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बहुतसे इतिहासकारोने ऐसा नहीं लिखा। विन्सैन्ट स्मिथनेवडी दबी जवानसे लिखा है कि पुराणोंके अनुसार सप्रति जैनधर्मपर कृपादृष्टि रखते थे। गुजरात और दक्षिणके अनेक जैन राजाओंका प्रायः उल्लेख ही नहीं मिलता। यह तो राजा महाराजाओंके विपयकी बात हुई, अब अन्थकारों और विद्वानोका हाल यह है कि हजारों जैनप्रथ जैनमतके विरोधियोंने जलमें डुबो दिये अथवा वे ईधनकी जगह काममे लाये गये, बहुतसे कीटादिके भक्ष्य बन गये, कुछ विरोधियोंने चुरा कर और उनमें इधर उधर परिवर्तन करके और नाम बदल कर अपने बना लिये, * बहुतसे सात तालोंके भीतर पडकर जीर्णशीर्ण हो गये
और उनको वायु और सूर्यके दर्शन तक नहीं होते। शेषकी दशा भी बड़ी शोचनीय है। सर्व साधारणने पचतत्रके कर्त्ताको वैदिक धर्मानुयायी ही मान रक्खा था किन्तु हर्षका विषय है कि एक विदेशी विद्वाने यह सिद्ध कर दिया है कि इसके कर्त्ता जैन थे। श्रीजिनसेन, शाकटायन, श्रीमहावीराचार्य इत्यादिकी विद्वत्ता अभी सर्व साधारण पर प्रकट ही नहीं हुई। श्रीबर्द्धमान महावीर स्वामीके पश्चात्के इतिहासकी जब यह दशा है तो उनके पूर्वके इतिहासका क्या कहना ? श्रीऋषभदेव आदि तीर्थंकरोंको तो पूछता ही कौन है ?
इस प्रकारकी और भी सैकड़ों बातें लिखी जासकती हैं। इन्हींके कारण हमारे महत्त्वसे सर्व साधारण वचित हैं। यदि इनकी सत्यता प्रकाश कर दी जाय तो हमारी श्रेष्ठता सर्वसाधारणके हृदयपर अकित हो जाय। अतएव हमारा यह परम कर्तव्य है कि इस ओर ध्यान दें और अपने प्राचीन शिलालेख, ताम्रपत्र इत्यादि खोज कर जैन इतिहासका उद्धार करें और सर्व साधारण पर उसका तिमिरनाशक * लेखक महाशयको ऐसे किसी एकाध प्रन्थका प्रमाण देना था।
-सम्पादक।