Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 34
________________ ५४० जैनहितैषी रचना हुई है । इसमें कर्मोंके क्षयका तथा शुद्ध दर्शन ज्ञान चारित्रके प्राप्त होनेका उपाय संक्षेप रूपमें वर्णन किया गया है।' भाषा यथेष्ट सरल और शुद्ध है । इस विषयको विद्यार्थी बिना कष्टके समझ लेंगे । हम आशा करते हैं कि राय साहब इस तरहकी और भी दो चार पुस्तकोंको निर्माण करके विद्यार्थियोंका उपकार करनेकी कृपा करेंगे । पुस्तक पर मूल्य नहीं लिखा । जैनप्रभात-इन्दौरके सेठोंकी कृपासे मालवा प्रान्तिकसभा कुछ दिनोंसे खूब चेत गई है । बहुत दिनोंसे विचार करते करते अब उसने इस नामका एक मासिकपत्र भी निकालना शुरू कर दिया है। इसके सम्पादक हैं हरदानिवासी बाबू सूरजमलजी जैन । वार्षिक मूल्य १।) है । दूसरा अंक हमारे सामने उपस्थित है। यह उसकम विशेष अक है । इसमें हितैषीके आकारके ११२ पृष्ठ हैं । बाबू सूरजमलजीके विचार उदार और समयकी गतिके अनुसार जान पडते हैं। यदि प्रान्तिकसभाके धर्मात्मा संचालकोंको कट्टरताने न बहकाया तो आशा की जाती है कि आपके द्वारा इस पत्रकी अच्छी उन्नति होगी और समाजकी यह खासी सेवा करेगा । लेखशैली अच्छी है । एक दो जगह सम्पादकने बड़ी निर्भीकतासे कलम चलाई है। जैनसमाजके गण्यमान्य पण्डित न्यायदिवाकर पन्नालालजीकी जो घृणित पोल खोली गई है उसे उक्त पण्डितजी जीवनभर स्मरण रक्खेंगे । खेद है कि ऐसे (प्रभातके शब्दोंमें ) स्वार्थी छली, कपटी, क्रोधी, निर्लज्ज लोग भी मूर्ख जैनममाजमें पूजे जाते हैं और समाजमें सदसद्विवेक बुद्धिका प्रवाह बहानेवाले दूसरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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