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________________ विचारशक्ति। ५२३ विचारशक्तिमें लोह-चुम्बक सदृश एक महान् सिद्धान्त समाया हुआ है : उसे मैं यहाँ स्पष्ट कर देता हूँ । कल्पना करो कि एक मनुष्य अच्छा शिक्षित है और वह अच्छे घरानेका है। किसीने उसकी बिना कारण निंदा की और अनुचित रूपमें उसका अपमान और बदनाम किया; परन्तु उसकी ऐसी स्थिति नहीं कि वह अपनी निदोषता प्रगट कर सके । वह एक प्रतिष्ठित कुलका और समझडार है इसलिए अपनी निंदा करनेवाले शत्रुके पास जाकर न उसे वह थप्पड़ जमा सकता है, न जवाब दे सकता है और न गालियाँ सुना सकता है । इससे वह चुप हो रहता है । इस अवस्थामें यद्यपि वह बाहरसे शान्त दीख पड़ता है; परन्तु वास्तवमें उसके अंतरंग वैरके विचार उठा करते हैं। ___ ऐसे ऐसे दुष्ट विचारोंमें कि-बुरा हो उस दुश्मनका-उसका मन फँसा ही रहता है । इतना ही नहीं किन्तु मेरा शत्रु दुःख भोग रहा है, उसका अपमान हो रहा है, उसे अच्छा दण्ड मिल रहा है इत्यादि कल्पना उठा-उठाकर वह अपनेको सुखी समझता है। यद्यपि प्रगटम वह बोलता नहीं तथापि जो विचार उसके दिलमें उट रह है अथवा जो निर्दयताके चित्र वह अपने दिलमें खींच रहा है उनका बुरा असर हुए विना नहीं रहता । विचारशक्ति एक महत्त्वकी चीज़ है। उसे हम मनरूपी द्रव्यकी बनी हुई एक मानसिक आकृति कह सकते हैं । वे विचाररूपी आकृतियाँ विचार करनेवाले मनुप्यके मस्तकमेंसे सीधी उस मनुष्यकी ओर शीघ्रतासे जाती हैं कि जिसके विषयमें विचार किये गये हों और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522807
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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