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जैनहितैषी
लेख लिखनेवाले विद्वानोंने उनका सम्बन्ध यदुवंश या सोमवंशने मिला दिया हो । इन्हें शुद्ध क्षत्रिय सिद्ध करनेके लिए डा० भाण्डा रकरकी युक्तियोंका सप्रमाण खण्डन करनेकी आवश्यकता है।। . एक जगह महाराजा अमोघवर्षकी प्रशंसा करते हुए आप लिखते हैं कि “ यदि यह कहा जाय कि उस समय सारे भारतवर्ष आपका एक-छत्र राज्य था तो हमारी समझमें कुछ अत्युक्ति न होगी।" आपकी समझमें अत्युक्ति तो कोई चीज़ ही नहीं है। फिर वह होगी ही क्यों ? और आप इतिहास थोड़े ही लिखते हैं। आल्हा या पँवारा लिखते हैं उसमें अत्युक्तिका डर ही क्या ? आप तो उन्हें भारत ही क्यों भारततर देशोंके भी सम्राट् बतला देते तो कुछ हर्ज न था । परन्तु वास्तवमें अमोघवर्ष महाराजके सिवाय उस समय भारतमें अनेक स्वतन्त्र राजा थे जो उनकी आज्ञा न थे। यह अवश्य है कि वे बड़े राजा थे और अनेक राज उनके आज्ञाकारी थे। ___ पृष्ठ ७६ में आपने अपनी बुद्धिसे एक नया आविष्कार किय है । वह यह कि गणितसारसंग्रहको आपने जिनसेनस्वामीके गुरु, वीरसेनाचार्यका बनाया हुआ बतलाया है। पर इसे सिवाय मूर्खताके और क्या कहा सकते हैं । गणितसारसंग्रह छपकर प्रकाशित हो चुका है । वह वीरसेनका नहीं किन्तु महावीराचार्यका रचा हुआ है और ये महावीर अमोघवर्षके ही समयमें हुए हैं । भास्करके इसी अंकमें जो सेनसंघकी पट्टावली प्रकाशित की गई है उसमें भी
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