SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५८ जनहितैषी (३) बहुत सा एकने तो धन कमाया, सकल दारिद्रको उसने भगाया। . न खोया दूसरेने कुछ, न पाया, बचा निज मूलधन वह लौट आया। (४) न पूछो तीसरेका हाल भाई, निजी पूँजी सभी उसने गँवाई । कही है बात यह लौकिक यहाँपर, मगर तुम धर्मपर देखो घटाकर ॥ (५) मनुजका मूलधन नर-जन्म मानो, मिला यदि मोक्ष, तो तुम लाभ जानो। वृथा जो मूलधनको हैं गँवाते, सदा तिर्यंच गति या नरक पाते । -संशोधक। जैनसिद्धांतभास्कर। (समालोचना) जिनसेन और गुणभद्रके लेखके बाद कोई ६ पेजमें श्रुतस्कन्ध यंत्रका परिचय है। पहले एक कविता है जो निरी तुकबन्दी है। शायद उसके रचयिता स्वयं ही नहीं जानते हैं कि श्रुतस्कंध क्या चीज़ है; पर साहसकी बात है कि उसका परिचय दूसरोंको कराने चले हैं। परिचयके गद्यलेखको पढ़कर भी कोई यह नहीं जान सकत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522807
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy