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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१९
देखो ! धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व मेरू सम्बन्धी पूर्व विदेहक्षेत्र है। जो सद्धर्म और तीर्थंकरादि से सुशोभित है। उस क्षेत्र के पुण्यकलावती नामक देश में एक रूपाचल नाम का पर्वत शोभायमान है, जो कि ऊँचा है, जिन-चैत्यालयों से विभूषित है तथा मेरू के समान दिखता है। उस पर्वत की दक्षिण श्रेणी में आदित्याभ नाम का सुन्दर नगर है। उसमें पुण्यकर्म के उदय से कुण्डल से सुशोभित सुकुण्ड नाम का राजा राज्य करता था, उसकी रानी का नाम अमिततेजसेना है। मैं उन दोनों का पुत्र मणिकुण्डल हूँ।
पुण्डरीकिणी नगरी में अतिप्रभ नामक केवली भगवान के पास जाकर उनको नमस्कार करके मैंने अपने पूर्व भव की कथा पूछी थी। भगवान ने जो कथा मुझसे कही थी वही कथा मैं तुमको कहना चाहता हूँ; क्योंकि तीर्थंकर वाणी में आई हुई वह कथा बहुत ही सुन्दर और तुम दोनों की हितकारक है। देखो ! पुष्करद्वीप में जिन चैत्यालयों का आश्रयभूत पश्चिम मरु पर्वत है, उसकी पूर्व तरफ त्रिवर्णाश्रम से सुशोभित विदेहक्षेत्र है। उसमें एक वीतशोका नगरी है। उसमें चक्रायुध नाम का राजा राज्य करता था तथा उसकी पुण्यशालिनी रानी का नाम कनकमाला था। कनकमाला की कनकलता तथा पद्मलता नाम की दो पुत्रियाँ थी। उसी राजा की विदुन्मती नाम की दूसरी पतिव्रता रानी थी। उसके पद्मावती नाम की पुत्री थी। सब मिलकर धर्म के प्रभाव से अनेक प्रकार के सुखों का उपभोग करते थे।
एक दिन रानी कनकमाला पुण्यकर्म के उदय से अपनी दोनों पुत्रियों के साथ अमितसेना आर्यिका के पास पहुँची और उनके समीप जाकर नमस्कार किया तथा काललब्धि प्राप्त हो जाने से सबने गृहस्थधर्म स्वीकार किया। वे सब सम्यग्दर्शन पूर्वक व्रतों का पालन करके प्रभाव से स्त्रीलिंग को छेदकर सौधर्म स्वर्ग में महाऋद्धिधारी देव हुए। पद्मावती भी मरकर अपने पुण्योदय से सौधर्म स्वर्ग में एक अप्सरा हुई, जो कि अत्यन्त गुणवती थी। वे सभी देव धर्म के प्रभाव