________________
बोलपुरका शान्तिनिकेतन ब्रह्मचर्याश्रम।
५११
रहन सहन बहुत ही सादी है। खुले दिनोंमें छात्रगण वृक्षोंके नीचे बैठकर विद्याध्ययन किया करते हैं ! ___ अब मैं इनकी एक जीती जागती सहानुभूतिका उदाहरण देकर
अपने इस लेखको पूरा करूँगा। ___ ता० १७ फरवरीकी रात्रिको चारों ओर अँधियारी छाई हुई थी। घडीमें करीब १२ बजे होंगे। सारे विद्यार्थी निद्रा देवीकी गोदमें आराम कर रहे थे । मैं भी एक तख्ते पर सोता हुआ नींदका मजा ले रहा था । इसी समय अचानक बड़े जोरसे घण्टा बजा । मैं उठकर बाहिर आया; मगर मुझे कुछ दिखाई न दिया । थोड़ी ही देरमें मेरे कानोंमें वन, टू, श्री आदि गिनतीकी आवाज़ आई। मैं उस आवाजकी तरफ बढ़ा । इस आवाज़ तक पहुँचने भी न पाया था कि दूारी आवाज़ आई Right turn, March on Quick march । मैं आगे बढ़ कर क्या देखता हूँ कि लगभग १०० लडके हाथों में मटके लिए भागे जा रहे हैं । मालूम हुआ कि ये विद्यार्थी बोलपुरमें एक जगह आग लग गई है उसे बुझानेके लिए जा रहे हैं । बाह कैसी आचरणीय शिक्षा है ! कैसी व्यवहृत सहानुभूति है ! इन्होंने दूसरोंकी भलाईके लिए न शीतकी परवा की, और न नीदके भंग होनेका ही ख़याल किया । पाठक ! क्या आपमेसे कोई भी अपने सीने पर हाथ धर कर बता सकता है कि जगत्का कल्याण करनेको आत्मोत्सर्ग करनेवाले, प्राणी मात्रको शान्ति पहुँचाने और बडेसे बडे जीवको लेकर छोटेसे छोटे पौधेमें रहनेवाले जीव तककी रक्षाका पाठ सिखानेवाले गुरुओंका अनुसरण
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org