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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १९
उसने कहा – हमारे बाप-दादा को किसी पागल कुत्ते ने तो नहीं काटा था, जो चोरी करते थे, बल्कि वे अपनी खानदान की परम्परा की रक्षा करते थे। मेरे पिताजी ने मुझे सिखाया। मैंने अपने बच्चों को सिखाया । यदि मेरे बच्चे चोरी करते हैं तो कोई बुरा काम नहीं करते। वे अपनी खानदान की परम्परा की रक्षा करते हैं । आप उसमें क्यों व्यवधान करते हो ?
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तब मदनसिंह के चुप रहने पर गुरुजी ने कहा - ठीक है, पर मैं आपसे पूछता हूँ कि आपके खानदान की एक परम्परा यह थी कि अनपढ़ रहना यानि किसी को नहीं पढ़ाना व पढ़ना । तब आपने अपने पुत्र को क्यों पढ़ाया ? क्या इससे आपकी परम्परा नहीं टूटती है ? यदि इससे आपकी परम्परा नहीं टूटती है तो चोरी करना छोड़ने से भी परम्परा नहीं टूटेगी, क्योंकि चोरी करना भी खराब काम है व अनपढ़ रहना भी खराब काम है । गलत कार्य को छोड़ना ही चाहिये । गलत कार्य को छोड़कर सत्य कार्य पर चलने वाला ही समझदार व्यक्ति होता है । रूढ़िवादिता पर चलने वाला अंधविश्वासी व पाखंडी होता है। आपके खानदान का व्यवसाय चोरी का ही रहा है, किन्तु अब तो उसे छोड़कर बच्चों को सही मार्ग पर चलने दो। चोरीवालों की क्या हालत होती है, कम से कम तुम्हें तो यह बताने की आवश्यकता नहीं; क्योंकि तुम स्वयं ही भुक्तभोगी हो । तब बीच में ही कर्णसिंह बुजुर्गों की भाँति बोला- नहीं गुरुजी.. हम अपने खानदान की परम्परा को नहीं तोड़ेंगे।
तब छोटा पुत्र हिम्मतसिंह बोला - गुरुजी... आप सही कहते हैं। मैं अब चोरी कभी नहीं करूँगा, क्योंकि मेरे पिताजी चोरी करते हैं तो वे अधिकतर जेल में रहते हैं, अत: हमें उनका पूरा स्नेह भी नहीं मिल पाता है । वे अपने घर की व्यवस्था को भी सही तरीके से नहीं देख पाते हैं । मम्मी भी खूब परेशान रहती है।
तब कक्षा में सभी छात्रों ने एक साथ हिम्मतसिंह की बात पर ताली बजाकर उसका स्वागत किया। गुरुजी ने कर्णसिंह व उसके पिता को बहुत