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श्रीमत्सापुराण |
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होती हैं । गज यह कि लक्ष्मीकी वृद्धि भी धर्मसे ही होती है । आश्चर्य की बात है ! कंजूस चाचा, चेतो! चटपट धर्मका आचरण करो ! नहीं तो याद रक्खो इकट्ठी की हुई लक्ष्मी भी चली जायगी ! लक्ष्मीका देनेवाला एक धर्म है और धर्मकी पहली सीढ़ी दान है । लीजिए, सारा शहर घूमकर, आये आखिर ठिकानेके ठिकाने !
( २ )
धर्मः कल्पद्रुमो लोके धर्मश्चिन्तामणिर्नृणाम् । धर्मः कामदुधा धेनुः धर्मः किं वाक्षयो निधिः ॥ अर्थात् धर्म ही कल्पद्रुम है, धर्म ही चिन्तामणि रत्न है, धर्म ही कामधेनु है और धर्म ही अटूट खजाना है ।
यह सुनकर कि 'धर्म अटूट खजाना है "नादिहन्द' या कंजस चाचाओंके मुँहमेंसे लार छूटती होगी ! धर्म नामकी मुफ्ती चीज़ से यदि अटूट खजाना मिलता है तो फिर और क्या चाहिए ? परन्तु लोभी बनियों के गुरु भी बड़े बने हुए हैं ! उन्होंने धर्म के भीतर ही सारा खजाना दबा दिया और उस धर्मकी खान खोदनेके लिए फावड़ा महँगे मूल्यका बनाया ! इस फावड़ेका नाम ही 'दान' - स्वार्थत्याग ’–‘ परिग्रहकी ममताका त्याग ' है !
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( ३ )
बल्लाल नामका कवि कह गया है :
यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनां धनम् । अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दारैरपि धनैरपि ॥
जो दिया गया और जो खाया पीया गया वही धनियोंका धन
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