Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 09
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 40
________________ जैनहितैषी - जह्नोः कन्यां जटाग्रेण बभार परमेश्वरः । श्रीवर्धदेव संधत्से जिह्वाग्रेण सरस्वतीम् ॥ अर्थात् महादेवजीने जटाओंके अग्रभागमें गंगाको धारण किया और श्रीवर्धदेवने जिह्वाके अग्रभाग में सरस्वती ( एक नदीका भी नाम है ) को धारण किया ! ५४६ इससे ये महाकवि दण्डीके समकालीन जान पड़ते हैं । इनको तुम्बुलूराचार्य भी कहते हैं । क्योंकि ये तुम्बुलूर ग्रामके रहनेवाले थे । ये सिद्धान्तग्रन्थोंके टीकाकार भी हैं। आर्यदेव -- कोई सिद्धान्तग्रन्थ । आचार्यवर्यो यतिरार्यदेवो राद्धान्तकर्त्ता प्रियतां स मूर्ध्नि । यः स्वर्गयानोत्सवसीनि कायोत्सर्गस्थितः कायमुदुत्ससर्ज । आर्यदेव किसी सिद्धान्तग्रन्थके कर्त्ता थे । उन्होंने कायोत्सर्ग धारण किये हुए ही शरीर छोड़ दिया था । अनन्तकीर्ति जीवसिद्धि और सर्वज्ञसिद्धि । वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरितके प्रारंभ में लिखा है: आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धिं निबध्नता । अनन्तकीर्तिना मुक्तिमार्गो x x वलक्ष्यते ॥ इससे मालूम होता है कि अनन्तकीर्तिका बनाया हुआ कोई जीवसिद्धि नामका ग्रन्थ है । एक सर्वज्ञसिद्धि नामका ग्रन्थ भी १ जीवसिद्धि नामका एक ग्रन्थ स्वामिसमन्तभद्रका भी बनाया हुआ है । जिसका उल्लेख हरिवंशपुराणकी भूमिका में मिलता है । २ सर्वज्ञसिद्धि में एक जगह कालिदास और उनके कुमारसंभव काव्यका उल्लेख है । Jain Education International For Personal & Private Use Only • www.jainelibrary.org

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