Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 44
________________ जैनहितैषी - “ शाकटायनोऽपि ग्रापनीययतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावादौ भगवतः स्तुतिमेवमाह । ( नन्दिसूत्र पृष्ठ २२, कलकत्ता) लेखक महाशय इससे दो बातें सिद्ध करते हैं, एक तो यह कि शाकटायन दिगम्बर थे । क्योंकि यापनीय संघ दिगम्बर संघों में से एक है जिसका उल्लेख इंद्रनन्दिने अपने नीतिसार में किया है और शाकटायन इसी संघ आचार्य थे। दूसरी यह कि देवसेनसूरिने द्राविडं संघकी उत्पत्ति विक्रमकी मृत्युके ५२६ वर्ष बाद बतलाई है और नीतिसारके अनुसार यापनीय संघ द्राविड़संघसे पीछे हुआ है। अतः शाकटायन ५२६ से पीछे किसी समय हुए हैं। प्रो० पाठक इन्हें जो राजा अमोघवर्ष के समय में बतलाते हैं सो ठीक जान पड़ता है। इस विषय में हमारा निवेदन यह है कि जब तक इस बात का अच्छी तरह निश्चय न हो जाय कि यापनीय संघ या सम्प्रदाय के सिद्धान्त क्या हैं, उसके सिद्धान्तों में और दिगम्बर श्वेताम्बर के सिद्धान्तोंमें क्या अन्तर है तब तक उन्हें दिगम्बर श्वेताम्बरकी अपेक्षा यापनीय कहना ही अधिक युक्तियुक्त जान पड़ता है नीतिसार में इन्द्रनन्दिने यापनीय संघको श्वेताम्बरके ही समान पृथक् सम्प्रदाय माना है और उसे पाँच जैनाभासोंमें गिनाया है। यद्यपि उन्होंने काष्ठासंघको भी जैनाभास ही बतलाया है जो बहुत ही सूक्ष्म- नहींके बराबर - मतभेद रखता है, इसलिए हम इसे भी वैसा समझ सकते थे, परन्तु दर्शनसारके कर्त्ता देवसेनके कथनानुसार यह संघ श्रीकलश नामके श्वेताम्बर से चला है । इससे सन्देह व कि शायद इसके सिद्धान्त दिगम्बरकी अपेक्षा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से अधिक मिलते-जुलते हों । ५५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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