Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 63
________________ विविध प्रसंग। क्षमा करें जो हम उनकी आज्ञाके बिना इस पत्रको प्रकाशित कर देते हैं। इसके प्रकाशित होनेसे हमारी समझमें जैनसमाजका बहुत कल्याण होगा और आपके अभिप्राय भी लोगोंतक पहुँच जायेंगे। अन्तमें हम इतना निवेदन और भी कर देना चाहते हैं कि पत्रमें जो इस तुच्छ लेखकके लिए बड़े बड़े — वर-वर' युक्त विशेषण दिये गये हैं, यह उनके योग्य सर्वथा नहीं है और न इसने कभी आपकी प्रशंसामें कुछ लिखा है जिसके बदलेमें ये दिये गये हैं। इसे दुःख है कि आपने हितैषीके नोटका अभिप्राय न समझा और भूलसे इसके लिए इतने बहुमूल्य शब्द खर्च करनेका परिश्रम उठाया यतोधमस्ततो जयः। प्रियवर मित्रवर भ्रातृवर उपमावर लायकवर साहित्यवर अनेक साइंसवर इतिहासवर नीतितर श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी योग्य लशकरसे लखमीचन्दकेन धर्मस्नेह मालूम होय अपरंच हे महाशय जैनहितेषी पत्र आपका आया पढ़कर मयूवरमेघवत् आनन्द पाया। आगे आलूपंथी लोगोंने तथा मुरैनापंथी लोगोंने तथा १ ऊपर १८ हजार शीलपालक ब्रह्मचारी लोगोंने मिलकर मेरे ठीक जैनसिद्धांतानुकूल व्याख्यानपर जो मेरे दिलको दुखाया उस दुःखको वचनसे कह नहीं सकता परंतु आज जनहितैषीमे किंचित् मेरे मनकी माफिक आपके उत्तर देनेमे जो मेरे चित्तमे आल्हाद हुवा वचनसे कह नहीं सकता। धन्य हे आपको कि जो मेरे दुःखित चित्तको सुखी किया आगे हे प्रियवर मैंने सामान्य वा विशेष हजारो व्याख्यान ( दयाधर्म ) को पुष्ट करते हुवे जैनसिद्धांतानुकूल तथा शैव वैश्नव वेदांनुकूल तथा कुरान हदीस वाइविल तथा २० लाष. वर्षके प्रमाण देके जैनधर्मको पुष्ट करते हुवे व्याख्यान दिये लाखो आदमी मुसलमान शिया सुनत ७२ तथा हिंदुवोमे ब्राह्मण वैश्नव शैवी वेदांती इसाई ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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