________________ नय, अनेकान्त और विचार के नियम आचार्य श्री महाप्रज्ञजी जैन दर्शन की विचार-सरणि पर चिन्तन करते समय हम सम्यक् दर्शन की उपेक्षा नहीं कर सकते। विचार ज्ञान का एक आयाम है / सम्यक् दर्शन मोह-विलय की चेतना का एक आयाम है / हमारे पास जानने के दो स्रोत हैं - इन्द्रिय-चेतना और अतीन्द्रिय-चेतना / विचार का सम्बन्ध इन्द्रिय-चेतना से है / अतीन्द्रिय चेतना में दर्शन है, साक्षात्कार है, वहाँ विचार नहीं है। जैन दृष्टि के अनुसार इन्द्रिय-चेतना से होने वाला ज्ञान द्रव्य के अंश का ज्ञान है, समग्र द्रव्य का ज्ञान नहीं है। इन्द्रिय-चेतना वाला व्यक्ति द्रव्यांश को जानता है / वह अंशज्ञान विवाद का विषय भी बनता है। पांच व्यक्ति किसी एक द्रव्य के पांच अंशों का ज्ञान करते हैं और अपने-अपने ज्ञान को सम्यक् मान दूसरे के ज्ञान को मिथ्या मान लेते हैं / इस मिथ्यावाद को सम्यग्वाद बनाने का एक उपाय खोजा गया, वह है नयवाद / नय एक दृष्टि है, एक विचार है / सिद्धसेन दिवाकर ने लिखा-जितने वचन के पथ हैं, उतने ही नय हैं - जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुंति नयवाया / यह विस्तारवादी दृष्टिकोण चिन्तन के क्षेत्र को दुर्गम बना देता है। श्रोता अथवा जिज्ञासु के लिए किसी निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन हो जाता है। इस समस्या को सुलझाने के लिए जैन आचार्यों ने संपूर्ण विचार के क्षेत्र निर्धारित किए - 1. द्रव्यार्थिक नय - ध्रौव्य अथवा नित्य के विषय में होने वाला चिन्तन / 2. पर्यायार्थिक नय - उत्पाद-व्यय अथवा अनित्य के विषय में होने वाला चिन्तन / विचार की सुविधा और सत्यपरक के लिए इन दो क्षेत्रों का निर्धारण किया गया / वास्तव में ध्रौव्य और उत्पाद-व्यय अथवा नित्य और अनित्य को सर्वथा विभक्त कर विचार को सत्यपरक नहीं बनाया जा सकता / ध्रौव्य का प्रतिपादन करने के लिए द्रव्यार्थिक नय और परिवर्तन का प्रतिपादन करने