Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reg. No. B.719. POE09-6 FEEGS -- -- जैन हितैषी। साहित्य, इतिहास, समाज और धर्मसम्बन्धी लेखोंसे विभूषित मासिकपत्र। सम्पादक और प्रकाशक-नाथूराम प्रेमी। -- DAARRANGER-RASRAERE - भाग ११ आषाढ श्रीवीर नि० संवत् २४४१ .अक९ -- विषयमूची। १ बोलपुरका ब्रत्मचर्याश्रम २ विचार शक्ति ... ३ करनी और कथनी सुन्दरी... ४ श्रीमत्पैसापुराण ५ पुस्तक परिचय ६ इतिहास-प्रसङ्ग ७ नर-जन्म (कविता) ८ जैनसिद्धान्तभास्कर १ विविध प्रसङ्ग ... - -- ian Education intomotional PCS FOPersonalise on ETA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवार जातिके दो वरोंकी आवश्यकता परवार जातिकी दो कन्याओंके लिए सुयोग्य वरोंकी आवश्यकता है। एक कन्याका जन्म वैशाखसुदी ९ सं० १९९९ का और दूसरीका अगहनवदी ८ सं० १९६१ का है। दोनों बहिनें हैं ! चार कक्षा तक हिन्दी पढ़ी हुई और सुन्दर हैं। अच्छे घरकी हैं। बर योग्य, सुशील और शिक्षित होने चाहिए । सांकें नीचे दीजाती हैं। यदि आठ सांकें न मिलें, तो कन्याओंके अभिभावक चार ही सांकोंमें विवाह करनेके लिए तैयार हैं। विवाह जैनपद्धतिसे होगा। पत्रव्यवहार - " बजाज C/o सम्पादक जैनहितैषी, गिरगाँव, बम्बई " के पतेसे करना चाहिए । पत्रमें वरकी उम्र, शिक्षा, आर्थिक अवस्था, सांर्के आदि सबका खुलासा करना चाहिए । 1 ५ लडकीके मामा, डेरिया ६ नानाके मामा, वीवीकुटम ७ मातारीके मामा, उजरा ८ नानीके मामा, अंडेला १ मूर, दुगायत बाझल्ल गोत २ आजेके मामा, कुआ ३ बापके मामा, बहुरिया ४ आजी के मामा, डाहडिम स्त्रियोंके पढ़ने योग्य नई पुस्तकें । २ वीरवधू-मूल्य 11) ४ शान्ता मूल्य 11) ६ कन्या- पत्रदर्पण - मूल्य ।) १ सरस्वती उपन्यास मूल्य १) १३ आदर्श परिवार मूल्य ।।) ५ लक्ष्मी-मूल्य ।) ७ कन्या-सदाचार-मूल्य ।) ८ वनवासिनी मूल्य । ) ९ गृहिणीभूषण ॥) मँगानेका पता मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय, गिरगांव बम्बई Printed by Nathuram Premi at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandhurst Road, Girgaon Bombay, & Published by Nathuram Premi at Hirabag, Near C. P. Tank Girgaon, Bombay. For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्सर्वज्ञनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ ११ वाँ भाग १ आषाढ़, वीर नि० सं० २४४१ । १ अंक ९ बोलपुरका शान्तिनिकेतन ब्रह्मचर्याश्रम । ह आश्रम बंगालमें वीरभूम जिलेके बोलपुर ग्रा मसे लंगभग १॥ मीलके फासले पर खुले मैदा- नमें ऊँची जमीनके ऊपर स्थापित है। बोलपुर ईस्ट इंडियन रेलवे ( लूप लाइन ) का स्टेशन है। मनुष्योंके कोलाहलसे यह दूर है, इस कारण यहाँ बड़ी ही शान्ति रहती है। मैं १६ फरवरी १९१५ को इस आश्रममें पहुँचा । बड़ी ही प्रसन्नता हुई । वहाँके मन्द सुगन्ध पवनने मनकी कली खिला दी और ब्रह्मचारियोंके निष्कपट पवित्र और प्रेमल चेहरोंने मेरे हृदय पर एक कभी न मिटनेवाली मुद्रा अंकित कर दी। For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैनहितैषी इस आश्रमके संस्थापक जगत्प्रसिद्ध साहित्यसम्राट् स्वनामधन्य कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं; हितैषीके पाठकोंको जिनका विशेष परिचय करानेकी आवश्यकता नहीं। आप प्रकृतिके एकनिष्ठ सेवक हैं। प्रकृतिका अभ्यास करना, प्रकृतिसे शिक्षा लेना आप प्रत्येक व्यक्तिके लिए बहुत ही आवश्यक समझते हैं। भारतवर्ष में किस तरहकी शिक्षा लाभकारी होगी इस विषयमें आपने कई निबन्ध भी लिखे हैं जिनमेंसे कुछके अनुवाद हितैषीके पाठक पढ़ चुके हैं। उन्हीं शिक्षासम्बन्धी विचारोंको कार्यमें परिणत करनेके लिए आपने इस संस्थाको जन्म दिया है और इसका भार अपने सिरपर लिया है। अभी कुछ समय पहले आपको जो सवालाख रुपयेका बड़ा भारी पुरस्कार मिला था उसे आपने इसी संस्थाके लिए अर्पण कर दिया था। सुनते हैं अपनी बनाई हुई तमाम पुस्तकोंका कापीरॉइट भी आपने इस आश्रमको ही दे दिया है। ___ आश्रममें इस समय १९० विद्यार्थी हैं। इनमें २० विद्यार्थी महात्मा गाँधीकी दक्षिण आफ्रिकाकी संस्थाले हैं। प्रायः सभी विद्यार्थी पेड रक्खे जाते हैं। प्रवेश फीस २०) नियत है आर . १८) मासिक फीस देना पड़ती है। थोड़ा बहुत खर्च और भी होता है और इस तरह प्रत्येक विद्यार्थीके लिए २०) रु० मासिककी आवश्यकता है। यद्यपि यह खर्च अधिक जान पड़ता है परन्तु आश्रमके बहुव्ययसाध्य संचालनकी दृष्टिसे देखने पर यह कम ही मालूम होगा। साधारणतः दशवर्षसे अधिक उम्रके विद्यार्थी भरती नहीं किये जाते । सब विद्यार्थी एक दृष्टिसे देखे जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलपुरका शांतिनिकेतन ब्रह्मचर्याश्रम। ५११ किसी अमीरका लड़का अधिक धन देने पर भी साधारण विद्यार्थीकी अपेक्षा अधिक आराम नहीं पा सकता है। आश्रमका मुख्य उद्देश्य बालकोंको धर्मात्मा, सच्चरित्र, कार्यक्षम, मजबूत और निडर बनाना है । यहाँ संस्कृत, बंगला, अँगरेज़ी, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि विषय उत्तम शिक्षापद्धतिसे सिखलाये जाते हैं। विद्यार्थियोंको निरन्तर अध्यापकोंके साथ रहना पड़ता है। उनकी देखरेखके लिए प्रत्येक गृहमें काफ़ी अध्यापक रक्खे गये हैं। __ मैं आश्रममें तीन दिन तक रहा । मैंने न कभी किसी लड़केको इधर उधर व्यर्थ फिरते देखा और न कहीं कोई व्यर्थ गप्पें हाँकता हुआ ही दिखलाई दिया । विद्यार्थियोंको प्रत्येक काम करनेके लिए समय नियत है और तदनुसार वे कार्य भी करते हैं। इससे बहुत काम थोड़े ही समयमें आनन्दपूर्वक हो जाते हैं। उन्हें समयकी कंदर करना सिखलाया जाता है। व्यायाम या कसरतका आश्रममें अच्छा प्रबन्ध है । दण्ड पेलना, बैठकें लगाना, कुश्ती लड़ना, दौड़ना, डबल बार करना आदि सब तरहकी कसरतें कराई जाती हैं। इससे विद्यार्थियोंका प्रत्येक अवयव सुदृढ होकर शरीर गठीला और सुन्दर बनता है । व्यायामके सिवाय विद्यार्थी फुटबाल, क्रिकेट, हाकी, टेनिस आदि खेल भी खेलते हैं । यहाँकी फुटबाल-पार्टी वीरभूम जिलेमें सर्वोत्तम है । इसने कई जगहकी पार्टियोंसे मेच लेकर पुरस्कार पाया है। प्रत्येक विद्यार्थीके लिए ध्यानोपासना करना आवश्यक है; परंतु इस विषयमें उन्हें पूर्ण स्वाधीनता है कि वे अपने मत या अपने . For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जैनहितैषी विश्वासके अनुसार अपने उपास्य देवकी आराधना करें। वे इस बातके लिए मजबूर नहीं किये जाते हैं कि तुम अमुक ही धर्मका पालन करो । आश्रमके संचालक कहते हैं कि " जिन भलाई बुराईकी बातोंका सम्बन्ध वर्तमान जीवनसे है उन्हींको बतला देना हम अपना कर्तव्य समझते हैं । पारलौकिक बातोंके लिए प्रत्येक व्यक्तिको अधिकार है कि वह उन्हें अपने माने हुए मत या बुद्धिके अनुसार चाहे जैसा माने । उसमें हस्तक्षेप करनेका हमें अधिकार नहीं।" हमारी जैनसंस्थाओंकी दशा ठीक इसके विपरीत है। हम तो प्रत्येक धार्मिक क्रिया छात्रोंकी इच्छाके विरुद्ध-बलात् करानेमें ही धर्म समझते हैं। यदि किसी छात्रने अपना कोई ऐसा विचार प्रगट कर दिया जो संचालकोंके विचारोंसे विरुद्ध है तो वह तत्काल ही अर्धचन्द्र देकर अलग कर दिया जाता है। ___ पाठ्य विषयोंमें गणित विज्ञान और ड्राइंगका पढ़ना प्रत्येक विद्यार्थीके लिए आवश्यक है। छट्ठी कक्षा तक कोई कोर्स नियत नहीं है; अध्यापक अपनी इच्छानुसार उत्तमोत्तम पुस्तकें चुनकर पढाते रहते हैं। आगे बंगाल यूनीवर्सिटीके पठनक्रमके अनुसार मिडिल व एण्ट्सकी पढ़ाई होती है। ___ गणित-इस विषयको प्रो० जगदानन्दराय मुख्याध्यापक पढाते हैं। विज्ञान-मि० पियरसन पढ़ाते हैं । आप अँगरेज़ हैं और आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटीके एम. ए. तथा कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटीके बी. एस. सी. हैं । श्रीयुत सन्तोषकुमार मजूमदार बी. एस. सी. For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलपुरका शान्तिनिकेतन ब्रह्मचर्याश्रम। ५१३ भी इसी विषयको पढ़ाते हैं। यहाँ सरकारी स्कूलोंकी अपेक्षा यह विशेषता है कि सब बातें बंगलाभाषामें प्रत्यक्ष दिखलाई और समझाई जाती हैं। बंगला—श्रीयुत बाबू क्षितिमोहनसेन एम. ए पढ़ाते हैं । इतिहास और भूगोल-इन दोनों विषयोंके अध्यापक श्रीयुक्त प्रमोदरञ्जनराय एम. ए. बी. टी. हैं । यहाँ ये विषय आम स्कूलोंकी तरह रटाये नहीं जाते हैं, किन्तु इनके पढ़ानेका जो वास्तविक फल है वही छात्रोंको प्राप्त कराया जाता है। इंग्लिश-मि० एण्ड्रूज एम. ए. ( अंगरेज ), मि० पियरसन और बाबू नेपालचन्द्र राय बी. एल. पढाते हैं। तीसरी कक्षा तकके लड़कोंको इस विषयकी कोई भी पुस्तक पढ़नेके लिए नहीं दी जाती है। मगर वे अपने काम चलाने योग्य अच्छी तरह बोल सकते हैं। कारण इसका यह है कि मास्टर लोग उनको नियत समय तक सिर्फ अँगरेजीमें ही बातचीत करना सिखलाते हैं । हाँ, अँगरेजी शब्दादि लिखना अवश्य ही सिखला दिया जाता है। इससे आगे प्रत्येकके लिए दो दो घण्टे नियत हैं। पहले घण्टेमें केवल ट्रान्सलेशन और कम्पोजीशन सिखलाया जाता है और दूसरेमें Fast reading अर्थात् शीघ्रतासे पढ़ना, साथ ही उसमें आये हुए शब्दोंके अर्थ व मुहाविरे भी बतलाये जाते हैं। अगरेज़ीके वाक्योंका अपनी भाषामें शब्दशः अनुवाद नहीं करवाया जाता है केवल उनका भावार्थ पूछ लिया जाता है। इससे छात्रोंकी विवेचनाशक्ति बढ़ती है। वर्ष भरमें लड़के आठआठ दशदश For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जैनहितैषी पुस्तकें पढ़ लेते हैं और इस तरह एण्टेंस पास करने तक यहाँके छात्रोंकी अँगरेजी बहुत ही अच्छी हो जाती है; उच्चारण भी बहुत शुद्ध हो जाता है। ___ कृषिविद्या–मि० पियरसन और श्रीनगेन्द्रनाथ गांगुली बी. एस. सी. पढ़ाते हैं । यह विद्या क्रियाके द्वारा सिखलाई जाती है। लड़कोंने कुछ खेत भी बो रक्खे हैं जिनमें वे स्वयं कठोर परिश्रम करते हैं और अपने अनुभवको बढ़ाया करते हैं। चित्रविद्या--बंगालके सुप्रसिद्ध चित्रकार श्रीयुक्त असितकुंमार हालदार इस विद्याके शिक्षक हैं। विद्यार्थियोंके बनाये हुए कई बढ़िया बढिया चित्र आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे हैं। ___ संस्कृत--पं. भीमराव शास्त्री संस्कृतके शिक्षक हैं। इनके पढ़ानेका ढंग भी प्रायः अँगरेजीकी तरहका है। यहाँ शुरूसे संस्कृतके कठोर व्याकरण नहीं रटाये जाते हैं। ___ जिस विद्यार्थीको गायन-वादनका शौक होता है या जो इस कलाके योग्य समझा जाता है उसे यह भी सिखलाया जाता है। उक्त शास्त्रीजी ही इस विषयके शिक्षक हैं। ___ यहाँकी भोजनशालामें आमिष भोजन सर्वथा निषिद्ध है। प्रातःकाल कलेवामें दूध और थोड़ी सी मिठाई दी जाती है । आजकल आश्रमकी गोशालामें दूध कम होता है, इस कारण वह सिर्फ शामके ही भोजनके साथ दिया जाता है । भोजनमें चावल, दाल और शाक मुख्य हैं । जो विद्यार्थी सिर्फ चावल खाकर नहीं रह सकते उनको रोटी भी मिलती है। जो विद्यार्थी सबके साथ एकत्र एक For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलपुरका शान्तिनिकेन ब्रह्मचर्याश्रम। ५१५ पंक्तिमें बैठकर भोजन नहीं कर सकते हैं उनके लिए स्वतंत्र प्रबन्ध कर दिया जाता है । कई विद्यार्थी हाथसे भी भोजन बनाते हैं। गरज यह कि खानेपीनेके विषयमें किसी पर कोई दबाब नहीं डाला जाता है। १२ बजे दिनसे लेकर २ बजे तक विश्रान्तिका समय है। इस समय बहुतसे विद्यार्थी बगीचेके पेड़ोंको सींचतें हैं, उनके बीचमें . उगी हुई घासको हटा देते हैं और क्यारियोंको ठीक करते हैं। कई मस्त होकर गाते हैं और कई आनन्दसे खेलते कूदते धूम मचाते हैं । अभिप्राय यह कि इस समय वे सब तरहसे स्वतंत्र होते हैं; उनके आनन्दमें किसी तरहकी रुकावट नहीं डाली जाती है। हाँ, अध्यापकगण देखरेख अवश्य रखते हैं जिससे वे किसी तरहका अनुचित कार्य न कर सकें और न दिनमें सो सकें। दिनका सोना बहुत ही हानिकर है। - मौखिक शिक्षा-छोटे छोटे विद्यार्थियोंको चरित्रगठन करनेवाली अच्छी अच्छी मनोरंजक कथायें सुनाई जाती हैं और उनसे पूछा जाता है कि इस कथासे तुम क्या समझे । बड़ी उम्रके विद्यार्थियोंके सामने अध्यापक लोग किसी एक विषयको पेश करते हैं और उस पर उनकी राय माँगते हैं। इससे उनकी विचारशक्ति बढ़ती है। वे भले बुरेका निर्णय अपने आप करने लगते हैं और कार्य करनेका स्वतंत्र मार्ग निश्चय कर सकते हैं। ... सारे विद्यार्थी आद्यविभाग, मध्यविभाग और शिशुविभाग ऐसे तीन विभागोंमें विभक्त हैं। प्रत्येक विभागमें देखरेख रखनेके लिए For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी क्षितिमोहनसेन, नेपालचन्द्रराय, और कालीमोहन घोष क्रमशः मुख्य संरक्षक हैं। इनके नीचे और भी कई देखरेख रखनेवाले हैं । हरएक विभागमें आवश्यकतानुसार कमरे हैं; जैसे शिशुविभागमें तीन कमरे हैं। हरएक कमरेमें एक एक मानीटर है। उन तीनों पर एक केप्टेन है। केप्टेन और मानीटरोंको लड़के अपने आप चुनते हैं और उनकी आज्ञामें रहते हैं। यदि कभी कोई लड़का कुछ अपराध कर लेता है तो उनका केप्टेन उस लड़केको समझाकर उससे प्रायश्चित्त करवाता है। यदि वह केप्टेनसे नहीं मानता तो विद्यार्थियोंकी एक विचारसभा होती है । उनमेंसे एक न्यायाधीश चुना जाता है । फिर उस न्यायाधीशके सामने लड़का अपना निरपराधी होना साबित करता है, अथवा अपराध स्वीकार करता है और प्रायश्चित्त लेता है। यदि अपराधी होने पर भी वह अपना अपराध स्वीकार नहीं करता है, तो उसको सप्रमाण अपराधी साबित कर दण्ड दे दिया जाता है । इस काममें उनके संरक्षक लोग बहुत ही कम हस्तक्षेप करते हैं । यही हालत प्रत्येक विभागकी है। __ यदि कभी एक विभागका विद्यार्थी दूसरे विभागके लडकेसे लड़ता है तो उसका न्याय करनेके लिए आश्रमकी प्रधान विचारसभाकी विचारबैठक होती है । इस सभामें आश्रमभरके विद्यार्थी और मास्टर लोग मेम्बर हैं। इसमें भी विद्यार्थी ही न्यायाधीश चुना जाता है और उक्त प्रकारसे अपराधियोंका विचार होकर प्रायश्चित्त या दण्डविधान होता है। उक्त प्रथासे विद्यार्थियोंके कोमल हृदय निर्मल और पवित्र हो जाते हैं । उनको अपने दुष्कृत्यों और सुकृत्योंकी जाँच करना आजाता है। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलपुरका शान्तिनिकेतन ब्रह्मचर्याश्रम। ५१७ क्योंकि जो बात सोच समझकर की जाती है, उसका असर चिरकाल तक रहता है । उसको यह मालूम हो जाता है कि अमुक कार्य बुरा होता है, उससे अमुक बुराई होती है, मैंने यह बुरा किया, इसलिए अब मैं कोई ऐसी बात करूँ जिससे सदा इसकी बुराई मेरे ध्यानमें रहे, ताकि दुबारा यह कार्य न कर सकूँ । इस कुराईको ध्यानमें रखनेके लिए जो शारीरिक या मानसिक वेदना सहन की जाती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। हमारे शास्त्रकारोंने भी हमारे दुष्कृत्योंका प्रायश्चित्त लेनेकी आज्ञा दी है। आलोचनापाठ इसी आज्ञाका फल है। इससे हमें मानसिक वेदना होती है। अगले जमानेमें मुनियोंके संघमें भी यही प्रथा प्रचलित थी जिसके सैकड़ों उदाहरण हमारे शास्त्रोंमें मिलते हैं। इसके प्रतिकूल विद्यार्थियोंको दण्ड देनेकी जो रीति अन्यान्य संस्थाओंमें प्रचलित है वह सर्वथा अनुचित है। क्योंकि उसमें विद्यार्थियोंको बहुत ही कम खयाल होता है कि यह ताड़ना हमारी भलाईके लिए हो रही है। बल्कि उसका उल्टा नतीजा होता है। लड़कोंकी आत्मायें दिनोंदिन मलिन होती जाती हैं। ईर्ष्या भाव और क्रोध वृद्धिंगत होता जाता है और उसका यहाँतक परिणाम होता है कि कभी कभी लड़के बड़े बड़े भयङ्कर और घृणित कार्य कर बैठते हैं। __ शिक्षाका उद्देश्य यह है कि उससे विद्यार्थियोंके हृदयमें मानवजातिके प्रति सच्ची सहानुभूति, वास्तविक प्रेम और प्राणी मात्रकी भलाईकी लालसा उत्पन्न हो और समय पड़ने पर वे उसको आचरणमें For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ जैनहितैषी लावें । यही शिक्षा आश्रमके विद्यार्थियोंके दिलोंमें मौजूद है। ये अभीसे ही अपने तन मन और धनसे गरीबों और दुखियोंकी सहायता करते हैं। लड़कोंने आश्रमसे आध मीलके फासले पर एक पाठशाला बनाई है। उसमें सैंथाल जातिके असभ्य जंगली लड़के पढ़ते हैं। अध्यापनका कार्य स्वयं लडके ही संध्याको अपने खेलके समय जाकर करते हैं। पुस्तकें व पढ़ने लिखने आदिका सामान भी आश्रमके विद्यार्थी चन्दा करके उक्त पाठशालामें पढ़ने आनेवाले लड़कोंको देते हैं। इससे पाठक विचार सकते हैं कि उनके हृदयमें' अपने मूर्ख दुखी भाइयोंको विद्या पढ़ाकर सुखी करनेकी कितनी तीव्र इच्छा है-सुखी बनानेकी कितनी जबर्दस्त लालसा है। दैनिक पत्र-आश्रमसे प्रतिदिन एक दैनिकपत्र निकलता है। इसका सम्पादन विद्यार्थी स्वयं ही करते हैं। इसमें सिर्फ आश्रमसम्बन्धी समाचार निकलते हैं । कागजके एक ओर समाचार लिखकर वह कागज बोर्ड पर चिपका दिया जाता है। ___ वर्ष भरमें आश्रम ३ महीने बन्द रहता है। विद्यार्थियोंको छुट्टी दे दी जाती है। आषाढ़ महीनेके पहले पक्षमें और पूजाकी छुट्टीके बाद १५ दिन तक, इस तरह वर्षमें दोबार विद्यार्थी भरती किये जाते हैं । रोगी विद्यार्थियोंकी सेवाशुश्रूषाके लिए एक वैद्य और दो परिचर्या करनेवाले नियुक्त हैं। रोगी छात्रोंके लिए एक पृथक् हास्पिटल बना हुआ है। इस आश्रममें ठाठवाटका एक तरहसे अभाव है। संचालकोंका सादगी पर और मितव्ययता पर बहुत ध्यान रहता है। छात्रोंकी For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलपुरका शान्तिनिकेतन ब्रह्मचर्याश्रम। ५११ रहन सहन बहुत ही सादी है। खुले दिनोंमें छात्रगण वृक्षोंके नीचे बैठकर विद्याध्ययन किया करते हैं ! ___ अब मैं इनकी एक जीती जागती सहानुभूतिका उदाहरण देकर अपने इस लेखको पूरा करूँगा। ___ ता० १७ फरवरीकी रात्रिको चारों ओर अँधियारी छाई हुई थी। घडीमें करीब १२ बजे होंगे। सारे विद्यार्थी निद्रा देवीकी गोदमें आराम कर रहे थे । मैं भी एक तख्ते पर सोता हुआ नींदका मजा ले रहा था । इसी समय अचानक बड़े जोरसे घण्टा बजा । मैं उठकर बाहिर आया; मगर मुझे कुछ दिखाई न दिया । थोड़ी ही देरमें मेरे कानोंमें वन, टू, श्री आदि गिनतीकी आवाज़ आई। मैं उस आवाजकी तरफ बढ़ा । इस आवाज़ तक पहुँचने भी न पाया था कि दूारी आवाज़ आई Right turn, March on Quick march । मैं आगे बढ़ कर क्या देखता हूँ कि लगभग १०० लडके हाथों में मटके लिए भागे जा रहे हैं । मालूम हुआ कि ये विद्यार्थी बोलपुरमें एक जगह आग लग गई है उसे बुझानेके लिए जा रहे हैं । बाह कैसी आचरणीय शिक्षा है ! कैसी व्यवहृत सहानुभूति है ! इन्होंने दूसरोंकी भलाईके लिए न शीतकी परवा की, और न नीदके भंग होनेका ही ख़याल किया । पाठक ! क्या आपमेसे कोई भी अपने सीने पर हाथ धर कर बता सकता है कि जगत्का कल्याण करनेको आत्मोत्सर्ग करनेवाले, प्राणी मात्रको शान्ति पहुँचाने और बडेसे बडे जीवको लेकर छोटेसे छोटे पौधेमें रहनेवाले जीव तककी रक्षाका पाठ सिखानेवाले गुरुओंका अनुसरण For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० जैनहितैषी करनेके लिए स्थापित हुई हमारी धार्मिक संस्थाओं से क्या किसी एक भी संस्थाके लड़कोंने दुःखसे छटपटाते हुए अपने भाइयोंको सहारा देकर बचाया है ? .. यदि कोई व्यक्ति आश्रम देखने या अन्य किसी हेतुसे जाता है तो विद्यार्थी उसकी बड़ी मेहमानवाज़ी करते हैं, बड़ी ही नम्रता व प्रेमसे उससे वार्तालाप करते हैं जिससे उसका मन बड़ा ही प्रसन्न होता है और वह यही चाहता है कि इस आश्रमके लड़कोंकी तन मन और धनसे सेवा करें। ... आश्रमका यह बहुत ही संक्षिप्त परिचय है । जो महाशय इस विषयमें अधिक जानना चाहें वे. श्रीयुक्त बाबू जगदानन्दरायसे पत्रव्यवहार करें। कृष्णलालवर्मा । - नोट-क्या ही अच्छा हो यदि हमारे जैनसमाजके भी चार छह लड़के इस आश्रममें जाकर रहें और विद्याध्ययन करें। आश्रममें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे जैनविद्यार्थी वहाँ न रहसके। उनके चरित्रमें और भोजनपानादिमें किसी तरहकी हीनता नहीं आसकती। उनके विश्वास भी वहाँ सुरक्षित रहेंगे। यदि धनी सज्जन दोचार वृत्तियाँ नियत करदें तो अनेक असमर्थ विद्यार्थी वहाँ जानेके लिए तैयार हो सकते हैं । यह जानकर पाठक प्रसन्न होंगे कि श्रीयुत पं० अर्जुनलालजी सेठी बी. ए. के पुत्र चिरंजीवि प्रकाशचन्द्र उक्त आश्रममें भरती होगये हैं। सम्पादक। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारशक्ति। विचारशक्ति । "Strive with thy thoughts unclean before they over power thee, for if thou sparest them, and they take root and grow, know well those thoughts will overpo ver and kill thee." " Voice of the Silence" अर्थात्-" हे मानव ! इसके पहले कि तेरे अधम विचार तुझ पर जय पालेवें तू उनका साम्हना कर । यदि तू उन्हें झोड़ देगा और वे जड़ पकड़कर बड़ जावेंगे तो याद रख कि ये ही विचार तुझे वशमें कर लेंगे और मार डालेंगे।" भविष्य जीवनकी स्थितिका आधार जिन जिन कारणों पर है उनमें 'विचार' भी एक मुख्य कारण है। कहा है कि,-मन एव मनुप्याणां कारणं बंधमोक्षयोः-अर्थात् मन ही मनुष्योंके लिए बंध और मोक्षका कारण है । ' मनुष्य ' शब्द संस्कृत मन धातुसे बना है जिसका अर्थ 'विचार करना' है । अर्थात् जो प्राणी विचार कर सकता है उसे मनुष्य कहते हैं। मनुष्यकी विचारशक्ति ही उसे पशुसे उच्च स्थितिमें स्थापित करती है । यदि मनुष्यमें विचारशक्ति न हो तो पशुमें और उसमें कुछ भी अंतर नहीं। मनुष्यका चरित्रगठन विचारोंके अनुसार ही होता है। पश्चिमीय साइन्स तथा पूर्वीय धर्मग्रंथ एक स्वरसे इस बातको प्रतिपादन करते हैं कि मनुष्य अपने कार्योंके अनुसार नहीं, किन्तु विचारोंके अनुसार बनाता है। । मनुष्यके विचारोंसे ही उसका वास्तविक स्वरूप जाना जाता है और उसकी भविष्यरचनामें उसके विचारोंको ही महत्त्वका स्थान For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जैनहितैषी मिलता है । मनुष्यकी वासनाओंको उत्तेजन देनेवाले और संयममें रखनेवाले उसके विचार ही हैं । कारण, मानसिकशरीर वासना शरीरकी अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और उच्च होता है। इतना ही नहीं किन्तु कार्यवाहक स्थूल शरीरसे जिसे हम देखते हैं वह और भी सूक्ष्म और उच्च है। तुम्हारे विचारों पर तुम्हारे मित्रोंका भी आधार है। तुम अपने चारों ओर दृष्टि फेरो और देखो कि तुम्हारे मित्र किस किस प्रकारके हैं । ऐसा करनेसे भूतकालमें तुमने जो जो विचार किये हैं तुम्हें उनका स्मरण अधिकतासे हो सकता है। ___ यदि तुम्हारे मित्र सुंदरता शुद्धता और सत्यताको पसंद करनेवाले हों तो समझ लो कि अतीत कालमें तुमने अत्यंत सुन्दर शुद्ध और सत्य विचार किये हैं । इसमें बिलकुल .. संदेह नहीं | यदि तुम्हारा सम्बन्ध सदा ऐसे मनुष्योंसे रहता हो कि जिन्हें ठट्टा मसखरी करनेकी ही आदत पड़ी हुई है अथवा जिनके प्रत्येक शब्दमें या मुखकी आकृतिमें दिल्लगीकी ही आभा दीख पड़ती है तो इससे यह बात सिद्ध होती है कि भूतकालमें तुमने इसी प्रकारके विचारोंको उत्तेजन दिया है कि जिससे एक महत्त्वके नियमानुसार वैसे ही पुरुषोंका तुम्हारी ओर सहजमें आकर्षण हुआ है। वह महत्त्वका नियम हमें शिक्षा देता है कि-समान स्वभाववालोंका परस्परमें आकर्षण होता है । यद्यपि तुम इस समय वैसी आदतसे रहित हो और कदाचित् वैसी हँसी दिल्लगीको बुरा भी समझते हो तो भी पूर्वके विचारबलके कारण तुम ऐसी परिस्थितिमें आपड़े हो। इस वास्ते इसका उत्तरदायित्व तुम्हारे ऊपर है। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारशक्ति। ५२३ विचारशक्तिमें लोह-चुम्बक सदृश एक महान् सिद्धान्त समाया हुआ है : उसे मैं यहाँ स्पष्ट कर देता हूँ । कल्पना करो कि एक मनुष्य अच्छा शिक्षित है और वह अच्छे घरानेका है। किसीने उसकी बिना कारण निंदा की और अनुचित रूपमें उसका अपमान और बदनाम किया; परन्तु उसकी ऐसी स्थिति नहीं कि वह अपनी निदोषता प्रगट कर सके । वह एक प्रतिष्ठित कुलका और समझडार है इसलिए अपनी निंदा करनेवाले शत्रुके पास जाकर न उसे वह थप्पड़ जमा सकता है, न जवाब दे सकता है और न गालियाँ सुना सकता है । इससे वह चुप हो रहता है । इस अवस्थामें यद्यपि वह बाहरसे शान्त दीख पड़ता है; परन्तु वास्तवमें उसके अंतरंग वैरके विचार उठा करते हैं। ___ ऐसे ऐसे दुष्ट विचारोंमें कि-बुरा हो उस दुश्मनका-उसका मन फँसा ही रहता है । इतना ही नहीं किन्तु मेरा शत्रु दुःख भोग रहा है, उसका अपमान हो रहा है, उसे अच्छा दण्ड मिल रहा है इत्यादि कल्पना उठा-उठाकर वह अपनेको सुखी समझता है। यद्यपि प्रगटम वह बोलता नहीं तथापि जो विचार उसके दिलमें उट रह है अथवा जो निर्दयताके चित्र वह अपने दिलमें खींच रहा है उनका बुरा असर हुए विना नहीं रहता । विचारशक्ति एक महत्त्वकी चीज़ है। उसे हम मनरूपी द्रव्यकी बनी हुई एक मानसिक आकृति कह सकते हैं । वे विचाररूपी आकृतियाँ विचार करनेवाले मनुप्यके मस्तकमेंसे सीधी उस मनुष्यकी ओर शीघ्रतासे जाती हैं कि जिसके विषयमें विचार किये गये हों और For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - वे उसे पूर्वकी अपेक्षा अधिक असत्यवादी अन्यायी नीच और निंद्य बनाती हैं। पर इतनेहीसे उन विचारोंके परिणामका अन्त नहीं आता । जिस मनुष्यके पास वे विचार जाते हैं, उसका मस्तक स्वयं बुरे विचारोंसे भरा हुआ रहता है । इस कारण दूसरेके भेजे हुए सब विचारोंके वास्ते उसके मस्तिष्क में स्थान ही नहीं रहता । इसीसे वे विचार उसे पूर्वकी अपेक्षा अधिक नीच बनाते हैं और जगत्में घूमा करते हैं । वे विचार ऐसे दीख पड़ते हैं मानो कोई क्रोधी पुरुष उन्हें ग्रहण करनेका पात्र हो और उनकी राह देखता हो । घृणा और ईर्षासे भरे हुए ये विचार लाल और कालेरंगके भयंकर राक्षसोंकी आकृतिमें दीख पड़ते हैं और चहुँओर घूमते रहते हैं । जो मनुष्य अशिक्षित या क्रोधके वशीभूत हो, जिस पर जुल्म किया गया हो तथा जिसके दिलमें वैर लेनेकी इच्छा उठती हो उस अभागी मनुष्यके पास वे विचार शीघ्रतासे जाते हैं और उसे खून करनेके लिए उत्तेजित करते हैं । इसके बाद वह एकदम तेजी से आता है और अपने प्रतिपक्षी मनुष्यका खून कर डालता है । पृथ्वी पर इस खूनके बदले उसे फाँसीकी सजा दी जाती है । ५२४ जिस शरीरने कि उसका खून किया वह शरीर चाहे फाँसी पर लटका दिया जाय, चाहे कैदमें डाला जाय अथवा और किसी प्रकारसे नष्ट कर दिया जाय; परन्तु वास्तवमें उसकी अपेक्षा वह शिक्षित पुरुष कि जिसने घातकी और वैरके विचार जगत् में फैलाये हैं अधिक दंडनीय है । कारण कि निरक्षर और अशिक्षित पुरुषकी अपेक्षा पढ़े लिखे शिक्षित मनुष्यकी विचारशक्ति विशेष बलवती हुआ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारशक्ति। ५२५ करती है । इस वास्ते खराब विचारोंका प्रचार करनेवाला भी उस खूनका आधिकतासे जबाबदार है। अतएव उन अधम विचारोंके फैलानेसे खूनकी उत्तेजना देनेवाले उस दुष्टको भी इस भवमें किसी न किसी प्रकारका बदला अवश्य मिलना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो उसे भवान्तरमें खूनके विचारोंके परिपाक स्वरूप कटुक फल भोगने ही होंगे। चाहे करोड़ों वर्ष बीत जायँ परतु किये हुए कार्यका नाश नहीं होता; अर्थात् जैसे शुभाशुभ कर्म हमने किये हैं उनका फल हमें भोगना ही पड़ता है। जिन मनुष्यों पर हम विचारों द्वारा असर पहुँचाते हैं वे हमारे पास मित्र या शत्रुरूपमें आते हैं। कदाचित् एक भवमें हम उनके साथ उत्पन्न न हो तो भी दूसरे भवमें हमारा उनका साथ अवश्य होगा। यह बात सच है कि जिन मनुष्यों पर हमारे विचारोंका असर पड़ा है उनका हमसे जल्दी या धीरे अवश्य समागम होगा । एक विद्वानका कथन है:--Have mastery over thy thoughts. O, Strive for perfection. अर्थात् अपने विचारों को अपने आधीन रक्खो और कार्यकी पूर्ण सिद्धिके लिए प्रयत्न किये जाओ। ___ दुष्ट विचारोंका परिणाम कैसा कटुक होता है यह हम ऊपर कह आये हैं। अब, विचारशक्तिका किस प्रकारसे सदुपयोग हो सकता है इस मनोहर चित्रकी ओर पाठकोंका ध्यान आकर्षण किया जाता है। जो शिक्षा हमें मिलती है उसका यदि हम व्यवहारमें उपयोग कर सकते हों तो उस शिक्षाकी सार्थकता है। हमें उचित है कि उपदेशके अनुसार अपना बर्ताव करें। यदि खराब विचारोंसे खराब For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ जैनहितैषी मनुष्योंका हमारी ओर आकर्षण होता है तो, अच्छे विचारों से अच्छे मनुष्योंका झुकाव हमारी ओर अवश्य होना चाहिए । यह हमारे अधिकारकी बात है। जैसे विचारवाले मित्र और साथियोंकी चाहना हम करते हों वैसे ही विचारोंकी उत्पत्ति और पुष्टि हमारे अन्तःकरणमें होनी चाहिए। इस प्रयत्नसे शीघ्र या धीरे हमें वैसे मित्रों या साथियोंका समागम प्राप्त हो सकेगा। - जिन्हें यह बात सुननेका प्रथम ही मौका मिला है उन्हें अपूर्व आनंद होना चाहिए । कई मनुष्य अपने काममें दिनभर इतने लीन रहा करते हैं कि उन्हें मित्रोंसे मिलने या उत्तमोत्तम पुस्तकें बाँचनेको समय ही नहीं मिलता । दिनभरके कामसे उन्हें रात्रिसमय इतनी बेचैनी रहती है कि उस समय अभ्यास करने, मीटिंगमें, नाने या मित्रोंसे बातचीत करनेको भी उन्हें क्वचित् ही फुरसत मिलती हो। यदि दिनभरके लिए एक विचार पसंद करनेके वास्ते मनुष्य प्रातःकाल सिर्फ पाँच मिनिट व्यतीत करे और उस समय सचाई, दया, शांति, परोपकार, धैर्य, साहस इत्यादिमें से किसी एक सद्गुणका दृढ चित्तसे विचार करे और दिनके समय जब कभी उसे फुरसत मिले वह उसी सद्गुणका विशेषतासे विचार किया करे तो शीघ्र या बिलंबसे वे मनुष्य उसके पास आके उससे मित्रता करेंगे कि जिनके विचार उससे मिलते हुए हैं। इसके लिए उसे दूसरे जन्मतक राह देखते रहना न पड़ेगा । इसी भवमें एक या दो महिनेमें या अधिक हुआ तो एक या दो वर्षमें वैसे विचारवाले मनुष्य For Personal & Private Use Only __ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारशक्ति। ५२७ अवश्य तुम्हारे पास आवेंगे कि जिनके विचार तुम्हारे सदृश हैं, शर्त यह है कि तबतक तुम अपने विचार दृढ बनाये रहो। विचारशक्तिके प्रभावसे जो काम हो सकता है उसका यह एक छोटासा हिस्सा है । याद रक्खो कि विचार एक सच्ची चीज है। प्रथम प्रत्येक विचार मनुष्यके चित्तमें उत्पन्न होता है पश्चात् उसकी वृद्धि होती जाती है। जगत्की महाशक्तिके तुल्य हमारे विचारमें भी उत्पादक शक्ति है। यद्यपि इस समय वह शक्ति कमजोर मालूम होती है परन्तु वैसी शक्ति है अवश्य । हम शक्तिके अनुसार शुभाशुभ विचारकी आकृतियाँ उत्पन्न करते हैं और उसी रूपमें दूसरोंको सहायता पहुँचाते या कष्ट देते हैं। ___ रोगी मनुष्य जो विस्तर परसे या कुरसी परसे उठनेमें अशक्त होते हैं प्रायः चिड़चिड़ाया करते हैं और इस जगत्में उनके जीवनका कुछ भी उपयोग नहीं-इस विचारसे दुखी होते रहते हैं। परन्तु यदि उनमें शुभ और दृढ विचार करनेकी शक्ति हो तो वे भी अपने तन्दुरुस्त मित्रोंके सदृश दूसरोंको मदद पहुँचा सकते हैं। इस स्थल पर इस नियमका प्रगट करना आवश्यक है कि यदि कोई एक विचार प्रतिदिन किसी खास समय पर किसी खास स्थानमें दीर्घकाल पर्यंत दृढताके साथ किया जाय तो उसका हम पर इधर उधर दौड़कर सख्त परिश्रम करनेकी अपेक्षा अधिक स्थायी असर पड़ेगा। कई मनुष्योंका कथन है कि जगत्के लेखक और विचारकर्तागण कोई भी काम नहीं करते; कारण कि वे शरीरसे काम नहीं लेते और कोई बड़ा व्यापार नहीं चलाते । परन्तु यह कथन ठीक नहीं । कारण, विचार ही तो कार्यका करनेवाला है। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जैनहितैषी इस धरातल पर कार्यकर्तागण अपने विचारानुसार काम करते हैं या उन पुरुषोंके विचारों पर अमल करते हैं कि जिन्हें विचारार्थ बहुत अवकाश मिला करता है। स्वयं विचार करनेमें ये प्रायः अशक्त हुआ करते हैं । संसारमें ऐसे भी अनेक मनुष्य हैं जो कि काम तो नहीं कर सकते; परन्तु विचार करते रहनेमें ही जिनका अधिकांश समय व्यतीत होता है। - जो आत्मविद्याके उपासक हैं उन्हें उचित है कि दोनों काम करें। भावार्थ-हमारा कर्तव्य है कि उत्तमोत्तम विचार किया करें और उन्हें अमलमें लानेके लिए भी सदा तत्पर रहें । अपने विचारोंके विषयमें हमें बड़ी सावधानी रखनी चाहिए । यद्यपि प्रत्येक धर्म हमें इसी प्रकार आदेश करता है; परन्तु विरला ही धर्म इस बातको प्रगट करता है कि किस प्रकारसे वह काम करना इष्ट है। अतएव मैं आपका ध्यान इस बात पर आकर्षण करता हूँ कि हम अपने विचारोंके लिए कितने जबाबदार हैं और इन विचारोंसे हम कितना काम कर सकते हैं। - जो मनुष्य, गुप्त ज्ञानके अभ्यासी होते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि विचार किसी न किसी आकृतिमें होते हैं। मानसिक भवनकी प्रकृति से अपने विचारके अनुसार भिन्न भिन्न रंगकी आकृतियाँ बनती हैं । ( इस स्थल पर यह प्रगट करना आवश्यक है - कि एक समय ऐसा था कि जब कोई मनुष्य साधारण जनताके विश्वासोंके विरुद्ध विचार दरसाता था तो उसे दूसरे मनुष्य अनेक प्रकारसे हैरान करते, जेलखानेमें डालते और कभी कभी तो उसे For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारशक्ति। ५२९ जीता जला डालते थे। ऐसे विचार प्रगट करनेवालेको कड़ीसे कड़ी सजा हुए बिना न रहती थी; परन्तु आजकल सौभाग्यवश मनुष्योंके विचारका प्रवाह बदल गया है ।) इस विषयकी पुस्तकें भी प्रकाशित होने लग गई हैं। ऐसी सचित्र पुस्तकें भी निकली हैं कि जिनमें यह बात बतलाई गई है कि नाना विचार और मनोभावनाओंसे किस किस प्रकारके रंगबिरंगे आकर बनते हैं और मनुष्योंके सूक्ष्म शरीरोंमें किस किसप्रकारका फेरफार होता है। अपने विचारोंकी आकृतियाँ अपने सूक्ष्म शरीरमेंसे निकलकर दूर जाती हैं और दूसरे लोगों पर असर डालती हैं- उसी प्रकारसे दूसरे मनुष्योंके विचारोंकी आकृतियाँ भी हम पर असर डालती हैं । इस ज्ञानके द्वारा हम इस बातका भी विचार कर सकते हैं कि अपनी जातिवालोंको तथा दूसरोंको किस प्रकार सहायता पहुँचाई जाय । चाहे जैसा मनुष्य हो, उसमें कुछ न कुछ अच्छी बात होनी ही चाहिए। इसीसे यदि हम उस मनुष्यके प्रति प्रेम सहायता और कल्याणरूप विचार प्रगट करें तो कभी न कभी वे विचार उसके हृदयमें प्रवेश किये बिना न रहेंगे । ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं जो सदा ही क्रोधी लोभी या कंजूस रहता हो । तब कोई दिन ऐसा भी आवेगा कि अपना शुभप्रेमरूपी विचार उसके हृदयमें प्रवेश करेगा और उसके सद्गुण बीजको पुष्ट करेगा। अतः शुभ विचार प्रगट करनेवालेको भविष्यमें एक मित्र मिलेगा और पुण्य बंध होगा। एक छोटेसे ग्राम शहर या देशकी चहुओर जो विचारोंकी आकृतियोंके बादल छाये रहते हैं उनका भी क्या तुमने कभी For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - ५३० विचार किया है? यदि न किया हो तो आज ही करो । विचारनेसे तुम्हें मालूम हो जायगा कि समग्र ग्रामके मनुष्य जिस कामको खराब समझते हैं उस कार्यको करना किसी भी मनुष्य के लिये कठिन क्यों होता है । यह बात सहज ही तुम्हारी समझमें आ जायगी । दूसरे मनुष्योंके विचार अपने सूक्ष्म शरीर से सदा टकराते, मनमें घुसते और कुछ न कुछ असर करके बाहर निकलते हैं । यही सबब है कि एक मनुष्य के लिए स्वतंत्र विचार करना कठिन होता है। इसी कारण हमारे लिए वैसे काम करना भी कठिन होता है कि जिन्हें दूसरे लोग खराब समझते हैं, परन्तु जिन्हें हम अच्छे समझते हैं । संसारमें जो मनुष्य सभ्य कहाते हैं वे भी इस विषय में बड़ी भूल करते हैं और दूसरोंके प्रति अत्यंत घातक वर्ताव करते हैं । वे दूसरोंमें जो दूषण देखते हैं उन्हें सदा ही विचारा करते हैं और समझते हैं कि वे मनुष्य अपनी भूल सुधार नहीं सकते अथवा भूलको दूर ही नहीं कर सकते । ऐसा करने से वे उनके दूषणों को बढ़ाते रहते हैं और उन्हें दूर करनेमें विघ्न डाला करते हैं । कई निर्दोष पुरुष ऐसे हैं कि जिनके माथे कलंक लगा हुआ है और जिन्हें दूसरोंके विचारोंको सुनकर बहुत दुःख सहना पड़ता है । कारण यह है कि उनके विषयमें दूसरे कुछ भी नहीं जानते । के सिर्फ सुनते हैं कि अमुक कारणसे अमुक स्त्री या पुरुष दोष के पात्र हैं और यह बात सच समझकर वे उस बेचारेको धिक्कारा करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारशक्ति । ५३१ जिस प्रकार यह सत्य है उसी प्रकार इससे विरुद्ध बात भी सत्य है (?) इस वास्ते हमें उचित है कि प्रत्येक मनुष्यमें जो बात अच्छी हो उसे देखनेकी आदत डालें और जब अवकाश मिले उस गुणका विचार किया करें। इतना ही नहीं किन्तु हमें मनमें सदा इस तरहके चित्रकी कल्पना करते रहना चाहिए कि वह सद्गुण उस मनुष्यमें धीरे धीरे बढ़ता जा रहा है और उसके जीवन पर अच्छा असर डाल रहा ह । ऐसे कल्पित चित्रसे और इस प्रकार दूसरोंके शुभगुणोंका मनन करते रहनेसे हम अपने मित्रोंको शत्रुओंको ( वास्तव में तो अपना कोई शत्रु है ही नहीं ) तथा सर्वसाधारणको सहायता पहुँचा सकते हैं और जीवनके लिए हजारों मित्र और साथी बना सकते हैं । * इसी मार्गसे हम अपने भविष्यके अनुवादक:बुधमल पाटणी, इंदौर | करनी और कथनी सुन्दरी । कथनी करे सब कोई, करनी अति दुर्लभ होई । कथनी० । शुक रामको नाम बखानै, नहिं परमारथ तसु जानै; विधि भनि वेद सुनावै, पर अकल-कला नहिं पावै ॥ क ०॥१॥ छत्तीस प्रकार रसोई, मुख गिनतर्हि तृप्ति न होई; शिशु नाम नाहिं तसु लेवै, रस स्वादत सुख अति वेवै ॥ ० ॥२॥ बन्दी जन कडखा गावै, सुनि सूरा सीस कटावै; जब रुंड मुंड ता भासै, सब आगे चारण नासै ॥ क० ॥ ३ ॥ * जैनहितेंच्छु, मास जून १९१० ई०, अंक छटेसे अनुवादित । For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ जैनहितैषी कथनी तो जगत मजूरी, करनी है बंदी हजूरी, कथनी शक्कर सम मीठी, करनी अति लगै अनीठी॥क०॥४॥ जब करनीका घर पावै, कथनी तब गिनती आवैः अब ‘चिदानन्द' इम जोई, करनीकी सेज रहे साई॥क०॥५॥ -चिदानन्द । लीजिए, चिदानन्दजी महाराजने तो करनी कामिनीकी सज पसन्द कर ली ! बेचारी कथनी सुन्दरी पतिवियोगसे व्याकुल होने लगी और सेन सँवारकर परीक्षा करने लगी; परन्तु जब कोई चाहे तब ही न कोई उसकी राह लंगे: बहत ममय तक-बहुत वर्षों तक-गह देख देख कर-वियोगातपमें सन्तप्त हो होकर उसन अपने रूपको मिट्टीमें मिला दिया; आशा नहीं रही कि कभी काई भूला भटका भी उस राह आ निकलेगा । परन्तु एक बार घरक. दिन भी फिरते हैं । वीर भगवान्की २५ वी शताब्दिमें कथनी. सुन्दरीको एककी जगह अनेक आशक आ मिले ! जिस तरह इम वाचाल स्त्रीकी जीभके लिए शब्दोंकी कमी नहीं उसी तरह उसकी सेजके लिए अब आशकोंका भी टोटा नहीं रहा । एकाध आशकका स्थान खाली हुआ कि दूसरे सैकड़ों उम्मेदवारोंकी भीड तैयार है । ___ अन्देकी एक बार इच्छा हुई कि कथनीसुन्दरीके आशकार्की गिनती कर डालू-उनका नाम, उम्र, व्यापार, पहलेकी और पीछेकी स्थिति आदि सब बातोंका उल्लेख करनेवाली · डिरेक्टरी ' बना डायूँ । परन्तु बन्दा थोड़े ही समयमें निराश हो गया और इस तरहका प्रयास करना छोड़ बैठा । कारण, एक ता आशकोंकी मंग्या लिखना ही कठिन और फिर प्रत्येकके व्यापारादिका इतिहास For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनी और कथनीसुन्दरी । rraimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmer लिखना तो साक्षात् सरस्वतीके लिए भी कठिन ! कोई पहले व्यभिचारी, कोकेनखोर, आबारा था, पीछे जैनसमाजमें ढोंगकी पूजा देखकर ब्रह्मचारी बन गया और अब कुछ पढ़े लिखोंको फुसलाकर उनकी शिफारिशसे ऐश्वर्यशाली भट्टारक बनकर पुज रहा है ! इधर ब्रह्मचर्यका उपदेश देता है और उधर · मेरी भक्ति और गुरुकी शक्ति ' से सन्तानवृद्धिके कार्यमें सहायता करता है ! 'कोई नारि मुई घर संपति नासी, मूड मुड़ाय भये संन्यासी' के अनुसार ब्रह्मचारी क्षुल्लक ऐलक आदिके विविध वेष बनाकर चारों उँगली घीमें तर रखते हैं और भोले भक्तोंसे रुपये ऐंठकर अपने कुटुम्बको सहायता पहुँचाते हैं। कोई परम समयसारी अध्यात्मी बनकर शुद्ध आत्मस्वरूपका उपदेश दिया करता है, मूल्से पैर पुजवाता है और न्यायशास्त्र पढ़नेके बहाने काशी जाकर अपनी चेलियोंको कृतार्थ करता है ! कोई शुद्धाम्नायियोंका पण्डितशिरोमणि बनकर प्रतिष्ठायें करवाता है, प्रतिमाओंको पास करनेकी दलाली खाता है, माँगकर धमकाकर -येन केन प्रकारेण हजारों रुपयोंका हाथ करता है और नीचसे नीच काम करनेसे भी बाज़ नहीं आता है। कोई मूर्खसमाजको नदी, पहाड़, देश, पत्थर, मिट्टी, चूल्हा, चक्कीके नाम सुनाकर रिझाताहै और बुढापेमें भी जवानीका श्रृंगार और नजाकत बनाकर अपने पुराने पुण्यकर्मोंकी याद दिलाता है। कोई समाजका लीडर बनता है और किसी नगरनारिका घर पवित्र करते समय जूते खाकर भागता है। इस तरहके अनेक आशक कथनीसुन्दरीको इस २५ वी शताब्दिमें मिल रहे हैं जिससे उसके घरका द्वार सदा खुला रहता है और सेज सजी हुई रहती है। For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जैनहितैषी उधर चिदानन्दजीकी परिणीता पत्नी करनीसुन्दरीकी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता है। क्योंकि सतीके एक ही पति रहता है। पापीजन उसकी इच्छा भी नहीं कर सकते हैं । इस - समय चिदानन्दजीका स्थूल या औदारिक शरीर इस लोकसे कूच कर गया है और उनकी प्रेयसी भी उनके पीछे 'सती' हो हो गई है। - अब तो कोई वीरजननी फिर दूसरी 'करनी' को जन्म दे, पालन पोषण करके बड़ी करे और उसे वैराग्यमें न पड़ने देकर किसी पतिकी धर्मपत्नी बनावे, तब कहीं काम चले । तब तक जो कुछ होता है सो देखा कीजिए और मीठी मिठाई सदृश कथनीसे मनकी मुरादें पूरी किया कीजिए। बोलो श्रीमती कथनी सुन्दरकी जय ! अखण्ड सौभाग्यवती कथनी देवीकी जय ! देवीके आशकोंकी जय ! निन्दकोंकी क्षय ! (जैनसमाचारसे कुछ परिवर्तन करके । ) श्रीमत्पैसापुराण। अथ उत्तरपुराणम् । (१) आ युर्वृद्धिर्यशोवृद्धिर्वृद्धिः प्रज्ञासुखश्रियाम् । धर्मसन्तानवृद्धिश्च धर्मात्सप्तापि वृद्धयः॥ ____ अर्थात्-आयुकी वृद्धि, यशकी वृद्धि, विद्याकी वृद्धि, लक्ष्मीकी वृद्धि, धर्म और सन्तानकी वृद्धि, ये सब वृद्धियाँ एक धर्मकी वृद्धिसे For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमत्सापुराण | ५३५ होती हैं । गज यह कि लक्ष्मीकी वृद्धि भी धर्मसे ही होती है । आश्चर्य की बात है ! कंजूस चाचा, चेतो! चटपट धर्मका आचरण करो ! नहीं तो याद रक्खो इकट्ठी की हुई लक्ष्मी भी चली जायगी ! लक्ष्मीका देनेवाला एक धर्म है और धर्मकी पहली सीढ़ी दान है । लीजिए, सारा शहर घूमकर, आये आखिर ठिकानेके ठिकाने ! ( २ ) धर्मः कल्पद्रुमो लोके धर्मश्चिन्तामणिर्नृणाम् । धर्मः कामदुधा धेनुः धर्मः किं वाक्षयो निधिः ॥ अर्थात् धर्म ही कल्पद्रुम है, धर्म ही चिन्तामणि रत्न है, धर्म ही कामधेनु है और धर्म ही अटूट खजाना है । यह सुनकर कि 'धर्म अटूट खजाना है "नादिहन्द' या कंजस चाचाओंके मुँहमेंसे लार छूटती होगी ! धर्म नामकी मुफ्ती चीज़ से यदि अटूट खजाना मिलता है तो फिर और क्या चाहिए ? परन्तु लोभी बनियों के गुरु भी बड़े बने हुए हैं ! उन्होंने धर्म के भीतर ही सारा खजाना दबा दिया और उस धर्मकी खान खोदनेके लिए फावड़ा महँगे मूल्यका बनाया ! इस फावड़ेका नाम ही 'दान' - स्वार्थत्याग ’–‘ परिग्रहकी ममताका त्याग ' है ! ▾ 6 ( ३ ) बल्लाल नामका कवि कह गया है : यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनां धनम् । अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दारैरपि धनैरपि ॥ जो दिया गया और जो खाया पीया गया वही धनियोंका धन For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी है। धनियोंकी मृत्युके बाद तो उनके धनसे और उनकी स्त्रियोंसे दूसरे लोग क्रीडा करते हैं, मौज उड़ाते हैं। ___ भाई कविराज, तुमने गजबकी बात कह दी ! ऐसा ' कडुआ सत्य ' कहकर तुम धनियों पर चोट करते हो और उनका ' डफे. मेशन' करते हो ! जान पड़ता है कि इस तरहकी सलाह देनेवाले बैरिस्टर लोग तुम्हारे जमाने मौजूद न थे ! __ भला तुमने यह बात भी साफ साफ़ क्यों न बतला दी कि वे भागनेवाले दूसरे लोग कौन होते हैं ? ट्रम्टी (पंच ) ! साले ? जवान विधवाके नौकर ? या और कोई साहब ? तुम्हारे सारे ग्रन्थका अथसे इति तक पाठ कर जाने पर भी इस प्रश्नका उत्तर नहीं मिला । शायद तुम्हें उस समय इस बातका ज्ञान न होगा; परन्तु अब तो तुम देवपर्यायमें हो ! अच्छा तो अब अपने अवधिज्ञानक बलसे जानकर बतला दो कि धनियोंके धनसे और स्त्रियोंसे : दुसरे ' कौन क्रीडा करते हैं ? बना दो भैया! दो चार श्लोक और भेज दो विना तारके तारद्वारा ! ( ४ ) वही कवि और भी कह गया है कि:· न दातुं नोपभोक्तुं च शक्नोति कृपणः श्रियम् । किन्तु स्पृशति हस्तंन नपुंसक इव स्त्रियम् ॥ कृपण लोग अपनी लक्ष्मी न किसीको दे सकते हैं और न स्वयं भोग ही सकते हैं; केवल उसके ऊपर, एक नपुंसक या नामर्दके समान हाथ फेरा करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमत्पैसापुराण। ५०७ मूल् नहि ददात्यर्थं नरो दारिद्यशङ्कया। प्राज्ञस्तु वितरत्यर्थ नरो दारिद्यशङ्कया ॥ मूर्ख मनुष्य इस लिए दान नहीं करता है कि कहीं इससे मैं दरिद्र न हो जाऊँ और बुद्धिमान् ठीक इसी डरसे मैं दरिद्र न हो जाऊँ इस शङ्कासे दान करता है-अपना धन दूसरोंके उपकारमें 'लगाता है। ___ मूर्खमें और समझदारमें सिर्फ इतना ही अन्तर है ! केवल समझका फेर है ! मूर्ख समझता है कि यदि दूंगा तो खर्च हो जायगा और मुझे दरिद्र बनना पड़ेगा। समझदार सोचता है कि धनकी चाहे जितनी रक्षा की जावे; वह एक न एक दिन तो हाथसे निकल ही जायगा । तो जब मैं गरीब हो जाऊँगा तब क्या कर लँगा ? उस समय मेरे काममें भी कौन आवेगा ? इस लिए जब तक यह धन है तब तक तो दान करके ' बाहबाही' लूट लूँ। आगतानामपूर्णानां पूर्णानामपि गच्छताम् । यध्वनि संघट्टो घटानां तत् सरोवरम् ॥ श्रेष्ठ सर या तालाब वही है कि जिसके मार्ग में खाली आते हुए और भरकर जाते हुए घड़ाओंकी भीड़ लगी रहती है । श्रेष्ठ धनी भी वही है जिसके द्वारपर दान पाकर जाते हुए और दान लेनेके लिए आते हुए पात्रोंकी भीड़ लगी रहती है-जहाँसे कोई निराश होकर नहीं जाता है। नोट-लोभी पुरुषोंको उनके खजानेकी कसम है कि वे इस लेखको न पढ़ें और न दूसरोंको पढ़ने दें।। (जैनसमाचारसे.) For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषीwwwmmmmmmmmmmmmmmmmm vvv पुस्तक-परिचय। . हिन्दूजाति मर रही है-लेखक, श्रीयुक्त माँगी- लालजी पाटणी और प्रकाशक, श्रीयुक्त ब्रजमो - हनलालजी वर्मा छिन्दवाड़ा ( सी. पी.) । मूल्य दो आना । यह डाक्टर यू. एन. मुकर्जीके एक अँगरेज़ी निबन्धका हिन्दी अनुवाद है। निबन्ध प्रधानतः बंगालप्रान्तको लक्ष्य करके लिखा गया है, तो भी इससे सारे देशके हिन्दुओंकी दशाका अनुमान होसकता है। इसमें बतलाया गया है कि हिन्दुओंकी संख्या बराबर घट रही है । सन् १८७२ में मनुष्यगणनाके अनुसार बंगालमें हिन्दुओंकी संख्या १ करोड ७१ लाख और मुसलमानोंकी संख्या १ करोड ६७ लाख थी, अर्थात् मुसलमान हिन्दुओंसे ४ लाख कम थे; परन्तु आगे मुसलमान बढ़ते गये और हिन्दू उनसे कम होते गये । सन् १९०१ में जो मनुष्यगणना हुई उसमें मुसलमानोंकी संख्या २ करोड २० लाख हो गई और हिन्दुओंकी संख्या केवल १ करोड ९४ लाख हुई ! अर्थात् केवल ३० वर्षमें मुसलमान हिन्दुओंसे २५.. लाख अधिक हो गये । यह बड़ी ही चिन्ताका विषय है; परन्तु कट्टर हिन्दुओंका ध्यान इस ओर नहीं है । मुसलमान और ईसाई यहाँ पर बराबर बढ़ते जा रहे हैं। इसका कारण यह है कि प्रतिवर्ष लाखों हिन्दू ईसाई और मुसलमान होते जाते हैं। क्योंकि हिन्दु ओंकी वर्तमान सामाजिक पद्धति परस्पर प्रेम करना नहीं किन्तु घृणा करना सिखलाती है और इस कारण नीचजातिके हिन्दुओंको For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-परिचय। wwwmwww हिन्दू बने रहनेकी अपेक्षा मुसलमान ईसाई आदि बन जानेमें बहुत सुख और प्रतिष्ठाकी प्राप्ति होती है । जिस 'नमः शूद्र'का हम आज स्पर्श नहीं कर सकते हैं कल उसके ईसाई बन जाने पर हम उससे प्रेमके साथ सेकहेन्ड करने लगते हैं। दूसरा कारण यह है कि अहिन्दुओंमें विवाह बड़ी उम्रमें होते हैं जिससे उनमें बलवान् और दीर्घजीवी सन्तान उत्पन्न होती है। तीसरे, उनमें विधवाविवाह जायज है और इस कारण उनमें विधवाओंकी संख्या कम रहती है। बंगालमें हिन्दुओंमें फी सदी ४८ विधवायें हैं परन्तु मुसलमानोंमें ३८ ही हैं । चौथा कारण हिन्दुओंकी शारीरिक निर्बलता है। नीच जातिके हिन्दुओंमें शराब, गांजा, चंडू आदिका प्रचार बहुत ही ज्यादा है परन्तु मुसलमानोंमें यह बहुत ही कम है। मुसलमानोंमें पारस्परिक प्रेम और धर्मप्रेम भी हिन्दुओंकी अपेक्षा बहुत अधिक है । इत्यादि और भी अनेक कारण हिन्दुओंकी समीपवर्ती मृत्युके विषयमें बतलाये गये हैं, जो हिन्दुओंके समान जैनोंके भी विचारने योग्य हैं। क्योंकि जैन भी हिन्दुओंके ही अन्तर्गत हैं। लेखकने अस्पृश्य जातियोंको ऊपर उठानेके लिए उनकी गिरी हुई दशा सुधारनेके लिए बहुत जोर दिया है और कहा है कि इसके बिना हिन्दू जाति मौतके पंजेसे बच नहीं सकती। ___ मोक्षमार्गनिरूपण-यह २६ पृष्ठकी छोटीसी पुस्तिका सागर हाईस्कूलके रिटायर्ड और सेठ तिलोकचन्द जैन हाईस्कूलके वर्तमान . हेडमास्टर राय साहब नानकचन्दनी बी. ए. की लिखी हुई है। हाईस्कूलके धार्मिक पठनक्रमकी पूर्तिके लिए इसकी For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० जैनहितैषी रचना हुई है । इसमें कर्मोंके क्षयका तथा शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्रके प्राप्त होनेका उपाय संक्षेप रूपमें वर्णन किया गया है।' भाषा यथेष्ट सरल और शुद्ध है । इस विषयको विद्यार्थी बिना कष्टके समझ लेंगे । हम आशा करते हैं कि राय साहब इस तरहकी और भी दो चार पुस्तकोंको निर्माण करके विद्यार्थियोंका उपकार करनेकी कृपा करेंगे । पुस्तक पर मूल्य नहीं लिखा । जैनप्रभात-इन्दौरके सेठोंकी कृपासे मालवा प्रान्तिकसभा कुछ दिनोंसे खूब चेत गई है । बहुत दिनोंसे विचार करते करते अब उसने इस नामका एक मासिकपत्र भी निकालना शुरू कर दिया है। इसके सम्पादक हैं हरदानिवासी बाबू सूरजमलजी जैन । वार्षिक मूल्य १।) है । दूसरा अंक हमारे सामने उपस्थित है। यह उसकम विशेष अक है । इसमें हितैषीके आकारके ११२ पृष्ठ हैं । बाबू सूरजमलजीके विचार उदार और समयकी गतिके अनुसार जान पडते हैं। यदि प्रान्तिकसभाके धर्मात्मा संचालकोंको कट्टरताने न बहकाया तो आशा की जाती है कि आपके द्वारा इस पत्रकी अच्छी उन्नति होगी और समाजकी यह खासी सेवा करेगा । लेखशैली अच्छी है । एक दो जगह सम्पादकने बड़ी निर्भीकतासे कलम चलाई है। जैनसमाजके गण्यमान्य पण्डित न्यायदिवाकर पन्नालालजीकी जो घृणित पोल खोली गई है उसे उक्त पण्डितजी जीवनभर स्मरण रक्खेंगे । खेद है कि ऐसे (प्रभातके शब्दोंमें ) स्वार्थी छली, कपटी, क्रोधी, निर्लज्ज लोग भी मूर्ख जैनममाजमें पूजे जाते हैं और समाजमें सदसद्विवेक बुद्धिका प्रवाह बहानेवाले दूसरे For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक- परिचय | जिनेन्द्र- पंचकल्याणक मंगल - लेखक और प्रकाशक, कुन्दनलाल जैन, चन्दाबाड़ी, गिरगाँव, बम्बई । मूल्य तीन आना । पाँ- ' ड़े रूपचन्दजीके बनाये हुए पंचमंगलका जैनसमाजमें सर्वत्र ही प्रचार है; परन्तु अभीतक इसकी कोई टीका प्रकाशित न हुई थी और इसकी कविता प्राचीन हिन्दीमें है, इस कारण इसका मर्म समझमें बहुत कठिनाई होती थी । अब इस टीकासे उक्त कठिनाई बहुत कुछ दूर हो जायगी । यह खास करके विद्यार्थियोंके लिए बनाई गई है । इसमें पहले पद्य, फिर उसके कठिन शब्दोंका अर्थ. फिर भावार्थ दिया गया है । इसके बाद प्रश्नावली दी है । प्रत्येक मंगलके अन्तमें उस मंगलका तात्पर्य भी दे दिया गया है। इसके तैयार करनेमें लेखक ने अच्छा परिश्रम किया है । छपाई सुन्दर है । ५४१ पद्य पुष्पाञ्जलि - - प्रकाशक, बाबू नारायणप्रसाद अरोड़ा बी. ए. पटकापुर, कानपुर । मूल्य आने। पं० लोचनप्रसादजी पाण्डेय हिन्दीके अच्छे कवि हैं । आपकी कवितायें हिन्दी के सामग्रिक पत्रोंमें अकसर प्रकाशित हुआ करती हैं । इस पुस्तकमें आपकी ४३ कविताओंका संग्रह है । इस संग्रह में भूमिकालेखक स्वर्गीय राय देवीप्रसादजी (पूर्ण) के शब्दोंमें " अनेक पद्योंसे देशहितका ललित राग गाया गया है, ईश्वरकी प्रार्थना देशभक्तिके भावसे परिपूरित है. गोजातिकी अवस्थापर करुणाका प्रकाश किया गया है, दुर्भिक्ष और दरिद्रताके सताये दीन भारतवासियोंके प्रति आर्द्र हृदयसे सहानुभूति दरमाई गई है, देशवासियोंकी अस्वस्थता पर भी विचार किया गया है, ' चीनी' सम्बन्धी पद्य में स्वदेशीकी ३ For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - भी पूरी झलक है; शिक्षा, हिन्दू विश्वविद्यालय, शिवाजी, हिन्दी, राष्ट्रभाषा, इत्यादि लेखों द्वारा विविध प्रकारसे पाठकोंका मनोरंजन किया गया है और देशसेवा और उन्नति- उद्योगका उपदेश दिया गया है । " छपाई अच्छी है । ५४२ I जर्मनीके विधाता – ऊपरकी पुस्तक के प्रकाशक ही इसके प्रका शक हैं । जिन लोगोंके उद्योग और अध्यवसायसे जर्मनी संसारके पहली श्रेणी राज्यों में गिना जाने लगा है और जिनके कारण वह वर्तमान महाभारतमें प्रवृत्त हुआ है, उन २४ पुरुषोंके संक्षिप्त चरित इस पुस्तक में संगृहीत हैं । वर्तमान युद्धकी गति समझने में यह पुस्तक बहुत काम देगी । मूल्य चार आने । - 1 सार्वजनिक हित — इस पुस्तकके दूसरे और तीसरे दो भाग हमें प्राप्त हुए हैं। इसके लेखक श्रीयुत मुनि माणिकजी हैं। आप श्वेताम्बर साधु हैं। आपके हृदय में सार्वजनिक हितकी वासना बहुत प्रबल है । धार्मिक झगड़ों और वितण्डावादोंको छोड़कर आप निरन्तर इसी प्रयत्नमें रहते हैं कि जैन अजैन सबका हित कैसे हो । बहुत कम साधु आपके ढंगपर काम करने वाले हैं । आपके उद्योगसे यू. पी. में अनेक पुस्तकालय खुल गये हैं । दिगम्बर, श्वेताम्बर, वैष्णव आदि सभीको आप उपदेश दिया करते हैं । अभी अभी आपने कई पुस्तकें छपाकर अपने विचारोंका प्रचार करना शुरू कर दिया है । पुस्तकें सब सस्ते मूल्यपर बेची और बाँटी जाती हैं । इस पुस्तकमें प्रश्न और उत्तरके रूपमें आपने सैकड़ों हितकी बातें सरलता के साथ लिखी हैं जिनसे सभी लोग लाभ उठा सकते For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक- परिचय | ५४३ · हैं । लेखकका जो उद्देश्य है - उसके लिहाज़ से इसमें जो भाषा - दिके कुछ दोष हैं उन पर विचार करनेकी आवश्यकता नहीं जान पडती । दोनों भाग दो दो आनेमें आत्मलब्धिपब्लिक जैन लायब्रेरी, मेरठको पत्र लिखने से मिल सकते हैं । समाधिशतक – आचार्य पूज्यपादका समाधिशतक एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । यद्यपि यह केवल १०० अनुष्टुप् श्लोकोंका है; परन्तु है बहुत महत्त्वका । इसका गुजराती अनुवाद बड़ोदानरेशकी कृपासे प्रकाशित हो चुका है । सुनते हैं वह बड़ोदाके स्कूलोंमें भी जारी है। अँगरेजी अनुवाद स्वर्गीय मणिलाल नभूभाई द्विवेदीने किया था । एक मराठी अनुवाद भी छप चुका है । हिन्दीमें अभी तक इसका एक भी अनुवाद प्रकाशित न हुआ था, यह देखकर पूर्वोक्त मुनि माणिकजीने इसे हिन्दी भावार्थसहित प्रकाशित किया है । लेखक यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदायके हैं तथापि वे लिखते हैं कि 'यह आत्महित चिन्तकोंके लिए अपूर्वग्रन्थ है । इसमें मन स्थिर करनेकी अमृत औषधि भव्यात्माओंके लिए रक्खी गई है । ऐसे ग्रन्थोंकी लाखों प्रतियाँ छपवाकर वितरण करानेकी आवश्यकता है ।' मूल्य तीन आना । वीर्यरक्षा या व्यभिचारकी रोक-लेखक, सेठ जवाहरलाल जैनी, सिकन्दराबाद ( बुलन्दशहर ) । जिन जिन रीति रवाजोंसे, जिन जिन कारणोंसे और जिन जिन संस्कारों से स्त्री पुरुषोंमें व्यभि - चारकी वृद्धि होती है, लड़की लड़के दुराचारी हो जाते हैं, उन सब बातों पर इस पुस्तकमें खूब विस्तार के साथ विचार किया गया For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ जैनहितैषी - है । भाषा में अनेक त्रुटियाँ होनेपर भी वह पढ़नेवालों पर प्रभाव डालनेवाली है । लेखकके हृदयपर समाजकी दुर्दशाकी चोट है, इसकी साक्षी पुस्तकमें जगह जगह मिलती है । पुस्तक परोपकारके लिए ही लिखी भी गई है । लगभग १४० पृष्ठकी पुस्तकका मूल्य तीन आना बहुत कम है। ऐसी पुस्तकोंका जितना अधिक प्रचार हो उतना ही अच्छा । व्याहशादियोंके मौकों पर तो इस पुस्तककी दो दो सौ चार चार सौ प्रतियाँ अवश्य बाँटी जानी चाहिए । पुस्तकका नाम ठीक नहीं रक्खा गया। इससे तो 'शीलसंरक्षा' नाम ही अच्छा होता । लेखक के कई विचारोंसे हम सहमत नहीं । जैसे स्त्रियाँ यावनी भाषाओंके पढ़नेसे दुराचारिणी हो जाती हैं। किसी भाषा के पढ़नेसे कोई दुराचारी नहीं होता । बुरी पुस्तकें अवश्य ही चरित्रको बिगाड़ देती हैं; पर उनकी अँगरेज़ी उर्दू फारसीके समान हिन्दी संस्कृत प्राकृतमें भी कमी नहीं है । सर जोशुआ रेनाल्ड - यह मनोरंजन हिन्दी ग्रन्थमाला ग्वालियरकी नवीं पुस्तक है । इसके लेखक बाबू नवाबराय हैं । इसमें इंग्लेंडके प्रसिद्ध चित्रकार रेनाल्डका संक्षिप्त चरित और चित्रविद्यासम्बन्धी छोटा सा निबन्ध है । रेनाल्ड एक गरीब पादरीका लड़का था । उसने स्वाबलम्बनके बल पर किस तरह चित्र बनाना सीखा और अन्तमें वह किस तरह नामी चित्रकार बन गया, यह जानने के लिए और चित्रविद्या सम्बन्धी मोटी मोटी बातोंकी जानकारीके लिए यह पुस्तक अवश्य पढ़ना चाहिए। ८० पृष्ठकी पुस्तकका दाम पाँच आना अधिक है। मिलने का पता - गोपाल कृष्णमण्डली, लश्कर, ग्वालियर । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास-प्रसङ्ग। ५४५ इतिहास-प्रसङ्ग। ( गताङ्कसे आगे) चिंतामणि-चिन्तामणि काव्य । मल्लिपेण प्रशस्तिमें चिन्तामणि काव्यके प्रणेता चिन्तामणि मुनिका उल्लेख मिलता है:-- धर्मार्थकामपरिनिवृतिचारुचिन्तश्चिन्तामाणः प्रतिनिकतमकारि येन । स स्तूयते सरससौख्यभुजा सुजात. श्चिन्तामणि निवृषा न कथं जनेन ॥ एक जगह और लिखा है___ कृत्वा चिन्तामणि काव्यमभीष्टार्थसमर्थनम् । चिन्तामणिरभून्नाम्ना भव्यचिन्तामणिर्गुरुः ॥ एक विद्वान्का कथन है कि यह · चिन्तामणि काव्य 'तामिल भाषाका ग्रन्थ है और तामिल साहित्यमें बहुत ही प्रसिद्ध है। यह मालूम नहीं हुआ कि इसके निर्माण होनेका समय क्या है । श्रीवर्धदेव-चूडामणि काव्य । चूड़ामणिः कवीनां चूड़ामणिसेव्यकाव्यकविः । श्रीवर्धदेव एव हि कृतपुण्यः कीर्तिमाहर्तुम् ॥ मल्लिषेणप्रशस्तिके इस श्लोकसे मालूम होता है कि श्रीवर्धदेव कवि कवियोंके चूडामणि थे और उन्होंने चूडामणि नामका काव्य बनाया था। इनकी प्रशंसामें प्रसिद्ध संस्कृत कवि दण्डीने कहा थाः For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - जह्नोः कन्यां जटाग्रेण बभार परमेश्वरः । श्रीवर्धदेव संधत्से जिह्वाग्रेण सरस्वतीम् ॥ अर्थात् महादेवजीने जटाओंके अग्रभागमें गंगाको धारण किया और श्रीवर्धदेवने जिह्वाके अग्रभाग में सरस्वती ( एक नदीका भी नाम है ) को धारण किया ! ५४६ इससे ये महाकवि दण्डीके समकालीन जान पड़ते हैं । इनको तुम्बुलूराचार्य भी कहते हैं । क्योंकि ये तुम्बुलूर ग्रामके रहनेवाले थे । ये सिद्धान्तग्रन्थोंके टीकाकार भी हैं। आर्यदेव -- कोई सिद्धान्तग्रन्थ । आचार्यवर्यो यतिरार्यदेवो राद्धान्तकर्त्ता प्रियतां स मूर्ध्नि । यः स्वर्गयानोत्सवसीनि कायोत्सर्गस्थितः कायमुदुत्ससर्ज । आर्यदेव किसी सिद्धान्तग्रन्थके कर्त्ता थे । उन्होंने कायोत्सर्ग धारण किये हुए ही शरीर छोड़ दिया था । अनन्तकीर्ति जीवसिद्धि और सर्वज्ञसिद्धि । वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरितके प्रारंभ में लिखा है: आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धिं निबध्नता । अनन्तकीर्तिना मुक्तिमार्गो x x वलक्ष्यते ॥ इससे मालूम होता है कि अनन्तकीर्तिका बनाया हुआ कोई जीवसिद्धि नामका ग्रन्थ है । एक सर्वज्ञसिद्धि नामका ग्रन्थ भी १ जीवसिद्धि नामका एक ग्रन्थ स्वामिसमन्तभद्रका भी बनाया हुआ है । जिसका उल्लेख हरिवंशपुराणकी भूमिका में मिलता है । २ सर्वज्ञसिद्धि में एक जगह कालिदास और उनके कुमारसंभव काव्यका उल्लेख है । For Personal & Private Use Only • Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास-प्रसङ्ग | आपका बनाया हुआ है जिसके देखनेका सौभाग्य हमें पं० कलापा भरमापा निटवेकी कृपासे प्राप्त हुआ है। इस ग्रंथके एक प्रकरण के अन्तमें लिखा है: समस्त भुवनव्यापि यशसानन्तकीर्तिना । कृतेयमुज्ज्वला सिद्धिधर्मज्ञस्य निरर्गला ॥ अनन्तकीर्ति बहुत प्रसिद्ध और कीर्तिशाली नैयायिक जान पड़ते हैं । ये प्राचीन भी हैं । कमसे कम वादिराजसूरिसे - जो शककी दशवीं शताब्दिके विद्वान् हैं- पहले हैं । 1 1 वीरसेन —– सिद्धिभूपद्धति । वीरसेनस्वामी के विजयधवलटीकाके सिवाय एक ' सिद्धिभूपद्धति' नामक ग्रन्थका उल्लेख गुणभद्रस्वामीने उत्तरपुरामें किया है: - सिद्धिभूपद्धतिर्यस्य टीकां संवीक्ष्य भिक्षुभिः । arted हेलयान्येषां विषमापि पदे पदे ॥ -- ५४७ महासेन - सुलोचनाकथा । हरिवंशपुराणकी भूमिका में जिनसेन कवि महासेनकी सुलोचना कथाका इस प्रकार स्तुतिपाठ करते हैं: महासेनस्य मधुरा शीलालङ्कारधारिणी । कथा न वर्णिता केन वनितेव सुलोचना ॥ ये आचार्य हरिवंशकर्ता जिनसेनसे प्राचीन हैं । अन्यत्र कहीं इस कथाका उल्लेख नहीं देखा । अप्राप्य भी है । रविषेणाचार्य - वरांगचरित । For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी ५४८ wwmmmmmmmmm । उक्त पुराणमें ही पद्मपुराणके कर्ता रविषणके वरांगचरित नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है: वरांगनेव सर्वांगैर्वरांगचरितार्थवाक् । कस्य नोत्पादये गाढमनुरागं स्वेगाचरम् ॥ वरांगचारत प्राप्य नहीं है। शिवकोटि, शिवायन और समन्तभद्र । आदिपुराणके कर्ताके निम्नलिखित श्लोकसे मालूम होता है कि भगवती आराधनाके कर्ता शिवकोटिमुनि थे: शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्यचतुष्टयम् । मोक्षमार्ग स पायान्नः शिवकोटिमुनीश्वरः॥ परन्तु, भगवतीआराधनाकी प्रशस्तिकी निम्न गाथाओंसे मालूम होता है कि उसे शिवार्य नामक आचार्यने रचा है: अज जिणणंदि गाण सव्वगुत्त गाण अज्जमित्तणंदीणं । अवगमिय पादमूलं सम्म सुत्तं च अत्थं च ॥ पुवायरियाणबद्धा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए। आराधणा सिवज्जेण पाणिदलभोजिणा रइदा ॥ अर्थात् आर्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगप्तगाण और आर्य मित्रनन्दिके चरणोंके समीप बैठकर और भले प्रकार सूत्र और अर्थको समझकर, पाणिपात्रभोजी शिवार्यने, अपनी शक्तिके अनुसार इस ग्रन्थकी रचना की। इससे जान पड़ता है कि शिवार्यका ही दूसरा नाम शिवकोटि होगा जिसका कि उल्लेख जिनसेन स्वामीने किया है और शायद शिवायन भी शिवार्यका ही एक रूप हो । परन्तु विक्रान्तकौरवीय नाटकके कर्ता-" शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्र For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास-प्रसङ्ग। विदां वरिष्ठौ ” आदि पद्यसे शिवायन और शिवकोटिको जुदा जुदा बतलाते हैं । उधर आराधनाकथाकोशमें समन्तभद्रकी जो कथा है उसमें शिवकोटिको एक राजा बतलाया है और उसका समन्तभद्रके द्वारा जैनधर्ममें दीक्षित होना लिखा है । परन्तु इसमें हमें मन्देह है । कारण शिवकोटि अपने ग्रन्थमें कहीं भी समन्तभद्रका उल्लेख नहीं करते हैं, बल्कि इनसे भिन्न जिननन्दिगाण आदि और ही आचार्योंको अपना गुरु बतलाते हैं। यह संभव नहीं कि जैनधर्मका लाभ करानेवाले समन्तभद्रको वे ग्रन्थ रचते समय सर्वथा ही भूल जायँ । इस विषयमें विद्वानोंको विचार करना चाहिए । हमारी समझमें शिवकोटि, शिवार्य और शिवायन एक ही हैं और वे संभवतः समन्तभद्रसे भी १००-२०० वर्ष पहलेके हैं। शाकटायनके कर्ता कौन थे। कुछ समय पहले प्रो० पाठकने एक लेखमें यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था कि शाकटायन व्याकरणके कर्ता श्वेताम्बरजैन थे। इस बातका उलेख उस समय जैनहितैषीमें भी कर दिया गया था । अब जुलाईकी सरस्वतीमें श्रीयुत मुनि जिनविजयजी नामके श्वेताम्बर साधु कहते हैं कि शाकटायन दिगम्बर थे, श्वेताम्बर नहीं। मलयगिरि नामके एक आचार्य श्वेताम्बरसम्प्रदायमें बहुत प्रसिद्ध हो गये हैं। उन्होंने अनेक ग्रन्थ रचे हैं । नन्दिसूत्र नामक आगमकी टीकामें वे एक जगह लिखते हैं For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - “ शाकटायनोऽपि ग्रापनीययतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावादौ भगवतः स्तुतिमेवमाह । ( नन्दिसूत्र पृष्ठ २२, कलकत्ता) लेखक महाशय इससे दो बातें सिद्ध करते हैं, एक तो यह कि शाकटायन दिगम्बर थे । क्योंकि यापनीय संघ दिगम्बर संघों में से एक है जिसका उल्लेख इंद्रनन्दिने अपने नीतिसार में किया है और शाकटायन इसी संघ आचार्य थे। दूसरी यह कि देवसेनसूरिने द्राविडं संघकी उत्पत्ति विक्रमकी मृत्युके ५२६ वर्ष बाद बतलाई है और नीतिसारके अनुसार यापनीय संघ द्राविड़संघसे पीछे हुआ है। अतः शाकटायन ५२६ से पीछे किसी समय हुए हैं। प्रो० पाठक इन्हें जो राजा अमोघवर्ष के समय में बतलाते हैं सो ठीक जान पड़ता है। इस विषय में हमारा निवेदन यह है कि जब तक इस बात का अच्छी तरह निश्चय न हो जाय कि यापनीय संघ या सम्प्रदाय के सिद्धान्त क्या हैं, उसके सिद्धान्तों में और दिगम्बर श्वेताम्बर के सिद्धान्तोंमें क्या अन्तर है तब तक उन्हें दिगम्बर श्वेताम्बरकी अपेक्षा यापनीय कहना ही अधिक युक्तियुक्त जान पड़ता है नीतिसार में इन्द्रनन्दिने यापनीय संघको श्वेताम्बरके ही समान पृथक् सम्प्रदाय माना है और उसे पाँच जैनाभासोंमें गिनाया है। यद्यपि उन्होंने काष्ठासंघको भी जैनाभास ही बतलाया है जो बहुत ही सूक्ष्म- नहींके बराबर - मतभेद रखता है, इसलिए हम इसे भी वैसा समझ सकते थे, परन्तु दर्शनसारके कर्त्ता देवसेनके कथनानुसार यह संघ श्रीकलश नामके श्वेताम्बर से चला है । इससे सन्देह व कि शायद इसके सिद्धान्त दिगम्बरकी अपेक्षा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से अधिक मिलते-जुलते हों । ५५० For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास-प्रसङ्ग। कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पंच उत्तरे जादे। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ॥ ३०॥ अर्थात् विक्रमकी मृत्युके ७०५ वर्ष बाद कल्याण नगरमें श्रीकलश नामक सेवड या श्वेताम्बरसे यापनीयसंघकी उत्पत्ति हुई । इससे यह भी निश्चय हो जाता है कि शाकटायन विक्रम मृत्युके ७०५ वर्षवाद किसी समयमें हुए हैं । लेखकके अनुमानकी अपेक्षा यह समय लगभग दो सौ वर्ष पीछे और भी हट कर राजा अमोघवर्षके समीप-जिसके स्मरणार्थ शाकटायनकी टीका अमोघवृत्ति बनी है-पहुँच जाता है । पाल्यकीर्ति कौन थे ? पार्श्वनाथकाव्यको उत्थानिकामें कवि वादिराजसूरिने लिखा है:कुतस्त्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तेर्महौजसः । श्रीपदश्रवणं यस्य शाब्दिकान्कुरुते जनान् ॥ अर्थात् उस महातेजस्वी पाल्यकीर्तिकी शक्तिका क्या वर्णन किया जाय कि जिसके श्रीपदके सुनते ही लोग शाब्दिक या व्याकरणज्ञ हो जाते हैं। इससे मालूम होता है कि पाल्यकीर्ति कोई बड़े भारी वैयाकरण थे; परन्तु उनके विषयमें हम कुछ भी नहीं जानते हैं । अब शाकटायनप्रक्रियाके मंगलाचरणको और देखिए: मुनीन्द्रमभिवन्याहं पाल्यकीति जिनेश्वरम् ॥ मन्दबुद्धयनुरोधेन प्रक्रियासंग्रहं बुवे ॥ For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ wwwwwwwwwwwww जैनहितैषी इसमें सन्देह नहीं कि यहाँ ' पाल्यकीर्ति । जिनेश्वरके विशेपण रूपमें आया है, परन्तु इसे कोरा विशेषण ही न समझना चाहिए । यह वास्तवमें उस वैयाकरणका नाम भी है जिसका स्मरण वादिराजसूरिने किया है और मुनीन्द्र तथा जिनेश्वर ( जिनदेव जिसका ईश्वर है ) ये उसके सुघटित विशेषण हैं। __ हमारा अनुमान है कि यह शाकटायनका ही वास्तविक नाम होगा । यह बहुत संभव जान पड़ता है कि पाल्यकीर्ति बड़े भारी वैयाकरण थे और वैयाकरणोंमें शाकटायनका नाम बहुत प्रसिद्ध था, इसलिए लोग उन्हें शाकटायन कहने लगे हों । जिस तरह कवियोंमें कालिदासकी प्रसिद्धि अधिक होनेसे पीछेके भी कई कवि कालिदासके नामसे प्रसिद्ध हो गये थे । जैन शाकटायन महाराज अमोघवर्षके समयमें विक्रम संवत् ९०० के लगभग-बना है और उस समय जैनोंमें शाकटायन, स्फोटायन, जैसे नाम नहीं किन्तु अनन्तकार्ति, अमरकीर्ति, पाल्यकीर्ति जैसे नाम रखनेका ही प्रचार था । हमारा विश्वास है कि अधिक खोज करनेसे हमारा यह अनुमान सच निकलेगा। सम्पादक। नोट- यहाँसे आगेके नोट श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजीके लिखे हुए हैं। (१६) ___ एकसंधिभट्टारकका समय । जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय नामका ग्रंथ अय्यपार्य नामके विद्वान् द्वारा शक संवत् १२४ १ अर्थात् विक्रम संवत् १३७६ में रचा गया है। यथाः For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास-प्रसङ्ग। " शाकाब्देविधुवाधिनत्रहिमगौ सिद्धार्थसंवत्सरे । माघे मासि विशुद्धपक्षदशमीपुष्पर्क्षवारेऽहनि ॥ ग्रंथो रुद्रकुमारराज्यविषये जैनेन्द्रकल्याणभाकू । संपूर्णो भवदेकशैलनगरे श्रीपालवन्धूर्जितः" ॥ ३५॥ इस ग्रंथमें लेखकने वीराचार्य आदिके साथ एकसधिभट्टारककाभी उल्लेख निम्नप्रकारसे किया है: “वीराचार्यसुपूज्यपादजिनसेनाचार्यसंभाषितो. यः पूर्व गुणभद्दसूरिवसुनन्दीन्द्रादिनन्थूर्जितः॥ यश्चाशाधरहस्तिमलकथितो यश्चैकसंधिस्ततः।। तेभ्यः स्वाहृत्सारमध्यरचितः स्याज्जैनपूजाक्रमः"॥१-१९॥ इससे प्रकट है कि 'जिनसंहिता ' के कर्ता एकसीधभट्टारक विक्रम संवत् १३७६ से पहले हो चुके हैं। बहुत संभव है कि वे पं० आशाधरजीके समकालीन. १३ वीं शताब्दीमें या उनसे भी कुछ पीछे हुए हों। (१७) हस्तिमल्ल कविके समयादिकी चर्चा । विक्रान्तकौरवीय नाटकादिकके कर्ता हस्तिमल्ल कवि विक्रम् संवत् १३७६ से पहले हो चुके हैं। क्योंकि शक संवत् १२४ १ . में बनकर समाप्त हुए · जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' नामके ग्रंथमें उनके नामादिकका बहुत कुछ उल्लेख पाया जाता है। हस्तिमल्लके पिताका नाम गोविन्द भट्ट था। गोविन्द भट्ट ' देवागमसूत्र' को पाकर उसके सहारेसे सम्यग्दृष्टि ( जैन ) हो गया था। श्री कुमार, सत्यवाक्य, देवरवल्लभ, उदयभूषण और वर्धमान हस्तिमल्लके आई थे । ये सब कवि थे, दाक्षिणात्य थे तथा गोविंदभट्टको स्वर्ण For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - यक्ष प्रसादसे प्राप्त हुए थे। इन सब बातोंका उल्लेख भी जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयमें मिलता है । यथा: ५५४ 66 " तच्छिष्यानुक्रमे यातेऽसंख्येये विश्रुतो भुवि । गोविन्द भट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्ववर्जितः ॥ ३० ॥ ११ ॥ देवागमनसूत्रस्य श्रित्या सद्दर्शनान्वितः । अनेकान्तमतं तत्त्वं बहु मेने विदाम्बरः ॥ १२ ॥ नन्दनास्तस्य संजाता वर्धिताखिलकोविदः । दाक्षिणात्याटयन् तत्र ( जयन्त्यत्र ) स्वर्णयक्षीप्रसादतः १३ श्रीकुमार कविस्तथा (सत्य) वाक्यो देवरवल्लभः । उद्यद्भूषणनामा च हस्तिमल्लाभिधानकः ॥ १४ ॥ वर्धमानक विश्वेति कवीश्वराः षड्भूवन इसके सिवाय ' जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय ' से इस बात का भी पता चलता है कि हस्तिमलकविका कुछ सम्बंध सरण्यापुरिके पाण्ड्यमहीश्वर नामके राजासे रहा है । आश्चर्य नहीं कि इस मरण्यापुरीमें हस्तिमल्लका निवासस्थान भी रहा हो । हस्तिमलने एक मदोन्मत्तहस्तिका, जो उन्हें मारने के लिए आता था, मद उतारा था और एक जिनमुद्राधारी धूर्त्तको एक ही श्लोकसे निर्मंद कर दिया था इस लिए उनका नाम मदेभमल्ल ( मदहस्तिमल ) प्रसिद्ध हुआ और वे कवि चक्रवर्ती भी कहलाते थे । यथा:-- I " सम्यत्त्वे सपरीक्षितुं ( ) मदगजे मुक्ते सरण्यापुरे - श्वास्याः पाण्ड्य महीश्वरेण कपटाद्धन्तुं स्वमभ्यागते । शैलूषं जिनमुद्रधारिणमपास्यासौ मदध्वंसिनाश्लोकेनापि मदेभमल्ल इति यः प्रख्यातवान् सूरिभिः ॥ १६ ॥ -- "> * १ ये सब पद्य हस्तिमल्लकृत विक्रान्तकौरवीय नाटककी प्रशस्ति हैं । जान पड़ता है इन्हें जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयमें उद्धृत कर लिया है | सम्पादक । * इस पद्य नं. १५ का उत्तरार्ध दौर्बलि शास्त्री की प्रतिमें नहीं मिला ।-लेखक For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास प्रसङ्ग। सोऽयं समस्तजगदूर्जितचारुकीर्तिः। स्याद्वादशासनरमाश्रतशुद्धकीर्तिः ॥ जीयादशेषकविराजकचक्रवर्ती। श्रीहस्तिमल्ल इति विश्रुतपुण्यमूर्तिः॥” १७ ॥ इस ग्रंथमें हस्तिमल्लके बाद गुणवीरसूरि और फिर उनके शिष्य पुष्पसेन मुनिका उल्लेख करके, ग्रंथकर्ता पं० अय्यपार्यने अपने पिता 'करुणाकर' को पुष्पसेन मुनिका गृहस्थ शिष्य बतलाया है । इससे मालूम होताहै कि विक्रम संवत् १३७६ (अय्यपार्यके अस्तित्वकाल) से अर्थात् ईसवी सन १३१९ से थोड़े ही वर्ष पहले हस्तिमल्ल कवि मौजूद थे। और इसलिए 'कर्णाटक-जैन-कवि ' नामक पुस्तकके रचयिताने हस्तिमल्लका जो समय ई० सन १२९० बतलाया है वह प्रायः ठीक जान पड़ता है । बहुत संभव है कि आदिपुराणका कर्ता हस्तिमल्ल और विक्रान्तकौरवीय नाटकादिकका कर्ता हस्तिमल्ल, दोनों एक ही व्यक्ति हो । उक्त आदिपुराणके देखनेसे इसका भले प्रकार निर्णय हो सकता है । हस्तिमल्ल गृहस्थ विद्वान् थे, ऐसा नेमिचंद्रकृत ' प्रतिष्ठातिलक' नामक ग्रंथकी प्रशस्तिके निम्नलिखित श्लोकसे विदित होता है: "परवादिहस्तिनां सिंहो हस्तिमल्लस्तदुद्भवः। गृहाश्रमीबभूवाहच्छासनादिप्रभावकः ॥” १३॥ अंजनापवनंजय नाटकके अन्तमें जो प्रशस्ति दी है और जिसका उल्लेख जैनहितैषीके पिछले खास अंकमें सम्पादक द्वारा किया गया है उसकी लेखनप्रणालीसे भी हस्तिमल्ल कविका गृहस्थ होना पाया जाता है। Jain Eğucation International For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ जैनहितैषी (१८) रत्नकरण्ड और आयितवर्मा। मिस्टर बी. लेविस राइस साहबने अपनी 'इन्स्क्रिप्शन्सऐट श्रवणबेल्गोला' नामक पुस्तककी भूमिकामें रत्नकरण्ड श्रावकाचारके, सल्लेखनासम्बन्धी, उपसर्गे दुर्भिक्षे........' इत्यादि सात श्लोकोंको उद्धृत किया है और इस रत्नकरण्डको 'आयितवा' का बनाया हुआ लिखा है-( Ratna Karandaka a work by Ayita varmma ) । आयितवा कौन थे और कत्र हुए, इसका कुछ उल्लेख नहीं किया । परन्तु आगे चलकर स्वामी समन्तभद्रका उल्लेख करते हुए उन्हें, ‘राजावलीकथे' के आधारपर, 'रत्नकरण्ड' का कर्ता बतलाया है और लिखा है कि उन्होंने पुनर्दीक्षा लेनेके पश्चात् इस ग्रंथका सम्पादन किया है। संभव है कि 'आयितवर्मा' समन्तभद्रका ही नामान्तर हो। यदि ऐसा हुआ तो यह भी समन्तभद्रके क्षत्रियत्वका द्योतक हो सकता है। विद्वानोंको रत्नकरण्डकी प्राचीन प्रतियोंपरसे तथा समन्तभद्र स्वामीसे पीछेके बने हुए ग्रंथादिकोंके उल्लेखवाक्योंपरमे इस विषयका अच्छी तरहसे निर्णय करना चाहिए। स्वामी समन्तभद्र पदद्धिक थे । "जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' नामक ग्रंथके निम्न श्लोकसे प्रगट होता है कि मूलसंघरूपी आकाशके चंद्रमा स्वामी समन्तभद्राचार्य 'पदर्द्धिक' थे, अर्थात् चारणऋद्धिके धारक थे: For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर-जन्म। ५५७ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwrammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm xwwwinwww " श्रीमूलसंघव्योमेन्दुर्भारते भावितीर्थकृद्देशे समन्तभद्रार्यो जीयात्प्राप्तपदद्धिकः ॥ ३०-२" ॥ इस श्लोकमें यह भी बतलाया है कि समन्तभद्रस्वामी आगेको इस भारतवर्षमें तीर्थकर होंगे । नहीं कह सकते कि ग्रंथकर्ताका यह कथन कहाँ तक सत्य है और किस आधारपर अवलम्बित है; परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उस वक्त ( शक सं. १२४१ ) के जैनोंका ऐसा विश्वास जरूर था । और ये सब बातें स्वामी समन्तभद्रके असाधारण महत्त्वकी सूचक हैं।। जुगलकिशोर मुख्तार। नरजन्म। .. (१) उदयमें तीन मित्रोंके समाई, चले परदेशको करने कमाई। पुनः धन साथमें अपने लिये वे, . कहीं व्यापार करने चल दिये वे ॥ (२) ठिकाने पर पहुँच वे सब गये जब, किया हरएकने धंधा शुरू तब । . . रहे व्यापार करते कुछ समय सब, हुआ परिणाम क्या सुन लीजिए अब ॥ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ जनहितैषी (३) बहुत सा एकने तो धन कमाया, सकल दारिद्रको उसने भगाया। . न खोया दूसरेने कुछ, न पाया, बचा निज मूलधन वह लौट आया। (४) न पूछो तीसरेका हाल भाई, निजी पूँजी सभी उसने गँवाई । कही है बात यह लौकिक यहाँपर, मगर तुम धर्मपर देखो घटाकर ॥ (५) मनुजका मूलधन नर-जन्म मानो, मिला यदि मोक्ष, तो तुम लाभ जानो। वृथा जो मूलधनको हैं गँवाते, सदा तिर्यंच गति या नरक पाते । -संशोधक। जैनसिद्धांतभास्कर। (समालोचना) जिनसेन और गुणभद्रके लेखके बाद कोई ६ पेजमें श्रुतस्कन्ध यंत्रका परिचय है। पहले एक कविता है जो निरी तुकबन्दी है। शायद उसके रचयिता स्वयं ही नहीं जानते हैं कि श्रुतस्कंध क्या चीज़ है; पर साहसकी बात है कि उसका परिचय दूसरोंको कराने चले हैं। परिचयके गद्यलेखको पढ़कर भी कोई यह नहीं जान सकत For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तभास्कर। ५५९ है कि श्रुतस्कन्धका अर्थ क्या है, अंग किसे कहते हैं, पूर्वका अर्थ क्या है, श्लोक, पद, चूलिका आदि किन्हें कहते हैं । यह विषय बहुत ही महत्त्वका और सर्व साधारणके लिए दुर्जेय हो रहा है। सम्पादक महाशयकी बड़ी कृपा होती, यदि वे इसका विस्तृत विवरण प्रकाशित कर देते; परन्तु भला वे इतना बड़ा परिश्रमका काम क्यों करने चले ? बिना परिश्रमके ही जो धुरन्धर विद्वान् बननेके हथखंडे जानता है वह ऐसे झगड़ेमें क्यों पड़ने लगा ? तब इस लेखमें लिखा क्या है ? महावीर भगवान्से लेकर भट्टारकोंकी स्थापना होने तककी अट्टसट्ट प्रमाणरहित बातें । एक जगह लिखा है कि " जिस समय बौद्धोंका प्रतापसूर्य मध्याह्नावस्थापर था, जिस समय बौद्धाचार्य जैनधर्मके शास्त्रों को जला जलाकर और नदियोंमें डुबोकर नष्ट भ्रष्ट कर रहे थे, मन्दिर और मूर्तियोंको तोड़ फोड़ कर अपनी मूर्तियोंकी स्थापना कर रहे थे ठीक उसी समय जैनधर्मके पुनरुद्धारक प्रधानरक्षक न्यायमार्तण्ड श्रीमदकलङ्कका अवतार हुआ ।" यह सच है कि भगवान् अकलङ्कने बौद्धधर्मके सिद्धान्तोंका खण्डन किया है। उनके साथ वादविवाद करनेकी बात भी सत्य है; परन्तु इसके लिए कोई प्रमाण नहीं है कि बौद्धवर्मके अनुयायी जैनधर्मके शास्त्रोंको जलाते या बहाते थे अथवा मन्दिर और मूर्तियोंको तोड़ते फोड़ते थे। अकलङ्कस्वामीका समय भी ऐसा नहीं था कि बौद्धधर्म जैनधर्म पर किसी तरहके अत्याचार कर सके । उस समय तक उस प्रान्तमें जैनधर्मका पूरा मोर था; वह वहाँका राजधर्म और प्रधान धर्म था । सम्पादक For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी महाशयकी जिन विन्सेंट स्मिथ सा० पर अगाध श्रद्धा हैं उन्होंने भी लिखा है कि ई० सन्के पहले १००० वर्षों में जैनधर्म वहाँका मुख्य धर्म रहा है। यह ठीक है कि उस समय वहाँ बौद्धधर्म भी प्रचलित था और जैनधर्मके साथ उसके वादविवाद भी होते होंगे; परन्तु वह इस योग्य न था कि जैनधर्म पर किसी तरहका अत्याचार कर सके । इसके सिवाय बौद्धधर्मका इतिहास इस तरहके अत्याचारोंसे बहुत ही कम कलङ्कित है । ग्रन्थ जलाना या मन्दिर तोड़ना, यह उसकी नीति न थी । इतिहास. ज्ञताका दम भरनेवाले एक सम्पादककी कलमसे इस प्रकारकी बेलगाम बातें न निकलना चाहिए। उसे प्रत्येक शब्दको सोचसमझकर प्रमाणसहित लिखना चाहिए। आगे इसी तरहकी एक बात फीरोजशाह तुगलकके दरबार में नैनगुरुओंके रहने लगनेके विषयमें लिखी है; परन्तु उसके लिए भी कोई प्रमाण नहीं दिया गया है । टिप्पणीमें यह प्रतिज्ञा के गई है कि कोल्हापुरके भण्डारमें उस समयकी जो बादशाही सनदे हैं वे आगेके किसी अंकमें प्रकाशित की जायँगी। परन्तु तीन वर्ष आधिक हो गये, अबतक भी उनके प्रकाशित होनेका मुहूर्त नहीं आया है और शायद कभी आयगा भी नहीं । भास्करके तीनों अं. कोंमें इस तरहकी बीसों प्रतिज्ञायें आपको मिलेंगी; परन्तु हमारी समझमें वे केवल मौका टाल देनेके लिए और अपनी बहुज्ञता बतलानेके लिए लिखी जाती हैं । चलते पुर्ने नये सम्पादकोंको आपका यह नया हथखंडा अवश्य सीख लेना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तभास्कर। परिचयवाले लेखकी अन्य निरर्थक बातोंकी आलोचनाकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती । इसके आगे दो तीन छोटे छोटे लेखोंके बाद · अमोघवर्ष और उनके समयके आचार्य' शीर्षक लेख है। यह लेख विशेषतः अँगरेजी लेखोंके आधारसे लिखा गया है; कहीं कहीं जैनहितैषीके लेखकी भी छाया ली गई है। इसमें भी सम्पादक महाशयने जितनी बातें निजकी बुद्धिसे लिखी हैं, वे सब ऊँटपटांग हैं । डा० भाण्डारकरने राष्ट्रकूट या राठौरोंको द्रविड़ जातिकी एक कृषक जाति बतलाया है; पर यह आपको पसन्द नहीं । आप उन्हें 'सर्वमान्य सर्वोच्च क्षत्रियवंशीय' मानते हैं। खेद इतना ही है कि बडे बडे विशेषणविशिष्ट शब्दोंके लिखनेके सिवाय इस विषयमें आप कोई पुष्ट प्रमाण नहीं देते हैं। आप कहते हैं कि गोविन्द तृतीयकी पुत्रीका ब्याह बंगनरेश धर्मपालसे और अकालवर्षका हैहयवंशी चेदिनरेशसे हुआ था, इस कारण वे क्षत्रिय थे । परन्तु क्षत्रियोंको लड़की देने या उनकी लड़की लेनेसे कोई क्षत्रिय नहीं हो जाता है । इस विषयमें यहाँके राजा लोग प्रायः स्वतंत्र हे हैं । यहाँतक कि शक और म्लेच्छ राजाओंके साथ भी यहाँके राजाओंका सम्बन्ध होता रहा है । बहुतसे विदेशी राजा यहाँ राज्य स्थापित करके कुछ समयके बाद क्षत्रियोंमें ही परिगणित होने लगे थे । कनिष्क हुबिष्क आदि ऐसे ही राजाओंमेंसे थे । यह असंभव नहीं है कि राष्ट्रकूट लोग पहले द्रविड़ जातीय रहे हों और फिर अपने बढ़ते हुए अपरिमित बल और वैभवके कारण क्षत्रियोंमें गिने जाने लगे हों; साथ ही शिला For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जैनहितैषी लेख लिखनेवाले विद्वानोंने उनका सम्बन्ध यदुवंश या सोमवंशने मिला दिया हो । इन्हें शुद्ध क्षत्रिय सिद्ध करनेके लिए डा० भाण्डा रकरकी युक्तियोंका सप्रमाण खण्डन करनेकी आवश्यकता है।। . एक जगह महाराजा अमोघवर्षकी प्रशंसा करते हुए आप लिखते हैं कि “ यदि यह कहा जाय कि उस समय सारे भारतवर्ष आपका एक-छत्र राज्य था तो हमारी समझमें कुछ अत्युक्ति न होगी।" आपकी समझमें अत्युक्ति तो कोई चीज़ ही नहीं है। फिर वह होगी ही क्यों ? और आप इतिहास थोड़े ही लिखते हैं। आल्हा या पँवारा लिखते हैं उसमें अत्युक्तिका डर ही क्या ? आप तो उन्हें भारत ही क्यों भारततर देशोंके भी सम्राट् बतला देते तो कुछ हर्ज न था । परन्तु वास्तवमें अमोघवर्ष महाराजके सिवाय उस समय भारतमें अनेक स्वतन्त्र राजा थे जो उनकी आज्ञा न थे। यह अवश्य है कि वे बड़े राजा थे और अनेक राज उनके आज्ञाकारी थे। ___ पृष्ठ ७६ में आपने अपनी बुद्धिसे एक नया आविष्कार किय है । वह यह कि गणितसारसंग्रहको आपने जिनसेनस्वामीके गुरु, वीरसेनाचार्यका बनाया हुआ बतलाया है। पर इसे सिवाय मूर्खताके और क्या कहा सकते हैं । गणितसारसंग्रह छपकर प्रकाशित हो चुका है । वह वीरसेनका नहीं किन्तु महावीराचार्यका रचा हुआ है और ये महावीर अमोघवर्षके ही समयमें हुए हैं । भास्करके इसी अंकमें जो सेनसंघकी पट्टावली प्रकाशित की गई है उसमें भी For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्तभास्कर । ५६३ इनका नाम आया है। पर ऐसी छोटी छोटी बातोंतक बड़े सम्पादकोंकी दृष्टि क्यों पहुँचने लगी ! इसी सम्बन्धमें आपने गणितसारसंग्रहके कुछ मंगलाचरणके श्लोक और उनका अर्थ दिया है । अर्थ पढ़ने ही योग्य है । क्या मजाल जो आपकी समझमें कुछ भी आजाय ! किसी ऐसे महात्मासे अर्थ लिखवा लिया गया है जो विवेकसे और जैनधर्मसे सर्वथा ही अपरिचित है | मंगलाचरणमें जितने विशेषण हैं वे सब जिनेन्द्रदेव और राजा अमोघवर्ष दोनों में घटित होते हैं, पर इसको समझे कौन ? इसके लिए बुद्धि और परिश्रम दोनों चाहिए । आगे एक जगह लिखा है कि “ जिनसेनस्वामीने कई स्थानोंमें बौद्धोंको पराजित करके विजयकी डंका बजाई थी । " पर इसके लिए कोई प्रमाण ? केवल आपके कहने से यह मान लिया जाय ? जिनसेनस्वामीकी जिस प्रकृतिका परिचय उनके ग्रन्थोंसे मिलता है, वह तो वादविवादमें किसीको पराजित करनेवाली नहीं मालूम होती है । अमोघवर्ष महाराजने अन्तमें विवेकपूर्वक राज्य छोड़ दिया था, इसके लिए तो प्रमाण हैं; परन्तु वे मुनि हो गये थे, इसका सम्पादक महाशयके पास क्या प्रमाण है ? अकालवर्ष गुणभद्रको अपना गुरु मानते थे, इसका प्रमाण भी आत्मानुशासनकी टीकापरसे उद्धृत करना चाहिए था । · आगामी अकसे भास्करके २ - ३ अंककी समालोचना शुरू होगी। For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जैनहितैषी विविध प्रसङ्ग। १ सेठीजी पर एक और अन्याय! सेठीजी पर जयपुर राज्यकी ओरसे एक अन्याय तो हो ही रहा था कि अब उनपर एक दूसरा अन्याय होना शुरू हुआ है। यह दूसरा अन्याय और किसीकी ओरसे नहीं, स्वयं जैनसमाजके कुछ लोगोंकी आरसे-और सो भी धर्मात्माओंकी ओरस होने लगा है । यदि पहला अन्याय राज्यमदान्धताका परिणाम है तो दूसरा कट्टर धर्मान्धताका । पहलेकी अपेक्षा दूसरा अन्याय और भी अधिक कष्टकर है । कारण, यह उन लोगोंके द्वारा हो रहा है जो सारे संसारको क्षमा, दया, समताका पाठ पढ़ानेवाले उसी जैनधर्मके जानकार समझे जाते हैं जिसका कि प्रचार करनेके लिए सेठीजीने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था। इन अन्यायोंसे बचनेका कोई उपाय भी नहीं दिखलाई देता । जब बारी ही खेतको खाने लगी तब खेतकी रक्षाकी आशा ही क्या की जा सकती है ! राजा प्रजाकी रक्षाके लिए है। परन्तु आज वह अपना कर्तव्य भूल रहा है। धर्म-जीव मात्रको अपनी शान्तिप्रद छायाके नीचे रखनेवाला उदार धर्म-आज इतनी संकीर्ण हो गया है कि अपनी एक छोटीसी परिधिके बाहरके तमाम लोगों पर घृणा और तिरस्कारकी बौछार करता हुआ उनकी रक्षा करना तो दूर रहा. उनकी भलाईके मार्गमें काटे बिछाता है । इस तरह राजा और धर्म दोनोंकी ही For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm विरुद्ध गति देखकर सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि सेठीजी; अब रहीम चुप लै रहो, समुझि दिननको फेर। जब दिन नीके आय हैं, बनत न लागे बेर॥ २ मरेको मारे शाह मदार। जिस समय सेठीजी स्वतंत्र थे, उनकी लेखनी और उनकी जिह्वा स्वाधीन थी, उस समय मालूम नहीं इन धर्मात्मा सज्जनोंकी यह बहादुरी कहाँ जा छुपी थी जो इस समय उनपर लगातार कठिन प्रहार कर रही है ! उस समय सत्यवादी भी था, उसके वर्तमान सम्पादक तथा उचितवक्ता नामधारी लेखक भी थे और सत्यवादीको छोड़कर विचार प्रकाशित करनेके दूसरे साधनोंकी भी कमी न थी। फिर मालूम नहीं यह सारा जोश जो आज एकाएक उबल आया है उस समय क्यों शान्त हो रहा था । सेठीजी जिस पंथके आज करार दिये गये हैं, गिरिफ्तार होनेके पहले भी वे उसी पंथके थे । उनके द्वारा जैनसमाजके श्रद्धानके बिगड़नेका-. मिथ्यात्वकी वृद्धि हो जानेका-जो डर आज इन धर्मात्माओंके सामने मुहँ फाड़ रहा है, उनकी मुक्त अवस्थामें वह इससे भी अधिक भयावना था । क्योंकि उस समय वे अपने विचारोंका खूब स्वाधीनताके साथ प्रचार करते थे, अपने विद्यालयके सैकड़ों लड़कोंको शिक्षा देते थे और सुयोग्य समझे जाकर इन्दोरके जैन हाईस्कूलके संचालक चुन लिये गये थे । बात बातमें मिथ्यात्वकी छायासे डरनेवाले हमारे समाजके धर्मात्मा महाशयोंने यदि For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ जैनहितैषी सेठीजी पर उस समय कोई वार करनेकी आवश्यकता न समझी थी, तो थोड़े समयके लिए और भी उन्हें अपने जोशको दबाये रहना था । जिस समय वे एक बड़े भारी कष्टों पड़े हैं, उनकी लेखनी और वाक्शक्ति पराधीन है, उस समय उनको कुंढापंथी, मणिधरसर्पतुल्य, धर्महीन आदि कहकर उनकी जीभर निन्दा करना और सारे समाजको उनके विरुद्ध भड़काना अनुचित ही नहीं अतिशय निन्द्य कर्म है । मरेहुए पर या बेवशपर वार करना कोई बहादुरीका कार्य नहीं है। इस तरहके कर्म पर धर्मकी और सम्यग्दृष्टित्वकी चाहे जितनी भड़कदार कलई चढाई जाय, पवित्र दिगम्बर सम्प्रदायकी चाहे जितनी दुहाई दी जाय, पर इसका कालापन कभी दूर न होगा ! धर्मात्मा कहनेवालोंके लिए यह लांछनके सिवा और कुछ नहीं हो सकता। ३ हमारा नम्र निवेदन । सेठीजी कभी न कभी तो छूटेंगे ही । एक न एक दिन वे विपत्तिसे मुक्त होगें और फिर एक बार अपने प्यारे जैनधर्मकी और जैनसमाजकी सेवा करनेके लिए तत्पर होंगे। तब सत्यवादीके सम्पादक महाशयसे तथा उनकी मण्डलीके सज्जनोंसे हमारी प्रार्थना है कि इस समय तो आप सेठीजी पर और जैनसमाजपर कृपा करें । यह समय उनकी निन्दा करनेका नहीं है। अभी तो धार्मिकदृष्टि या करुणादृष्टि जो कुछ आपके पास हो वही उनपर करते रहें । इस बीचमें उनको मिथ्याती या जैनाभास सिद्ध करनेकी जो कुछ तैयारी आप कर सकते हैं कर रक्खें । इसके बाद ज्योंही For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। ५६७ वे छूटकर आवें, त्योंही-जरा भी देर न करके–स्वागतके रूपमें ही उनपर अपने कुंढापंथी आदि सुन्दर सुन्दर शब्दोंकी पुष्पवृष्टि करना शुरू कर दें, इसके लिए आपको कोई न रोकेगा । पर यदि इतनी लम्बी प्रतीक्षा करनेका धैर्य आपमें न हो, ये शब्द बाहर आनेके लिए आपके मस्तकमें ऊधम ही मचा रहे हों, तो सेठीनी अकेले ही तो नहीं हैं। उनके हमखयाली और भी तो बहुतसे हैं। जिन्हें आप उन्हीं जैसे विचार रखनेवाले समझते हों-वर्णीनीका. वर्ण, मुख्तारकी मुख्तारी, लट्टेका लट्ठ, भानुमतीका कुनबा आदिका इशारा आप कर ही चुके हैं-इन्हीं से किसी एक पर-या सभीपर अपना जोश निकालना शुरू कर दीजिए। इससे आप भी शान्त हो जायँगे और इधर, इस आपसी फूटसे सेठीजीका भी कुछ अनिष्ट न होगा। आपकी धार्मिक और करुणादृष्टिका पृथक्करण करनेवाली सक्ष्म दृष्टि में चाहे यह बात न आवे, परन्तु आपके लेख इस समय बहुत ही बुरा असर डाल रहे हैं। सेठीजी पर धार्मिक नहीं, करुणादृष्टि करके ही इन्हें बन्द कर दीजिए। इन लेखोंमें हमारे विषयमें जो कुछ लिखा गया हैं उसका उत्तर देनेकी हम आवश्यकता नहीं देखते । जैनसमाजमें काम करते करते हमें सहनशीलताका यथेष्ट अभ्यास हो गया है। सेठीजीके लिए हम इससे भी अधिक सहमः करनेके लिए तैयार हैं। हमारी समझमें, उनके पंथ या धर्मका निर्णय इस तरहके वादविवादोंसे नहीं हो सकता। अभीतक जैनधर्म और जैनसमाजके लिए उन्होंने जो कुछ किया है और आगे इससे सैकड़ों गुणा जो कुछ वे करेंगे, उससे यह निर्णय होगा। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी ४ व्याख्यानवाचस्पति पं० लक्ष्मीचन्द्रजीका कृपापत्र । ____ गत वैशाख मासमें जब पं० लक्ष्मीचन्द्रजी इन्दौरके उत्सवमें पधारे थे तब सहयोगी जैनमित्र और जैनतत्त्वप्रकाशकने उनके व्याख्यानोंके सम्बन्धमें कुछ आक्षेप किये थे। उस समय हितैषीके गत ५-६ अंकमें हमने भी एक नोट लिखा था। उस नोटका संक्षिप्त आशय यह था—जैसे देवता वैसे पुजारी। जैनसमाज जैसे मूर्खसमाजके लिए पं० लक्ष्मीचन्द्रजी जैसे व्याख्याताओंके व्याख्यान ही मनोरंजक हो सकते हैं; तत्त्वोंके व्याख्यान सुननेकी उसकी योग्यता नहीं है । इत्यादि।" उक्त नोटमें पण्डितजीकी प्रशंसाका एक शब्द भी न था, बल्कि एक तरहसे उनके व्याख्यानोंपर कटाक्ष था । परन्तु पाठक यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि व्याख्यानवाचस्पति विद्यासागर आदि बड़ी बड़ी पदवियोंसे विभूषित पण्डितजीने उस नोटको अपनी प्रशंसा करनेवाला समझ लिया और इस खुशीमें हमारे पास एक सन्तोषपत्र लिख भेजनेकी कृपा की । पण्डितजीकी इस कृपाको हम सादर स्वीकार करते हैं और अपने पाठकोंकी जानकारीके लिए उक्त पत्रकी अक्षरशः नकल यहाँ प्रकाशित किये देते हैं । पण्डितजीकी योग्यताका और उनके हृद्त भावोंका इससे अच्छा चित्र शायद ही कहीं देखनेको मिले । हमें आशा है कि पाठक इससे जैनसमाजके पण्डितोंके मर्मको समझनेमें बहुत कुछ समर्थ हो सकेंगे । पत्रमें टीका टिप्पणी करनेकी बहुत कुछ गुंजाइश थी; परन्तु यह काम हमने अपने पाठकोंके लिए छोड़ देना ही उचित समझा है। पण्डितजी हमें For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। क्षमा करें जो हम उनकी आज्ञाके बिना इस पत्रको प्रकाशित कर देते हैं। इसके प्रकाशित होनेसे हमारी समझमें जैनसमाजका बहुत कल्याण होगा और आपके अभिप्राय भी लोगोंतक पहुँच जायेंगे। अन्तमें हम इतना निवेदन और भी कर देना चाहते हैं कि पत्रमें जो इस तुच्छ लेखकके लिए बड़े बड़े — वर-वर' युक्त विशेषण दिये गये हैं, यह उनके योग्य सर्वथा नहीं है और न इसने कभी आपकी प्रशंसामें कुछ लिखा है जिसके बदलेमें ये दिये गये हैं। इसे दुःख है कि आपने हितैषीके नोटका अभिप्राय न समझा और भूलसे इसके लिए इतने बहुमूल्य शब्द खर्च करनेका परिश्रम उठाया यतोधमस्ततो जयः। प्रियवर मित्रवर भ्रातृवर उपमावर लायकवर साहित्यवर अनेक साइंसवर इतिहासवर नीतितर श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी योग्य लशकरसे लखमीचन्दकेन धर्मस्नेह मालूम होय अपरंच हे महाशय जैनहितेषी पत्र आपका आया पढ़कर मयूवरमेघवत् आनन्द पाया। आगे आलूपंथी लोगोंने तथा मुरैनापंथी लोगोंने तथा १ ऊपर १८ हजार शीलपालक ब्रह्मचारी लोगोंने मिलकर मेरे ठीक जैनसिद्धांतानुकूल व्याख्यानपर जो मेरे दिलको दुखाया उस दुःखको वचनसे कह नहीं सकता परंतु आज जनहितैषीमे किंचित् मेरे मनकी माफिक आपके उत्तर देनेमे जो मेरे चित्तमे आल्हाद हुवा वचनसे कह नहीं सकता। धन्य हे आपको कि जो मेरे दुःखित चित्तको सुखी किया आगे हे प्रियवर मैंने सामान्य वा विशेष हजारो व्याख्यान ( दयाधर्म ) को पुष्ट करते हुवे जैनसिद्धांतानुकूल तथा शैव वैश्नव वेदांनुकूल तथा कुरान हदीस वाइविल तथा २० लाष. वर्षके प्रमाण देके जैनधर्मको पुष्ट करते हुवे व्याख्यान दिये लाखो आदमी मुसलमान शिया सुनत ७२ तथा हिंदुवोमे ब्राह्मण वैश्नव शैवी वेदांती इसाई ३ For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - ओर अनेक जाति के लोगोने जैनधर्मकी तथा मेरी प्रशंसा करी वो प्रशंसा मेरे मुखसे मे कह नहीं सकता अंतमें ये कह देते हैं कोई देवता सिद्ध है मेने परमतके १४ पुराण ५ स्मृति २ संहिता २ वेद ४ उपपुराण वाल्मीक रामायण देवी भागवत सवा लक्ष महाभारत ३ वार ओल्ड ओर न्यू टेष्टमेंट वाइविल कुछ हदीस कासासुल अंविया तथा औलिया तथा सैकड़ो इतिहास तथा साइंस से जैनमतकी प्राचीनता तथा गुवालियर भंडारके सर्व ग्रंथ न्याय सिद्धांतोको छोड़करके १ लाख श्लोक स्वेतांबर मतके ये सर्व ग्रंथ मेरे देखे हैं हजारो लोक मैने छांटे हैं हजारो कंठ किये हैं ५ हजार श्लोक जैनमतका १ हजार परमतका ६ हजार भाषाके कंठ किये हैं ४५ वर्ष से कोशिस कर रहा हूं ४५ हजार दीका (रु० ? ) हर्जा उठाया है शास्त्राभ्यास में भला आप सोचिये में अन्यथा प्रकार सभामे व्याख्यान कैसे दे सकता हूं मेरे उपदेशसे हजारो स्त्रीपुरुषोने दयाधर्ममे प्रवर्तन किया हजारो अन्यमतियोने तथा मुसलमानोने दया पाली है वस मे आप सारसे साइंस के विद्वानको जादा क्या लिखूं येही संक्षेप वोहत है ५७० एसे शास्त्रानुकूल व्याख्यानको इटाये पंथी वा मुरेनेपंथी वा ब्रह्मपंथी निंदा करै ये मेरे भाग्यका दोष है ये मुझमे अवश्य दोष है कि कोई जैन पूजाप्रतिष्ठा मे आदमी भेजके मुझे बुलालेवे और उस वकतमे ये भी आजाय तो इन लोगो के व्याख्यान कोई पसंद नहीं करता तब इनके कलदारोकी आमदनीमे फरक पड़जाता है सब लोग मुझे देखते हैं जैसा अभी वैसाख वदीमे इंदोरमै मेरी सभामे १२ बजेतक ४ हजार आदमी इनकी सभामे एक दिन ४० आदमी ओर भी अनादर इसी वातपर जलकर जैनमित्रमे छपा दिया घरका गजट हे चाहे जो छपावै मेरे भाग्यसे आप उत्तरदाता खडे हो गये मैं आपको धन्यवाद देता हूं आप निष्पक्षपाती हो आपके जैनहितेषी पदार्थविद्यासे भरा उसकी तारीफ लिख नही सकता सरस्वती प्रशंसा करती है इस संक्षेप पत्रके पढ़नेमे तकलीफ होगी परंतु मेरी दिली बीमारी जाती रहेगी बस कृपादृष्टि रखना क्षमा चाहता हूं मेरा ठिकाना लखमीचंद पदमचंद बाजार कसेरा ओली लशकर गुवालियर आगे आपकी जैनहितेषी बराबर जैनमे कोई गजट नही साइंस भरा रहता है। सरस्वती भी प्रशंसा करती है For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रसंग। ५७१ ma आगे विषय कषायके लंपटी इटायेवाले कहते है आलूखानेका अष्टमी १४ को हरीखानेका उपदेश देवो ब्रह्मजी कहते है सर्वजातिके साथ शामिल बैठके भोजन करनेका उपदेश करो कोइ उन्मार्गपंथी कहते हे सम्यक्तीको सप्तव्यसनके सेवनका उपदेश करो मे इनका उलटा उपदेश करता हूं इस सववसे उनका कलदार मारा जाता है मिती द्वितिय वैसाखवदी १ ___L. Chand. __५ सेठीजीका मामला। पं० अर्जुनलालजी सेठीको एक वर्षसे अधिक हो गया, पर उनके कष्टका अन्त नहीं आया। इस विषयमें सहयोगी प्रतापने एक बहुत अच्छा नोट किया है। वह लिखता है " यह आश्चर्यकी बात है कि अर्जुनलालजी एक वर्षसे उसी प्रकार जेलमें सड़ रहे हैं पर उनके विषयमें कुछ भी प्रकट नहीं किया जाता । हमारी दृष्टिसे तो ज्यों ज्यों समय बीतता जाता है-त्यों त्यों उन्हें हर प्रकार पूर्ण निर्दोष मान लेनेमें हमारी हिचकिचाहट दूर होती जा रही है। यदि वे निर्दोष न होते तो जयपुर इतनी नपुंसकता कभी प्रकट न कर सकता कि बारबार चुनौती दिये जाने पर भी वह चुप रहता और उनका कोई दोष सिद्ध न करता । हम अधिक कालतक इस सन्देहमें भी नहीं रह सकते कि उसकी चुप्पी अत्याचारका दूसरा रूप नहीं है और अत्याचारीकी चुप्पी उसकी कायरताके सिवा और कुछ भी नहीं होती । हाँ, भारतसरकार भी कुछ नहीं सुनती । और हम नहीं जानते कि वह अपने इस मौनका कौनसा नैतिक कारण बतला सकती है।" For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ था। अस ग्रन्थनिसहनी, जैनहितैषी__ . बिलकुल नये ग्रन्थ । ___ अष्टसहस्री। न्यायका प्रसिद्ध ग्रन्थ विद्यानन्दस्वामी विरचित। तीन चार वर्षसे छप रहा था। अभी हालही छपकर तैयार हुआ है। विद्वानोंके कामकी चीज़ है।शहरोंके मन्दिरोंके भंडारमें अवश्य रखना चाहिए। जो भाई संस्कृत नहीं जानते, वे इसे भाषाका समझकर न मँगा लेवें। मूल्य तीन रुपया। श्रावकधर्मसंग्रह। लगभग २५-३० श्रावकाचारके-ग्रन्थोंके आधारसे पं० दरयावसिहजी सेििधयाने इसकी रचना की है । निर्णयसागरमें सुन्दरतासे छपा है । श्रावकाचारसम्बन्धी तमाम बातों पर इसमें प्रकाश डाला गया है । भाषा सबके समझने योग्य है । अगस्तके अन्ततक रवाना हो सकेगा । मूल्य जिल्दका २१) सादीका २) रुपया । पंचमंगल अर्थसहित ।। - जैनपाठशालाओंमें पढाये जानेके लिए यह पुस्तक तैयार कराई गई है। पहले मंगलपाठ, फिर कठिन कठिन शब्दोंके अर्थ, फिर सरल भावार्थ, इसके बाद प्रश्नावली, इस क्रमसे तैयार किया गया है। प्रत्येक मंगलके अन्तमें उसका सार भाग भी दे दिया है। अर्थ कई विद्वानोंकी सम्मतिसे लिखा गया है । मूल्य तीन आना। ... सागारधमामृत भाषाटीकासहित । - इस प्रसिद्ध श्रावकचारकी टीका पं० लालारामजीने सरल हिन्दीमें की है। इसमें ऐसी बींसों बातें मिलेंगी जो और श्रावकाचारोंमें नहीं पाई जाती हैं। मूल्य १॥) रु० मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, . . हीराबाग पो० गिरगांव-बम्बई. For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) चित्रशाला स्टीम प्रेस, पूना सिटीकी अनोखी पुस्तकें। चित्रमयजगतः-यह अपने ढंगका अद्वितीय सचित्र मासिकपत्र है। "इले. स्ट्रेटेड लंडन न्यूज" के ढंग पर बड़े साइजमें निकलता है। एक एक पृष्ठमें कई कई चित्र होते हैं । चित्रोंके अनुसार लेख भी विविध विषयके रहते हैं । साल भरकी १२ कापियोंको एकमें बंधा लेनेसे कोई ४००, ५०० चित्रोंका मनोहर अलबम बन जाता है । रंगीन चित्र भी इसमें रहते हैं । आर्टपेपरके संस्करणका वार्षिक मुल्य ५॥) डॉ० व्य० सहित और एक संख्याका मूल्य ॥) आना है। साधारण कागजका वा० मू० ३॥) और एक संख्याका - ) है।। राजा रविवर्माके प्रसिद्ध चित्र-राजा साहबके चित्र संसारमें नाम पा चुके हैं । उन्हीं चित्रोंको अब हमने सबके सुभीतेके लिये आर्ट पेपरपर पुस्तकाकर प्रकाशित कर दिया है । इस पुस्तकमें ८८ चित्र मय विवरणके हैं। राजा साहबका सचित्र चरित्र भी है । टाइटल पेज एक प्रसिद्ध रंगीन चित्रसे सुशोभित है । मूल्य है सिर्फ १) रु० । चित्रमय जापान-घर बैठे जपानकी सैर। इस पुस्तकमें जापानके सृष्टिसौदर्य, रीतिरवाज, खानपान, मृत्यु, गायनवादन, व्ययसाय, धर्मविषयक और राजकीय, इत्यादि विषयोंके ८४ चित्र, संक्षिप्त विवरण सहित हैं । पुस्तक अव्वल नम्बरके आर्ट पेपर पर छपी है । मूल्य एक रुपया । सचित्र अक्षरबोध-छोटे २ बच्चोंके वर्णपरिचय करानेमें यह पुस्तक बहुत नाम पा चुकी है । अक्षरोंके साथ साथ प्रत्येक अक्षरको बतानेवाली, उसी अक्षरके आदिवाली वस्तुका रंगीन चित्र भी दिया है । पुस्तकका आकार बड़ा है । जिससे चित्र और अक्षर सब सुशोभित देख पड़ते हैं । मूल्य छह आना। वर्णमालाके रंगीन ताश-ताशोंके खेलके साथ साथ बच्चोंके वर्णपरिचय करानेके लिये हमने ताश निकाले हैं । सब ताशोंमें अक्षरों के साथ रंगीन चित्र और खेलनेके चिन्ह भी हैं । अवश्य देखिये । फी सेट चार आने । सचित्र अक्षरालिपि-यह पुस्तक भी उपर्युक्त “ सचित्र अक्षरबोध " के ढंगकी है। इसमें बाराखडी और छोटे छोटे शब्द भी दिये हैं । वस्तुचित्र सब गीन हैं । आकार उक्तं पुस्तकसे छोटा है। इसीसे इसका मूल्य दो आने है। For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) - सस्ते रंगीन चित्र-श्रीदत्तत्रय, श्रीगणपति, रामपंचायतन, भरतभेट हनुमान, शिवपंचायतन, सरस्वती, लक्ष्मी, मुरलीधर, विष्णु, लक्ष्मी, गोपीचन्द, अहिल्या, शकुन्तला, मेनका, तिलोत्तमा, रामवनवास, गजेंद्रमोक्ष, हरिहरभेट, मार्कण्डेय, रम्भा, मानिनी, रामधनुर्विद्याशिक्षण, अहिल्योद्धार, विश्वामित्र मेनका, गायत्री, मनोरमा, मालती, दमयन्ती और हंस, शेषशायी, दमयन्ती इत्यादिके सुन्दर रंगीन चित्र । आकार ७४५, मूल्य प्रति चित्र एक पैसा । श्री सयाजीराव गायकवाड बड़ोदा, महाराज पंचम जार्ज और महारानी मेरी, कृष्णशिष्टाई, स्वर्गीय महाराज सप्तम एडवर्डके रंगीन चित्र, आकार ८x१० मूल्य प्रति संख्या एक आना । लिथोके बढियाँ रंगीन चित्र-गायत्री, प्रातःसन्ध्या, मध्याह्न सन्ध्या, सायंसन्ध्या प्रत्येक चित्र । ) और चारों मिलकर ॥) नानक पंथके दस गुरू, स्वामी दयानन्द सरस्वती, शिवपंचायतन, रामपंचायतन महाराज जार्ज, महारानी मेरी, । आकार १६४२० मूल्य प्रति चित्र । ) आने । __ अन्य सामान्य-इसके सिवाय सचित्र कार्ड, रंगीन और सादे, स्वदेशी बटन, स्वदेशी दियासलाई, स्वदेशी चाकू, ऐतिहासिक रंगीन खेलनेके ताश, आधुनिक देशभक्त. ऐतिहासिक राजा महाराजा, बादशाह, सरदार, अंग्रेजी राजकर्ता, गवर्नर जनरल इत्यादिके सादे चित्र उचित और रस्ते मूल्य पर मिलते हैं। स्कूलोंमें किंकरगार्डन रीतिसे शिक्षा देनेके लिये जानवरों के चित्र सब प्रकारके रंगीन नकशे, ड्राईंगका सामान, भी योग्य मूल्यपर मिलता है इस पतेपर पत्रव्यवहार कीजिये। मैनेजर चित्रशाला प्रेस, पूना सिटी। असल अंगूरी हींग केवल ४ ) सेर, खालिस कस्तूरी २५) और ३५ ) तो. शुद्ध शिलाजीत ॥ ) तो. तिबती ममीरा ३) तो. खालिस कमल शहद और मुरब्बा बादाम प्रत्येक १) सेर. काश्मीर स्टोर्स, श्रीनगर नं. २५. १) सेर. . For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MI bar पवित्रअसली . आजमूदा 3 सैकडों प्रशंसा पत्र प्राप्त हाजमेकी 4) ET HI A HAPAN - प्रसिद्ध अक्सीर दवा HLENiHRMALVAL YVE फायदा न करे तो दाम वापस मिलने का पता_MAA एक दर्जन सचन्द्रसेन जैन वैद्या डिमार्क । डॉ अलग RE V तो धोक इटावा. तो धोको For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) - राष्ट्रीय ग्रन्थः १ सरल-गीता। इस पुस्तकको पढ़कर अपना और अपने देशका कल्याण कीजिये । यह श्रीमद्भगवद्गीताका सरल-हिन्दी अनुवाद है। इसमें महाभारतका संक्षिप्त वृत्तान्त, मूल श्लोक, अनुवाद और उपसंहार ये चार मुख्य भाग हैं। सरस्वतीके सुविद्वान् संपादक लिखते हैं कि यह पुस्तक दिव्य है । मूल्य जयन्त । शेक्सपियरका इंग्लैंडमें इतना सम्मान है कि वहांके साहित्यप्रेमी अपना सर्वस्व उसके ग्रन्थोंपर न्योछावर करने के लिए तैयार होते हैं । उसी शेक्सपियरके सर्वोत्तम ' हैम्लैट ' नाटकका यह बड़ा ही सुन्दर अनुवाद है। मूल्य ॥]; सादी जिल्द ॥ ३ धर्मवीर गान्धी। इस पुस्तकको पढ़कर एक बार महात्मा गान्धाके दर्शन कीजिये, उनके जीवनकी दिव्यताका अनुभव कीजिये और द० अफ्रिकाका मानचित्र देखते हुए अपने भाइयोंके पराक्रम जानिये। यह अपूर्व पुस्तक है । मूल्य । ४ महाराष्ट रहस्य । महाराष्ट्र जातिने कैसे सारे भारतपर हिन्दू साम्राज्य स्थापित कर संसारको कंपा दिया इसका न्याय और वेद न्तसंगत ऐतिहासिक विवेचन इस पुस्तकमें है । परन्तु भाषा कुछ कठिन है । मूल्य - ॥ ५ सामान्य-नीतिकाव्य । सामाजिक रीतिनीतिपर यह एक अनठा काव्य ग्रन्थ है। सब सामयिक पत्रोंने इसकी प्रशंसा की है । मूल्य इन पुस्तकोंके अतिरिक्त हम हिन्दीकी चुनी हुई उत्तम पुस्तकें भी अपने यहाँ विक्रयार्थ रखते हैं। नवनीत-मासिक पत्र । राष्ट्रीय विचार । वा० मूल्य २। वह अपने ढंगका निराला मासिक पत्र है । हिन्दी देश, जाति और धर्म इस पत्रके उपास्य देव हैं। अत्मिक उन्नति इसका ध्येय है। इतना परिचय पर्याप्त न हो तो । के टिकट भेजकर एक नमूनेकी कापी मंगा लीजिये। ग्रन्थप्रकाशक समिति, नवनीत पुस्तकालय. पत्थरगली, काशा For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाल ही छपी हुई नई पुस्तकें । पिता के उपदेश-एक आदर्श पिताने अपने होनहार विद्यार्थी पुत्रको जो चिट्ठियाँ लिखी थीं उनका इसमें संग्रह है। प्रत्येक चिट्ठी उत्तमसे उत्तम उपदेशोंसे भरी हुई है। जो पिता अपने पुत्रोंको सदाचारी, परिश्रमी, मितव्ययी, विनयवान् और विद्वान् बनाना चाहते हैं उन्हें यह छोटीसी पुस्तक अवश्य मंगाना चाहिए। मूल्य सिर्फ डेड़ आना । अच्छी आदतें डालनेकी शिक्षा-यह भी विद्यार्थियोंके लिए लिखी गई है। बहुत ही अच्छी है। मूल्य ) सिक्खोंका परिवर्तन--पंजाबका सिक्खधर्म एक सीधा साधा पारलौकिक धर्म होकर भी धीरे धीरे राजनीतिक योद्धाओंका धर्म कैसे बन गया इस ग्रन्थमें इसी बातका ऐतिहासिकदृष्टिसे विस्तारपूर्वक विवेचन • किया गया है। डाक्टर गोकुलचन्द एम. ए., पी. एच. डी., बैरिस्टरएट लाके अँगरेजी ग्रन्थ The Transformation of Sikhism का अनुवाद है। मूल्य १॥) स्वामी रामदासका जीवनचरित महाराष्ट्र केसरी शिवाजी महाराजके धर्मगुरु रामदासस्वामीका पढ़ने योग्य जीवनचरित । मूल्य । ) फिजीद्वीप में मेरे २१ वर्ष पं० तोतारामजी नामके एक सज्जन कुली बनाकर फिजीद्वीपमें भेज दिये गये थे । वहाँ वे २१ वर्ष तक रहे । उससमय उन्हें और दूसरे भारतवासियोंको जो असह्य दुःख दिये गये थे उनका इस पुस्तकमें रोमांचकारी वर्णन है । मूल्य =) स्वामी रामतीर्थ के उपदेश—पहला भाग । मूल्य । ) पद्यपुष्पांजलि-हिन्दीके प्रसिद्ध कवि पण्डित लोचनप्रसाद शर्माकी लगभग ४० कविताओंका संग्रह । कवितायें खड़ी बोलीकी हैं । देशभक्ति, जातिप्रेम, आदिके भावोंसे भरी हुई हैं। मूल्य सिर्फ छह आना । जर्मनीके विधाता-अर्थात केसरके साथी-जिन लोगों के प्रयत्न और उद्योगसे जर्मनीने वर्तमान शक्ति प्राप्त की है उन २४ पुरुषोंका संक्षिप्त चरित इस पुस्तकमें संगृहीत है। वर्तमान युद्धकी गति समझने के लिए यह पुस्तक अवश्य पढना चाहिए। मूल्य ।) मैनेजर, हिन्दीग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव बम्बई For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ते के प्रसिद्ध डाक्तर बर्मन की कठिन रोगों की सहज दवाएं। गत 30 वर्ष से सारे हिन्दुस्थानमें घर घर प्रचलित हैं। विशेष विज्ञापन की कोई आवश्यकता नहीं है, केवल कई एक दवाइयों का नाम नीचे देते हैं। हैजा गर्मी के दस्त में पेट दर्द,बादीके लक्षण मिटाने में असल अर्ककपूर अकेपूदीना [सञ्ज] मोल / डाःमः१ से४ शीशी मोल एडाःमः ।।आने / अन्दरके अथवा बाहरी पेचिश, मरोड़,ऐठन, शूल, आंव दमिटानेमें के दस्तम पेन हीलर क्लोरोडिन मोल // डाः मः।-पांच आना मोल / दर्जन रुपया | सहज और हलका जुलाबके लि. कलेज की कमजोरी मिटाने में जुलावकी गोली.. और बल बढ़ाने में- 2 गोली रातको खाकर सोये सबेरे खुलासा दस्त होगा। १६गोलियोंकी डिवी।डामः 'मोल 1 ) डाः।-] आने / 1 से 8 तक तुपांच आने पूरे हालकी पुस्तक विना मूल्य मिलती है दवा सब जगह हमारे एजेन्ट और दवा फर्राशोंके पास मिलेगी अथवा डा. एस,के, बोन ५,६,ताराचंद दत्त शौट कलकता। (इस अंकके प्रकाशित होनेकी तारीख 8-8-15 For Personal & Private Use Only