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________________ जैनसिद्धान्तभास्कर। ५५९ है कि श्रुतस्कन्धका अर्थ क्या है, अंग किसे कहते हैं, पूर्वका अर्थ क्या है, श्लोक, पद, चूलिका आदि किन्हें कहते हैं । यह विषय बहुत ही महत्त्वका और सर्व साधारणके लिए दुर्जेय हो रहा है। सम्पादक महाशयकी बड़ी कृपा होती, यदि वे इसका विस्तृत विवरण प्रकाशित कर देते; परन्तु भला वे इतना बड़ा परिश्रमका काम क्यों करने चले ? बिना परिश्रमके ही जो धुरन्धर विद्वान् बननेके हथखंडे जानता है वह ऐसे झगड़ेमें क्यों पड़ने लगा ? तब इस लेखमें लिखा क्या है ? महावीर भगवान्से लेकर भट्टारकोंकी स्थापना होने तककी अट्टसट्ट प्रमाणरहित बातें । एक जगह लिखा है कि " जिस समय बौद्धोंका प्रतापसूर्य मध्याह्नावस्थापर था, जिस समय बौद्धाचार्य जैनधर्मके शास्त्रों को जला जलाकर और नदियोंमें डुबोकर नष्ट भ्रष्ट कर रहे थे, मन्दिर और मूर्तियोंको तोड़ फोड़ कर अपनी मूर्तियोंकी स्थापना कर रहे थे ठीक उसी समय जैनधर्मके पुनरुद्धारक प्रधानरक्षक न्यायमार्तण्ड श्रीमदकलङ्कका अवतार हुआ ।" यह सच है कि भगवान् अकलङ्कने बौद्धधर्मके सिद्धान्तोंका खण्डन किया है। उनके साथ वादविवाद करनेकी बात भी सत्य है; परन्तु इसके लिए कोई प्रमाण नहीं है कि बौद्धवर्मके अनुयायी जैनधर्मके शास्त्रोंको जलाते या बहाते थे अथवा मन्दिर और मूर्तियोंको तोड़ते फोड़ते थे। अकलङ्कस्वामीका समय भी ऐसा नहीं था कि बौद्धधर्म जैनधर्म पर किसी तरहके अत्याचार कर सके । उस समय तक उस प्रान्तमें जैनधर्मका पूरा मोर था; वह वहाँका राजधर्म और प्रधान धर्म था । सम्पादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522807
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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