फावड़ा महँगे मूल्यका बनाया ! इस फावड़ेका नाम ही 'दान' - स्वार्थत्याग ’–‘ परिग्रहकी ममताका त्याग ' है ! ▾ 6 ( ३ ) बल्लाल नामका कवि कह गया है : यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनां धनम् । अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दारैरपि धनैरपि ॥ जो दिया गया और जो खाया पीया गया वही धनियोंका धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72