________________
जैनहितैषी
है। धनियोंकी मृत्युके बाद तो उनके धनसे और उनकी स्त्रियोंसे दूसरे लोग क्रीडा करते हैं, मौज उड़ाते हैं। ___ भाई कविराज, तुमने गजबकी बात कह दी ! ऐसा ' कडुआ सत्य ' कहकर तुम धनियों पर चोट करते हो और उनका ' डफे. मेशन' करते हो ! जान पड़ता है कि इस तरहकी सलाह देनेवाले बैरिस्टर लोग तुम्हारे जमाने मौजूद न थे ! __ भला तुमने यह बात भी साफ साफ़ क्यों न बतला दी कि वे भागनेवाले दूसरे लोग कौन होते हैं ? ट्रम्टी (पंच ) ! साले ? जवान विधवाके नौकर ? या और कोई साहब ? तुम्हारे सारे ग्रन्थका अथसे इति तक पाठ कर जाने पर भी इस प्रश्नका उत्तर नहीं मिला । शायद तुम्हें उस समय इस बातका ज्ञान न होगा; परन्तु अब तो तुम देवपर्यायमें हो ! अच्छा तो अब अपने अवधिज्ञानक बलसे जानकर बतला दो कि धनियोंके धनसे और स्त्रियोंसे : दुसरे ' कौन क्रीडा करते हैं ? बना दो भैया! दो चार श्लोक और भेज दो विना तारके तारद्वारा !
( ४ ) वही कवि और भी कह गया है कि:· न दातुं नोपभोक्तुं च शक्नोति कृपणः श्रियम् ।
किन्तु स्पृशति हस्तंन नपुंसक इव स्त्रियम् ॥ कृपण लोग अपनी लक्ष्मी न किसीको दे सकते हैं और न स्वयं भोग ही सकते हैं; केवल उसके ऊपर, एक नपुंसक या नामर्दके समान हाथ फेरा करते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org