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स्कूलो और कालिजोकी ऐतिहासिक पुस्तकोंमें ऐसी बहुतसी बातें मिलती हैं। विशेषकर इन पुस्तकोंमें जैनधर्मका संस्थापक श्रीमहावीर स्वामीको ही बतला दिया है और किसी किसी पुस्तकमें श्रीपार्श्वनाथको लिखा है। कहीं पर जैनमत बौद्धधर्मकी शाखा मात्र' है, अथवा जैनधर्मकी वैदिक धर्मसे उत्पत्ति हुई ऐसे भी उल्लेख हैं। मगधाधिपति श्रोणिक महाराज (अपर नाम विम्बसार ) को पाश्चात्य विद्वानोने जैन लिखा ही नहीं। यही बात उनके पुत्र कोणिक (अपरनाम अजातशत्रु) के विषयमें है। मौर्यवशी महाराज चंद्रगुप्त (दीक्षित नाम प्रभाचंद्र) को-जो श्रीभद्रवाहस्वामीके शिष्य थे कई विद्वानोंने बौद्धधर्मावलम्बी बताया है। उनके पौत्र महाराज अशोकने तेरह वर्पतक जैनधर्म पालन किया और इसके पश्चात् धर्मपरिवर्तनकरके बड़े जोरोशोरसे बौद्ध मतका प्रचार किया। उनके समयके अनेक स्तम्भ, शिला इत्यादि अब तक विद्यमान हैं जिनके लेख इस वातको सूचित कर रहे है कि महाराज अशोकने वौद्धधर्मका प्रचार किया था। परन्तु खेदका विषय है कि उनके बौद्धधर्म ग्रहण करनेके पूर्वके शिलालेख आजतक कोई मिले ही नहीं और यदि अन्वेषण किया जाय तो उनकी प्राप्ति बहुत सम्भव है। इसी आधार पर विद्वानोकी बहुसम्मति यही है कि महाराज अशोक कभी जैन थे ही नहीं, किन्तु कोई कोई तो यह कहते है कि वह प्रारम्भमें वैदिक धर्मके अनुयायी थे अशोकके पुत्र सप्रति जिन्होंने अपनी राजधानी उजैन बनाई थी जैनधर्मानुयायी थे; किंतु
* अशोक जैनधर्मके अनुयायी थे, सचमुच ही इसका अब तक कोई सुबूत नहीं मिला है। जैनग्रन्थों में भी इस विषयका कोई उल्लेख नहीं। अशोकके एक शिलालेखमें लिखा है कि मेरी भोजनशालामें पहले बहुतसे पशुओंका घात किया जाता था, पर अब केवल एक जीवकी हत्या होती है और आगे वह भी नहीं होगी। इससे यही सिद्ध होता है कि बौद्ध होनेके पहले अशोक वेदानुयायी थे। सम्पादक जै० हि ।