Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 48
________________ जैनहितैषी - यक्ष प्रसादसे प्राप्त हुए थे। इन सब बातोंका उल्लेख भी जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयमें मिलता है । यथा: ५५४ 66 " तच्छिष्यानुक्रमे यातेऽसंख्येये विश्रुतो भुवि । गोविन्द भट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्ववर्जितः ॥ ३० ॥ ११ ॥ देवागमनसूत्रस्य श्रित्या सद्दर्शनान्वितः । अनेकान्तमतं तत्त्वं बहु मेने विदाम्बरः ॥ १२ ॥ नन्दनास्तस्य संजाता वर्धिताखिलकोविदः । दाक्षिणात्याटयन् तत्र ( जयन्त्यत्र ) स्वर्णयक्षीप्रसादतः १३ श्रीकुमार कविस्तथा (सत्य) वाक्यो देवरवल्लभः । उद्यद्भूषणनामा च हस्तिमल्लाभिधानकः ॥ १४ ॥ वर्धमानक विश्वेति कवीश्वराः षड्भूवन इसके सिवाय ' जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय ' से इस बात का भी पता चलता है कि हस्तिमलकविका कुछ सम्बंध सरण्यापुरिके पाण्ड्यमहीश्वर नामके राजासे रहा है । आश्चर्य नहीं कि इस मरण्यापुरीमें हस्तिमल्लका निवासस्थान भी रहा हो । हस्तिमलने एक मदोन्मत्तहस्तिका, जो उन्हें मारने के लिए आता था, मद उतारा था और एक जिनमुद्राधारी धूर्त्तको एक ही श्लोकसे निर्मंद कर दिया था इस लिए उनका नाम मदेभमल्ल ( मदहस्तिमल ) प्रसिद्ध हुआ और वे कवि चक्रवर्ती भी कहलाते थे । यथा:-- I " सम्यत्त्वे सपरीक्षितुं ( ) मदगजे मुक्ते सरण्यापुरे - श्वास्याः पाण्ड्य महीश्वरेण कपटाद्धन्तुं स्वमभ्यागते । शैलूषं जिनमुद्रधारिणमपास्यासौ मदध्वंसिनाश्लोकेनापि मदेभमल्ल इति यः प्रख्यातवान् सूरिभिः ॥ १६ ॥ Jain Education International -- "> * १ ये सब पद्य हस्तिमल्लकृत विक्रान्तकौरवीय नाटककी प्रशस्ति हैं । जान पड़ता है इन्हें जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयमें उद्धृत कर लिया है | सम्पादक । * इस पद्य नं. १५ का उत्तरार्ध दौर्बलि शास्त्री की प्रतिमें नहीं मिला ।-लेखक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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