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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९ जैसे - हिलना, बोलना, खाना, पीना, बीमार होना, स्वस्थ्य होना आदि। दूसरा चेतन तत्त्व उस समय भी उससे भिन्न ही रहा, जानने-देखने वाला ही रहा, वह कभी पुद्गल में गया नहीं, पुद्गलरूप हुआ नहीं। फिर भी अज्ञानी उसके ऊपर कलंक लगाता है कि जड़ की क्रिया का कर्ता यह जीव है। तो कलंक लगाने वाले उस अज्ञानी से ज्ञानी पूछते हैं कि हे भाई !
क्या जीव को जड़ की क्रिया करते तुमने देखा है ? नहीं क्या तुम अतीन्द्रिय अरूपी जीव को जानते हो ? नहीं क्या जीव के अन्दर तुमने पुद्गल की कोई क्रिया देखी है ? नहीं
तो फिर, अरे अज्ञानी ! जिस जीवतत्त्व को जड़ का काम करते तुमने देखा नहीं, जो जीवतत्त्व शरीर के पुद्गलरूप हुआ नहीं तथा जिस जीवतत्त्व में जड़ शरीर की कोई निशानी नहीं - ऐसे अतीन्द्रिय अरूपी जीवतत्त्व के ऊपर तुम जड़ पुद्गल के साथ सम्बंध का मिथ्या आरोप लगाते हो, तुम्हें मिथ्यात्व का महापाप लगेगा। चैतन्यतत्त्व के अवर्णवादरूप महा-अपराध की तुझे सजा मिलेगी। तू चार गति की जेल में अनन्त दुःख भोगेगा।
इसलिए तू समझले कि जड़ की क्रिया और ज्ञान की क्रिया - दोनों एक साथ होने पर भी दोनों के कारण-कार्य बिल्कुल भिन्नभिन्न हैं। ____ अन्त में वह कृषक बोला- यह तो मुझे भलीप्रकार समझ में आ गया। परन्तु अपनी चर्चा के बीच में निमित्त-उपादान के नाम आये थे। ये क्या हैं ? कृपया इनका भी स्वरूप बताइये न ? ___ जो पदार्थ स्वयं तो कार्यरूप न परिणमे, परन्तु कार्य के होने में जिस पर आरोप किया जा सके उसे निमित्त कहते हैं। तथा जो स्वयं कार्यरूप परिणमे उसे उपादान कहते हैं।
इसकी विस्तृत चर्चा फिर कभी करेंगे अथवा जब रविवारीय कक्षा में आओगे तब समझ लेना।