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________________ श्रीमत्पैसापुराण। ५०७ मूल् नहि ददात्यर्थं नरो दारिद्यशङ्कया। प्राज्ञस्तु वितरत्यर्थ नरो दारिद्यशङ्कया ॥ मूर्ख मनुष्य इस लिए दान नहीं करता है कि कहीं इससे मैं दरिद्र न हो जाऊँ और बुद्धिमान् ठीक इसी डरसे मैं दरिद्र न हो जाऊँ इस शङ्कासे दान करता है-अपना धन दूसरोंके उपकारमें 'लगाता है। ___ मूर्खमें और समझदारमें सिर्फ इतना ही अन्तर है ! केवल समझका फेर है ! मूर्ख समझता है कि यदि दूंगा तो खर्च हो जायगा और मुझे दरिद्र बनना पड़ेगा। समझदार सोचता है कि धनकी चाहे जितनी रक्षा की जावे; वह एक न एक दिन तो हाथसे निकल ही जायगा । तो जब मैं गरीब हो जाऊँगा तब क्या कर लँगा ? उस समय मेरे काममें भी कौन आवेगा ? इस लिए जब तक यह धन है तब तक तो दान करके ' बाहबाही' लूट लूँ। आगतानामपूर्णानां पूर्णानामपि गच्छताम् । यध्वनि संघट्टो घटानां तत् सरोवरम् ॥ श्रेष्ठ सर या तालाब वही है कि जिसके मार्ग में खाली आते हुए और भरकर जाते हुए घड़ाओंकी भीड़ लगी रहती है । श्रेष्ठ धनी भी वही है जिसके द्वारपर दान पाकर जाते हुए और दान लेनेके लिए आते हुए पात्रोंकी भीड़ लगी रहती है-जहाँसे कोई निराश होकर नहीं जाता है। नोट-लोभी पुरुषोंको उनके खजानेकी कसम है कि वे इस लेखको न पढ़ें और न दूसरोंको पढ़ने दें।। (जैनसमाचारसे.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522807
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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